उस दिन अचानक ‘भाई’ ने पूछ लिया कि ‘कीमत और मूल्य’ के बारे में आपके क्या विचार हैं? मैंने सामान्य और व्यवहारिक रूप से दोनों का एक ही निहितार्थ बता दिया, लेकिन न तो मैं संतुष्ट हो सका न भाई। हो सकता है कि मेरे विचारों से आप सहमत न हों फिर भी विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो देंगे ही? मैंने पुरानी पुस्तकें पलटीं, लगभग सभी में मूल्य लिखे हुए थे, कुछ में मूल्य-रुपये लिखे थे। कुछ ऐसी भी वस्तुएं मिलीं जिनमें कीमत लिखी थी। अखबारों को देखा उनमें कुछ में मूल्य-रुपए और कुछ में मात्र रु.- लिखा था। एक अखबार ऐसा भी देखा जिसमें कीमत लिखी थी। मैंने अनुमान लगाया कि अखबार या पुस्तक की कुल लागत (कागज+प्रिंटिंग+लाभ) सहित कीमत तय की गई है। कीमत किसी वस्तु की लागत निर्धारित करती है, मूल्य नहीं। पुस्तक में लिखे विचारों की कीमत नहीं हो सकती, वे अमूल्य हैं। देश में सबसे सस्ते दाम (कीमत) पर बिकने वाली पुस्तक ‘भगवद्गीता’ है, लेकिन उसमें लिखित जीवन दर्शन के मूल्य दो रुपये के नहीं हो सकते। और तो और गीता पर देश की संसद एक स्तर से बोल उठी कि ‘गीता’ पर रूस सरकार की पाबंदी मित्रता में बाधक होगी। गीता में निहित भारतीय वांग्मय की मूल्यगत दर्शन की एका ने, तमाम असहमतियों के बावजूद अविस्मरणीय सहमति दिखाई। इस दो रुपए (कभी 1 पैसे) कीमत वाली पुस्तक के, आदिशंकराचार्य से लेकर गांधी-अरविन्द तक सैकड़ों लोगों ने भाष्य लिखे। ज्ञान भक्ति कर्मयोग एवं विद्वता की पराकाष्ठा का यह दर्शन अमोल है, उसकी कीमत नहीं हो सकती क्योंकि जीवन मूल्यों का निर्धारण धन नहीं करता। धन, पदार्थ और मनुष्य पतित-पोषित पशुओं की कीमत बता सकता है, मनुष्य की कीमत तय नहीं कर सकता। पुस्तकों या अखबारों की लागत के अनुसार तय की गई कीमत को मूल्य कह दिया गया, जो नितांत गलत है। अंग्रेजी इन अर्थों में बेहतर है इसमें ‘प्राइस’ है ‘वैल्यू’ नहीं। हमारे अदिगं्रथ मूल्य आधारित थे, कीमत के मोहताज नहीं थे। ‘कीमत’ फारसी शब्द है। शब्दों के अपकर्षों ने कितनी ही भ्रांतियां खड़ी की हैं।
शब्दकोशों और समांतरकोश (थिसारस) में कीमत और मूल्य के अर्थ देखे, वहां भी दोनों की आवाजाही, बदस्तूर थी। ‘मूल्य, अर्थ, अर्ह, कदर, कीमत, दर, दाम, निर्ख, प्राइस, भाव, मलिया, मुआवजा, मोल, लागत, पदवी, ओहदा, जगह, दर्जा, मनसब, रुतबा, पारिश्रमिक, आय, सिला, मजदूरी, उपयोगिता इत्यादि अनेक समानार्थी शब्द अपनी एक दूसरे से पर्याप्त दूरी बनाये हुए खड़े मिले। भौतिकी में एक शब्द है ‘मान’ मानक एक पैमाना है। साहित्य में मानदण्ड है, मूल्यवत्ता है। राजनीति में इन दिनों मूल्य आधारित राजनीति शब्द का चलन है। जिसका निहितार्थ कीमत और धन आधारित राजनीति है। शब्द की अस्मिता उसके अर्थ में है। ‘मूल’ (जड़) है, जिस शब्द की जड़ें जितनी गहरी होंगी, उसका मूल्य जीवन में उतना ही व्यापक और विराट होगा। जिसने जीवन का मूल (मूल्य) समझ लिया, उसे भौतिकता नहीं बांध सकती। मूल्य आधारित जीवन मनुष्य के आदर्श को ऊंचाइयां देते हंै, यद्यपि इस रास्ते में अनेक बाधाएं हैं। फकीरों और दरवेशों ने इन्हीं को जीते हुए तख्तों और ताजों को अक्सर छोटा किया है। यह बापू का जीवन-मूल्य था कि जब मोतीलाल नेहरू ने उनसे कहा- ‘बापू! मैं शराब नहीं छोड़ पा रहा हूं, तो बापू बोले कोई बात नहीं, लेकिन मेरे आश्रम में मत आना’ और डॉ. लोहिया से कहा ‘जरा हिसाब लगाना कि तुम दिन भर में जितने पैसों की सिगरेट पी जाते हो, क्या हिंदुस्तान का आम आदमी उतने पैसे कमा पाता है।’ मूल्य, जीवन के आदर्श हैं, जबकि कीमत बाजार की भाषा है।
भीष्म और कर्ण यह जानते हुए भी कि नैतिकता किसके साथ है, अनैतिकता के साथ खड़े हैं, भीष्म वचनबद्ध हो हर क्षण पश्चाताप की अग्नि में जलते रहते हैं। काशिराज की कन्या अम्बा के साथ न्याय नहीं करते। परशुराम अम्बा को न्याय दिलाने का वचन देते हैं। भीष्म उनके शिष्य हैं, परंतु उनका कहना नहीं मानते। परशुराम , भीष्म से अम्बा के लिए युद्ध करते हैं, नैतिक मूल्य परशुराम के साथ हैं। रचनाकार व्यास भीष्म के सगे भाई हैं, युद्ध में परशुराम को हरा देते हैं। लोक परशुराम को भगवान बना देता है। वहीं एकलव्य के जीवन मूल्य की कीमत मांग कर गुरु द्रोण आज भी लांछित हैं। कर्ण को स्वयं श्री कृष्ण कितना प्रलोभन देते हैं कि तुम पाण्डवों में सबसे बड़े हो, तुम्हारे भरोसे ही दुर्योधन ने युद्ध ठाना है। यह महाभारत तुम्हारे बल पर ही लड़ा जा रहा है। इस युद्ध को रोको कर्ण! राष्टÑकवि दिनकर का कर्ण कहता है- ‘कुरु राज्य चाहता मैं कबहूं! साम्राज्य चाहता मैं कब हूं/क्या नहीं आपने भी जाना/मुझको न आज तक पहचाना/जीवन का मूल्य समझता हूं, धन को मैं धूल समझता हूं। मित्रता बड़ा अनमोल रतन/ कब इसे तोल सकता है धन/ धरती की तो है क्या बिसात/ आ जाए अगर बैकुंठ हाथ/उसको भी न्यौछावर कर दूं/कुरुपति के चरणों में धर दूं।’ मित्रता, दानशीलता के इस अद्भुत चरित्र की मृत्यु की मृत्यु पर स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था/युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था।’
पुराणों’ में भी सत्य के मूल्य पर दांव लगते रहे। हरिश्चन्द्र बिकते रहे। राजा बलि को वचन में बांधकर नाप लिया जाता रहा। परंतु इन लोगों ने मूल्य नहीं छोड़े। राज्य-धन-दौलत छोड़ दी। कवि मित्र दिनेश कुशवाह ‘सांप’ कविता में कहते हैं- ‘जिन्दगी बड़ी कठिन है बेटे अपने आप में/ बुदबुदाया बूढ़ा सपेरा/ पिटारे में बंद सांप से/ जिन्दगी तमाशा नहीं है/ पर तमाशा जरूरी चीज है जिन्दगी के लिए।’ एक समय था कि नेता आदर्श होते थे, उनको देखने सुनने के लिए भीड़ उमड़ती थी, आज पैसा-प्रलोभन देकर भीड़ जुटाई जाती है। मूल्यों की अर्थवत्ता थी, जिन्दगी का मतलब था, मूल्य आधारित जीवन। आज जिन्दगी के लिए तमाशा जरूरी है। मूल्यहीन आधारित का तमाशा दिखाने, नवरत्न तेल से लेकर पोलियो तक में करोड़ों कीमत लेने और ठुमका लगाकर कमर लचकाने वाले सदी के महानायक कहे जा रहे हैं। यह है महानायकत्व की मूल्यहीन परिभाषा। साम्राज्यवादी देशों के खेलों के बैट और जूतों-जर्सी की कीमत खेलों का मूल्य बता रही है और करोड़ों, मूल्य पर जीने वाले हाशिए पर खड़े कीमत की ताकत देख रहे हैं। साहित्य, कला, संस्कृति का मूल्य कीमत तय कर रही है। जिस कला में सबसे अधिक कीमत मिलती है, वही मूल्यवान साबित हो रही है। यह दु:खद यथार्थ है। ‘भाई’ को कैसे बताऊं कि सच तो यह है कि कोई भी आदमी जूते की नाप के बाहर नहीं है, फिर भी मूल्य शाश्वत सत्य हैं, जो रहेंगे, भले ही उनके लिए हमेशा की तरह जद्दोजहद करनी पड़े।
***चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
शब्दकोशों और समांतरकोश (थिसारस) में कीमत और मूल्य के अर्थ देखे, वहां भी दोनों की आवाजाही, बदस्तूर थी। ‘मूल्य, अर्थ, अर्ह, कदर, कीमत, दर, दाम, निर्ख, प्राइस, भाव, मलिया, मुआवजा, मोल, लागत, पदवी, ओहदा, जगह, दर्जा, मनसब, रुतबा, पारिश्रमिक, आय, सिला, मजदूरी, उपयोगिता इत्यादि अनेक समानार्थी शब्द अपनी एक दूसरे से पर्याप्त दूरी बनाये हुए खड़े मिले। भौतिकी में एक शब्द है ‘मान’ मानक एक पैमाना है। साहित्य में मानदण्ड है, मूल्यवत्ता है। राजनीति में इन दिनों मूल्य आधारित राजनीति शब्द का चलन है। जिसका निहितार्थ कीमत और धन आधारित राजनीति है। शब्द की अस्मिता उसके अर्थ में है। ‘मूल’ (जड़) है, जिस शब्द की जड़ें जितनी गहरी होंगी, उसका मूल्य जीवन में उतना ही व्यापक और विराट होगा। जिसने जीवन का मूल (मूल्य) समझ लिया, उसे भौतिकता नहीं बांध सकती। मूल्य आधारित जीवन मनुष्य के आदर्श को ऊंचाइयां देते हंै, यद्यपि इस रास्ते में अनेक बाधाएं हैं। फकीरों और दरवेशों ने इन्हीं को जीते हुए तख्तों और ताजों को अक्सर छोटा किया है। यह बापू का जीवन-मूल्य था कि जब मोतीलाल नेहरू ने उनसे कहा- ‘बापू! मैं शराब नहीं छोड़ पा रहा हूं, तो बापू बोले कोई बात नहीं, लेकिन मेरे आश्रम में मत आना’ और डॉ. लोहिया से कहा ‘जरा हिसाब लगाना कि तुम दिन भर में जितने पैसों की सिगरेट पी जाते हो, क्या हिंदुस्तान का आम आदमी उतने पैसे कमा पाता है।’ मूल्य, जीवन के आदर्श हैं, जबकि कीमत बाजार की भाषा है।
भीष्म और कर्ण यह जानते हुए भी कि नैतिकता किसके साथ है, अनैतिकता के साथ खड़े हैं, भीष्म वचनबद्ध हो हर क्षण पश्चाताप की अग्नि में जलते रहते हैं। काशिराज की कन्या अम्बा के साथ न्याय नहीं करते। परशुराम अम्बा को न्याय दिलाने का वचन देते हैं। भीष्म उनके शिष्य हैं, परंतु उनका कहना नहीं मानते। परशुराम , भीष्म से अम्बा के लिए युद्ध करते हैं, नैतिक मूल्य परशुराम के साथ हैं। रचनाकार व्यास भीष्म के सगे भाई हैं, युद्ध में परशुराम को हरा देते हैं। लोक परशुराम को भगवान बना देता है। वहीं एकलव्य के जीवन मूल्य की कीमत मांग कर गुरु द्रोण आज भी लांछित हैं। कर्ण को स्वयं श्री कृष्ण कितना प्रलोभन देते हैं कि तुम पाण्डवों में सबसे बड़े हो, तुम्हारे भरोसे ही दुर्योधन ने युद्ध ठाना है। यह महाभारत तुम्हारे बल पर ही लड़ा जा रहा है। इस युद्ध को रोको कर्ण! राष्टÑकवि दिनकर का कर्ण कहता है- ‘कुरु राज्य चाहता मैं कबहूं! साम्राज्य चाहता मैं कब हूं/क्या नहीं आपने भी जाना/मुझको न आज तक पहचाना/जीवन का मूल्य समझता हूं, धन को मैं धूल समझता हूं। मित्रता बड़ा अनमोल रतन/ कब इसे तोल सकता है धन/ धरती की तो है क्या बिसात/ आ जाए अगर बैकुंठ हाथ/उसको भी न्यौछावर कर दूं/कुरुपति के चरणों में धर दूं।’ मित्रता, दानशीलता के इस अद्भुत चरित्र की मृत्यु की मृत्यु पर स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था/युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था।’
पुराणों’ में भी सत्य के मूल्य पर दांव लगते रहे। हरिश्चन्द्र बिकते रहे। राजा बलि को वचन में बांधकर नाप लिया जाता रहा। परंतु इन लोगों ने मूल्य नहीं छोड़े। राज्य-धन-दौलत छोड़ दी। कवि मित्र दिनेश कुशवाह ‘सांप’ कविता में कहते हैं- ‘जिन्दगी बड़ी कठिन है बेटे अपने आप में/ बुदबुदाया बूढ़ा सपेरा/ पिटारे में बंद सांप से/ जिन्दगी तमाशा नहीं है/ पर तमाशा जरूरी चीज है जिन्दगी के लिए।’ एक समय था कि नेता आदर्श होते थे, उनको देखने सुनने के लिए भीड़ उमड़ती थी, आज पैसा-प्रलोभन देकर भीड़ जुटाई जाती है। मूल्यों की अर्थवत्ता थी, जिन्दगी का मतलब था, मूल्य आधारित जीवन। आज जिन्दगी के लिए तमाशा जरूरी है। मूल्यहीन आधारित का तमाशा दिखाने, नवरत्न तेल से लेकर पोलियो तक में करोड़ों कीमत लेने और ठुमका लगाकर कमर लचकाने वाले सदी के महानायक कहे जा रहे हैं। यह है महानायकत्व की मूल्यहीन परिभाषा। साम्राज्यवादी देशों के खेलों के बैट और जूतों-जर्सी की कीमत खेलों का मूल्य बता रही है और करोड़ों, मूल्य पर जीने वाले हाशिए पर खड़े कीमत की ताकत देख रहे हैं। साहित्य, कला, संस्कृति का मूल्य कीमत तय कर रही है। जिस कला में सबसे अधिक कीमत मिलती है, वही मूल्यवान साबित हो रही है। यह दु:खद यथार्थ है। ‘भाई’ को कैसे बताऊं कि सच तो यह है कि कोई भी आदमी जूते की नाप के बाहर नहीं है, फिर भी मूल्य शाश्वत सत्य हैं, जो रहेंगे, भले ही उनके लिए हमेशा की तरह जद्दोजहद करनी पड़े।
***चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
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