इन्दौर के सरकारी और कुछ निजी अस्पतालों में चोरी छिपे की गई नई दवाओं के परीक्षण पर सरकार करीब छह माह तक इसे झूठा साबित करने में जुटी रही। काफी आनाकानी के बाद उसने एक जांच समिति बना दी और इस समिति ने अपनी जो रिपोर्ट दी वह लीपापोती भरी थी। प्रदेश सरकार ने कुछ डाक्टरों पर कुछ हजार रुपए का जुर्माना और कुछ डाक्टरों को काली सूची में डाल कर मुनादी कर दी कि प्रभावशाली लाग कभी अपराध नही करते। उनसे तो बस भूल हो जाती है और भूल तो भूल है उसे भूल जाना चाहिए। ऐलोपैथिक दवाओं का ज्यादातर अविष्कार यूरोप के विकसित देश करते हैं। इनका मनुष्यों पर वास्तविक प्रभाव जानने के लिए भारत जैसे गरीब देशो के नागरिकों को शिकार बनाते हैं। दवा पहली बार मरीजों पर आजमाई जाती हैं और इसके विपरीत प्रभाव की सम्भावना बनी रहती है। दवा कम्पनियां और परीक्षण करने वाले डाक्टर दोनों इस बात को जानते हैं कि दवा जानलेबा हो सकती है। गुपचुप तरीके से ऐसे परीक्षण नाजायज कमाई की खदानें बन गई हैं। प्रति मरीज ऐसे परीक्षण पर चार से पांच लाख रुपए मिलते हैं। इस धन्धे के जानकारों का कहना है कि हमारे देश में दवा परीक्षण का कारोबार सालाना सत्ताइस करोड़ रुपए का है। पूरी दुनिया का हर चौथा दवा परीक्षण भारत के गरीब और लाचार लोगों पर हो रहा है। इसके पीछे यही कारण है कि हमारे देश का इस प्रसंग में कानून ढीला-ढाला है। प्रशासन तंत्र भृष्ट है और कुछ डॉक्टर लालची पेशेवर हैं। इनको नाटों को निगलने में कमाल की महारत हासिल है। एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि हमारे यहां हर मर्ज का मरीज आसानी से मिल जाता है।
नई दवा के परीक्षण का काम पूरी कुटिलता और गोपनीयता से किया जाता है। सरकारी अस्पताल मुफ्त इलाज का ढिंढ़ोरा पीटते हैं किन्तु ऐसा होता नहीं है। मरीज को दवाएं बाजार से ही खरीदनी पड़ती हैं। परीक्षण करने वाले डाक्टर इसी लाचारी का फायदा उठाते हैं। अंग्रेजी में छपे कागजातों पर मरीज को बिना बताये हस्ताक्षर या अंगूठा लगवा लिया जाता है। इसके बाद एक फाइल बनाई जाती है और इसमें मरीज पर दवा परीक्षण की कुंडली बनना शुरू होती है। नई दवा इस मरीज पर आजमाना शुरू कर दिया जाता है। लोभ से लपलपाती जीभ वाला डाक्टर मरीज को कड़ा निर्देश दे देता है कि दवा का खाली स्टिप लौटाता रहे। खाली स्टिप लौटाने पर ही उसे दवा की अगली खुराक मिलेगी। इन्दौर में लोभी डाक्टरों ने 1700 बच्चों और 1300 महिला-पुरुष मरीजों पर गैरकानूनी दवा परीक्षण किया और बदले में पांच करोड़ रुपए दवा बनाने वाली कम्पनियों से प्राप्त किये हैं। मनोरोगियों पर कामोत्तेक दवाओं का भी परीक्षण किया गया है। भारत सरकार ने अनजान दवाओं के परीक्षण के लिए सन 2005 में डग एक्ट में संशोधन करके नियम और मानदंड बनाए। इंडियन कौंसिल आफ मेडिकल रिसर्च ने भी दवा परीक्षण के लिए कुछ कठोर मानक तय किये किन्तु धन उपहार की लालच तथा निगरानी तंत्र के अभाव में कायदे- कानून सजावटी बन कर रह गए। नियम के अनुसार एक निगरानी समिति बनाई जानी चाहिए जिसमें नागरिकों का भी एक प्रतिनिधि होना चाहिए। मरीज का बीमा कराया जाना चाहिए। मरीज को दवा परीक्षण की जानकारी दी जानी चाहिए। जानकारी स्थानीय भाषा में मुद्रित सहमति पत्र में दर्ज होनी चाहिए। मरीज को कभी नहीं बताया जाता कि तुम पर दवा का परीक्षण किया जा रहा है, इससे परीक्षण के दौरान विकलागंता और नपुसंकता आ सकती है। मौत भी हो सकती है। सहमति पत्र की एक प्रति मरीज को भी दी जानी चाहिए। किन्तु ये सभी चाहिए केवल खोखले शब्द बन कर रह गए। दवा परीक्षण का खेल हमारे यहां कई दशक से चल रहा है। दवा परीक्षण करने वाले डाक्टर जानलेवा चतुराई में पोस्ट ग्रेजुएट हैं।
प्रदेश सरकार ने इस कांड पर परदा डालने का पहिले तो पूरा प्रयास किया किन्तु जव ऐसा नहीं हो सका तो इस अपराधिक कांड के दोषियों को कठोर दंड देने की जगह बहुत हल्की सजा देकर न्याय का कर्मकांड सम्पन्न कर दिया । कुछ को दोष- मुक्त कर दिया और दो को ब्लैकलिस्ट छह माह के लिए कर दिया। यह ब्लैकलिस्ट का दंड भी मजाक है। यह भी कोई सजा हुई। करोड़ों कमा लिए । मजे से कुछ माह इस रकम से जुगाली की जायेगी। दवा परीक्षण करने की जल्दी क्या है? फिर जुट जाएगें अपने नोट उगलने वाले मिशन में। इस पूरे मामले में प्रदेश सरकार यह भी दलील दे रही है कि यह केन्द्र सरकार से सम्बन्धित है। इस पर केन्द्र ही कोई कार्यवाही करने में सक्षम है। हमारे तारणहार बेचारे क्या करें दूसरो के अधिकार का अतिक्रमण कैसे कर सकते हैं। संविधान कहता है कि कानून-व्यस्वथा प्रदेश सरकार का दायित्व है। इन गुनहगारों पर हत्या का प्रयास करने धोखा-धड़ी करने अनैतिक आचरण का मामला बनता है। इसकी एफआईआर दर्ज होनी चाहिए। दवा निर्माता कम्पनियों को भी जबाबदेह बनाया जाना चाहिए। अभी देश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। भोपाल में हुए जहरीली गैस रिसाव के नरसंहार की यादें आज भी नासूर बन कर कलेजे चीर रही हैं। सरकार ने इससे कोई सबक नहीं लिया है। संसार के अमीर देश भारत के लोगों को कीड़ा-मकौड़ा समझते हैं। प्रदेश सरकार इस अपराधिक दवा परीक्षण को लेकर गम्भीर नहीं है ।
यह चिन्ता का विषय है। सफेदपोश अपराधियों को संरक्षण दिया जा रहा है। आधुनिक युग में कुबेर बनने की राक्षसी भूख पैदा हुई है इसमें नैतिकता-ईमानदारी-मानवीयता के लिए कोई जगह नहीं है। बाजारवाद ने लोगों को अर्थ गुलाम बना दिया है और ऐसी व्यवस्था विकसित कर ली है, जिसका लक्ष्य दूसरों का दाहन और अपना स्वार्थ साधन है। इसने चालबाज लोगों को लुटेरा बना दिया है जिनकी सोच है कि सब कुछ हमारा है। चोरी छिपे किये गए दवा परीक्षण का यह कांड ऐसी ही सोच रखनेवालों का कारनामा है। विडम्बना तो यह है कि सरकारें ऐसे गिरोहों की तरफदारी करती हैं। ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की जननी बहुराष्टÑीय कम्पनियां भी है। अपना काम निकालने के लिए नाजायज रास्तों पर चलने में इन्हें कभी हिचकिचाहट नही होती। इनके लिए अपना काम निकालने के लिए हर तरीका जायज है। मुनाफा कमाना इनके लिए नैतिक अनैतिक नही होता। हमारे राजनीतिज्ञ पुरखों ने देश को विश्व बाजार की मंडी तो बना दिया है किन्तु नकेल अपने हाथ में नहीं रखी है ।
***चिन्तामणि मिश्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
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