आप कौन से भारतीय हैं?
तेजिंदर गगन पाश की प्रसिध्द कविता 'भारत' की आरंभिक ये पंक्तियां हैं-
''भारत मेरे सम्मान का सब से महान शब्दजहां कहीं भी प्रयोग किया जाए बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं।'' इसी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं:-
''भारत के अर्थ, किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं, वरन् खेतों में दायर हैं, जहां अन्न उगता है, जहां सेंध लगती है।''
पहले भारतीय होने का एक सीधा-सच्चा अर्थ होता था- सहज और निश्छल, कि ''मैं भारतीय हूं और भारतीय होने पर मुझे गर्व है।'' आज भी है, पर फिर भी पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में हमारा भारतीय होना एक तरह के विखंडन की तरफ बढ़ता हुआ नार आ रहा है। कई बार यह सवाल पूछने का मन करता है कि आप कौन से भारतीय हैं? सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह वाले भारत के जो देश को विदेशों में बेचकर अस्थायी तौर पर विदेशी पूंजी कमाने में व्यस्त हैं या कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ वाले जो कि अपनी गुप्त किताबों में सिर्फ बहुसंख्यक वर्ग को ही भारतीय मानते हैं, देश के नव-धनाडय वर्ग के आधुनिक छात्र जो तथाकथित ऊंचे और सचमुच महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं और जिन्हें अपने घर का खाना अच्छा नहीं लगता, या फिर भारतीय उन को कहा जाए जिनके घरों में अन्न का दाना नहीं है और न ही आने की कोई उम्मीद बची है। आप कौन से भारतीय हैं? यह सवाल हमारे समय का सबसे अहम् और जरूरी सवाल होना चाहिए।
देश के आंतरिक स्रोतों से देश की आय को बढ़ाने की कोशिश करने की जगह हम वालमार्ट को बुला रहे हैं कि ''आओ देखो हमारे पास कितने साधन हैं, हमारे पास खनिज है, हमारे पास भूमि है, हमारे पास जनसंख्या है, हमारे पास नदियां हैं जिनमें पानी बहता है, हमारे पास खेती की और उद्योग की अपनी एक परम्परा है- पर हम क्या करें? हम नाकारा हैं- 'तुम आओ और हमारा उध्दार करो', हमारे मध्यवर्ग को तुम से बहुत प्यार हो गया है।''
हैदराबाद के इंस्टीटयूट ऑफ चार्टर्ड फायनेंशियल एनालिस्ट ऑफ इंडिया में अर्थशास्त्र के अनुसंधानकर्ता ईशान चौधरी और अनुगीत सलूजा का कहना है कि- ''सर आप देखिएगा, आने वाले पांच वर्षों में वाल्मार्ट पूरे देश में छा जाएगा, हमारे खुदरा व्यापारी और छोटे-छोटे दुकानदार वालमार्ट से सहायता की भीख मांगेंगे, वालमार्ट के प्रतिनिधि हमारे किसानों को बताएंगे कि तुम्हें क्या उगाना है और कैसे उगाना है, हमारे कृषि विश्वविद्यालय और अनुसंधान केन्द्र अप्रासंगिक हो जाएंगे।'' क्या यह तथ्य हास्यास्पद नहीं कि वालमार्ट के पास अरबों डॉलर से अधिक की पूंजी है, जिस पर हमारे शासकों को गर्व है, क्या यह बात अपने आप में खतरनाक नहीं है? वालमार्ट हमारे लिए नया भारत बनाएगा या हमारे बीच बची हुई भारतीयता को भी हम से छीन कर ले जाएगा, इस बात का पता तो अगले कुछ वर्षों में ही चलेगा। पर फिलहाल यह सोचकर आश्चर्य होता है कि क्या हमारे नीति निर्धारिकों को इस बात का पता नहीं है कि अपनी पूंजी हमारे यहां लगाने वाले देश उस वक्त अपनी पूंजी को वापिस अपने देश ले जाएंगे, जब यहां लगाई गई पूंजी पर वे लाभ कमाने लगेंगे। ईशान चौधरी के अनुसार, उस लाभ की कोई हिस्सेदारी विकासशील राष्ट्रों को नहीं मिलती। क्या हम इतने नाकारा, नासमझ और निरक्षर हैं कि हम यह नहीं समझ सकते कि इस तरह हमारी घरेलू कंपनियों का विकास अवरूध्द हो जाएगा और हम पूरी तरह से उनके चंगुल में कुछ यों ही फंस जाएंगे जैसे कि विदर्भ के किसान ब्याजखोरों के जाल में फंसकर आत्महत्या कर लेते हैं। हमें उन्हीं से उधार ले कर अपने अर्थतंत्र में स्थायित्व लाना होगा। हम किसके दबाव में काम कर रहे हैं यह तो समझ में आता है पर क्यों? इसे समझना थोड़ा पेचीदा है। दुर्भाग्य से हमारा अंर्तविरोध यह है कि अपने खेतों में सेंध लगाने वाले की पहचान तो हमें है पर उनको पकड़कर कटघरे में खड़ा करने की जगह हम उन्हें दोबारा चुनकर अपनी संसद में भेजने के लिए अभिशप्त हैं। यही हमारी त्रासदी है।
दरअसल हमारी विशाल युवा पीढ़ी का एक छोटा हिस्सा ही देश के प्रबंधन में शामिल हैं। युवा-वर्ग का एक बड़ा हिस्सा धर्म के अंधेरे में खोया हुआ है तो एक दूसरा बड़ा हिस्सा टेलीविजन के 'बिग बॉस' जैसे सीरियलों की चपेट में अंधा है, उसे पता ही नहीं कि वह क्या कर रहा है और किस तरह अपने साथ देश के एक बड़े वर्ग को आत्मघाती प्रवृत्तियों की ओर खींच रहा है। शेष बचा हुआ तीसरा हिस्सा जो कि देश के प्रबंधन में शामिल है, उसका पचास प्रतिशत वालमार्ट की आरामगाह में बैठना चाहता है। तो परेशान करने वाला सवाल यह है कि यह जो तीसरे हिस्से का भी आधा हिस्सा है, इसे बचाकर कैसे रखा जाए? इसकी आवाज को कैसे पूरे अवाम की आवाज बनाया जाए। इसके लिए जरूरी है कि खेतिहर श्रमिकों और विशेष रूप से उनके युवा वर्ग और दलितों और आदिवासियों को संगठित कर उनमें इस बात के प्रति चेतना का विस्तार किया जाए। कुछ इस तरह कि उनकी समझ में आए कि उनके दुश्मन कहीं दूर यूरोप और अमेरिका में नहीं बैठे हैं, बल्कि अपने आसपास ही हैं, जो कि दुर्भाग्य से अपने आप को साक्षर और पढ़ा-लिखा मानते हैं।
यह काम वामपंथी पार्टियां कर सकती हैं शर्त सिर्फ यही है कि वे अपनी पिछली गलतियों को न दोहराएं और दक्षिणपंथी पार्टियों द्वारा अपने विरुध्द किए जाने वाले दुष्प्रचार का दृढ़तापूर्वक जवाब देते हुए जनमानस में अपनी एक नई पहचान और विश्वसनीयता बनाएं। यों तो यह काम सभी राजनैतिक दलों को करना चाहिए पर चूंकि वामपंथी दलों की स्वाभाविक प्रवृत्ति, उनकी मूल सोच श्रमिकों और मजदूरों की पक्षधर है इसलिए उनसे इस बात की अपेक्षा अधिक की जाती है।
यह समझ पाना मुश्किल है कि तकनीक के इतने विकास और जनसंख्या के अनुपात में अनाज के उत्पादन में भी सामुनिपातिक वृध्दि के होते हुए, जमीन के मालिक, जमीन के गुलाम कैसे बन गए। क्या यह उसी कहानी का दोहराव नहीं है जो पहिले हमारा शासक वर्ग और शहरी व्यापार जगत आदिवासियों के साथ कर चुका है। विध्वंस का दोहराव क्या कोई देश बर्दाश्त कर सकता है? प्रश्न बहुत हैं- पर उन्हें सुनने वाला कोई दिखाई नहीं देता- कहीं अमूर्त में हैं, पर वह जहां भी है एक दिन उसे आम आदमी के इन सब सवालों का जवाब देना होगा। फिलहाल तो एक बार फिर पाश के शब्दों का ही सहारा लेना होगा- ''तुझ से दिल का सच कहना, दिल की बेअदबी है सच की बेअदबी है तुझ से गिला करना इश्क की हेठी है जा तू शिकायत के काबिल हो कर आसभी तो मेरी हर शिकायत से तेरा कद बहुत छोटा है।''ttejinder.gagan@gmail.com
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