Thursday, December 29, 2011

महज देह समझने का दंड

  मध्यप्रदेश मे पिछले चौबीस माह में 8889 बलात्कार पुलिस ने दर्ज किये। इस सूची में सतना जिला पाचवीं सीढी पर है। साढेÞ आठ हजार से अधिक बलात्कारों में अनुसूचित जाति और अुनुसूचित जनजाति की महिलाओं से ज्यादा संख्या अन्य जातियों की महिलाआें की है। हालांकि इस तरह का जातिगत वर्गीकरण ही गलत है।
    बलात्कार के दंश को भोगने वाली की अगर कोई जाति है तो वह केवल महिला है। बलात्कार के इन आकड़ों का खुलासा राज्य के गृहमंत्री ने विधानसभा में किया है। आकडेÞ बता रहे हैं कि प्रदेश मे कहीं न कहीं हर दिन तेरह महिलाएं बलात्कारियों का शिकार हो रही हंै। राष्टÑीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार देश मे हर 54 मिनट में एक बलात्कार होता है। ब्यूरो के ही आकडेÞ कह रहे हैं कि सन् 2010 में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के दो लाख तेरह हजार पांच सौ पचासी मामले दर्ज किये गए। वर्ष 2009 के मुकाबले यह पांच प्रतिशत अधिक है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा और बलात्कार के मामलों में लगातार वृद्वि चिन्ताजनक है। महिलाआें के हितों और सुरक्षा के लिए तथा न्याय दिलाने के लिए कई कानून बने हैं फिर भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। असलियत तो यह है कि कानून तब तक संरक्षण नहीं दे सकता जब तक समाज जागरूक और सजग नहीं होता। इसके साथ नारी को लेकर उसकी सोच नहीं बदलती। कानून का परिपालन और समाज के रूढ़िवादी नजरिए में बदलाव अपेक्षित है। पुलिस मामला दर्ज करने और अपराधी के खिलाफ सबूत जुटाने में कोताही बरतती है। अदालतों में तेजी से फैसले नहीं होते। यह हकीकत है कि पुलिस और समाज महिला हिंसा को लेकर सवेदनशील नहीं है।
   आज उपभोक्तावादी संस्कृति और बाजार ने भी विज्ञापनों में औरत को प्रदर्शन की वस्तु बना दिया है। नारी देह का प्रदर्शन अनैतिकता से पैसा कमाने के लिए हो रहा है। बाजारवाद ने औरत के गोपन अंगों का आक्रमक तरीके से प्रदर्शन करके लालसाओं को जगाने का काम संभाल रखा है। विज्ञापनों में औरत को जिस तरह से दिखाया जा रहा है, उसका प्रभाव समाज पर अच्छा नहीं पड़ता। यह भी एक वजह है कि पुरुष औरत को वासना संतुष्टि की वस्तु मान लेता है। नारी को लेकर आदिम युग से आज तक पाखंडी व्यवहार होता रहा है। नारी के प्रति पुरुषों का सामंती व्यवहार धार्मिक और सामाजिक ग्रंथों में जैसा दर्ज है, उससे पुरुष प्रधान सोच का सच सामने आ जाता है। एक पक्षीय और अमानवीय धारणाए स्थापित करके नारी और उसके सम्मान को किरिच-किरिच कर दिया गया। सांस्कृतिक स्तर में भी नारी बिकाउ वस्तु की तरह दर्ज की गई। नारी को अपनी वासना के लिए इस्तेमाल की सोच और उसकी सहमति या असहमति को रांैदने का अंहकार औरत के मान-सम्मान तथा उसकी स्वतंत्रता को तोड़ने के लिए पुरुष को बलात्कार तक ले जाता है। परम श्रेष्ठ विद्वानों ने नारी को हर क्षेत्र में दिगम्बर किया है। विश्वामित्र ने आखिर मेनका के साथ क्या किया? अहिल्या क्या अपनी मर्जी से पथभ्रष्ठ हुई ? जलन्धर की पत्नी वृन्दा का सतीत्व स्वेच्छा से नहीं छल से हरण किसने किया? ऋग्वेद की एक ऋचा मे कहा गया है कि लौकिक विवाह के पूर्व प्रत्येक नारी पहले सोम से ब्याही जाती है, फिर गर्न्धव और तीसरी बार अग्नि से इसके बाद मनुष्य की बारी आती है। इस अशोभन सोच के बचाव मे कुछ धर्म ध्वाजाधारी तर्क देते है कि उसे साहित्य रचना के रूप में पढ़ा जाना चाहिये और इसके शब्दों में नहीं जाना चाहिये । वैदिक काल हो रामायण काल हो या महाभारत काल अथवा आधुनिक समय हो, हर युग में औरत भोगविलास तथा शत्रु से बदला लेने बिक्रय करने की वस्तु समझी गई।
    भारत मे वेश्याआें की अधिकृत गिनती नहीं की गई किन्तु अनुमानित रूप से इनकी संख्या एक करोड़ है। इतनी तो दुनिया के कई देशों की आबादी भी नहीं है। अभावग्रस्त पिता अपनी बेटियों को घोखेबाज प्रेमी अपनी पे्रमिकाओं को कई पति अपनी पत्नियों को वेश्यालय में धकेल देते हैं। लड़कियों और औरतों का अपहरण करके इस बाजार में वेश्यावृति कराई जाती है। जो लोग यह दावा करते हंै कि औरतें स्वेच्छा से देह-व्यापार के पेशे में हैं, वे झूठ बोलते हैं। पुरुषों के इस स्वर्ग के लिए लड़कियों की तस्करी होती है। मध्यप्रदेश में सन् 2004 से अक्टूबर 2011 के बीच 6284 लड़कियां गायब हैं। इनका कोई अता-पता नहीं है। यह संख्या पुलिस में दर्ज शिकायत के अनुसार है, किन्तु उनके बारे में कोई आंकड़ा नहीं है, जो पुलिस में दर्ज ही नहीं है। जो लोग इस बाजार में नहीं जा पाते वे रेल, बस, सड़क, दुकान आफिस बाजार स्कूल मंदिर थाना आदि में लड़कियों- औरतों को छेड़ते हैं। अश्लील हरकतें करते हैं और मौका मिलते ही बलात्कार करते हैं। घरों के भीतर नजदीकी रिश्ते भी औरत को बलात्कार की आग में झुलसाते हंै।
बाजार मीडिया फिल्म और विज्ञापन मिल कर हर पल हर जगह सेक्समय माहौल बनाने में जुटा हैं। जब नग्न जिस्म दिमाग में हावी कराने की मुहिम चल रही है, तो औरतें सुरक्षित कैसे हो सकती हंै ? घरों में औरतें अपने प्रियजनों की हिंसा भोगने लिए श्रापित हैं। भोजन में नमक को लेकर,बेटा न होने पर दहेज के लिए और झूठी शान के लिए प्रताड़ित की जाती है और कभी-कभी मार भी दी जाती हैं। काबिल होने पर नौकरी की इजाजत नहीं दी जाती। चरित्र पर संदेह तथा असत्य आरोप लगाये जाते हैं। कामकाजी महिलाओं का   कार्यस्थल में यौन शोषण आम बात है। कानून किताबों में दर्ज है और किताबें आलमारियों में कैद हैं। सम्मान और सुरक्षा के लिए औरत किस जहांगीर की ड्योढी मे टंगा घन्टा बजाए ? किस कृष्ण को कैसे पुकारे कि उसको चीरहरण से निजात मिल जाय।
    जिन्दगी अश्लील गाली न बन जाय। हर जिले में महिला पुलिस थाना कायम है, किन्तु वहां पुरुष तैनात हैं। पीड़ित औरत का थाना जाना और अपनी दुर्दशा का बार-बार बयान करना सजा से कम नहीं होता। यह सही है कि हर जगह औरतों को पुलिस सुरक्षा उपलब्ध कराना सम्भव नहीं है, किन्तु भीड़-भाड़ वाली जगहों में ऐसी व्यवस्था की जा सकती है। आधे से ज्यादा बलात्कारों की शुरुआत मौखिक और दैहिक छेड़छाड़ से होती है। इसके अलावा बेहद जरूरी यह है कि समाज अपनी सोच बदले। औरत को भोगने की नहीं सम्मान देने की सोच जरूरी है ।
                     ***चिन्तामणि मिश्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।  

मूल्यों की कीमत

     उस दिन अचानक ‘भाई’ ने पूछ लिया कि ‘कीमत और मूल्य’ के बारे में आपके क्या विचार हैं? मैंने सामान्य और व्यवहारिक रूप से दोनों का एक ही निहितार्थ बता दिया, लेकिन न तो मैं संतुष्ट हो सका न भाई। हो सकता है कि मेरे विचारों से आप सहमत न हों फिर भी विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो देंगे ही? मैंने पुरानी पुस्तकें पलटीं, लगभग सभी में मूल्य लिखे हुए थे, कुछ में मूल्य-रुपये लिखे थे। कुछ ऐसी भी वस्तुएं मिलीं जिनमें कीमत लिखी थी। अखबारों को देखा उनमें कुछ में मूल्य-रुपए और कुछ में मात्र रु.- लिखा था। एक अखबार ऐसा भी देखा जिसमें कीमत लिखी थी। मैंने अनुमान लगाया कि अखबार या पुस्तक की कुल लागत (कागज+प्रिंटिंग+लाभ) सहित कीमत तय की गई है। कीमत किसी वस्तु की लागत निर्धारित करती है, मूल्य नहीं। पुस्तक में लिखे विचारों की कीमत नहीं हो सकती, वे अमूल्य हैं। देश में सबसे सस्ते दाम (कीमत) पर बिकने वाली पुस्तक ‘भगवद्गीता’ है, लेकिन उसमें लिखित जीवन दर्शन के मूल्य दो रुपये के नहीं हो सकते। और तो और गीता पर देश की संसद एक स्तर से बोल उठी कि ‘गीता’ पर रूस सरकार की पाबंदी मित्रता में बाधक होगी। गीता में निहित भारतीय वांग्मय की मूल्यगत दर्शन की एका ने, तमाम असहमतियों के बावजूद अविस्मरणीय सहमति दिखाई। इस दो रुपए (कभी 1 पैसे) कीमत वाली पुस्तक के, आदिशंकराचार्य से लेकर गांधी-अरविन्द तक सैकड़ों लोगों ने भाष्य लिखे। ज्ञान भक्ति कर्मयोग एवं विद्वता की पराकाष्ठा का यह दर्शन अमोल है, उसकी कीमत नहीं हो सकती क्योंकि जीवन मूल्यों का निर्धारण धन नहीं करता। धन, पदार्थ और मनुष्य पतित-पोषित पशुओं की कीमत बता सकता है, मनुष्य की कीमत तय नहीं कर सकता। पुस्तकों या अखबारों की लागत के अनुसार तय की गई कीमत को मूल्य कह दिया गया, जो नितांत गलत है। अंग्रेजी इन अर्थों में बेहतर है इसमें ‘प्राइस’ है ‘वैल्यू’ नहीं। हमारे अदिगं्रथ मूल्य आधारित थे, कीमत के मोहताज नहीं थे। ‘कीमत’ फारसी शब्द है। शब्दों के अपकर्षों ने कितनी ही भ्रांतियां खड़ी की हैं।
 शब्दकोशों और समांतरकोश (थिसारस) में कीमत और मूल्य के अर्थ देखे, वहां भी दोनों की आवाजाही, बदस्तूर थी। ‘मूल्य, अर्थ, अर्ह, कदर, कीमत, दर, दाम, निर्ख, प्राइस, भाव, मलिया, मुआवजा, मोल, लागत, पदवी, ओहदा, जगह, दर्जा, मनसब, रुतबा, पारिश्रमिक, आय, सिला, मजदूरी, उपयोगिता इत्यादि अनेक समानार्थी शब्द अपनी एक दूसरे से पर्याप्त दूरी बनाये हुए खड़े मिले। भौतिकी में एक शब्द है ‘मान’ मानक एक पैमाना है। साहित्य में मानदण्ड है, मूल्यवत्ता है। राजनीति में इन दिनों मूल्य आधारित राजनीति शब्द का चलन है। जिसका निहितार्थ कीमत और धन आधारित राजनीति है। शब्द की अस्मिता उसके अर्थ में है। ‘मूल’ (जड़) है, जिस शब्द की जड़ें जितनी गहरी होंगी, उसका मूल्य जीवन में उतना ही व्यापक और विराट होगा। जिसने जीवन का मूल (मूल्य) समझ लिया, उसे भौतिकता नहीं बांध सकती। मूल्य आधारित जीवन मनुष्य के आदर्श को ऊंचाइयां देते हंै, यद्यपि इस रास्ते में अनेक बाधाएं हैं। फकीरों और दरवेशों ने इन्हीं को जीते हुए तख्तों और ताजों को अक्सर छोटा किया है। यह बापू का जीवन-मूल्य था कि जब मोतीलाल नेहरू ने उनसे कहा- ‘बापू! मैं शराब नहीं छोड़ पा रहा हूं, तो बापू बोले कोई बात नहीं, लेकिन मेरे आश्रम में मत आना’ और डॉ. लोहिया से कहा ‘जरा हिसाब लगाना कि तुम दिन भर में जितने पैसों की सिगरेट पी जाते हो, क्या हिंदुस्तान का आम आदमी उतने पैसे कमा पाता है।’ मूल्य, जीवन के आदर्श हैं, जबकि कीमत बाजार की भाषा है।
भीष्म और कर्ण यह जानते हुए भी कि नैतिकता किसके साथ है, अनैतिकता के साथ खड़े हैं, भीष्म वचनबद्ध हो हर क्षण पश्चाताप की अग्नि में जलते रहते हैं। काशिराज की कन्या अम्बा के साथ न्याय नहीं करते। परशुराम अम्बा को न्याय दिलाने का वचन देते हैं। भीष्म उनके शिष्य हैं, परंतु उनका कहना नहीं मानते। परशुराम , भीष्म से अम्बा के लिए युद्ध करते हैं, नैतिक मूल्य परशुराम के साथ हैं। रचनाकार व्यास भीष्म के सगे भाई हैं, युद्ध में परशुराम को हरा देते हैं। लोक परशुराम को भगवान बना देता है। वहीं एकलव्य के जीवन मूल्य की कीमत मांग कर गुरु द्रोण आज भी लांछित हैं। कर्ण को स्वयं श्री कृष्ण कितना प्रलोभन देते हैं कि तुम पाण्डवों में सबसे बड़े हो, तुम्हारे भरोसे ही दुर्योधन ने युद्ध ठाना है। यह महाभारत तुम्हारे बल पर ही लड़ा जा रहा है। इस युद्ध को रोको कर्ण! राष्टÑकवि दिनकर का कर्ण कहता है- ‘कुरु राज्य चाहता मैं कबहूं! साम्राज्य चाहता मैं कब हूं/क्या नहीं आपने भी जाना/मुझको न आज तक पहचाना/जीवन का मूल्य समझता हूं, धन को मैं धूल समझता हूं। मित्रता बड़ा अनमोल रतन/ कब इसे तोल सकता है धन/ धरती  की तो है क्या बिसात/ आ जाए अगर बैकुंठ हाथ/उसको भी न्यौछावर कर दूं/कुरुपति के चरणों में धर दूं।’ मित्रता, दानशीलता के इस अद्भुत चरित्र की मृत्यु की मृत्यु पर स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था/युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था।’
पुराणों’ में भी सत्य के मूल्य पर दांव लगते रहे। हरिश्चन्द्र बिकते रहे। राजा बलि को वचन में बांधकर नाप लिया जाता रहा। परंतु इन लोगों ने मूल्य नहीं छोड़े। राज्य-धन-दौलत छोड़ दी। कवि मित्र दिनेश कुशवाह ‘सांप’ कविता में कहते   हैं- ‘जिन्दगी बड़ी कठिन है बेटे अपने आप में/ बुदबुदाया बूढ़ा सपेरा/ पिटारे में बंद सांप से/ जिन्दगी तमाशा नहीं है/ पर तमाशा जरूरी चीज है जिन्दगी के लिए।’ एक समय था कि नेता आदर्श होते थे, उनको देखने सुनने के लिए भीड़ उमड़ती थी, आज पैसा-प्रलोभन देकर भीड़ जुटाई जाती है। मूल्यों की अर्थवत्ता थी, जिन्दगी का मतलब था, मूल्य आधारित जीवन। आज जिन्दगी के लिए तमाशा जरूरी है। मूल्यहीन आधारित का तमाशा दिखाने, नवरत्न तेल से लेकर पोलियो तक में करोड़ों कीमत लेने और ठुमका लगाकर कमर लचकाने वाले सदी के महानायक कहे जा रहे हैं। यह है महानायकत्व की मूल्यहीन परिभाषा। साम्राज्यवादी देशों के खेलों के बैट और जूतों-जर्सी की कीमत खेलों का मूल्य बता रही है और करोड़ों, मूल्य पर जीने वाले हाशिए पर खड़े कीमत की ताकत देख रहे हैं। साहित्य, कला, संस्कृति का मूल्य कीमत तय कर रही है। जिस कला में सबसे अधिक कीमत मिलती है, वही मूल्यवान साबित हो रही है। यह दु:खद यथार्थ है। ‘भाई’ को कैसे बताऊं कि सच तो यह है कि कोई भी आदमी जूते की नाप के बाहर नहीं है, फिर भी मूल्य शाश्वत सत्य हैं, जो रहेंगे, भले ही उनके लिए हमेशा की तरह जद्दोजहद करनी पड़े।
                            ***चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र  - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
         

Sunday, December 25, 2011

अपने ‘मैं’ को ‘हम’ पर मत थोपिए

  किसी भी लोकतंत्रिक व्यवस्था में जब प्रतिपक्ष प्रतिद्वंदी में बदल जाए, विपक्ष विरोधी बन बैठे, निष्पक्षता का मतलब तटस्थता हो जाए और ‘मैं’ ‘हम’ को हांकने लगे तो समझिए वहां राजनीतिक अराजकता ने दस्तक दे दी है। देश में इन दिनों कुछ इसी तरह का माहौल बनाने की कोशिशें हो रही हैं। टीवी चैनलों की सतही और अधकचरी खबरें सच और झूठ को गडमड कर भ्रम का नया वितान तानने में जुटी हैं। अभी तक देश के संविधान, लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अविश्वास व्यक्त करने वालों को नक्सली करार किया जाता था, पर अब तो कोई भी ऐसा कह सकता है और ऐसा कहने का आह्वान कर सकता है।
गनीमत है कि टीम अन्ना के बड़बोले मेम्बर अरविंद केजरीवाल का बाम्बे हाइकोर्ट के फैसले को लेकर कोई अब तक कोई वक्तव्य नहीं आया कि संसद की तरह  देश के न्यायालयों पर भी उनका विश्वास नहीं है, क्योंकि कोर्ट ने उनके हिसाब से फैसल नहीं दिया है। सांसदों, विधायकों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के खिलाफ उनके काम और आचरण के आधार पर अविश्वास और नफरत की बात करने के लिए तो कोई भी स्वतंत्र है पर, लोकतांत्रिक संस्थाओं और समूची प्रणाली पर खुलेआम कोई ऐसी टिप्पणी करें, और हम सुनकर भी अनसुना कर दें ,ऐसी प्रवृत्ति का उभरना हमारे  हिसाब से ठीक नहीं है।
 पिछले 11 दिसंबर को टीम अन्ना ने जंतर-मंतर पर अपने जनलोकपाल पर बहस के लिए राजनीतिक दलों को बुलाया था। यूपीए के साथी दल छोड़कर प्राय: सभी राजनीतिक दल चौराहे की इस बहस में शामिल हुए। टीम अन्ना भले ही यह प्रचारित करे कि ये दल उनके जनलोकपाल के विचारों से सहमत हैं पर हकीकत कुछ और है। इनमें से किसी ने जनलोकपाल का पूरा समर्थन नहीं किया। टीवी के एंकरों की तरह हां या न की शैली में संचालन कर रहे अरविंद केजरीवाल के हाथों से माइक छीनते हुए सीपीआई के डी राजा ने कहा कि बहस की यह जगह नहीं। इस विषय पर जो भी बहस होगी वह संसद में होगी। राज्यसभा में भाजपा के नेता अरुण जेटली ने कहा कि बुनियादी मुद्दों पर सभी राजनीतिक दलों ने अपनी राय स्पष्ट कर दी है, विशिष्ट मुद्दों पर संसद में ही बहस होगी। सीपीआई के महासचिव एबी बर्धन ने साफ-साफ कहा कि टीम अन्ना के मुठ्ठी भर सदस्यों को यह नहीं सोचना चाहिए कि उन्हीं के पास सारी बुद्धि है और वही लोग पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। जो लोग इनकी बातों से सहमत नहीं इसका मतलब यह नहीं कि वे लोग भ्रष्ट लोगों के समर्थक हैं। एक सौ बीस करोड़ के देश मे विद्वानों की कमी नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की भावनाओं के प्रतीक बनकर उभरे हैं। देश की जनता सचमुच भ्रष्टाचार से इतनी त्रस्त है कि कोई कालाचोर भी चौराहे पर खड़ा होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने लगे तो उसमें भी आशा की किरण नजर आने लगती है। लेकिन अन्ना की मंडली को इस बात का भ्रम हो गया है कि जुटने वाली भीड़ के एक मात्र मोक्षदाता वही हैं, शायद इसीलिए उनका ‘मैं’ ‘हम’ को हांकने की कोशिश करता है। अन्ना की मंडली को लगता है कि उन्होंने जो ड्राफ्ट तैयार किया है वही ब्रह्मवाक्य है और उसकी एक लाइन भी आगे पीछे करना महापाप और भ्रष्टाचारियों की साजिश है। ईमानदारी का इतना दंभ होना भी कदाचरण की श्रेणी में आता है। अपने ‘मैं’ के अहम की तुष्टि के लिए भ्रष्टाचार शब्द का दोहन भी एक तरह से भ्रष्टाचार ही है।
   हमारी चिंता का विषय भी ‘मैं’ की तानाशाही को लेकर है जो आज की राजनीति में उछाल मार रही है। यह ‘मैं’ राहुल गांधी का भी हो सकता है, मायावती, ममता, मुलायम, लालू और जयललिता का भी। यह ‘मैं’ भारत के संविधान की पहली पंक्ति  ‘हम भारत के लोग..’ के ‘हम’ की आत्मा पर आघात करता है। अब लोकपाल को लेकर जो फार्मूला राहुल गांधी ने संसद में पेश किया था कांग्रेस के लिए तो वही ब्रह्मवाक्य है। सोनिया गांधी ने राहुल के ‘मैं’ की प्रतिष्ठा के लिए आरपार की लड़ाई का ऐलान कर दिया। हमने तो कम से कम यह नहीं सुना कि कांग्रेस ने पार्टी के भीतर लोकपाल को लेकर कोई गंभीर बहस चलाई हो, जिसमें इकाई स्तर तक कार्यकर्ताओं को शामिल करते हुए उनसे राय ली गई हो। पार्टी के भीतर ही सही यह ‘मैं’ की तानाशाही नहीं है तो और क्या है। इसी कांग्रेस में  सुभाष बोस गांधीजी से असहमत हो जाते थे, उनके प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव भी लड़ा और जीते। पर वे गांधी ही थे जिन्होंने उन्हें नेताजी का अलंकरण दिया। डाक्टर राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार बल्लभभाई पटेल में असहमतियां होती थी। पर तब कांग्रेस में ‘हम’ का नेतृत्व हुआ करता था ‘मैं’ सिर्फ निजी विचार तक ही सीमित रहता था।
    आजादी के बाद सदन में प्रतिपक्ष प्रतिद्वंदी नहीं हुआ करता था। तर्कों के तीखे और निर्मम प्रहार करने वाले लोहिया का सदन में पंडित नेहरू को बेसब्री से इंतजार रहा करता था। अटलबिहारी वाजपेई इंदिरा गांधी की प्रशंसा को लेकर शब्दों की कंजूसी नहीं बरतते थे। इंदिराजी भी अटल को संयुक्तराष्टÑ में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजने में गर्व महसूस करती थीं। अब विपक्ष किस तरह विरोधी बन बैठा है, जार्ज फर्नाडीस और पी चिदंबरम का दृष्टांत सामने है। एनडीए सरकार में जार्ज को यूपीए के सदस्यों ने बोलने नहीं दिया तो अब चिदंबरम को बोलने से रोककर बदला चुकाया जा रहा   है। संसद में पूरे ढाई साल देश कर रक्षामंत्री अपनी बात रखने के लिए तरसता रहा। अब देश के गृहमंत्री मंत्री की जुबान विपक्ष के शोर में गुम है।    राजनीति में सहिष्णुता अंतिम सांसें ले रही है। केंद्रीय मंत्री होकर भी बेनी प्रसाद वर्मा किसी मुहल्ला छाप गुंडे की भांति एक बूढेÞ अन्ना हजारे को चुनौती देते हैं कि यूपी में घुसना तो देख लेंगे। अब सामने यूपी समेत पांच राज्यों के चुनाव हैं। मर्यादाओं के टूटने के कितने कीर्तिमान बनते हैं, देश यह देखने के लिए अभिशप्त है। अखबारों की ‘पेडन्यूज’ चुनाव की सुचिता पर कितना मैला घोलती हैं और खबरिया चैनल किस तरह कौव्वे से कान उड़ाते हैं यह अभी देखना बाकी है। और सबसे दिलचस्प तो यह होगा कि अन्ना की मंडली कांग्रेस को धूल चटाने किसकी पालकी पर सवार होकर निकलती है।

Thursday, December 22, 2011

जागीरदार बनने का प्रपंच

  अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन ने एक नई बहस संसद बनाम जनता छेड़ दी है। हालांकि इस आंदोलन का यह कभी मुद्दा नहीं था किंतु आंदोलन के पहले चरण में ही कांग्रेस ने यह कहना शुरु कर दिया कि अन्ना हजारे संसद को ब्लैकमेल कर रहे हैं। सांसदों के अधिकारों का अपहरण कर रहे हैं। संसद सवैधानिक संस्था है और अन्ना हजारे इसकी गरिमा गिराने के लिए जनता को भ्रमित करके उकसा रहे हैं। इसी तरह के आरोप लगभग हर दल के सांसदों ने लगाए। जाने या अनजाने जब यह प्रसंग उठ ही गया है तो यह उचित होगा कि इस पर राष्टÑीय बहस हो और जनता तथा जनप्रतिनिधियों को अपने लोकतंत्र की वास्तविक नियंत्रण रेखा की जानकारी हो जाए। इसे कभी चुनौती किसी ने नहीं दी कि संसद सर्वोच्च है। यह भी किसी ने दावा नहीं कहा कि कानून संसद में नहीं बल्कि सड़कों पर बनेगा। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि सरकार और संसद बार-बार इसी बात को जो कही ही नहीं गई, दोहराते जा रहे हैं। देश हो या समाज, इनके सुचारु संचालन में सबकी अपनी-अपनी भूमिका होती है। अगर हम लोकतंत्र को अंगीकार कर चुके हैं, तो इस हकीकत से पलायन करने की किसी को इजाजत नहीं दी जा सकती कि लोकतंत्र में जनता और केवल जनता सर्वोच्च होती है। इस अधिकार पर विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका भी कांट-छांट नहीं कर सकती। इसी बिन्दु पर तानाशाही और लोकशाही में फर्क है। विशाल आबादी सीधी भागीदारी से कानून नहीं बना सकती। राजकाज भी नहीं चला सकती। इसीलिए जनता मिलकर अपना प्रतिनिधि नियुक्त करती है। सर्वविदित है कि प्रतिनिधि को ऐसे असीमित अधिकार कभी नहीं मिल सकते कि वह अपने नियुक्तिकर्ता के हितों तथा इच्छा के विपरीत कार्य करे।
     संसद और सांसदों की गरिमा संविधान की पोथी और भव्य भवन से नहीं बन सकती। वह बनती है संविधान की आत्मा का अनुसरण करने, जनता के प्रति प्रतिबद्धता और आदर्श जीवनशैली से। पहले जब कभी संसद में हंगामा होता था तो देश चौंक जाता था। अब हफ्तों संसद को सांसद जाम कर देते हैं और लोग उदासीन बने रहते हैं। जनता ने जिन प्रतिनिधियों को सर्वोच्च प्रजातांत्रिक सत्ता और संस्था में भेजा है, वे वहां संसदीय मर्यादाओं को तोड़ते हैं और मूल्यों को रौंदते हैं तब संसद और सांसदों की गरिमा को बनाये रखने का दायित्व किसका है? लोकतंत्र किसी सत्ता या सत्ताधारी का बंधुआ नहीं होता। वह समाज की जरूरत से पैदा हुआ है और समाज ही उसे निर्देशित करता है। जहां तक संसद को जनता की भावना से अवगत कराने और जन-इच्छा संसद तक पहुंचाने की बात है, तो जनता को ऐसा करने का अधिकार है।
 लोकतंत्र मुर्दा व्यवस्था नहीं है कि कुर्सी पर बैठ कर प्रेत-पूजन करो और लोग चुपचाप देखते रहें। लोकतंत्र विकसित और परिवर्तित होती रहने वाली व्यवस्था है। लोकतंत्र में हमेशा तंत्र को लोक के आधीन रहना होता है। एक बार जनता ने अगर अपना प्रतिनिधि चुन लिया है तो इसका यह आशय नहीं हो सकता कि पांच साल तक मनमानी करने और जनविरोधी कारनामों को करने की गारंटी मिल गई है। डॉ. राममनोहर लोहिया ने तो नारा ही दिया था- जिन्दा कौमें पांच साल का इंतजार नहीं कर सकती। संसद की शालीनता भंग करने और जन-इच्छाओं का अपहरण करने वाले प्रतिनिधियों का उपचार समय के पूर्व इनकी वापसी का प्रावधान ही पर्याप्त है कि संसद और सांसद जनता के नियंत्रण में हैं। अभी रिकॉल का अधिकार हमारे देश मे नहीं आ पाया है किंतु दुनिया के कई देशों में इसका प्रावधान है। ब्रिटेन में इसके आगमन की सुगबुगाहट होने लगी है। प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार विधायिका पर जनता का अंकुश लगाने और इस तरह जनतंत्र को मजबूत करने के लिए उपयोगी होगा।
  जिस संसद को जनता स्वतंत्रता का पावन मंदिर समझती है उसी में सवाल के बदले सांसद पैसा मांगते दिखे। सत्ता के पक्ष में पैसा लेकर वोट देने के लिए तैयार सांसदों के दर्शन हुए। संसद में अपराधी पृष्ठभूमि के प्रतिनिधि संसद में किस सम्मान में वृद्धि कर रहे हैं। सन 2001 में आंतकवादियों ने दिनदहाड़े संसद में हमला किया और देश के कई सुरक्षाकर्मी शहीद हुए, किंतु दस लम्बे साल बीत जाने के बाद भी संसद पर खूनी हमला करने के षड़यंत्रकारी गुरु को अभी तक फांसी नहीं मिली हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने फांसी पर लटकाने का फैसला कई साल पहले दे दिया था। हमारे सांसद और हमारी संसद को इस बेशर्म अंधेरगर्दी के चलते सम्मान बचाने की सुधि क्यों नहीं आती? जब अपराधी देश में कब्जे में है और देश की सबसे बड़ी अदालत ने सजाए-मौत का फैसला दे दिया है, तब सजा पर अमल न करने पर संसद सरकार को बाध्य करने की जगह मौन क्यों है? संसद दो लाइन का प्रस्ताव पारित करके महामहिम को अफजल गुरु की  दया-याचिका पर तुरंत फैसला करने का निर्देश दे सकती है। ऐसा प्रस्ताव पास करना गैरसंवैधानिक भी नहीं है। लेकिन आंतकवादी की बेहतरीन मेहमाननवाजी की जा रही है। सांसदों को समझना होगा कि ऐसे धतकरम से संसद की गरिमा मटियामेट होती है।
     देश ही नहीं अब तो सारी दुनिया जानती है कि कांग्रेस ने गैर सांसदों की एक कोर कमेटी बना रखी है जो नीतियां बनाती है। कानून का प्रारूप तैयार करती है और इसे सरकार संसद में प्रस्तुत करती है। इसे लेकर सांसदों को अपनी और संसद की अवमानना का बोध क्यों नहीं है? आखिर बाहरी लोग जिन्हें जनता ने नहीं चुना वे संसद के काम में खुलेआम   हस्तक्षेप कर रहे हैं। दावा किया जा रहा है कि कानून केवल जनप्रतिनिधि बना सकते हैं किसी सिविल सोसायटी को यह हक नहीं है। संसद को फिर यह भी बताना चाहिए कि बयालिस साल तक भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए मजबूत कानून क्यों नहीं बनाया? ऐसे में जनता को हक है कि वह पहल करे। चुनाव के बाद जनता अधिकारविहीन नहीं हो जाती। उसकी सार्वभौमिकता यथावत रहती है। जनता और देश की किस्मत से खेलना उसके ही प्रतिनिधियों ने अपना विशेषाधिकार समझ लिया है और इस विशेषाधिकार को जहां से चुनौती मिलती है उसे वह लोकतंत्र को मिलने वाली चुनौती बताते हैं।
  पक्ष और पिपक्ष मे रहकर राजनीति करने वाले महाप्रभुओं को समय की दीवाल पर लिखी इबारत जितनी जल्दी हो, पढ़ लेनी चाहिए कि जनता से बड़ा कोई महाबली नहीं होता। रागदरबारी का सनीचर कच्छा-बनियान पहन भांग पीसता था। बदन पर प्रधान का कुरता चढ़ते ही उसमें अकड़ आ गई। उसे प्रधान का कुरता वैद्यजी ने पहनाया था। इसे वह कभी नहीं भूला। इस गाथा का एक अर्थ यह भी है कि जनता ही वैद्यजी है। जागीरदार बनने का प्रपंच अब चलने नहीं वाला है।
      ***चिन्तामणि मिश्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
     

लोक के वेद हैं शिशु-गीत

  प्रत्येक बोली का अपना लोक है। उसके अपने जातीय संस्कार हैं, गीत हैं। पड़ोसी बोली का प्रभाव हवा-पानी की तरह रसमय है। फिर भी अपनी बोली की ठसक सम्पूर्ण अस्मिता के साथ जीवन्त हैं। वेदों को अपौरुषेय कहा गया है, लोक में गाए जाने वाले गीतों के रचयिता भी अनाम हैं और ये गीत तबसे हैं, जबसे लोक की सृष्टि हुई। अपना आनंद, उल्लास और दु:ख पशु भी अनेक संकेतों एवं ध्वनियों से व्यक्त कर देते हैं, पक्षी तो हमेशा से गायन के क्षेत्र में मनुष्य के सहभागी रहे हैं। मनुष्य ने भी उनसे गीत सीखे हैं, उनके रुदन से अनुष्टुप रचे हैं। आदि काल से बच्चों के रोने में ,हंसने में उससे गीतों की कल्पनाएं की हैं। उनके खेलने-खाने के गीत गाए हैं। उन गीतों के अर्थ भले ही काव्य स्तरीय न हों, लेकिन उनकी लयात्मकता में आनंद हैं, जिसे देखने सुनने को देवता भी लालायित रहे हैं। कृष्ण की रास लीला के ‘गीत पंचाध्यायी’ और ‘गीत गोविन्द’ रचते हैं। लोक में गीतों का प्रारंभ विभिन्न प्रकार के खेल-गीतों में मिलता है। कृष्ण काव्य समूचा लीला काव्य है। जो लीला पुरुषोत्तम है, उसके हर कृत्य लीला (खेल) मय ही होंगे, कदापि इसी खेल प्रवृत्ति के कारण ही कृष्ण दशावतारों में लोक के सबसे गरीब हैं। कृष्ण की बाल क्रीड़ाओं में साहित्य में नए रस का वत्सल भाव दिया, जिस भाव के लिए देव-संसार तरसता रहा, उसे लोक ने सहज ही प्राप्त कर लिया। बघेली लोक संसार भी ऐसे ही वत्सल लोक खेलों से अटा पड़ा है। बच्चे दूध पीने में आनाकानी करते हैं। जिस तरह बछड़े गाय को पीते हैं- उसी तरह बच्चे (लाला) भी पीना चाहेंगे, बचपन में चाहते रहे हैं-
आउ आउ गउआ तुं हुुंकुरत आउ/ लाला क हमरे तुं दूध पिआउ/लाला हमार हमा अनमोल/ रीझत हं सुनि मीठ मीठ बोल। रूठे बालक को मनाना सदा से कठिन रहा है। बाल हठ से बड़े-बड़े बादशाह हारे हैं। मां यशोदा भी हारी हैं। सूझ-बूझ से ही उनको मनाया जा सका है। चन्दा मामा रहा है, मनाने में सिर्फ वही भान्जे को मना सका है, धरती के अन्य रिश्ते चन्दा के सामने फीके हैं। चन्दा मामा के लिए बघेली में जोन्हा भाई है, मां हो कि मामा, उसको व्याकरण से क्या लेना देना। मां-दादी-नानी दूध पिलाने के लिए बुला रही है- धाई आउ, धुपाई आउ/ सातउ खोरबा लइकै आउ/ दहिउ क मोरबा लइकै आउ/ लाला के मुहे म घुटुक्क।  खाली दूध से मेरा लाल मानने वाला नहीं, उसके लिए दही भी लाना। लाला को चन्दा मामा के बाद सबसे प्रिय चिरई-चुनगुन है। वह इन्हें पकड़ने के लिए दौड़ता है, पर पकड़ नहीं पाता। पक्षी भी जानते हैं कि हमें पकड़ कर पिंजड़े में डाल दिया जाएगा, पालतू बना लेंगे। कोई भी प्राणी पालतू नहीं होना चाहता, लेकिन मनुष्य की स्वार्थी और भेद बुद्धि ने चराचर को पालतू बनाने की संकल्पना पाल रखी है। मीठे बोल, बोलकर अपने लाला के लिए चिरइयों से चिरौरी करता है- आउ रे चिरइया, वन मुरली बजाउ/ सांझ-सकारे हमरे लाला क खेलाउं/ चिरई के माध्यम से उसे लोरी सुना रहा है, अंत में थपकी देकर हइरो-हइरो-हइरो गाकर सुलाने का प्रयास करता है।
उसका लाला सुखी रहे, फले-फूले यह कल्पना मनुष्य मात्र की है। उसको हंसाने, खिलाने के लिए कितने गीत रचे गए हैं, यह किसी भी शास्त्रीय साहित्य में नहीं है, यह सिर्फ लोक की अमूल्य निधि है, वह लाला के आनंद के लिए एक नहीं अनेक कहानियों की रचना करता है। यह सत्य है कहानी, कहने से बनी है और यह लोक की शैली है, जो कालांतर में शहर चली गई अपने कहन से उसने लोक को दरकिनार कर दिया। इसीलिए वे कहानियां जिनमें लोकतत्व नहीं है, कालजयी नहीं हो सकीं। अपने लाल को मनाने के लिए उसके पास अनेक बिम्ब विधान हैं, नदिया के ईरे-तीरे चरै बोकरी/ नदिया क पानी पिअउ बोकरी/ नदिया सुखाइ गइ/ मरै बोकरी/ लोक में नदियां सुखाने की बातें नहीं थीं, लेकिन लाला को खुश करने के लिए बिना पानी के मारना था। वे नाराज हैं, बासी भात है, गरीबी लोक की सम्पत्ति है, फिर भी वह खुश है, नाराज लाला को खुश करने में लगा है- गलगल नेबुआ/ जुन्ना क भात/ चकमड़ दोनमा/ घिउ हबइ तात/ खाइ मोर लाल/ जुड़ाइ मोर जिउ/  चकमड़ के दोनमा की कल्पना इसलिए कठिन नहीं कि लोक में इमली के पत्तों की पतरी भी बनती है। मनाने की बचपन की क्रिया विवाह संस्कार से कलेवा तक निरंतर चलती रहती है। रूठने और मनाने की परंपरा मे कहीं-कभी गांठ नहीं थी। अरबा म रोटी/बरोठवा म चिउ/ खाइ मोर लाला/ जुड़ाइ मोर जिउ/ । ‘जुड़ाइ’ का समानार्थी यदि तृप्ति रखा जाए तो, वह अर्थ नहीं दे पाएगा। ‘जुड़ाइ’ में आंख-मन-पेट एक साथ सब शामिल हैं। किसी ने कहीं लाल को चिढ़ा दिया, तुं-तकारी मार दिया तो उसकी खबर ऐसी लेंगे कि फिर किसी को वह चिढ़ा न सकेगा। जे हमरे लाला क मारी तुकारी/ओके जीभी म कूंचब अंगारी/ जे हमारे लाला से बोली मिठबोल/ ओके दुआरे बंधाइ देब घोड़।
  लोक में गाए जाने वाले ये गीत लोक ऋचाएं हैं। वैदिक ऋषियों ने प्रकृति के विराटत्व को देखकर कस्मै देवाय हविषा विधेम  के कारण अनेक स्वरूपों में प्रकृति का महिमा गान किया। लोक ने सिर्फ  शिशु को लेकर हजारों-लाखों गीत गाए। यह लोक की संवेदना थी कि उसने हर कार्य के आरंभ में वेद की ऋचाओं का स्मरण रखा, प्रत्युत विकल्प में उसके पास अनेक शिशु ऋचाएं थीं, जिन्हें उसने शिशु गीत कहा, वरना ये किसी वेद   से कमतर नहीं हैं। लोक के संस्कार गीतों को संदर्भर्हीन बेसुरे तर्जों पर सिनेमा और रेडियो के तथाकथित लोकगायकों ने जो बेस्वाद दुर्गन्धमय खिचड़ी पकाई है, उससे संस्कारगीतों पर खतरा बढ़ा है, और जो अपसंस्कृति परोसी जा रही है, उससे सम्पूर्ण लोक-साहित्य को दरिद्र ओर संस्कारहीन बनाया जा रहा है, उससे सावधान रहने की जरूरत है।
   आश्यर्च इस बात का अवश्य है, लेकिन गनीमत है कि वे उनकी जद मेंं नहीं हैं, जिन्हें हम शहरी कहते हैं, हां यह बात अवश्य है कि शिशु-गीत गाने वाले लोग गिनती भर शेष हैं, जिन्हें सहेजना होगा। संकलित करना होगा। छोटे-छोटे बच्चों के गीत अब विकास की गति में लुप्त हो रहे हैं। इन गीतों के भंडार दादा-दादी, नाना-नानी के पास धरोहर थे, जिनसे बच्चों का नाता, पापा-मम्मी की संस्कृति में टूट सा गया है। ये दुलार-गीत हैं, ये प्यार के समानार्थी नहीं हैं, इनमें लास्य रस है, जिव्हा के तार से लार से टपका हुआ रस, जिस दुलार पर शिव-पार्वर्ती, गणेश-कातिर्केय को गोद में लिए निछावर हैं।
                   ***.चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र    - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                         

Wednesday, December 21, 2011

ऐसा क्यों नहीं है युग-युगांतर से


एक कविता की पंक्तियां है- 'एक हाथ में महीन धागा है, दर्जी के पास, जिससे वह सिलता जाता है कुर्ते और निक्करें, और दूसरे हाथ में कैंची, वह कैंची से काटता है और फिर महीन धागे से सिलता है,

कपड़े, जो मनुष्य के जिस्म को ढंकते हैं, सलीके से, इस तरह वह आकार देता है कपड़ों को, मनुष्य को नंगा होने से बचाए रखने के लिए, और इस पवित्र काम में, धागा और कैंची दोनों ही उसके अस्त्र होते हैं'- किसी भी विचारशील समाज में बुध्दिजीवी की भूमिका एक दर्जी की तरह की होनी चाहिए। हार्वाड विश्वविद्यालय ने पिछले दिनों भारत के एक व्यक्ति केन्द्रित राजनैतिक दल जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यिम स्वामी को अपने यहां के अध्यापकीय पैनल से बाहर निकाल दिया। उन पर यह कार्रवाई अपने एक लेख में इस्लाम धर्म पर और इस धर्म के अनुयायियों पर की गई विपरीत टिप्पणियों के कारण की गई। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बुध्दिजीवी वर्ग ने आम तौर पर हार्वाड विश्वविद्यालय के इस कदम की सराहना की। डॉ. सुब्रमण्यिम स्वामी ने सिर्फ इस्लाम के लिए ही आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है बल्कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष तथा कांग्रेसाध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के प्रति भी उनकी नागरिकता और उनके ईसाई होने को लेकर तरह-तरह की भ्रामक और आधारहीन बातें करके बड़ी संख्या में युवाओं को भ्रमित किया है। उनका पूरा आचरण इस बात का पुख्ता सबूत है कि सिर्फ डिग्री हासिल कर लेने से ही कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा, परिपक्व और समझदार नहीं हो जाता। हार्वाड विश्वविद्यालय का जहां तक सवाल है उन्होंने उचित ही किया पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ वर्ष और विगत की ओर चलें तो दोहरे मापदंडों का पता भी चलता है। करीब एक दशक पहले भारतीय मूल के अंग्रेजी लेखक सर विद्याधर नायपाल को साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उन पर यह आरोप है कि अपने चिंतन और लेखन में वे घोर साम्प्रदायिक हैं। 6 दिसम्बर 1992 में जब अयोध्या में बाबरी-मस्जिद का दुर्भाग्यजनक प्रकरण हुआ तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिन दो या तीन बुध्दिजीवियों ने भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी की प्रशंसा की सर विद्या उनमें प्रमुख थे। नायपाल ने कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण हिन्दुस्तान के पुर्नजागरण का प्रतीक है।'' नायपाल ने रोमिला थापर के इतिहास के परिप्रेक्ष्य को महज मार्क्सवादी बताकर नकारते हुए कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण एक तरह का ऐतिहासिक प्रतिशोध है।'' यह एक तरह से आडवानी और विश्व हिन्दू परिषद की सोच को ताकत देने वाली प्रतिक्रिया थी।
6 दिसम्बर 1992 के दिन जब सारी दुनिया का मीडिया उस त्रासद घटना को भारत में धर्मनिरपेक्षता के लिए एक अशुभ संकेत बता रहा था। नायपाल ने टाईम्स ऑफ इंडिया को दिए गए अपने साक्षात्कार में कहा था कि- 'वे लोग जिन्होंने मस्जिद की मीनारों पर चढ़ कर उन्हें तोड़ने का काम किया उनकी भावनाओं (पैशन) को समझने की जरूरत है।'
अयोध्या प्रकरण के कुछ ही वर्षों बाद नायपाल ने अपना विवादास्पद लेख लिखा था जिसमें इस्लाम को कट्टरवादी धर्म बताया गया था और इस उप-महाद्वीप में रहने वाले सभी इस्लाम धर्मानुयायियों को 'कन्वर्ट' कहा गया था। उसके तुरंत बाद ही उन्हें पश्चिमी ताकतों द्वारा साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया। यह सिर्फ संयोग नहीं हो सकता।
बी.एस.नायपाल की अधिकृत जीवनी लिखने वाले पैट्रिक फे्रंच की पुस्तक 'द वर्ल्ड इा व्हाट इट इा' में लिखी बातों पर अगर भरोसा किया जाए तो नायपाल जब-जब भी भारत आए यहां के लोगों के प्रति उनका दृष्टिकोण कोई बहुत सम्मानजनक नहीं रहा। वे मुंबई और थाणे में दलित लेखकों के घर उनसे मिलने भी गए लेकिन वह एक अभिजात्य वर्ग के कुलीन लेखक का अपने से कमतर किसी लेखक के यहां जाना था जब कि शिवसेना के नेता बाला साहेब ठाकरे के लिए उनके मन में गहरा आदर का भाव था। यह एक और पक्ष है जो कि सर विद्या को आडवानी के करीब लाता है। लालकृष्ण आडवानी ने अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री-माई लाईफ' में दो अन्य प्रखर बुध्दिजीवियों का उल्लेख बड़े गर्व के साथ किया है, जिन्होंने अयोध्या प्रकरण में उन्हें खुला समर्थन दिया- वे हैं- नीराद सी. चौधरी और गिरिलाल जैन। 'आटोबायग्राफी ऑफ एन अननोन इंडियन' के लेखक जो कि भूरे साहब के नाम से भी जाने जाते थे, नीराद सी. चौधरी निश्चित ही यूरोप में भारत की पहचान थे लेकिन वे आजीवन भारतीय जन-जीवन के प्रति अपनी घृणा के लिए जाने जाते रहे, इसलिए उनका अपने समर्थन में होना एक तरह से अपने विरोध में होना ही है। लगभग यही बात धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में गिरिलाल जैन पर लागू होती है। दिवंगत श्री जैन की सोच और उनकी विचारधारा किसी से छिपी हुई नहीं थी। श्री जैन ने भी अयोध्या-आन्दोलन को हिन्दू-पुर्नजागरण का एक अनिवार्य और ऐतिहासिक हिस्सा बनाया था।
सच तो यह है कि 6 दिसम्बर 1992 के बाद के देश में हिन्दी क्षेत्र के तमाम समाचारपत्र और पत्रिकाएं अगर पलट कर देखें तो हम पाते हैं कि नब्बे प्रतिशत से अधिक समाचार-पत्रों और उनके संपादकों ने देश के धर्म-निरपेक्ष स्वरूप का हवाला देते हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड की खुलकर निंदा की थी। कई बार लगता है कि हमारा मजबूत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र यूरोपियन राष्ट्रों की बर्दाश्त से बाहर होता जा रहा है इसलिए वे हर तरह के हथकंडे हमारे ऊपर आजमाते हैं, यहां तक कि हमारे ही बुध्दिजीवियों को भी इन स्थितियों में एक समरस समाज में खलल पैदा करने की कोशिश का हिस्सा बनाने की कोशिश करने से नहीं चूकते। जापानी कवि मिशियो माडो की पंक्तियां क्या सचमुच सटीक नहीं लगतीं- ''कई बार मैं चकित हो जाता हूं कि,   ऐसा क्यों नहीं है युग-युगांतर से,  अरबों-खरबों साल से, हम धूप में रहते आए हैं, जो इतनी निर्मल हैहवा में सांस लेते आए हैं जो इतनी निर्मल हैपानी पीते आते आए हैं, जो इतना निर्मल है, तब क्यों, आखिर क्योंहम और काम हमारे,पहुंच नहीं पाते, कैसे भी निर्मलता तक।''
ttejinder.gagan@gmail.com

अदम गोंडवी की मौत और कुछ सवाल, लिखने- पढने वालों की जमात से

डा. अलका सिंह्
‘अदम गोंडवी’ बडा अज़ीब लगा था यह नाम जब मैने पहली बार उनको दूरदर्शन पर एक कवि सम्मेलन में गज़ल पढते सुना था. अपनी माँ से जब पूछा कि ये क्या नाम हुआ अम्मा तब जैसे वो बिफर उठीं थीं एक तमाचा जडते हुए बोलीं ये ‘रामनाथ सिंह’ हैं. इनका तखल्लुस है ‘अदम’ और गोण्डा के रहने वाले हैं इसलिये ‘गोंडवी’ लिखते हैं. और तपाक से बोली यह एक जिन्दा शायर हैं सुनो ध्यान से उनको. यह उनसे मेरा पहला परिचय था. आज उनकी मृत्यु की खबर सुनकर, वो दृश्य, माँ और वो तमाचा जैसे मेरी मेरी आंखों के सामने एक बारगी घूम गये तब शायद मैं 10 वीं की छात्र थी. कवि सम्मेलन मेरी जान हुआ करती थी और अदम गोंडवी जैसे शायरों और कवियों को सुनने का जैसे मुझे जुनून था और यह जुनून बढाने में अदम, बसीम बरेलवी, बशीर बद्र, निदां फाज़ली, कृष्ण बिहारी नूर जैसे शायरों का बड़ा हाथ था किंतु इस पूरी जमात में अदम को पढना कई बार मुट्ठी भींचने को जैसे मजबूर कर देता है. पर आज जैसे खुद पर मुट्ठी तानने को मन हो रहा है. पुष्पेन्द्र फल्गुन की पोस्ट देखकर इस बार के लख्ननऊ प्रवास में उन्हें अस्पताल जाकर देखने की इच्छा थी. पर.......................
आज उनकी गज़लें कई बार पढ रही हूँ. पलट - पलट कर देख रही हूँ उनकी किताब इस दुख से कि आखिर क्यों अदम जैसे शायर अक्सर पैसे के अभाव में अस्पतालों में क्यों दम तोड देते हैं? क्यों एक ऐसा शायर जिसके शब्दों में लोगों को हिला देने की ताकत होती है उसी मुफलिसी का शिकार हो जाता है जिसको मिटा देने की तमन्ना लेकर वो उम्र भर लिखता है. क्यों ऐसा होता है कि हम उसी सरकार से गुहार करने लगते हैं जिसको आइना दिखाते–दिखाते अंतिम सांस लेने की कामना करता है वो शायर. और सरकारें लीवर और आंत की गम्भीर बीमारियों के लिये महज़ 50 हज़ार की सहायता देकर अपना पिण्ड छुड़ा लेती? और क्या बात है कि उसके जाने के बाद हम हाथ मलने के लिये मजबूर क्यों होते हैं? इन सभी सवालों के साथ मेरे पास कुछ सवाल आज के काथाकार, कवि और साहित्य कर्म से जुडे साथियों से और भी है किंतु सबसे पहले बात अदम की और उनकी बीमारी की --
अदम एक कृषक थे. उनका मुख्य पेशा भी कृषि ही था. यह बात सभी को मालूम है किंतु वह पूरवी उत्तर प्रदेश के एक ऐसे जिले के किसान थे जो जिला तमाम प्राकृतिक आपदाओं को पूरे साल झेलता है. बाढ, अंशिक क्रृषि सुखाड जैसी आपदायें वहां के लिये एक आम बात है. इस जिले के साथ इस पूरे क्षेत्र में बरसात के दिनो में महीनो पानी भरा रहता है तो ऐसे में पूरा इलाका कम उपज़, भूख, गरीबी, बेरोज़गारी तथा तमाम अन्य तरह के संकटों को झेलता है. इसलिये इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि वह एक ऐसे किसान थे जिनका गुजारा कृषि से कबीर की उन लाइनों की तरह ही चलता रहा होगा कि ‘मैं भी भूखा ना रहूँ साधु ना भूखा जाये’. अदम का व्यक्तित्व इस बात की गवाही भी देता था कि वह भारत के एक आम किसान हैं बात अगर उनके इलाके के स्वास्थ की स्थितियों पर की जाये तो वह इलाका स्वस्थ्य के लिहाज़ से भी उसी तरह रेखांकित किया जाता है जैसे कि कृषि के लिये. आप देखें कि जापानी इंसेफेलाइटिस, मलेरिया और पानी के संक्रमण से होने वाले कई रोगों से वहां के नागरिक रोज दो चार होते हैं. हर दिन सिर्फ मलेरिया से वहां कई मौतें होती हैं. पानी के संक्रमण से होने वाली तमाम बीमारियां वहां के लोगों को रोज अपना चारा बनाती हैं. बच्चों में जापानी इंसेफेलाइटिस से हो रही मौत की खबरें अभी खबरों की सुर्खियां है और अदम गोंड्वी ने जब लिखा कि-
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।।
तो यह वो अपने इलाके की ही बात कर रहे थे और दुनिया को ही नहीं अपने साथी कवियों को भी बता रहे थे कि उनके इलाके के आधे घरों की यही हालत है. वहां भूख है, गरीबी है, बीमारी है और बेरोजगारी है. वो सिर्फ हालात बयान नहीं कर रहे थे वो ये भी कह रहे थे कि
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
तो वह चमारों के घर के बहाने साथ के लोगों से यह भी कह रहे थे कि वो इस ताप को मह्सूस करते रहे है और यह ताप उन्हें वो करने से रोकता है जो सब करते है और चाहते हैं कि सब इस ताप को मह्सूस करें फिर साथ के लोग यह कैसे नहीं समझ पाये कि ऐसा फकीर कवि देश की धरोहर है ? क्यों नहीं समझ पाये कि ऐसा कवि देश के साथ कविता की और हमारी जमात की सम्पत्ति है ? क्यों नहीं समझ पाये कि उनकी भी जिम्मेदारी बनती है उस कवि के प्रति? क्यों नहीं सोच पाये कि ऐसी धरोहरों को बचाने के लिये जब जरूरत होगी तो पहले उनको आगे आना होगा सरकार से गुहार उसके बाद लगायी जायेगी? क्यों नहीं समझ पाये वो? ये सवाल हमें खुद से पूछने ही होंगे.
आप ध्यान दे कि अभी हाल ही में अदम जी की किताब भी जो आयी वो प्रतापगढ के एक बहुत ही छोटॆ से प्रकाशन अनुज प्रकाशन से आयी. किताब का विवरण देखें :
पुस्तक का नाम: ‘’धरती की सतह पर’’
लेखक
अदम गोण्डवी
प्रकाशक:
अनुज प्रकाशन, इन्द्रप्रस्थ मार्केट, बाबागज, प्रतापगढ़ उ.प्र.
मूल्य:
Rs-125
तो ऐसे में यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि उनकी इस तरह की गम्भीर बीमारी के समय आर्थिक मदद की अवश्यकता होगी. तो ऐसे में क्या होना चाहिये था ? क्या कोई जिम्मेदारी साथ के लोगों की नहीं बनती थी? क्यों ऐसा होता है कि हम सामर्थ्य होते हुए भी सरकार का मुँह ताकते हैं ? क्यों ? सोच रही हूँ जैसे वो हमसे ही कह रहे है कि -
चाँद है ज़ेरे क़दम. सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया
जी हाँ किरदार! एक कवि का किरदार! जो लोगों की बात करता था जो जनता की बात करता था और जो आज के देश की तस्वीर हमे दिखाता था और कहता था -
काजू भुनी प्लेशट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्केह समाजवादी हैं तस्कसर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्नख मनाएं तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहां की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूं मैं होशोहवास में
.................................... अदम गोंडवी
दरअसल जब एक शायर लिखता है और जब जनता के लिये लिखता है तो वह आवाज देता है, आगाह करता है और पुकारता है अपने आस पास को, देश को और उन पढे लिखे बुद्धिजीविओं को कि देश के हालात पर सोचो विचार करो क्योंकि देश के हालात खराब हैं जनता बेहाल है और जब हम उसकी कविता पर दाद देते हैं तो वो आशा करता है कि उसके साथी सबसे अधिक जिम्मेदारी के साथ सुनेंगे उनकी बात और अमल करेंगे. सब कहेंगे कि उन्होने सुना उनको समझा उनके लिये भी तैयार थे. पर सवाल ये है कि क्या सही समय पर.? जब बात यहां तक पहुंच गयी थी कि –
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूं मैं होशोहवास में
तो मतलब साफ था कि बगावत के बाद के हालात के बाद पर सोचना ही होगा क्योंकि बगावत आसान काम नहीं होता. क्यों नहीं सोच पाये हम? क्यों चूक गये हम? ऐसा नहीं है कि उसने कवियों को पुकारा नहीं था उनको आवाज़ नहीं दी थी. आप देखें वो कई तरह से और कई बार आदीबों को आवाज़ दे चुके थे. और कह रहे थे -
अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्यों है फ़लक़ के चाँद-तारों में
एक तरह से चेताते हुए कहते हैं कि -
याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास का.
एक और बानगी देखें –
भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाक़िफ़ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो
गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो
ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.
और फिर बहुत बेबाकी से कह गये कि ---
जल रहा है देश यह बहला रही है कौम को ,
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये !
अदम इंकलाबी नस्ल के शायर थे. वो देश के हालात को बताने का हुनर रखते थे. इमान्दारी से आगाह करने का साह्स रखते थे उनको खोकर सहित्यकारों की जमात दुखी है किंतु इस जमात को खुद के अन्दर झांक कर देखना होगा. खुद से कई सवाल करने होंगे और भविष्य में ऐसा न हो इसके लिये तैयारी करनी होगी क्योंकि यह पहली बार नहीं है कि हमने कोई कवि इस तरह खोया हो. एक लम्बी कतार है. रागदरबारी अभी याद है लोगों को.
अंत में ढेरों सवाल खुद से करते हुए अदम को सम्झने की चेष्टा के साथ कुछ गज़लें
मुक्तिकामी चेतना अभ्यलर्थना इतिहास की
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
आप कहते है जिसे इस देश का स्वधर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की
यक्ष प्रश्नोंह में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्याउ हमारी प्यास की?
इस व्यतवस्था़ ने नई पीढ़ी को आख़िर क्या दिया
सेक्सय की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ा स की
याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की.
विकट बाढ़ की करुण कहानी
विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्या.स लिखा है।
बूढ़े बरगद के वल्क ल पर सदियों का इतिहास लिखा है।।
क्रूर नियति ने इसकी किस्मलत से कैसा खिलवाड़ किया है।
मन के पृष्ठोंे पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है।।
छाया मदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई
लेकिन स्व प्निल स्मृतियों में सीता का वनवास लिखा है।।
नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले
शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्वाेस लिखा है।।
लू के गर्म झकोरों से जब पछुआ तन को झुलसा जाती
इसने मेरे तन्हाोई के मरूथल में मधुमास लिखा है।।
अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्या पर विरहदग्धच उच्छ्‌वास लिखा है।।
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्थाह विश्वा से लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शंबूक-वध की आड़ में
उस व्यनवस्थाब का घृणित इतिहास लेकर क्या‍ करें
कितना प्रगतिमान रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्या करें
बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूँठ में भी सेक्सँ का एहसास लेकर क्या करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती है मुझे
पारलौकिक प्यामर का मधुमास लेकर क्या करें

Monday, December 19, 2011

किसकी है खता, किसे दें हम सजा

 इस लेख में न तो कोई विचार हैं और न ही दर्शन, तथ्यों का विश्लेषण,आंकलन और सूचनाओं का संप्रेषण भी नहीं है इस लेख में। इसमें हैं कुछ सीधी सच्ची कथाएं जो हमारे गांव से शुरू होती हैं।  इनकी अनुगूंज आपके भी गांव-कस्बे या शहर में सुनाई पड़ सकती हैं। तो पहले इन्हें बांचिए...
                                           एक
कोई चालीस साल पहले की बात है। हमारे गांव के एक महानुभाव शहर की अदालत में बाबू हुआ करते थे। पढ़े-लिखे, सौम्य-सुशील, सुदर्शनीय और सज्जन। आस-पड़ोस के गांवों में बड़ी इज्जत थी उनकी। अदालत में दस-बीस रुपए बदस्तूर मिल जाया करता था। उनकी कुर्सी पर नजर गड़ाए एक दूसरे बाबू ने ऐसा तिकड़म रचा कि वे किसी मुवक्किल से बीस रुपए की रिश्वत लेते हुए ट्रेप हो गए। गांव में यह खबर जंगल में आग की  तरह फैली। नौकरी से मुअत्तिल होकर वे मुंह छिपाते हुए अंधेरी रात लौटे।  दूसरे दिन से लोग जब उनके घर के सामने से गुजरते तो ठिठक जाते और तजबीजते की बाबू जी क्या कर रहे हैं। उनका चेहरा अब कैसा होगा। स्कूल में उनके बच्चों को भी ऐसे ही घूरती नजर से देखा जाता। गांव में शादी-ब्याह, कथा वार्ता होता तो इस पर सलाह-मशविरा होता कि उन्हें न्योता जाए या नहीं। बहरहाल वक्त गुजरा, वे अदालत से बाइज्जत बरी हो गए। अदालत ने पाया कि उन्हें अदावत के चलते फंसाया गया था। सालों बाद अपमान और लांछन की अंधेरी कोठरी से जब वे बाहर निकले तो ..वो.. वो नहीं रह गए, जो पहले थे। अर्धविक्षिप्त से,पूरी दुनिया के प्रति कड़वाहट लिए हुए। गांव के लोग उनके रिश्वत लेते हुए पकड़े जाने के वाकया को भुला चुके थे।  उन्हें पुन: ससम्मान बुलाए जाने लगा, पर वे जाते कहीं नहीं थे। बाइज्जत बरी हो जाने के बाद भी रिश्वत लेने के आरोप का अपमान और लांछन सीने में जज्ब किए हुए वे तरक्की के साथ रिटायर्ड हुए और एक दिन इस दुनिया से चल बसे। अदालत ने उन्हें बाइज्जत बरी किया पर वे खुद की नजरों से मरते दम तक बरी नहीं हो पाए।
                                               दो
हमारे गांव में एक मास्टर साहब हुआ करते थे। आदर्श अध्यापक के जितने गुणों का बखान किया जाता है वे तमाम उनमें थे। छोटी सी काश्तकारी और मामूली से वेतन में सात संतानों का पालन-पोषण करते व उन्हें भी पढ़ाते -लिखाते।  उनकी ईमानदारी, सद्चरित्रता और अनुशासन की मिशाल गांव ही नहीं आस-पड़ोस में दी जाती थी। वक्त का पहिया अपनी गति से घूमता रहा। वे स्कूल से ससम्मान रिटायर्ड हुए। उनके चार बेटों में से तीन नौकरी पर लग गए।  बड़े बेटे को कॉपरेटिव में छोटी सी नौकरी मिली। इस छोटी सी नौकरी में भी काम बड़ा था। पीडीएस के राशन को गरीबों तक पहुंचाने का काम।  ऐसी संगत मिली कि गरीबों का राशन कालेबाजार में बिकने लगा। छोटी सी नौकरी में भी बड़ी रकम आने लगी। पहले हजारों में फिर लाखों में। गांव में खबर उड़ी कि मास्टर साहब के बेटे को कॉपरेटिव में कुबेर का खजाना मिल गया। कालेबाजार में राशन बेचने से अर्जित बेटे की काली कमाई का धन मास्टर साहब जमीन खरीदने में लगाने लगे। स्थितियां कुछ ऐसे बन गर्इं की गांव में हर मुसीबत का मारा रुपए के लिए अपनी जमीन की पुल्ली, खसरा लेकर मास्टर साहब की शरण में जाने लगा।  पॉच एकड़ के काश्तकार रहे मास्टर साहब कब पचास एकड़ के व्योहर बन गए किसी को पता ही नहीं चला।  एक दिन गांव से खबर मिली व्योहर बाबा नहीं रहे। मैंने पूछा कौन व्योहर बाबा तो बताया गया वही अपने ईमानदार, मूल्यों पर जीने वाले मास्टर साहब।
                                          तीन 
यह कहानी गांव के एक ऐसे स्वाभिमानी युवक की है जिसे एक दिन पुलिस पड़ोस में हुई एक चोरी के संदेह में पकड़ ले जाती है। तस्तीफ के बाद असली चोर माल सहित पकडेÞ जाते हैं और इसे छोड़ दिया जाता है। युवक खुद की नजरों में इतना जलील होता है कि थाने से छूटकर गांव लौटने की बजाय दूर  किसी शहर चला जाता है। वहीं मेहनत मजदूरी करता है और गांव में रह रहे वृद्ध माता-पिता और नवव्याहता पत्नी के लिए मनीआर्डर भेजता था। सालों-साल बाद हिम्मत जुटाकर वह गांव लौटता है। लेकिन उसे लगता है कि लोग बीस साल बाद भी उसे चोर नजर से ही देखते हैं। वह फिर गांव के लोगों के बीच घुलमिल नहीं पाता। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए उनका डिप्रेशन और चिड़चिड़ापन बढ़ता जाता है। हर वक्त डर सताता है कि कहीं उसके बच्चे भी तो उसे चोर नहीं मानते। एक दिन घर में पत्नी से हुई जरा सी बात में यह कहते हुए सल्फॉस की गोली गटक कर जान दे दी कि वह चोर नहीं है।
                                            चार
इस  तरोताजा कथा का समूचा घटनाक्रम पिछले एक दशक में घटित होता है। गांव का एक आवारा लड़का शहर में आता है पढ़ने के लिए। बदमाशों की संगति से छोटीमोटी राहजनी करने लगता है। मोहल्ले के गुंडे के रूप में उसकी ख्याति फैलती है तो एक नेताजी उसे अपनी छत्रछाया में ले लेते हैं। वह छोटे-मोटे ठेके भी लेने लगता है। सीखने और बड़ा बनने की ललक के चलते वह कब बड़ा ठेकेदार बन जाता है यह पता तब चलता है जब लोगों की नजर उसके पैलेसनुमा घर और मंहगी गाड़ियों के बेडेÞ पर पड़ती है। लोग जब तक उसकी कमाई का पता लगा पाते कि वह तहसील स्तर का नेता बन चुका होता   है। अब राजनीति का राजपथ उसके लिए खुल चुका है। उसे मालूम है कि हाईकमान से टिकटें कैसे झटकी जाती हैं। रुपए के रुआब से कैसे चुनाव जीते जाते हैं। अब वो मंचों में बड़े नेताओं के साथ प्रदेश के भविष्य की चिंता करते हुए देखे जा सकते हैं। जो पुलिस कभी डंडा लेकर दौड़ाती थी वह अब कॉर्निश बजाती है। अब ये हमारे देश की धरोहर हैं। अपनी पार्टी की अमूल्य निधि और समाज के नीति नियंता।
                                      उपसंहार
उपरोक्त चारों कथाओं पर गंभीरता से चिंतन मनन करिए और बताइए कि इस समाज में भ्रष्टाचार की प्राण प्रतिष्ठा करने वाले कौन हैं?  पहले उनकी गर्दन तलाशिए ताकि उस हिसाब से कानून का फंदा बनाया जा सके। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि वह गर्दन हमारी है, आपकी है। आपको यह भी तय करना होगा कि भ्रष्टाचार आचरण का विषय है या कि कानून का? इस किस्सागोईनुमा लेख के तथ्यों का विश्लेषण और आंकलन इस बार मैं आप पर छोड़ता हूं।    
                          - लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं।

Friday, December 16, 2011

नई विश्व व्यवस्था की आहट

    सोवियत रूस के विघटन के पश्चात उत्तर आधुनिकवादी फ्रेंच तथा अमेरिकी दार्शनिकों ने घोषणा की थी कि पंूंजीवाद की चिरकाल के लिए विजय हो गई है एवं इतिहास का अंत हो गया है। स्टालिन को बर्बन शासक मानने वाले, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के राजनीतिक विचारक प्रो. जोन्स भी इसे इतिहास का सतही मूल्यांकन मानते हैं। उनके अनुसार माकर््स के पहले भी पूंजीवाद का विरोध होता रहा है तथा उनके पश्चात भी होता रहेगा। उत्तर आधुनिकतावादियों के दूसरे निष्कर्ष के संबंध में मैं कहना चाहूंगा कि इतिहास एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है और इसका अंत किसी भी सत्ता के वश में नहीं है।
प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक हीगल ने कहा है कि इतिहास स्वाधीनता एवं मेधा की ओर अग्रसर हो रहा है। इसे संशोधित करते हुए मार्क्स ने लिखा था कि इतिहास स्वाधीनता, मेधा एवं समता की ओर अग्रसर हो रहा है। यह एक आश्चर्य जनक तथ्य है कि गांधी भी इस दृष्टिकोण से पूरी तरह सहमत हैं।
कुछ विचारक कह सकते हैं कि गांधी आध्यात्मिक तथा रहस्ववादी थे, अत: उनके संबंध में यह मत समीचीन नहीं प्रतीत होता है। वे इस बात से अभिज्ञ नहीं है कि गांधी अपने विचारों में संशोधन करते रहे थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी भी था। रहस्यवादी होने के कारण अंतरात्मा की आवाज को वह अत्यधिक महत्व देते थे। परंतु अपने जीवन के अंतिम दशक में उन्होंने लिखा था कि अगर अंतरात्मा की आवाज रीजन की कसौटी पर खरी न उतरे तो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
सम्प्रति आर्थिक मंदी के दौर में अमेरिका तथा यूरोप में लाखों व्यक्ति अपनी नौकरी खो चुके हैं। अमेरिका में तो सहस्त्रों युवक घर तथा सारा सामान गवां चुके हैं। यह मध्यम वर्गीय युवक सर्वहारा बन चुके हैं। उनके घर तथा उनकी वस्तुएं बैंकों द्वारा जप्त कर ली गई हैं।
अमेरिका में बैंक की व्यवस्था फेल हो चुकी है परंतु उसका खामियाजा मध्यम वर्ग व श्रमिक वर्ग को ही भुगतना पड़ रहा है। बैंक व्यवस्था फेल होने का सारा  उत्तरदायित्व कार्र्पोरेट जगत पर है। परंतु पूंजीवादियों की सुख-सुविधाओं पर कोई आंच नहीं आई है। इसीलिए अमेरिकी युवकों ने वाल स्ट्रीट से अत्यंत शक्तिशाली तरीके से अपना अहिंसात्मक आंदोलन प्रारंभ किया है। यह आंदोलन बैंकों पर जनता का कब्जा स्थापित करने के लिए है। उक्त आंदोलन अमेरिका के 70 बड़े नगरों तक पहुंच चुका है तथा इसके मार्गदर्शक उसे समस्त विश्व में फैलाने की घोषणा कर चुके हैं। अमेरिकी सरकार तथा कार्पोरेट जगत ने मीडिया को अपने अधीन कर लिया है तथा इसकी खबर पर रोक लगा दी है। चीन में भी सरकार ने विश्व मीडिया को सरकार विरोधी खबरों को प्रसारित करने से रोक रखा है। चीन को पारदर्शिता का उपदेश देने वाला अमेरिका अपने यहां वही कर रहा है जो चीन अपने देश में कर रहा है। परंतु तकनीकि इतनी विकसित हो गई है कि उक्त आंदोलन की खबरें विश्व में पहुंच ही रही है। उक्त आंदोलन यूरोप के सर्वाधिक विकसित राज्य जर्मनी, इंगलैण्ड, फ्रांस इटली सहित सारे यूरोप मैं फैल गया है।
पूंजीवादी शक्तियां अपना माल बेचने के लिए समस्त विश्व में मीडिया द्वारा भोगवादी संस्कृति का प्रसार कर रही है। अमेरिका में युवकों को नौकरी मिलते ही बैंक सुख-सुविधा प्रदान करने वाली सारी वस्तुएं खदीदने के लिए ऋण देने में तत्पर रहते हैं तथा आर्थिक मंदी उत्पन्न होने पर नौकरी छूटते ही घर समेत उनकी सारी वस्तुएं खरीदने के लिए ऋण देने में तत्पर रहते हैं तथा आर्थिक मंदी उत्पन्न होने पर नौकरी छूटते ही घर समेत उनकी सारी वस्तुएं जप्त कर लेतें हैं। इस प्रकार मोहक संसार के स्वप्नजाल में फंसकर मध्यम श्रमिक वर्ग का शोषण किया जाता है।
गांधी मार्क्सवादी नहीं थे परंतु उन्होंने इस भोगवादी संस्कृति के विरूद्ध कठोर चेतावनी दी थी। हम कह सकते हैं कि संत होने के कारण गांधी ने सौंदर्य एवं कलाओं को समुचित महत्व नहीं दिया। लेकिन प्रसाद और शेक्सपीयर सौंदर्य एवं प्रेम के मूर्धन्य कवि थे। उनका दृष्टिकोण भी इस भोगवादी संस्कृति के विरूद्ध गांधी जैसा ही कठोर था। वे सौंदर्य एवं जीवन के स्वस्थ्य उपभोग को मानव की तृप्ति एवं विकास के लिए आवश्यक मानते थे। उनके अनुसार भोग और शोषण जीवन का लक्ष्य नहीं है।
देवता संसार का सारा सुख केवल अपने लिए चाहते थे तथा भोग ही उनके जीवन का लक्ष्य बन गया था। वे अपने को परम शक्तिशाली एवं अमर समझने लगे थे। प्रसाद के अनुसार इसी कारण देव संस्कृति विनष्ट हो गई और अपने को अमर समझने वाली समस्त देव जाति मृत्यु के गर्भ में विलीन हो गई। वस्तुत: प्रसाद कामायनी में देव संस्कृति के बहाने इसी पूंजीवादी संस्कृति पर प्रहार कर रहे थे।
‘भरी वासना सरिता का
वह कैसा था मदमत्त प्रवाह
प्रलय जलधि में संगम जिसका
देख हृदय था उठा कराह।’
प्रसाद ने ‘प्रलय’ शब्द के द्वारा सामूहिक विनाश की चेतावनी दी थी। उनके अनुसार सब सुख अपने में भरकर व्यक्ति न अपना विकास कर सकता है और न समाज का। भौतिक उन्नति मानवता एवं प्रेम के विकास के लिए होनी चाहिए अन्यथा जनता विद्रोह करेगी एवं समस्त संस्कृति नष्ट हो जाएगी। भारतीय संस्कृति के अनन्य प्रेमी प्रसाद का कहना है कि परिवर्तन की आधारशिला पर ही संस्कृति नित नवीन रह सकती है।
अत: पूंजीवाद में भी निरंतर परिवर्तन एवं संशोधन की आवश्यकता है। इसमें कोई   संदेह नहीं कि विगत दो शताब्दियों में पूंजीवाद ने विश्व में जो परिवर्तन किया है वह पूरे इतिहास में कभी नहीं हुआ। उसने सामंतवादी दबाव तथा मध्ययुगीन संकीर्णता से विश्व को मुक्त किया है। परंतु अब शोषण और भोग ही उसका लक्ष्य बन गया है। अत: मानव को सामूहिक विनाश से बचाने के लिए उसमें महत् परिवर्तन की आवश्यकता है। व्यक्ति की स्वाधीनता तथा समाज की स्वाधीनता, दूसरे शब्दों में व्यक्ति हित एवं समाज हित में समरसता स्थापित करके ही मानव संस्कृति को विनाश से बचाया जा सकता है।
भारत एवं एशिया के बहुत से वामपंथी सेक्सपियर को सामंतवादी मानते हैं। सेक्सपियर ने अपने एक अति प्रसिद्ध सानेट में लिखा है कि भव्य प्रसादों के फौलादी फाटक काल के प्रवाह में चकनाचूर हो जायेंगे तथा प्रासाद धूलिसात हो जाएंगे। किंतु प्रेम और सौंदर्य का जो चित्रण मैने कविता में किया है काल के प्रवाह में इतनी शक्ति नहीं है कि वह उसकी चमक को धूमिल कर सके।
आज भी भारत में निंदा एवं स्तुति की संस्कृति पनप रही है। मूल्यांकन एवं ंिचतन का पूर्ण अभाव दृष्टिगोचर होता है। अमेरिका सारे विश्व को अपने दबाव में रखना चाहता है। स्वाभाविक ही सभी स्वाभिमानी राष्टÑ इसका विरोध करते हैं। परंतु हमें यह भी विचाद करना होगा कि अमेरिका महाशक्ति एवं अग्रणी देश कैसे बना? अमेरिका में श्रम, शोध एवं चिंतन की प्रतिष्ठा है। मेरे एक मित्र के के बहनोई अमेरिका में हृदय रोग विशेषज्ञ हैं। उन्होंने बताया कि अस्पताल जाने पर अमेरिकी नागरिक सर्वप्रथम निरंतर फर्श साफ करने वाले श्रमिकों को नमस्ते करते हैं। वहां डाक्टर एवं श्रमिक की प्रतिष्ठा में जमीन आसमान का अंतर नहीं है। भारत में एक प्रथम श्रेणी अधिकारी अपने कनिष्ठ प्रथम श्रेणी अधिकारी को भी पहले से नमस्ते नहीं करता।
अमेरिका में गांधी एवं मार्क्स आज भी हाशिए पर हैं परंतु उनके दर्शन पर सर्वाधिक मौलिक शोध एवं चिंतन अमेरिका में ही हो रहा है। अमेरिका मे गांधी को महान क्रांतिकारी के रूप में देखा जाता है। किंतु भारत में उन्हें अहिंसा एवं शांति के मसीहा के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
भारतीय शोधार्थी नहीं जानते कि गांधी यथा स्थिति वादियों से अराजकता वादियों को श्रेष्ठतर मानते थे। वे स्वयं अपने को दार्शनिक अराजकतावादी कहते थे। यथा स्थितिवादी बौद्धिक रूप से मृत होते हैं एवं अराजकतावादी जीवित । जीवित व्यक्ति को सही रास्ते पर लाया जा सकता है किंतु मृत को नहीं।
सम्प्रति अमेरिका में मध्यम वर्गीय युवकों का विद्रोह गांधी एवं मार्क्स से प्रेरित है। अंग्रेजों के विरूद्ध अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम लॉक, रूसो तथा मान्टेस्क्यू के विचारों के आधार पर चलाया जा रहा था। आज का संग्राम उक्त दार्शनिकों की विचारधारा को अग्रसर करने वाले मार्क्स एवं गांधी के विचारों के अनुसार है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उनका संग्राम गांधी एवं मार्क्स के नाम पर हो रहा है। वे उनके विचारों को अपनी अस्मिता में समन्वित कर अपना संघर्ष कर रहे हैं।
21 वीं सदी के अमेरिकी नागरिक एक मध्य वर्ग के युगान्तकारी नायक को अपना राष्टÑपति चुनना चाहते थे। चिंतक राजनीतिज्ञ एवं ओजस्वी वक्ता बराक ओबामा ने अमेरिकी जनता को विश्वास दिलाया था कि वे नये अमेरिका का निर्माण अवश्य कर सकेंगे। परंतु वे अपने लक्ष्य को कार्यान्वित नहीं कर सके। श्वेत अमेरिकी नागरिकों ने नस्लभेद का अतिक्रमण कर उन्हें अपना राष्टÑपति चुना था। 
मार्क्स एवं गांधी ने समान वेतन की वकालत नहीं की थी। संतुलन लाने के लिए मार्क्स ने थोड़े समय के लिए सर्वहारा के अधिनायक्तव का समर्थन किया था। गांधी ने भी लिखा था कि संतुलन लाने के लिए हमें उच्चवर्ग के लोगों को नीचे लाना होगा तथा निम्नवर्ग के लोगों को ऊपर उठाना होगा। मार्क्स जितने निजी पंूजीवाद के विरूद्ध थे उतने ही राज्य पूंजीवाद के भी। इसे मैने ‘मार्क्स का राजनीतिक दर्शन’ नामक पुस्तक में स्पष्ट किया है। वे किसी वर्ग के स्थाई अधिनायकत्व में विश्वास नहीं करते थे। मार्क्स और गांधी दोनो ही व्यक्ति एवं समाज की स्वाधीनता तथा हितों में सामंजस्य स्थापित करना चाहते थे। वे प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र करना चाहते थे। इसके लिए उद्योगों के संचालन में प्रबंधकों एवं श्रमिकों को भी भागीदार बनाना पड़ेगा। हार्वर्ड विश्वविद्यालय से प्रकाशिता अपनी पुस्तक ‘एम्पायर’ में माइकल हार्ट ने इसी की वकालत की है।
इंग्लैण्ड के विख्यात राजनीतिक विचारक लास्की भी उद्योगों में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना को आवश्यक मानते थे। परंतु उनके विचारों को पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों ने स्वीकार नहीं किया।
अमेरिकी युवक इसी दिशा में संघर्ष कर रहे हैं कि वे सारे विश्व को इसी दिशा मे अग्रसर करना चाहते हैं। यह एक विडम्बना ही है कि हमें गांधी दर्शन भी विदेशियों से सीखना होगा। हम आशा करते हैं कि भारतीय बुद्धिजीवी एवं राजनेता श्रम, शोध चिंतन की प्रतिष्ठा स्थापित करने में समर्थ होंगे। ऐसा करने पर ही भारत को नकलची एवं पिछलग्गा राष्टÑ होने से बचाकर हम उसे एक महान राष्टÑ बना सकेंगे। 
***गोपालशरण तिवारी

धूल-धुआं फांकते रहिए

स्टार समाचार,सतना।  केन्द्र सरकार ने प्रदेश को फिर एक नेशनल इंस्टीट्यूट की सौगात दी है, लेकिन इस बार भी तय है कि यह रीवा-सतना में नहीं स्थापित होगी। इस महत्वपूर्ण संस्थान को ग्वालियर ले जाने की तैयारी की जा रही है। इंस्टीट्यूट का सीधा ताल्लुक उद्योगों से जुड़ा है और सरकार ने सबसे ज्यादा औद्योगिक करारनामे विन्ध्य क्षेत्र के लिय ही किए हैं। यानी कि एक बार फिर हम धूल-धुआं फांकते रह जाएंगे।
केन्द्र सरकार ने जिन चार राज्यों में एनआईडी (नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ डिजाइन) के लिए स्वीकृति दी है उनमेंंहरियाणा,असम और आन्ध्रप्रदेश के साथ मध्यप्रदेश भी शामिल है। 12वीं योजना के तहत स्थापित होने वाले ये संस्थान केन्द्रीय वाणिज्य,उद्योग व कपड़ा मंत्रालय के अधीन होंगे। राज्य सरकारों की भूमिका जगह-जमीन के चयनऔर संसाधन उपलब्ध कराने की होगी। इस नाते सरकार चाहे तो रीवा या सतना का भी उसी तरह प्रस्ताव रख सकती है जैसा कि ग्वालियर के लिए रखा है। एनआईडी के डायरेक्टर प्रदुम्न व्यास ने इंदौर में एक अंग्रेजी अखबार से बातचीत करते हुए बताया कि वे तो चाहते थे कि यह संस्थान भी भोपाल में ही खुले लेकिन अब संभवत: यह ग्वालियर में खुलेगा। सरकार से पचास एकड़ जमीन के लिए गुजारिश की गई है। जमीन मिलने के  बाद संस्थान के शुरू होने में चार से पांच साल लगेंगे, इसके लिए प्रारंभिक तौर पर 150 करोड़ का बजट भी स्वीकृत हो चुका है।
क्या है एनआईडी
एनआईडी, ट्रिपलआईटी व एनआईटी के समकक्ष एक संस्थान है जिसमें इंडस्ट्रियल, कम्युनिकेशन और टेक्सटाइल डिजाइनिंग के साथ आईटी के इट्रीगेटेड प्रोग्राम के बारे में पढाया जाएगा। यहां से निकलने वाले स्रातक वैश्विक मानकों के अनुरूप औद्योगिक इकाइयों की अधोसंरचना निर्माण में अपना योगदान देंगे। देश में फिलहाल सालाना चार लाख इंन्जीनियर्स, एक लाख मैनेजर्स निकलते हैं जबकि इंडस्ट्रियल डिजाइनर्स की संख्या महज तीन हजार सालाना है। इससे इसका महत्व समझा जा सकता है।
तो विन्ध्य में क्यों नहीं  
एक ओर सरकार विन्ध्य को देश का सबसे बड़ा सीमेंट व पॉवर हब बनाने का बखान करते नहीं थकती और गर्व के साथ कहती है कि यहां सवा लाख करोड़ का पूंजीनिवेश होने जा रहा है तो दूसरी ओर एनआईडी जैसे विशुद्व औद्योगिक नवाचार के संस्थान को खोलते समय यह विन्ध्य क्यों भूल जाता है? वैसे भी सभी राष्टÑीय संस्थान भोपाल या इंदौर में खुले हैं और ज्यादा हुआ तो ग्वालियर या जबलपुर पर नजरें इनायत हो जाती हैं। क्या यह हमारे साथ घोर नाइंसाफी की एक और और नजीर नहीं है?
अब क्या कर सकते हैं हम
करने को चाहें तो कुछ भी किया जा सकता है। सरकार का पर दबाव बनाया जा सकता है कि इस राष्टÑीय संस्थान को विन्ध्य के किसी शहर में खोलने का प्रस्ताव तैयार करे। इसके लिए क्षेत्र के सभी सांसद केंद्र सरकार पर दबाव बनाएं और वास्तविकता से अवगत कराएं, सभी विधायक राज्य सरकार पर अपना साझा दबाव बनाएं व बताएं कि हमारे साथ उपेक्षा हो रही है और विन्ध्यक्षेत्र के लोग अब ज्यादा वर्दाश्त करने वाले नहीं। हर स्तर के जनप्रतितनधि, युवा व छात्र नेताओं को इसके लिए आवाज बुलंद करना होगा। सामाजिक संगठनों को भी कमर कसनी होगी। यदि हम इस अवसर को भी गंवा देते हैं तो आने वाली पीढ़ी क्षमा नहीं करेगी।


Wednesday, December 14, 2011

जनता की अदालत का रास्ता तो खुला है


 नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल से स्टार समाचार की बातचीत 
हाल ही में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को लेकर धारदार और तर्कसंगत प्रस्तुति के बाद नई राजनीतिक छवि के साथ उभरे नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल का कहना है कि संख्याबल की वजह से सदन में भले ही प्रस्ताव गिर गया हो पर जनता की अदालत में जाने का रास्ता खुला है। अब कांग्रेस के कार्यकर्ता पूरे प्रदेश में जनता के बीच पहुंचकर सरकार और उसके मंत्रियों के कच्चे चिट्ठे खेलेंगे। विन्ध्य क्षेत्र के चार दिवसीय प्रवास पर आए श्री राहुल ने विभिन्न समसामयिक मुद्दों पर स्टार समाचार से  विस्तृत बातचीत की।
 अविश्वास के मुद्दों का जवाब नहीं मिला  
मुख्यमंत्री और मंत्रियों ने अविश्वास प्रस्ताव के एक भी मुद्दे का जवाब नहीं दिया। नेता प्रतिपक्ष ने कहा कि तथ्यों के साथ बिंदुवार हमने, खनिजों के अवैध कारोबार, सड़कों के ठेके, बिना टेंडर की बिजली खरीदी, मंत्रियों के परिजनों की अंधेरगर्दी समेत कई मामले रखे पर अफसोस तीन घंटे के भाषण में आरोपों का तथ्यपरक जवाब देने के बजाय मुंख्यमंत्री ने सिर्फ कोरी लफ्फाजी की। हो सकता है मुख्यमंत्री को अविश्वास प्रस्ताव की गंभीरता और सदन के नियम प्रक्रियाओं की जानकारी न हो। मालुम होना चाहिए कि दिग्विजय सिंह सरकार के खिलाफ विक्रम वर्मा ने अविश्वास प्रस्ताव लाया था और परिणाम यह निकला कि तीन मंत्रियों को कैबिनेट से अलग कर दिया गया था, जबकि उन पर सिर्फ आरोप ही लगे थे।
मुख्यमंत्री के सतना प्रेम का रहस्य 
यह तो ऐसा ही है जैसा कि कभी सीधी प्रेम हुआ करता था। इसी प्रेम के चलते सीधी के दो टुकड़े हो गए। सतना का क्या हश्र होगा समझ सकते हैं। वैसे मुख्यमंत्रीजी के सतना प्रेम की वजह लोकनिर्माण मंत्री नागेंद्र सिंह हो सकते हैं जो इनदिनों उनके ठेकेदार रिश्तेदारों के गॉडफादर हैं। वैसे जहां तक नागेंद्र सिंह को सीधी का प्रभार सौंपने का सवाल है तो उनका स्वागत है। चुरहट- सीधी की जनता सोए या जागे शेर की असलियत भलीभाँति समझती है। ये सरकार मेरी लाख घेराबंदी करे, यहां जन-जन से मेरे रिश्ते हैं और इस पर भाजपा का कोई राजनीतिक प्रपंच नहीं चलने वाला।
खाद संकट: सरकार की लापरवाही 
हर मुद्दों पर केंद्र सरकार पर ठीकरा फोड़ना भाजपा सरकार का शगल बन चुका है। खाद के मामले में प्रशासनतंत्र का कुप्रबंधन और किसानों के हितों की अनदेखी जिम्मेदार है। सच यह है कि सरकार ने ऐन मौके पर इंडेन्ट (मांगपत्र) दिया, उस समय अन्य प्रांतों का भी दबाव बना रहता है। ऐसे में खाद के समय पर पहुंचने में दिक्कत होती है। कांग्रेस सरकार के समय यह प्रक्रिया सीजन के तीन महीने पहले ही कर ली चाती थी। गोदामों में जरूरत के मुताबिक भंडारण हो जाता था। मुझे लगता है कुछ न कुछ गड़बड़ है, क्योंकि ब्लैक मार्केट में तो खाद उपलब्ध है पर समितियों में नहीं। प्रदेश सरकार किसानों के प्रति अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकती।
पीसीसी से सहमति रहे तो बेहतर होगा 
हाल ही में सतना में किसानों के नाम पर हुए कांग्रेस के  आयोजन को लेकर उठे विवाद पर नेता प्रतिपक्ष श्री राहुल का कहना था ऐसे आयोजनों को लेकर कोई हर्ज नहीं पर यह बेहतर होगा कि कांग्रेस के आयोजन पीसीसी की सहमति और उसकी जानकारी में हो और सभी कार्यकार्ताओं की भागीदारी रहे।जहां तक पृथक विन्ध्यप्रदेश की मांग का सवाल है तो यह कोई नई मांग नहीं है। छोटे राज्यों को लेकर कांग्रेस का अपना स्पष्ट नजरिया है, इसके लिए एक सक्षम कमेटी बने और अलग राज्यों की मांग के औचित्य का परीक्षण करे। छत्तीसगढ़ के अलग हो लाने से कुछ समस्याएं आर्इं तो है।
स्कूल आॅफ माइन्स के लिए जमीन नहीं दे रही सरकार 
सिंगरौली में स्कूल आॅफ माइन्स केंद्र सरकार द्वारा पहले से ही प्रस्तावित है। जमीन तो राज्य सरकार को उपलब्ध कराना है।  जमीन और जरूरी संसाधन देने की बजाय मुख्यमंत्री घोषणा करने में लगे हैं, और उनकी घोषणाओं का क्या हश्र होता है यह उनकी पार्टी के लोग ज्यादा बेहतर जानते हैं।

चोर-चौतरा नाचै, ...कब तक

  बचपन में एक कविता पढ़ी थी जो सर्दी के दिनों में बरबस याद आती है- ‘जाड़ा आया, जाड़ा आया/ नई कहानी किस्से लाया।’ किसकी लिखी हुई यह कविता है, स्मरण नहीं परन्तु इसके समांतर गांवों में अनेक लोक कविताएं आज भी जीवन्त हैं- ‘कातिक बाति कहातिक,अगहन हंड़िया अदहन/ पूस काना ठूस/ माघ तिलै तिल बाढ़ै/ त फागुन गोड़ी काढ़ै।’ सूरज की स्थिति का यह लोकरंग है कि कार्तिक का दिन महीना बात करते बीत जाता है, अगहन के दिन खाने की हंड़िया चढ़ाते और पूस के कान का मैल निकालते बीत जाते हैं। माघ के दिन तिल-तिल कर बढ़ते हैं और फागुन में सूरज लम्बे पग (गोड़ी गोड़-पैर) चलने लगता है। कवि सेनापति ने शिशिर का वर्णन तो अतिशयोक्ति पूर्ण ढंग से करते हुए ‘शशि को सरूप पावै सविताऊ’ से लेकर ‘चन्द के भरम होत मोद है कुमुदियों को, शशि शंक पंकजिनी फूलि न सकति है,’ लिखकर प्रकृति का व्यापार ही बदल दिया, व्यवहार भी। लोक सेनापतियों की अपेक्षा जमीन पर खड़ा है, ‘गप्पी’ और ‘लफ्फेबाज’ वह भी है लेकिन राजदरबारी नहीं, क्योंकि उसे किसी राजा से अशर्फी मिलने की न उम्मीद है, न  जानकारी में ही है। वह तो अपने में मस्त-लीन, सर्दी, ठंड की महत्ता स्वीकारते हुए कहता है- ‘लड़िकन क छुअत नहीं, सयान मोर भाई/ बूढ़न को छांड़ित नहीं, चाहे ओढ़ां कतनिउ रजाई।’ अकेले में रजाई-कम्बल ओढ़ने पर भी ठंडी नहीं जाती, गांव में कहनूति है कि ‘जाड़ि जाइ रूई’ कि ‘जाड़ि जाई दुई’। दो व्यक्तियों के साथ सोने से शरीर की गर्मी से भी ठंडी से छुटकारा पाया जा सकता है। ‘पूस की रात’ का हल्कू, जबरा कुत्ता को अपने आगोश में लेकर, उस भयानक ठंडी रात में चुनौती देता है।
 शीत-सर्दी, जाड़ा-ठंडी शब्दों के अपने अर्थ हैं। गांव और शहरों में इनका सामना करने के अपने तरीके हैं। गांव के लिए सबसे कठिन महीने पूस और माघ के होते हैं परंतु वे इसका रोना नहीं रोते, निर्भय होकर पूस-माघ की ठार को चुनौती देते हैं। ठंडी आने के पहले जड़ावर का इन्तजाम रुइही बंडी, परदनी, सूथन्ना, पायजामा सिलवा लेते हैं। लकड़ी की गांठ, करसी-कंडा-उपरी की व्यवस्था, बरसात के बाद से ही शुरु हो जाती है। प्रकृति की खुली चुनौती बिना हाय-हाय के वे स्वीकारते हैं। पाला पड़ता है, फसल चौपट हो जाती है, वे सरकार से मुआवजा नहीं मांगते। सरकार के कर्मचारी अपने लिए उनके नुकसान का ढिंढोरा पीटते हैं और सहायता राशि का अधिकतम लाभ अपना लेते हैं। असली पीड़ितों को सहायता नहीं मिलती, मिलती भी है तो ऊंट के मुंह में जीरा की तरह। भीषण से भीषण ठंडी को आग के हवाले कर देते हैं, उनका ‘कौड़ा’ नहीं बुझता, पूरे पूस-माघ सुलगता रहता है। उसी कौड़ा को घेरकर बच्चे-बड़े बुजुर्ग अनेक किस्से कहानियां कहते सुनते हैं। कहानी की पहली कार्यशाला ‘कउड़े’ ही थे। कहने से कहानी बनी। ऋचाएं भी कही गर्इं। सृजन, वाचिक परम्परा की ही देन है। गांव के जीवन में सर्दी की रातें बहुत बड़ी होती थीं। देर तक ‘कउड़े’ तापते रात बीतती थी, कपड़े पहनने-ओढ़ने के कम थे। आग ही एकमात्र सहारा थी और जागने के लिए कहानियां, जो कभी-कभी धारावाहिक हुआ करती थीं, जिसे कहने वाले की प्रतीक्षा बड़ी तन्मयता  से होती थी। उसका बहुत आदर था। हां तो कहां से कहानी कल खतम हुई थी और फिर अनंत सिलसिला... शर्त यह थी कि कहानी में हुंकारी भरना जरूरी था और दिन में कहानी नहीं कही जाती थी, यदि कोई कहेगा तो मामा रास्ता भूल जाएगा। अर्थात् कहानी दिन में कहने से काम-काज का नुकसान होगा। लोक, मामा का रिश्ता सबसे बड़ा मानता है, वह नहीं चाहेगा कि उसको देखने, हाल-समाचार लेने वाला मामा रास्ता भूल जाए। लोक में मामा, कंस और शकुनि नहीं- मां-मां है।
गरीबी धन भर से नहीं मन से भी होती है। कितने ही अमीर निहायत ललकते गरीब हैं। सर्दी की रातों को बिताने के लिए,गरीबी को मनोरंजन से जोड़ा गया था। उन्हीं दिनों, गांवों में रामलीलाएं हुआ करती थीं। आधी-आधी रात बहुत इत्मीनान से एक मोटी चादर ओढ़े हुए, बगीचे में होती रामलीला देखते हुए बीत जाती थी, परंतु इतनी एकाग्रता बड़े होने पर फिर किसी दृश्य या श्रव्य काव्य में नहीं आई।  रामायण की कथा पुस्तकों से नहीं अभिनय और सामाजिक जीवन से सीखने-जानने को मिली। क्रमबद्ध राम-कथा गांव के एक ठेठ निरक्षर को मालूम है, सैकड़ों चौपाइयां उसे याद हैं, उनका उचित और सार्थक प्रयोग अपनी बातचीत में वह करता है किंतु एम.ए. हिन्दी प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण अनेक छात्रों-अध्यापकों को शायद ही मालूम हो। रामलीलाएं भी अब अंतिम सांस ले रही है। एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन हाशिए पर चला गया। कहानियां हमें दिशा देती थीं, जीना सिखाती थीं। लोक नाट्य, नौटंकी, छाहुर, कोलदहंका का संगीत आज के कानफोड़ू रैम्प से लाख गुना बेहतर था। जो सहज रूप से किसी भी पारिवारिक समारोह का सहज आयोजन हुआ करता। जीवन का पाठ्यक्रम किसी पाठशाला में नहीं पढ़ाया जाता। निरंतर घटते घटनाक्रम से ही जीवन का आदर्श और उद्देश्य निश्चित होता रहा है, वही हमारी धरोहर है।
  महात्मा गांधी अमीर परिवार के थे, लेकिन उन्होंने देश के गांवों को देखा था। भारत गांवों का देश है। गांधी ने गांव से शहरों को देखा था, इसीलिए उन्होंने ग्राम-स्वराज्य की कल्पना की थी। शहरों की चकाचौंध से गांव नहीं दिखता,   शहरों में चले, कैम्ब्रिज और आॅक्सफोर्ड में पढ़े लोग जब गांवों के देश का संचालन करने लगेंगें तो फ्रांस के लुई सोलहवें की बात ही जनता से कहेंगे कि रोटी नहीं तो केक खाओ। क्योंकि वे नहीं जानते कि रोटी क्या है? ऐसा भी तो इसी देश के इतिहास में हुआ था कि यहां का राष्टÑनिर्माता चाणक्य नगर से दूर झोपड़ी में रहता था। 
    कितनी अवश्यकता है कि प्रधानमंत्री यह कहे कि उसके भेजे हुए एक रुपये जनता के पास पहुंचने तक मात्र पंद्रह पैसे रहते हैं। यह विवशता अभिनन्दनीय और ताली पीटू तो नहीं घृणास्पद और निन्दनीय भी है। यह कैसा सत्ता मोह है, जहां व्यवस्था ही लाचार हो वहां पीड़ित की क्या स्थिति होगी। गांधी, जयप्रकाश के पास ऐसी विवशता क्यों नहीं थी? इकतालीस वर्षों तक केन्द्रीय फाइलों में बंद सरकारी लोकपाल बिल की धूल इसलिए झाड़ी जा रही है कि एक गांव के आदमी ने जन लोक से हांक लगाई है। सरकार एक कदम आगे बढ़ती है, फिर दो कदम पीछे जाती है। मंशा साफ न हो तो बिल पास हो जाने के बाद भी कुछ नहीं बदलेगा। यह हमारी हताशा नहीं, यथार्थ है। यहां भ्रष्टाचार जब खत्म, हटाने समाप्त करने की कही जाती है तब इन तत्वों की बन आती है,क्योंकि लोक यह मानता है जानता है, रोज देखता है- ‘चोर-चौतरा नाचै, साहु क फांसी होय।’ झुके लेकिन खड़े हुए ग्रामीण को देखकर शायद इसीलिए दुष्यंत कुमार ने कहा था- ‘में सिनदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।’ 
          * ** चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।  
                                                        सम्पर्क - 09407041430.

प्रभुजी! पधारो हमारे बाजार

  खुदरा व्यापार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की केन्द्र सरकार ने अनुमति देने की कोशिश की, तो राजनैतिक मुहल्लों में गगनभेदी हाहाकार मच गया। कई व्यापारिक संगठनों ने एक दिन का आधा-अधूरा भारत बंद कराया। संसद की कार्यवाही जाम कर दी। गठबंधन सरकार की सहयोगी ममता और करुणानिधि ने धमकाया। इन सबके चलते सरकार ने अपने इस फैसले को स्थगित कर दिया। खुदरा विदेशी निवेश के पक्ष में सरकार की दलील है कि इससे मंहगाई कम होगी, रोजगार के अवसर मिलेंगे। किसानों को उनकी उपज का अधिक दाम मिलेगा। विपक्ष की अपनी दलील है कि लाखों छोटे-मझोले दुकानदार बेरोजगार हो जाएंगे और उपभोक्ता मंहगे दामों में जरूरत की चीजें खरीदने के लिए बाध्य होगा। असल में खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के पक्ष में झंडा उठाने वाले और इसके पक्ष में डंडा चमकाने वाले असलियत को छिपाने में अपनी पूरी बाजीगरी दिखाने में जोर लगा रहे हैं। अभी जब विदेशी दुकानदार थैली लेकर भारत में नहीं घुसे हैं तब भी तो लाखों की संख्या में उत्पादक और उपभोक्ता बीच बिचौलियों की बिरादरी मालामाल हो रही है। उत्तरप्रदेश में हमेशा आलू की बम्पर फसल होती है। आलू चिप्स और आलूभुजिया बनाने वाली स्वदेशी कम्पनियां आलू उत्पादक किसानों से आलू पचास से सौ रुपया कुंटल की दर से खरीदती हैं और अपना चिप्स तथा भुजिया दस हजार रुपया कुंटल की दर से बेच रही है। प्रोसेस और पैकिंग तथा ट्रांसपोर्ट में अधिकतम खर्च पांच सौ रुपया प्रति कुंटल भी मान लिया जाए तो मात्र छह सौ रुपया की लागत में नौ हजार चार सौ रुपया प्रति कुंटल कमाई हो रही है। खून-पसीना बहाकर और सपरिवार हाड़-तोड़ मेहनत करने वाला किसान बदले में सरकार से घोषित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं पाता किंतु शेयर धारकों और बैंक की रकम जुटा कर कम्पनी मुनाफा की मलाई चाट नहीं रही बल्कि मलाई में लोट-पोट रही है। किसान के भाग्य में कर्ज अंगद के पैर की तरह जम कर बैठा है, वह विरासत में बाप का कर्ज पाता है और मरते दम तक कर्ज की गठरी लादे रहता है। जब मरता है तो बेटों को विरासत में कर्ज की गठरी दे जाता है। देशी कम्पनियों का थैली बंद आयोडीन-युक्त नमक की बिक्री में एकाधिकार है। एक रुपया लागत की एक किलो का पाउच दस से बारह में बेचा जा रहा है और नमक बनाने वाले मजदूरों को दस घंटे रोज मजदूरी करने पर डेढ़ सौ से दो सौ रुपया मिलता है।
स्वदेशी दवा निर्माता कम्पनियां भी लूट के रास्ते पर दौड़ रही हैं। इनकी लागत और मुनाफे में इतना ज्यादा अंतर है कि गणना करने में बुद्धि चक्कर खाने लगती है। सप्रिकजोन इंजेक्शन का उदाहरण लें तो मुनाफे का गोलमाल समझ में आने लगता है। इसकी जेनेरिक कीमत बाईस रुपया है और प्रिन्ट रेट एक सौ सत्तर रुपया है। डायक्लोपैराटानिक सत्रह रुपए की है किंतु प्रिंट रेट है छियासठ रुपया सत्तर पैसा है। फैक्सामैथासोन गोली दस पैसा की जगह एक रुपये में बिकती है। किसान से गेहूं दस रुपये किलो खरीदा जाता है और ब्राण्ड व किस्म के नाम पर बड़ी कम्पनियां गेहूं का आटा तीस से चालिस रुपये प्रतिकिलो बेच रही है। दुनिया की दस बड़ी खुदरा कम्पनियों के पास चालिस लाख से ज्यादा कर्मचारी नहीं है, तो भारत में ये कम्पनियां एक करोड़ बेराजगारों को नौकरी नहीं दे सकती हैं। वालमार्ट  की एक दुकान तीन हजार छोटी किराना दुकानों का हमेशा के लिए शटर-डाउन कराती है। असलियत तो यह है कि बाजार को जो लोग नियंत्रित करते हैं, वे रिकार्ड-तोड़ मुनाफा बटोरते हैं। उपभोक्ता का बाजार में प्रवेश करने का मतलब ही यही है। कि उसे पूरे सम्मान के साथ लूटा जाएगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाजार पर काबिज लोग देशी हैं या विदेशी । अभी देश के खुदरा किराना बाजार घटतौली में कमाल का हुनर रखते हैं और क्वालिटी में मिलावट का छौंका अधिकार मान कर लगाते हैं। विदेशी खुदरा कम्पनियां भी इसमें थोड़ा सा फेरबदल करके उपभोक्ता को हलाल करेगी। इसका भी आरोप लगाया जा रहा है कि बहुराष्टÑीय कम्पनियां मुनाफा विदेश ले जाएगी। देश का पैसा विदेश चले जाने से देश की आर्थिक हालत पर विपरीत असर पड़ेगा। लेकिन अभी क्या हो रहा है। पिछले छह दशक से लगातार हमारे देशी-देशभक्त लाखों हजार करोड़ की रकम विदेश में ही तो जमा कर रहे हैं जो बड़ी सफाई एवं बड़ी बेवफाई के साथ काले से सफेद हो जाता है। चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर, अंजाम सभी को पता है। आम हिन्दुस्तानी की पीठ पर खोद कर लिख दिया है कि यह बकरा है, इसे जिबह करना बेहद आसान है। इसका कोई महत्व ही नहीं है कि छुरा विदेशी है या विदेशी। 
  दुनिया भर के अनुभव से साफ हो जाता है कि खुदरा व्यापार में देशी हो या विदेशी बड़ी कम्पनियों के आने से आम उपभोक्ता को कोई फायदा नहीं होता है। बल्कि उनकी आक्रामक नीति और विशाल आवारा पूंजी से छोटे और मझोले लाखों व्यापारी तबाह हो जाएंगे। हमारे देश में अजीब तरह का लोकतंत्र है कि जनता कुछ चाहती है और सरकार ठीक उसका उल्टा करती है। हमारी  विपक्षी राजनीतिक पार्टियां भी आम आदमी को उल्लू बनाने के लिए बेहतरीन बाजीगरी करती है। खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को निमंत्रण देने को अभी जो फैसला हुआ उसके लिए लाल कालीन एनडीए सरकार ने भी बिछाया था जिसमें आज की   विपक्षी पार्टियां शामिल थीं। पश्चिम बंगाल में दो दशक तक राज करने वाले वामपंथियों ने विदेशी पूंजी का स्वागत शंख बजाकर किया था। भाजपा शासित राज्यों के लगभग सभी मुख्यमंत्री विदेश जाकर विदेशी पूंजीपतियों को भारत में पधारने का निमंत्रण देते हैं और ढेरों रियायतें देने का वायदा करते हैं। हकीकत बहुत बड़ी होती है किंतु सच्चाई यही है कि हमारे लोकतंत्र में जनता के हितों के मुकाबले पूंजी के हितों को तरहजीह दी जा रही है।
आम उपभोक्ता को बाजार के शोषण से बचाने के लिए सरकार नाम की संस्था होती है। सरकार नागरिकों के लिए ढाल का काम करती है किंतु अब सरकार खुद अपनी जिम्मेदारी से पिंड छुड़ा रही हैं। ऐसे में नागरिक के हित की हिफाजत करने वाला कोई नहीं होगा। वाशिंगटन आम राय पर आधारित भूमण्डलीकरण से राज्य की आर्थिक भूमिका घटती जा रही है। हमारे यहां की सरकारें जबरदस्त विदेशी दबाव में रहती हैं। अब नागरिकों के हितों को सर्वोपरि रखकर नीतियां बनाने में सरकार सक्षम नहीं है। यह दावा गलत है कि भूण्डलीकरण के ज्वार से सब नावें ऊपर उठेंगी और सब लाभान्वित होंगे। हमारे बाजार के परस्पर सहयोग और विकेन्द्रीकरण के आधार पर चलते हैं, माल सभ्यता के माध्यम से केन्द्रीकृत होते जाएंगे। जरूरत इस बात की है कि गुलाम बनाने के नए हथकण्डों को पहचानें और सत्ता पर बैठे जागीरदारों को जयचन्द-मीरजाफर की भूमिका न करने दें।
     

भ्रष्टाचार शब्द का दोहन भी एक तरह का भ्रष्टाचार है


ब्रटोल्ट ब्रेख्त ने एक जगह कहा है कि, '' जिस तरह मनुष्य को रोजी रोटी की जरूरत होती है, ठीक उसी तरह न्याय की जरूरत भी रोजी होती है, बल्कि न्याय की जरूरत दिन में कई बार हो सकती है।''
यह सच है कि जीवन में और दुनिया में मनुष्य के, मनुष्य के रूप में मूलभूत मानवीय अधिकारों के हनन का सिलसिला बहुत पुराना है। कभी रंग के आधार पर, कभी जाति के आधार पर, कभी कथित वंश परंपरा के आधार पर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के अधिकारों का लगातार उल्लंघन करता आया है। भारत में तो मानवीय अधिकारों के उल्लंघन का रिकार्ड बहुत खराब है। मूल रूप में मनुवादी वर्ण व्यवस्था ही मनुष्यता के खिलाफ इतिहास का सर्वाधिक क्रूर और अंतरतम् तक बेचैन कर देने वाला षड़यंत्र है। मनुष्य को चार वर्णों में विभाजित कर के देखा जाये? मनुष्यता का इससे अधिक अपमान और क्या हो सकता है? मनु ने शूद्रों और स्त्री जाति के लिए जिन शब्दों और धारणाओं का इस्तेमाल किया उससे किसी भी समाज का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। लेकिन किसी भी जीवंत समाज में आत्मपरीक्षण और सुधार के लिए गुंजाइश बची रहती है। हमारा समाज भी एक जीवंत समाज है और इसीलिए यहां भी समय-समय पर चेतना की अलख जगाने वाले सामाजिक आंदोलन हुए आज हम एक लोकतंत्र के रूप में दुनिया में सम्माजनक ढंग से रह रहे हैं। पर यह आधा सच है। आधा सच यह है कि आज भी हमारे यहां बड़ी संख्या में बाल श्रमिक हैं, कन्या जन्म दर का प्रतिशत घट रहा है, खेतिहर श्रमिकों को समाज में सम्मानजनक स्थान हासिल नहीं है। स्त्रियां और दलित जातियां अभी भी समाज में बराबरी के हक के लिए संघर्षरत हैं, लेकिन कुल मिलाकर पिछली सदी के मुकाबले स्थिति में काफी सुधार हुआ है। दरअसल हमारी जड़ों में जो हमारे संस्कार हैं वे हमारे रास्ते में सबसे ज्यादा बाधक हैं। हमारी कहावतें तक ऐसी हैं जो कि हमें अन्याय का प्रतिकार करने से रोकती हैं। ऐसी ही एक कहावत है- ''भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं।'' ााहिर है कहावतें तो जनमानस की मन, स्थिति का निचोड़ होती हैं, उन पर तर्क-कुतर्क नहीं किए जा सकते, लेकिन इससे यह तो पता चलता है कि हम एक तरह की आस्था के साथ अन्याय को बर्दाश्त करते चलते हैं कि देर से ही सही पर एक दिन न्याय ारूर हमारा दरवाजा खटखटायेगा, और उसके लिए भी हमें कुछ नहीं करना पड़ेगा, वह काम भी भगवान करेगा। यह एक सामंतवादी, मनुवादी संस्कार है जो कि सामंतवाद के पोषकों द्वारा समाज में एक धारणा के रूप में स्थापित किया गया है। सामंतवाद मानवीय अधिकारों का पहली पंक्ति का शत्रु होता है। मैंने पंजाब में कई स्त्रियों द्वारा अपने बच्चों को राजाओं की कहानियां सुनाते हुए सुना है कि- ''फलां राजा की तीन सौ पैंसठ रानियां थीं, उसे सड़क पर जो भी सुंदर स्त्री दिखती थी, वह उसे उठा लाता था''- और यह कहानियां मांओं द्वारा बच्चों को बड़े गर्व के साथ सुनाई जाती थीं। यह किस्सा सिर्फ पंजाब का ही नहीं है बल्कि लगभग पूरे गरीब हिंदी प्रदेश और इतर राज्यों में भी एक समान है। सामंतवाद के अवशेष अभी तक हमारे आस-पास बड़ी संख्या में बिखरे पड़े हैं और ये मानवीय अधिकारों की गरिमा और उनकी सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती है। ारूरत है इन अवशेषों को इकट्ठा करके हिंद महासागर में उलट दिया जाए ताकि ये शेष जनसामान्य के महासागर से इनका कोई नाता न रहे।
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में यह जो वैश्वीकरण, ग्लोबलाईजेशन हुआ है, इसके भीतर झांककर देखें तो एक खतरा जो दिखाई देता है वह यह कि कहीं सामंतवाद अपना रूप बदल कर लौट तो नहीं रहा? मनुस्मृति में एक मोदार बात है, वह यह कि पैसा सिर्फ उसी व्यक्ति के पास जमा किया जा सकता है जिसका रंग गोरा हो। क्या हम भी यही नहीं कर रहे हैं। अपनी अकूत धन संपदा, अपना सारा खााना चाहे वह पैसा हो या हमारा ज्ञान भंडार। कहीं हम सिर्फ गोरी चमड़ी वालों के लिए ही तो खर्च नहीं कर रहे हैं। उनके उत्पादन, उनके जीवन मूल्य हमें अपने उत्पादन और अपने जीवन मूल्यों से बेहतर लगने लगे हैं। यह एक खतरनाक संकेत है। नव-पूंजीवाद में कहीं नव-सामंतवाद भी छिपा हुआ है और इसकी पड़ताल करना हमारी पहली जिम्मेवारी होनी चाहिए। जब तक हमारी प्राथमिकता में हमारा आदिवासी, हमारा खेतहिर श्रमिक, वे संघर्षशील स्त्रियां जिन्हें अभी तक उनका उचित और सम्मानजनक स्थान नहीं मिला है, और बाल मजदूर ये सब नहीं होंगे तब तक मानवीय मूल्यों के हनन की सारी बातें एक तरह का निरर्थक संवाद बन कर ही रह जाएंगी। नीरा राडिया और करीना कपूर हमारे रोल माडल नहीं हो सकते, मेधा पाटकर और अरुंधति राय अवश्य हो सकती हैं, और हैं। अजब-गजब बात यह है कि नव-पूंजीवाद और धार्मिक उन्माद दोनों एक साथ हमारे समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता पर आक्रमण कर रहे हैं और यह संयोग नहीं है, बल्कि सुनियोजित है। हम एक तरह के सामंतवाद से मुक्त होकर दूसरी तरह के सामंतवाद में धंस रहे हैं। सामंतवाद ने नव-उदारवाद का मुखौटा पहन लिया है और हम मुखौटे को चेहरा समझने की भूल कर रहे हैं। ऐसे में सब से ज्यादा संकट उस समाज के लिए होता है जो अभी कल तक आर्थिक और सामाजिक रूप से सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ था। जो नैतिक सवाल उसे सब से ज्यादा परेशान करता है वह यह कि अगड़ी जातियों और आर्थिक रूप से समृध्द होकर कहीं वह भी तो शोषकों के समाज का हिस्सा नहीं बन जाएगा? ठीक इसी जगह पर आकर उसे ठहरने, सोचने और फिर सही दिशा की तलाश करने की जरूरत होती है। ऐसे ही नाजुक समय में उसे दिग्भ्रमित करने वाली शक्तियां सक्रिय होती हैं। डर इस बात का है कि कहीं अन्ना हजारे का आंदोलन इसी सुनियोजित षड़यंत्र का एक हिस्सा तो नहीं, क्योंकि उसमें खाते-पीते लोगों के शोषण की बात तो है पर भूखे-नंगे लोगों की तरफ उसका ध्यान जरा भी नहीं है। वंदे मातरम् और भारत माता की जय के नारे तो हैं लेकिन उस भारत की असली तस्वीर के प्रति किसी तरह की संवेदना नार नहीं आती, जिसमें किसानों की आत्महत्याएं हैं या पिसता हुआ निम्न मध्य वर्ग है। भ्रष्टाचार शब्द का दोहन भी एक तरह का भ्रष्टाचार है और राष्ट्र का नाम लेकर जनता को गुमराह करना, मानवीय मूल्यों का गंभीर उल्लंघन है। भारतीय मध्य वर्ग की स्थिति मुझे प्रख्यात मलयालम कवि अय्यप पणिकर की इस कविता की तरह लगती है:-
''हंसने मात्र के लिए बनाया एक पुतला, उसे रोने की इच्छा होती, तो भी, हंसी बस हंसी ही आतीइसी तरह निर्माण किया गया है इसका पंडितगण कहते हैं।''
ttejinder.gagan@gmail.com

Tuesday, December 13, 2011

दशरथ की एक बेटी थी शान्‍ता



दशरथ की एक बेटी थी शान्‍ता 
लोग बताते हैंजब वह पैदा हुई
अयोध्‍या में अकाल पड़ा
बारह वर्षों तक...
धरती धूल हो गयी...!
चिन्तित राजा को सलाह दी गयी कि
उनकी पुत्री शान्‍ता ही अकाल का कारण है!
राजा दशरथ ने अकाल दूर करने के लिए
शृंगी ऋषि को पुत्री दान दे दी...
उसके बाद शान्‍ता
कभी नहीं आयी अयोध्‍या...
लोग बताते हैं
दशरथ्‍ा उसे बुलाने से डरते थे...
बहुत दिनों तक सूना रहा अवध का आंगन
फिर उसी शान्‍ता के पति शृंगी ऋषि ने
दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ कराया...
दशरथ चार पुत्रों के पिता बन गये...
सं‍तति का अकाल मिट गया...
शान्‍ता राह देखती रही
अपने भाइयों की...
पर कोई नहीं गया उसे आनने
हाल जानने कभी
मर्यादा पुरुषोत्तम भी नहीं,
शायद वे भी रामराज्‍य में अकाल पड़ने से डरते थे
जबकि वन जाते समय
राम
शान्‍ता के आश्रम से होकर गुज़रे थे...
पर मिलने नहीं गये...
शान्‍ता जब तक रही
राह देखती रही भाइयों की
आएंगे राम-लखन
आएंगे भरत शत्रुघ्‍न

बिना बुलाये आने को
राजी नहीं थी शान्‍ता...
सती की कथा सुन चुकी थी बचपन में,
दशरथ से।
बोधिसत्व
मूलनाम- अखिलेश कुमार मिश्र
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए. और वहीं से 'तार सप्तक के कवियों के काव्य सिद्धान्त' पर पी.एच.डी की उपाधि ली। यूजीसी का रिसर्च फैलो रहा। प्रकाशन- सिर्फ कवि नहीं (1991), हम जो नदियों का संगम हैं (2000), दुख तंत्र ( 2004), खत्म नहीं होती बात (2010) ये चार कविता संग्रह प्रकाशित हैं। तारसप्तक-काव्य सिद्धान्त और कविता नामक शोध प्रबंध (2011) लंबी कहानी वृषोत्सर्ग (2005) छपी. संपादन- गुरवै नम: (2002), भारत में अपहरण का इतिहास (2005), रचना समय के शमशेर जन्म शती अंक का संपादन (2010)। प्रकाशनाधीन- कविता की छाया में (लेख,समीक्षा और व्याख्या)।
अन्य लेखन- शिखर (2005), धर्म ( 2006) जैसी फिल्मों और दर्जनों टीवी धारावाहिकों का लेखन। सम्मान- कविता के लिए 'भारत भूषण अग्रवाल सम्मान', 'गिरिजा कुमार माथुर सम्मान', 'संस्कृति अवार्ड', 'हेमंत स्मृति सम्मान' प्राप्त। अन्य- कुछ कविताएँ देशी विदेशी भाषाओं में अनूदित हैं। कुछ कविताएँ मास्को विश्वविद्यालय के स्नातक के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती है। दो कविताएँ गोवा विश्व विद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल थीं। फिलहाल- पिछले 10 साल से मुंबई में बसेरा है। सिनेमा, टेलीविजन और पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेखन का काम। ईमेल- abodham@gmail.co