मध्यप्रदेश मे पिछले चौबीस माह में 8889 बलात्कार पुलिस ने दर्ज किये। इस सूची में सतना जिला पाचवीं सीढी पर है। साढेÞ आठ हजार से अधिक बलात्कारों में अनुसूचित जाति और अुनुसूचित जनजाति की महिलाओं से ज्यादा संख्या अन्य जातियों की महिलाआें की है। हालांकि इस तरह का जातिगत वर्गीकरण ही गलत है।
बलात्कार के दंश को भोगने वाली की अगर कोई जाति है तो वह केवल महिला है। बलात्कार के इन आकड़ों का खुलासा राज्य के गृहमंत्री ने विधानसभा में किया है। आकडेÞ बता रहे हैं कि प्रदेश मे कहीं न कहीं हर दिन तेरह महिलाएं बलात्कारियों का शिकार हो रही हंै। राष्टÑीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार देश मे हर 54 मिनट में एक बलात्कार होता है। ब्यूरो के ही आकडेÞ कह रहे हैं कि सन् 2010 में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के दो लाख तेरह हजार पांच सौ पचासी मामले दर्ज किये गए। वर्ष 2009 के मुकाबले यह पांच प्रतिशत अधिक है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा और बलात्कार के मामलों में लगातार वृद्वि चिन्ताजनक है। महिलाआें के हितों और सुरक्षा के लिए तथा न्याय दिलाने के लिए कई कानून बने हैं फिर भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। असलियत तो यह है कि कानून तब तक संरक्षण नहीं दे सकता जब तक समाज जागरूक और सजग नहीं होता। इसके साथ नारी को लेकर उसकी सोच नहीं बदलती। कानून का परिपालन और समाज के रूढ़िवादी नजरिए में बदलाव अपेक्षित है। पुलिस मामला दर्ज करने और अपराधी के खिलाफ सबूत जुटाने में कोताही बरतती है। अदालतों में तेजी से फैसले नहीं होते। यह हकीकत है कि पुलिस और समाज महिला हिंसा को लेकर सवेदनशील नहीं है।
आज उपभोक्तावादी संस्कृति और बाजार ने भी विज्ञापनों में औरत को प्रदर्शन की वस्तु बना दिया है। नारी देह का प्रदर्शन अनैतिकता से पैसा कमाने के लिए हो रहा है। बाजारवाद ने औरत के गोपन अंगों का आक्रमक तरीके से प्रदर्शन करके लालसाओं को जगाने का काम संभाल रखा है। विज्ञापनों में औरत को जिस तरह से दिखाया जा रहा है, उसका प्रभाव समाज पर अच्छा नहीं पड़ता। यह भी एक वजह है कि पुरुष औरत को वासना संतुष्टि की वस्तु मान लेता है। नारी को लेकर आदिम युग से आज तक पाखंडी व्यवहार होता रहा है। नारी के प्रति पुरुषों का सामंती व्यवहार धार्मिक और सामाजिक ग्रंथों में जैसा दर्ज है, उससे पुरुष प्रधान सोच का सच सामने आ जाता है। एक पक्षीय और अमानवीय धारणाए स्थापित करके नारी और उसके सम्मान को किरिच-किरिच कर दिया गया। सांस्कृतिक स्तर में भी नारी बिकाउ वस्तु की तरह दर्ज की गई। नारी को अपनी वासना के लिए इस्तेमाल की सोच और उसकी सहमति या असहमति को रांैदने का अंहकार औरत के मान-सम्मान तथा उसकी स्वतंत्रता को तोड़ने के लिए पुरुष को बलात्कार तक ले जाता है। परम श्रेष्ठ विद्वानों ने नारी को हर क्षेत्र में दिगम्बर किया है। विश्वामित्र ने आखिर मेनका के साथ क्या किया? अहिल्या क्या अपनी मर्जी से पथभ्रष्ठ हुई ? जलन्धर की पत्नी वृन्दा का सतीत्व स्वेच्छा से नहीं छल से हरण किसने किया? ऋग्वेद की एक ऋचा मे कहा गया है कि लौकिक विवाह के पूर्व प्रत्येक नारी पहले सोम से ब्याही जाती है, फिर गर्न्धव और तीसरी बार अग्नि से इसके बाद मनुष्य की बारी आती है। इस अशोभन सोच के बचाव मे कुछ धर्म ध्वाजाधारी तर्क देते है कि उसे साहित्य रचना के रूप में पढ़ा जाना चाहिये और इसके शब्दों में नहीं जाना चाहिये । वैदिक काल हो रामायण काल हो या महाभारत काल अथवा आधुनिक समय हो, हर युग में औरत भोगविलास तथा शत्रु से बदला लेने बिक्रय करने की वस्तु समझी गई।
भारत मे वेश्याआें की अधिकृत गिनती नहीं की गई किन्तु अनुमानित रूप से इनकी संख्या एक करोड़ है। इतनी तो दुनिया के कई देशों की आबादी भी नहीं है। अभावग्रस्त पिता अपनी बेटियों को घोखेबाज प्रेमी अपनी पे्रमिकाओं को कई पति अपनी पत्नियों को वेश्यालय में धकेल देते हैं। लड़कियों और औरतों का अपहरण करके इस बाजार में वेश्यावृति कराई जाती है। जो लोग यह दावा करते हंै कि औरतें स्वेच्छा से देह-व्यापार के पेशे में हैं, वे झूठ बोलते हैं। पुरुषों के इस स्वर्ग के लिए लड़कियों की तस्करी होती है। मध्यप्रदेश में सन् 2004 से अक्टूबर 2011 के बीच 6284 लड़कियां गायब हैं। इनका कोई अता-पता नहीं है। यह संख्या पुलिस में दर्ज शिकायत के अनुसार है, किन्तु उनके बारे में कोई आंकड़ा नहीं है, जो पुलिस में दर्ज ही नहीं है। जो लोग इस बाजार में नहीं जा पाते वे रेल, बस, सड़क, दुकान आफिस बाजार स्कूल मंदिर थाना आदि में लड़कियों- औरतों को छेड़ते हैं। अश्लील हरकतें करते हैं और मौका मिलते ही बलात्कार करते हैं। घरों के भीतर नजदीकी रिश्ते भी औरत को बलात्कार की आग में झुलसाते हंै।
बाजार मीडिया फिल्म और विज्ञापन मिल कर हर पल हर जगह सेक्समय माहौल बनाने में जुटा हैं। जब नग्न जिस्म दिमाग में हावी कराने की मुहिम चल रही है, तो औरतें सुरक्षित कैसे हो सकती हंै ? घरों में औरतें अपने प्रियजनों की हिंसा भोगने लिए श्रापित हैं। भोजन में नमक को लेकर,बेटा न होने पर दहेज के लिए और झूठी शान के लिए प्रताड़ित की जाती है और कभी-कभी मार भी दी जाती हैं। काबिल होने पर नौकरी की इजाजत नहीं दी जाती। चरित्र पर संदेह तथा असत्य आरोप लगाये जाते हैं। कामकाजी महिलाओं का कार्यस्थल में यौन शोषण आम बात है। कानून किताबों में दर्ज है और किताबें आलमारियों में कैद हैं। सम्मान और सुरक्षा के लिए औरत किस जहांगीर की ड्योढी मे टंगा घन्टा बजाए ? किस कृष्ण को कैसे पुकारे कि उसको चीरहरण से निजात मिल जाय।
जिन्दगी अश्लील गाली न बन जाय। हर जिले में महिला पुलिस थाना कायम है, किन्तु वहां पुरुष तैनात हैं। पीड़ित औरत का थाना जाना और अपनी दुर्दशा का बार-बार बयान करना सजा से कम नहीं होता। यह सही है कि हर जगह औरतों को पुलिस सुरक्षा उपलब्ध कराना सम्भव नहीं है, किन्तु भीड़-भाड़ वाली जगहों में ऐसी व्यवस्था की जा सकती है। आधे से ज्यादा बलात्कारों की शुरुआत मौखिक और दैहिक छेड़छाड़ से होती है। इसके अलावा बेहद जरूरी यह है कि समाज अपनी सोच बदले। औरत को भोगने की नहीं सम्मान देने की सोच जरूरी है ।
***चिन्तामणि मिश्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
बलात्कार के दंश को भोगने वाली की अगर कोई जाति है तो वह केवल महिला है। बलात्कार के इन आकड़ों का खुलासा राज्य के गृहमंत्री ने विधानसभा में किया है। आकडेÞ बता रहे हैं कि प्रदेश मे कहीं न कहीं हर दिन तेरह महिलाएं बलात्कारियों का शिकार हो रही हंै। राष्टÑीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार देश मे हर 54 मिनट में एक बलात्कार होता है। ब्यूरो के ही आकडेÞ कह रहे हैं कि सन् 2010 में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के दो लाख तेरह हजार पांच सौ पचासी मामले दर्ज किये गए। वर्ष 2009 के मुकाबले यह पांच प्रतिशत अधिक है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा और बलात्कार के मामलों में लगातार वृद्वि चिन्ताजनक है। महिलाआें के हितों और सुरक्षा के लिए तथा न्याय दिलाने के लिए कई कानून बने हैं फिर भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। असलियत तो यह है कि कानून तब तक संरक्षण नहीं दे सकता जब तक समाज जागरूक और सजग नहीं होता। इसके साथ नारी को लेकर उसकी सोच नहीं बदलती। कानून का परिपालन और समाज के रूढ़िवादी नजरिए में बदलाव अपेक्षित है। पुलिस मामला दर्ज करने और अपराधी के खिलाफ सबूत जुटाने में कोताही बरतती है। अदालतों में तेजी से फैसले नहीं होते। यह हकीकत है कि पुलिस और समाज महिला हिंसा को लेकर सवेदनशील नहीं है।
आज उपभोक्तावादी संस्कृति और बाजार ने भी विज्ञापनों में औरत को प्रदर्शन की वस्तु बना दिया है। नारी देह का प्रदर्शन अनैतिकता से पैसा कमाने के लिए हो रहा है। बाजारवाद ने औरत के गोपन अंगों का आक्रमक तरीके से प्रदर्शन करके लालसाओं को जगाने का काम संभाल रखा है। विज्ञापनों में औरत को जिस तरह से दिखाया जा रहा है, उसका प्रभाव समाज पर अच्छा नहीं पड़ता। यह भी एक वजह है कि पुरुष औरत को वासना संतुष्टि की वस्तु मान लेता है। नारी को लेकर आदिम युग से आज तक पाखंडी व्यवहार होता रहा है। नारी के प्रति पुरुषों का सामंती व्यवहार धार्मिक और सामाजिक ग्रंथों में जैसा दर्ज है, उससे पुरुष प्रधान सोच का सच सामने आ जाता है। एक पक्षीय और अमानवीय धारणाए स्थापित करके नारी और उसके सम्मान को किरिच-किरिच कर दिया गया। सांस्कृतिक स्तर में भी नारी बिकाउ वस्तु की तरह दर्ज की गई। नारी को अपनी वासना के लिए इस्तेमाल की सोच और उसकी सहमति या असहमति को रांैदने का अंहकार औरत के मान-सम्मान तथा उसकी स्वतंत्रता को तोड़ने के लिए पुरुष को बलात्कार तक ले जाता है। परम श्रेष्ठ विद्वानों ने नारी को हर क्षेत्र में दिगम्बर किया है। विश्वामित्र ने आखिर मेनका के साथ क्या किया? अहिल्या क्या अपनी मर्जी से पथभ्रष्ठ हुई ? जलन्धर की पत्नी वृन्दा का सतीत्व स्वेच्छा से नहीं छल से हरण किसने किया? ऋग्वेद की एक ऋचा मे कहा गया है कि लौकिक विवाह के पूर्व प्रत्येक नारी पहले सोम से ब्याही जाती है, फिर गर्न्धव और तीसरी बार अग्नि से इसके बाद मनुष्य की बारी आती है। इस अशोभन सोच के बचाव मे कुछ धर्म ध्वाजाधारी तर्क देते है कि उसे साहित्य रचना के रूप में पढ़ा जाना चाहिये और इसके शब्दों में नहीं जाना चाहिये । वैदिक काल हो रामायण काल हो या महाभारत काल अथवा आधुनिक समय हो, हर युग में औरत भोगविलास तथा शत्रु से बदला लेने बिक्रय करने की वस्तु समझी गई।
भारत मे वेश्याआें की अधिकृत गिनती नहीं की गई किन्तु अनुमानित रूप से इनकी संख्या एक करोड़ है। इतनी तो दुनिया के कई देशों की आबादी भी नहीं है। अभावग्रस्त पिता अपनी बेटियों को घोखेबाज प्रेमी अपनी पे्रमिकाओं को कई पति अपनी पत्नियों को वेश्यालय में धकेल देते हैं। लड़कियों और औरतों का अपहरण करके इस बाजार में वेश्यावृति कराई जाती है। जो लोग यह दावा करते हंै कि औरतें स्वेच्छा से देह-व्यापार के पेशे में हैं, वे झूठ बोलते हैं। पुरुषों के इस स्वर्ग के लिए लड़कियों की तस्करी होती है। मध्यप्रदेश में सन् 2004 से अक्टूबर 2011 के बीच 6284 लड़कियां गायब हैं। इनका कोई अता-पता नहीं है। यह संख्या पुलिस में दर्ज शिकायत के अनुसार है, किन्तु उनके बारे में कोई आंकड़ा नहीं है, जो पुलिस में दर्ज ही नहीं है। जो लोग इस बाजार में नहीं जा पाते वे रेल, बस, सड़क, दुकान आफिस बाजार स्कूल मंदिर थाना आदि में लड़कियों- औरतों को छेड़ते हैं। अश्लील हरकतें करते हैं और मौका मिलते ही बलात्कार करते हैं। घरों के भीतर नजदीकी रिश्ते भी औरत को बलात्कार की आग में झुलसाते हंै।
बाजार मीडिया फिल्म और विज्ञापन मिल कर हर पल हर जगह सेक्समय माहौल बनाने में जुटा हैं। जब नग्न जिस्म दिमाग में हावी कराने की मुहिम चल रही है, तो औरतें सुरक्षित कैसे हो सकती हंै ? घरों में औरतें अपने प्रियजनों की हिंसा भोगने लिए श्रापित हैं। भोजन में नमक को लेकर,बेटा न होने पर दहेज के लिए और झूठी शान के लिए प्रताड़ित की जाती है और कभी-कभी मार भी दी जाती हैं। काबिल होने पर नौकरी की इजाजत नहीं दी जाती। चरित्र पर संदेह तथा असत्य आरोप लगाये जाते हैं। कामकाजी महिलाओं का कार्यस्थल में यौन शोषण आम बात है। कानून किताबों में दर्ज है और किताबें आलमारियों में कैद हैं। सम्मान और सुरक्षा के लिए औरत किस जहांगीर की ड्योढी मे टंगा घन्टा बजाए ? किस कृष्ण को कैसे पुकारे कि उसको चीरहरण से निजात मिल जाय।
जिन्दगी अश्लील गाली न बन जाय। हर जिले में महिला पुलिस थाना कायम है, किन्तु वहां पुरुष तैनात हैं। पीड़ित औरत का थाना जाना और अपनी दुर्दशा का बार-बार बयान करना सजा से कम नहीं होता। यह सही है कि हर जगह औरतों को पुलिस सुरक्षा उपलब्ध कराना सम्भव नहीं है, किन्तु भीड़-भाड़ वाली जगहों में ऐसी व्यवस्था की जा सकती है। आधे से ज्यादा बलात्कारों की शुरुआत मौखिक और दैहिक छेड़छाड़ से होती है। इसके अलावा बेहद जरूरी यह है कि समाज अपनी सोच बदले। औरत को भोगने की नहीं सम्मान देने की सोच जरूरी है ।
***चिन्तामणि मिश्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।