Saturday, December 10, 2011

तो मुझे तुमसे कुछ नहीं कहना है।’

आत्मश्लाघा भरे कथन ‘मेरा भारत महान है’ सुन पढ़, मन ठिठक कर सोचता है- हमेशा से आकांक्षाओं के हमले झेलता और पराजित होता अपना भारत किस तारीख से महान हुआ? किस बात और कार्यों के कारण से महान है? इतिहास के किसी भी पृष्ठ के निहितार्थ में महानता नहीं दिखती। पारिवारिक संघर्ष का महाभारत वर्तमान तक लड़ते आ रहे हैं। विदेशियों ने सदैव हमारी आपसी फूट का लाभ उठाया। हमारे आर्ष ग्रंथों ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ एवं  ‘सत्यमेव जयते’ की मौखिक कल्पना की, परंतु उसे कार्यरूप में परिणत कराने का दिशा निर्देश नहीं दिया। सिकन्दर से लेकर मुगलों एवं नादिरशाह तक के अनेक आक्रमणकर्ताओं की शौर्यगाथाओं से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। अंग्रेज और पुर्तगालियों से पराजय का दंश  हम आज तक भोग रहे हैं। बिना अंग्रेजी के हम मूर्ख हैं, पिछड़े हैं, इस तरह हम मानसिक गुलाम हुए कि जापान और चीन की सर्वांगीण उन्नति भी नहीं देख समझ पाए कि अपनी भाषा और संस्कृति के बल पर ही, हमारे आस-पास आजाद होने के बावजूद, आज वे विश्व की श्रेष्ठ शक्ति और पूर्ण आत्मनिर्भर देश हैं। ‘अपने चोट गोर होने’ वाली आत्ममुग्धता की हद तक हम महान हैं। हमारा घोष वाक्य है ‘सत्यमेव जयते’ और सत्य की जितनी, प्रतिदिन इस देश में हत्या होती है, शायद उतनी अन्य किसी शब्द में नहीं। ‘राग दरबारी’ का रूप्पन एक जगह कहता है- ‘सब साले एक दूसरे की ‘इज्जत’ करते हैं, काम तो कोई करता नहीं।’ ईश्वर और सत्यनिष्ठा की शपथ सारे सांसद, मंत्री लेते हैं, परंतु इनकी शपथ का अर्थ सारा देश भोगते हुए ईश्वर और सत्य के बारे में भी सोच रहा है, कि इसके मायने क्या हैं? अब वे मात्र शब्द रह गए हैं, इनका अर्थ निचुड़ गया है। फिर भी एक सजग और ईमानदार आदमी बनने के लिए संघर्षरत व्यक्ति को आत्मसंतुष्टि के लिए कहना ही चाहिए- ‘मेरा देश महान है।’ कितनी विसंगति भरा जीवन दर्शन है हमारा, इसे स्वीकारने में हमें हिचक नहीं होनी चाहिए।
    जिनके नाम की माला हमारे देश के करोड़ों लोग जपते हंैं, उनके जीवन के आदर्श को हमने ग्रहण नहीं किया। उन्हें र्इंट-पत्थरों के बने घरों (मंदिरों) में सीमित कर दिया। एक मस्जिद ढहा देने को शौर्य दिन मान लिया। हमारा विजय दिवस, हजारों सैनिकों के बलिदान और राजनेताओं की बेवकूफी भरी नीतियों के कारण क्षुब्ध है। हमारे यहां एक लोक कथा प्रचलित है। भगवान राम अवध (अयोध्या) में लक्ष्मण के साथ राजमहल के सामने उद्यान में खड़े किसी गंभीर प्रसंग के समाधान में चर्चारत थे। कंधे पर धनुष और दाहिने हाथ में शरासन था। बातें करते समय राम सहज ढंग से बाण घुमा रहे थे। जाने किस भावावेग में उन्होंने बाण को जमीन पर गाड़ दिया। चर्चा समाप्त होने पर जब दोनों चलने लगे तो, राम ने बाण को जमीन से खींचा। बाण के फलक पर लगे खून को देख राम सहम गए, लक्ष्मण से बोले- ‘लक्ष्मण! इस धरती पर तो कोई जीव-जन्तु दिखता नहीं, फिर यह खून किसका है। धरती के नीचे खोदकर देखो, यह किसका खून है, जो मुझे विचलित कर रहा है?’ लक्ष्मण ने धरती को खोदा, देखा, एक मेंढक राम के बाण से आहत छटपटा रहा है। राम ने मेंढक से पूछा-‘तुम इतनी देर से बाण का आघात सह रहे थे, और एक बार आह तक नहीं भरी, गुहार तक नहीं लगाई।’ मेंढक बोला-‘प्रभु! किसको पुकारूं, जब स्वयं भक्त-वत्सल भगवान राम के बाण से बिंधा हो, तो किसकी गोहार लगाऊं। जब वे स्वत: मार रहे हंै, तो किसको आवाज दूं।’ उन्हीं राम का अवध पिछले दो दशक से अविश्वास, अंधविश्वास और आशंका की आग में सुलग रहा है और उनके अनुचर बे-ताल ताण्डव कर रहे हैं। न्यायालय के फैसले के दिन सारे देश में कर्फ्यू जैसा वातावरण निर्मित हो जाता है। राज्य की सीमाएं सील कर दी जाती हैं। क्या यह वही अवध है, जिन राम के राज्य में तुलसी बाबा ने ‘बैर न कर काहू सन कोई’ लिखा था? फिर भी मेरा भारत महान है? साहित्य, कला, पुरातत्व, संस्कृति के क्षेत्र में नि:संदेह भारत महान था। यह ही भावनात्मक-समावेशी तत्व हमें विश्व में महानता का दर्जा देते हैं। धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर राजनीति, कला के किसी वर्ग ने कभी नहीं की। धर्म के मूल में तो मनुष्यत्व का ही भाव है। धर्म तो सभी का एक ही है, सम्प्रदाय तो व्यक्ति निर्मित विचार है। धर्म व्यक्ति के अंतस का प्रकाश है, जो प्रकृति प्रदत्त है, उस प्रकाश को उदीप्त कर संसार को आलोकित करना ही मूल धर्म है, जिसकी कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती। यह प्रकाश प्रत्येक मनुष्य के अंदर है, जो कला के विभिन्न विद्या एवं कला रूपों में अपने देश में सुरक्षित है, और यही हमारी संचित निधि है जिस पर थोड़ा बहुत संतोष किया जा सकता है। ‘गर्व’ और ‘महान’ शब्द हमारी संस्कृति के स्वभाव के नहीं हैं। हमारे ऋषियों मनीषियों की साधना किसी इबादतगाह (मंदिर) में नहीं निरभ्र आकाश के वितान तले एकान्त में होती थी। लकुटी और कमरी पर तीनों पुर के राज्य को निछावर करने वाले, अगले जन्मों में मनुष्य, पशु-पक्षी और पत्थर का विकल्प लिए ब्रज भूमि और कृष्ण प्रेम में चरवाहा बनने की ललक लिए रसखान पर समूचा कृष्ण काव्य न्यौछावर करने का मन करता है। पता नहीं रसखान किस जाति के थे? कबीर का सम्प्रदाय क्या था? जायसी, अमीर खुसरो, रहीम, शेख, मुबारक, कुतुबन, आलम और रसलीन किस धर्म   से दीक्षित थे? मुझे यह भी पता नहीं कि बाबा अलाउद्दीन खां साहब के बैण्ड का धर्म कौन सा है? बिसमिल्ला खां बड़े गुलाम अली खां, डागर बंधुओं, अल्ला रख्खा, जाकिर हुसैन, अमजद अली की राग रागिनियों में किस अरब देश का संगीत बजता है? ये सभी भारतीय रागों के अदभुत गायक थे, इनका राग फकीरी था और ये विश्वआकाश के दरवेश थे, हैं, जिनकी तान से विश्व-मानव की हृदतंत्री बजने लगती है, उन पर मुग्ध हुआ जा सकता है, किंबहुना इन्हीं पर गर्वित हुआ जा सकता है। वर्तमान पर सिर्फ शर्मिन्दा हुआ जा सकता है, ‘शर्म इनको मगर नहीं आती।’ सामासिक संस्कृति के पुर्नपाठ की आवश्यकता कब महसूस की जाएगी! यह यक्ष-प्रश्न है?
कितनी बड़ी विडम्बना है कि हम अपने दु:ख से ही दुखी होते हैं। दूसरे के दु:ख को भी हमने कभी अपना दु:ख माना था। हमारी संवेदना में पशु पक्षी ही नहीं पेड़ पौधे भी थे। पक्षी के दु:ख मात्र से लौकिक काव्य रामायण की सृष्टि हो जाती थी इस परिवेश में सर्वेश्वर दयाल की कविता याद आ रही है। उन्होंने कहा था- ‘यदि तुम्हारे घर के / एक कमरे में आग लगी हो तो क्या तुम/दूसरे में सो सकते हो/ यदि तुम्हारे घर के/ एक कमरे में लाश पड़ी हो/ तो क्या तुम दूसरे कमरे में गा सकते हो/ यदि तुम्हारे घर में एक कमरे में/ लाशें सड़ रही हों, तो क्या तुम/ दूसरे कमरे मे प्रार्थना कर सकते हो/ यदि हां! तो मुझे तुमसे कुछ नहीं कहना है।’
                                               

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