बचपन में एक कविता पढ़ी थी जो सर्दी के दिनों में बरबस याद आती है- ‘जाड़ा आया, जाड़ा आया/ नई कहानी किस्से लाया।’ किसकी लिखी हुई यह कविता है, स्मरण नहीं परन्तु इसके समांतर गांवों में अनेक लोक कविताएं आज भी जीवन्त हैं- ‘कातिक बाति कहातिक,अगहन हंड़िया अदहन/ पूस काना ठूस/ माघ तिलै तिल बाढ़ै/ त फागुन गोड़ी काढ़ै।’ सूरज की स्थिति का यह लोकरंग है कि कार्तिक का दिन महीना बात करते बीत जाता है, अगहन के दिन खाने की हंड़िया चढ़ाते और पूस के कान का मैल निकालते बीत जाते हैं। माघ के दिन तिल-तिल कर बढ़ते हैं और फागुन में सूरज लम्बे पग (गोड़ी गोड़-पैर) चलने लगता है। कवि सेनापति ने शिशिर का वर्णन तो अतिशयोक्ति पूर्ण ढंग से करते हुए ‘शशि को सरूप पावै सविताऊ’ से लेकर ‘चन्द के भरम होत मोद है कुमुदियों को, शशि शंक पंकजिनी फूलि न सकति है,’ लिखकर प्रकृति का व्यापार ही बदल दिया, व्यवहार भी। लोक सेनापतियों की अपेक्षा जमीन पर खड़ा है, ‘गप्पी’ और ‘लफ्फेबाज’ वह भी है लेकिन राजदरबारी नहीं, क्योंकि उसे किसी राजा से अशर्फी मिलने की न उम्मीद है, न जानकारी में ही है। वह तो अपने में मस्त-लीन, सर्दी, ठंड की महत्ता स्वीकारते हुए कहता है- ‘लड़िकन क छुअत नहीं, सयान मोर भाई/ बूढ़न को छांड़ित नहीं, चाहे ओढ़ां कतनिउ रजाई।’ अकेले में रजाई-कम्बल ओढ़ने पर भी ठंडी नहीं जाती, गांव में कहनूति है कि ‘जाड़ि जाइ रूई’ कि ‘जाड़ि जाई दुई’। दो व्यक्तियों के साथ सोने से शरीर की गर्मी से भी ठंडी से छुटकारा पाया जा सकता है। ‘पूस की रात’ का हल्कू, जबरा कुत्ता को अपने आगोश में लेकर, उस भयानक ठंडी रात में चुनौती देता है।
शीत-सर्दी, जाड़ा-ठंडी शब्दों के अपने अर्थ हैं। गांव और शहरों में इनका सामना करने के अपने तरीके हैं। गांव के लिए सबसे कठिन महीने पूस और माघ के होते हैं परंतु वे इसका रोना नहीं रोते, निर्भय होकर पूस-माघ की ठार को चुनौती देते हैं। ठंडी आने के पहले जड़ावर का इन्तजाम रुइही बंडी, परदनी, सूथन्ना, पायजामा सिलवा लेते हैं। लकड़ी की गांठ, करसी-कंडा-उपरी की व्यवस्था, बरसात के बाद से ही शुरु हो जाती है। प्रकृति की खुली चुनौती बिना हाय-हाय के वे स्वीकारते हैं। पाला पड़ता है, फसल चौपट हो जाती है, वे सरकार से मुआवजा नहीं मांगते। सरकार के कर्मचारी अपने लिए उनके नुकसान का ढिंढोरा पीटते हैं और सहायता राशि का अधिकतम लाभ अपना लेते हैं। असली पीड़ितों को सहायता नहीं मिलती, मिलती भी है तो ऊंट के मुंह में जीरा की तरह। भीषण से भीषण ठंडी को आग के हवाले कर देते हैं, उनका ‘कौड़ा’ नहीं बुझता, पूरे पूस-माघ सुलगता रहता है। उसी कौड़ा को घेरकर बच्चे-बड़े बुजुर्ग अनेक किस्से कहानियां कहते सुनते हैं। कहानी की पहली कार्यशाला ‘कउड़े’ ही थे। कहने से कहानी बनी। ऋचाएं भी कही गर्इं। सृजन, वाचिक परम्परा की ही देन है। गांव के जीवन में सर्दी की रातें बहुत बड़ी होती थीं। देर तक ‘कउड़े’ तापते रात बीतती थी, कपड़े पहनने-ओढ़ने के कम थे। आग ही एकमात्र सहारा थी और जागने के लिए कहानियां, जो कभी-कभी धारावाहिक हुआ करती थीं, जिसे कहने वाले की प्रतीक्षा बड़ी तन्मयता से होती थी। उसका बहुत आदर था। हां तो कहां से कहानी कल खतम हुई थी और फिर अनंत सिलसिला... शर्त यह थी कि कहानी में हुंकारी भरना जरूरी था और दिन में कहानी नहीं कही जाती थी, यदि कोई कहेगा तो मामा रास्ता भूल जाएगा। अर्थात् कहानी दिन में कहने से काम-काज का नुकसान होगा। लोक, मामा का रिश्ता सबसे बड़ा मानता है, वह नहीं चाहेगा कि उसको देखने, हाल-समाचार लेने वाला मामा रास्ता भूल जाए। लोक में मामा, कंस और शकुनि नहीं- मां-मां है।
गरीबी धन भर से नहीं मन से भी होती है। कितने ही अमीर निहायत ललकते गरीब हैं। सर्दी की रातों को बिताने के लिए,गरीबी को मनोरंजन से जोड़ा गया था। उन्हीं दिनों, गांवों में रामलीलाएं हुआ करती थीं। आधी-आधी रात बहुत इत्मीनान से एक मोटी चादर ओढ़े हुए, बगीचे में होती रामलीला देखते हुए बीत जाती थी, परंतु इतनी एकाग्रता बड़े होने पर फिर किसी दृश्य या श्रव्य काव्य में नहीं आई। रामायण की कथा पुस्तकों से नहीं अभिनय और सामाजिक जीवन से सीखने-जानने को मिली। क्रमबद्ध राम-कथा गांव के एक ठेठ निरक्षर को मालूम है, सैकड़ों चौपाइयां उसे याद हैं, उनका उचित और सार्थक प्रयोग अपनी बातचीत में वह करता है किंतु एम.ए. हिन्दी प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण अनेक छात्रों-अध्यापकों को शायद ही मालूम हो। रामलीलाएं भी अब अंतिम सांस ले रही है। एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन हाशिए पर चला गया। कहानियां हमें दिशा देती थीं, जीना सिखाती थीं। लोक नाट्य, नौटंकी, छाहुर, कोलदहंका का संगीत आज के कानफोड़ू रैम्प से लाख गुना बेहतर था। जो सहज रूप से किसी भी पारिवारिक समारोह का सहज आयोजन हुआ करता। जीवन का पाठ्यक्रम किसी पाठशाला में नहीं पढ़ाया जाता। निरंतर घटते घटनाक्रम से ही जीवन का आदर्श और उद्देश्य निश्चित होता रहा है, वही हमारी धरोहर है।
महात्मा गांधी अमीर परिवार के थे, लेकिन उन्होंने देश के गांवों को देखा था। भारत गांवों का देश है। गांधी ने गांव से शहरों को देखा था, इसीलिए उन्होंने ग्राम-स्वराज्य की कल्पना की थी। शहरों की चकाचौंध से गांव नहीं दिखता, शहरों में चले, कैम्ब्रिज और आॅक्सफोर्ड में पढ़े लोग जब गांवों के देश का संचालन करने लगेंगें तो फ्रांस के लुई सोलहवें की बात ही जनता से कहेंगे कि रोटी नहीं तो केक खाओ। क्योंकि वे नहीं जानते कि रोटी क्या है? ऐसा भी तो इसी देश के इतिहास में हुआ था कि यहां का राष्टÑनिर्माता चाणक्य नगर से दूर झोपड़ी में रहता था।
कितनी अवश्यकता है कि प्रधानमंत्री यह कहे कि उसके भेजे हुए एक रुपये जनता के पास पहुंचने तक मात्र पंद्रह पैसे रहते हैं। यह विवशता अभिनन्दनीय और ताली पीटू तो नहीं घृणास्पद और निन्दनीय भी है। यह कैसा सत्ता मोह है, जहां व्यवस्था ही लाचार हो वहां पीड़ित की क्या स्थिति होगी। गांधी, जयप्रकाश के पास ऐसी विवशता क्यों नहीं थी? इकतालीस वर्षों तक केन्द्रीय फाइलों में बंद सरकारी लोकपाल बिल की धूल इसलिए झाड़ी जा रही है कि एक गांव के आदमी ने जन लोक से हांक लगाई है। सरकार एक कदम आगे बढ़ती है, फिर दो कदम पीछे जाती है। मंशा साफ न हो तो बिल पास हो जाने के बाद भी कुछ नहीं बदलेगा। यह हमारी हताशा नहीं, यथार्थ है। यहां भ्रष्टाचार जब खत्म, हटाने समाप्त करने की कही जाती है तब इन तत्वों की बन आती है,क्योंकि लोक यह मानता है जानता है, रोज देखता है- ‘चोर-चौतरा नाचै, साहु क फांसी होय।’ झुके लेकिन खड़े हुए ग्रामीण को देखकर शायद इसीलिए दुष्यंत कुमार ने कहा था- ‘में सिनदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।’
* ** चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
सम्पर्क - 09407041430.
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