अमेरिका की एक चौंकाने वाली घटना की खबर पढ़ी। संभव है आपके नजरों से भी गुजरी हो। खबर यह थी कि एक पति ने अपनी पत्नी को ..गैंगरेप.. का गिफ्ट दिया। पकड़े जाने के बाद उसने अदालत से कहा कि उसकी पत्नी अक्सर उससे ..बलात्कार.. के रोमांच के बारे में चर्चा किया करती थी।
मुङो महसूस हुआ कि यह रोमांच उसके जीवन की सबसे बड़ी ख्वाहिश है। पत्नी ने अदालत में इस वाकए की तस्दीक की।
अभी नेवादा (एक अमेरिकी प्रान्त) के एक सिनेटर की राय न्यूयार्क टाइम्स में छपी कि यदि देश में वैश्यावृत्ति को कानूनी तौर पर निगमीकृत कर दिया जाए तो उससे प्राप्त होने वाले टैक्स की रकम से आर्थिक मंदी से राहत पा सकते हैं। यह अमेरिका बिल क्लिंटन और मोनिका लेवस्की का देश है, जहां का राष्ट्रपति ..वियाग्रा.. की लांचिंग के पहले खुद को प्ले ब्वाय मॉडल के तौर पर पेश करने में भी नहीं हिचकता क्योंकि उसके देश को दुनिया की खरबों की सेक्स व पोर्न इन्डस्ट्री में लॉयन शेयर (बड़ा हिस्सा) चाहिए।
अमेरिका के इन उदाहरणों के साथ बात इसलिए शुरू की क्योंकि यह उसकी उस उदात्त संस्कृति का नमूना है, जिस उदात्त संस्कृति की ओर हम नव उदारीकरण के बाद तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। यह देश हमारे नीति-नियंताओं के लिए न सिर्फ आर्थिक और सामरिक क्षेत्र का प्रेरणास्नेत व तारणहार है अपितु उसकी सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना की ओर भी हम ललचाई नजर से देखते हैं और वैसा ही हो जाना चाहते हैं। मुश्किल यह है कि जब हम किसी संकट में फंसते हैं तो अपनी भारतीय संस्कृति का पीतांबर ओढ़ने की चेष्टा करते हैं और पुरातन मूल्यों की दुहाई देने लगते हैं। क्या हमें उन कारणों की ओर नहीं जाना चाहिए जिनकी वजह से दिल्ली के दुराचारियों की नस्लें और फसलें पलती-बढ़ती और फलती-फूलती हैं। दिल्ली के दुराचारी तो दस में से एक हैं। शेष नौ तो हमारे अपने हैं, जो घर में दफ्तर में नात रिश्तेदारों के रूप में या पड़ोस में रहते हैं। जी हां! नेशनल क्राइम ब्यूरो आफ रेकार्ड के बहुप्रचारित आंकड़े बताते हैं कि देश में हर 21 सेकन्ड में एक दुष्कर्म होता है और दस में से नौ घटनाओं में घर-पड़ोस या रिश्तेदारी का आदमी शामिल होता है। हम क्या दस में एक के लिए फांसी की मांग उठा रहे हैं? दरअसल हम एक सांस्कृतिक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। इस संक्रमण ने हमारे सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों के तानेबाने को रुग्ण करना शुरू कर दिया है। हमारे चारों ओर प्रायोजित तरीके से ऐसा वातावरण व ऐसी सोच थोपी जा रही है, जो यूरोप और अमेरिका की उदात्त संस्कृति के निकट ले जाती है। सुबह से लेकर शाम तक खान-पान, रहन-सहन, मनोरंजन, शिक्षा-दीक्षा के रूप में जो परोसा जा रहा है, उसी की परवरिश का फल है कि कथित दुराचारियों की नस्ल और फस्ल तैयार हो रही है। पाश्चात्य की उदात्त संस्कृति और हमारी भारतीय संस्कृति में उतना ही फर्क है जितना कि दिन और रात में। इन दोनों संस्कृतियों का घालमेल हरगिज नहीं हो सकता। हम ऊहापोह की स्थिति में इसलिए हैं कि पीताम्बर भारतीय संस्कृति का ओढ़ते हैं और लालसा अमेरिका-यूरोप की उदात्त संस्कृति की रखते हैं। दिल्ली के दुराचार काण्ड ने कई बहसों को जन्म दिया है। उन्हें हम छिछले तौर पर नहीं देख सकते और न ही डस्टबिन में डाल सकते हैं। पिस्तौल की तरह मुंह में माइक अड़ाकर और वक्तव्यों के कटपीस को सनसनी बनाकर आइटम पेश करने वाले चैनलों ने एक ऐसा भ्रमजाल निर्मित कर रखा है कि उन लोगों को भी सच कहने का साहस नहीं होता जिन लोगों से देश व समाज को उम्मीदें हैं।
हमारी लोक परंपरा संस्कृति में पग-पग पर मर्यादाओं की सीमा रेखा है, एक-एक बातें सुस्पष्ट और परिभाषित हैं। वैदिक काल से ही हमारा सामाजिक ताना-बाना नारी सम्मान के इर्द िगर्द बुना गया है। रामायण और महाभारत जो भारतीयों के रगों में खून के साथ चेतना बनकर संचारित होता है वह नारी सम्मान के लिए रचा गया। यहां तो नारी के साथ दुराचार करने वालों को फांसी की सजा मांगी जा रही है। रामायण काल में तो सीता के साथ दुराचार की चेष्ठा करने वाले रावण के कुल का ही नाश कर दिया गया। द्रोपदी पर कुदृष्टि डालने वाले कौरवों का भी ऐसा ही अंत हुआ। माता भगवती सती का अपमान तो उनके पिता प्रजापति दक्ष ने किया था पर महादेव शिव व उनके गणों ने दक्ष के समूचे साम्राज्य को तहस-नहस करके रख दिया। वैदिक वांग्मय में नारी शक्ति स्वरूपा हैं, वे सिंहवाहिनी हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा पवित्र और पूज्य शिवलिंग को माना जाता है। वह ज्योतिर्मय है। सृष्टि के सृजन का प्रतीक। शिवलिंग क्या है, माता भगवती की योनिस्वरूपा जलहली में स्थापित लिंग। भारतीय और पाश्चात्य सांस्कृतिक मूल्यों का संघर्ष इसी बिन्दु से शुरू होता है। पवित्र-पूज्य और भौतिक भोग्य के बीच। यह हमें तय करना है कि हम पवित्र व पूज्य की सनातन परंपरा के साथ हैं या भौतिकता की भोगवादी परम्परा के साथ हैं। पाश्चात्य संस्कृति इसी की पोषक है। वहां रिश्तों की कोई परिभाषा नहीं और न ही संवेदना की प्रगाढ़ता। वहां तो सिर्फ सूचना का साम्राज्य और उसी की सत्ता है। माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी सब जैविक सम्बन्धों से पशुवत् आबद्ध। मनु और उनके स्मृति ग्रंथ को पिछले दशकों से जितनी गालियां मिली हैं शायद अन्य किसी को नहीं। पर गालियां देने वाले एक लाख लोगों में से संभवत: एक ने भी मनु स्मृति नहीं पढ़ा होगा। नैसर्गिक न्याय और रिश्तों की जो अद्भुद् व्याख्या और वजर्नाएं इस ग्रंथ में वर्णित हैं शायद अन्यत्र कहीं नहीं। दुनिया के किसी भी देश का संविधान नहीं होगा जिस पर मनु के स्मृति ग्रंथ के दर्शन की छाप न हो। यह बात अलहदा है कि कर्मकाण्डियों व पोंगापंथियों ने अपनी सुविधा व महत्ता के हिसाब से कुछेक श्लोक घुसेड़ दिए हों। मनुस्मृति में रिश्ते मर्यादाओं का चरमोत्कर्ष इस वजर्ना के साथ है कि ‘‘रजस्वला बेटी पर पिता तक की छाया पड़ना महापाप है’’। महर्षि वात्सायन का ‘कामसूत्र’ अद्भुत ग्रन्थ है, पर इसे अश्लील साहित्य का दर्जा देकर अध्ययन से बाहर कर दिया गया। महर्षि ने इस ग्रंथ की प्रस्तावना में कहा कि मनुष्य के जीवन की लालसा धर्म- अर्थ-काम और मोक्ष को लेकर रहती है। धर्म-अर्थ और मोक्ष पर तो धुंआधार प्रवचन होते हैं, ‘काम’ पर विद्वत्जन क्यों चुप हैं? लेकिन मुश्किल यह है कि ‘काम’ को हम पश्चिम की उदात्त संस्कृति से सीखना चाहते हैं भारतीय दर्शन से नहीं। अब वह क्षण आ गया है कि हम सांस्कृतिक आक्रमण के संकेतों को समङों और उसके मोहपाश से मुक्त होकर अपने सनातनी साश्वत् मूल्यों की ओर लौटें इसी में हमारे समाज और देश का कुशलक्षे म सन्निहित है।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208
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