शहरों में रहते हुए क्या आपने अपने ऊपर फैले विस्तृत-मुक्त नीले आकाश को कभी देखा है। तारों भरी आकाश गंगा जिसे हम ‘हथडगर’(हाथियों का रास्ता) के रूप में जानते हैं, सामानान्तर दूरी बनाए पूर्व की तरफ से चढ़ते हुए सितारों को जिन्हें देखकर गांव के लोग समय का अनुमान लगाते हैं और जिन्हें हिन्नी मिर्गी (हिरणी मृगी) के रूप में पहचानते हैं, शुकवा (शुक्र) विहफइया(वृहस्पति) सात तारे (सप्तर्षि) मंगल, जो आकाश में रहकर हम पर नियंत्रण रखते हैं और हमारे शुभ कार्यों में साक्षी होते हैं, पंचक के दिशाशूल और उसमें मृत्यु पर बाधा मुक्त होने की प्रक्रियाओं इत्यादि से यदि आप परिचित नहीं हैं तो भले ही वैश्वक ज्ञान और अंतरिक्ष विज्ञान के बारे में पूर्ण जानकार हों, भारत के ग्रामीण आकाशीय ज्ञान से अल्पज्ञ हैं।
शहर की ऊंची और भव्य इमारतें आकाश देखने में बाधा उत्पन्न करती हैं। नदी नाले, शहर के पास बहने का अभिशाप भोग रहे हैं। गो कि संसार भर की सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है, लेकिन जितनी प्रदूषित हमारी सप्त और इतर नदियां हुई हें उतनी ह्वांगहो, नील ओर डेन्यूब नहीं हुई। इतना धुंध युक्त आकाश हमारे ऊपर चिमनियों ने तान दिया है कि ताजमहल के शारदीय पूनम (मूनलाइट) के सौंदर्य का आनंद रघुवीर सिंह के ‘ताज’ को पढ़कर ही लिया जा सकता है, मकबरे के सामने बैठ या लेटकर नहीं। कवियों ने एकांत को कभी दुख नहीं माना, चिंतन और दर्शन उन्हीं क्षणों की देन है- ‘कोई जब साथ न दे, खुद से प्रीति जोड़ ले। बिछौना धरती को करके अरे आकाश ओढ़ ले।’ नदियां किसी से मोह बढ़ाने के लिए रुकती नहीं निरंतर चलती हुई कल-कल का अविराम दर्शन देती हैं, जिसे हमारे मनीषियों ने समझकर उन्हें मां कहकर पूजा, आदि शंकराचार्य जैसे अद्वैतवादी ने भी ‘गंगा’ और ‘नर्मदाष्टक’ लिखे।
प्रकृति के खुलेपन का अहसास शहरों के किसी कोने में पार्क में किया जा सकता है, लेकिन शाम को बिजली के नियान बल्बों से छनकर चांद देखने का आनंद नहीं लिया जा सकता। शहरों में रहने-पढ़ने वालों के सामान्य ज्ञान में तिथियां नहीं होतीं, अमावस और पूनम नहीं होते, यहां तक कि ऋतुएं भी गर्मी, वर्षा और सर्दी में तब्दील हो गई हैं। शरद, शिशिर, हेमंत और वसंत कविताआें में बसे हैं। शहरों से गांव की समस्याओं का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। ‘भारत भाग्य विधाता’ दो दिन गांव में रुककर कहने लगे हैं कि गांव में रुको, देखो और गांव को बदल दो।’ गांव से यदि ग्राम्यत्व छिन गया तो फिर क्या बचेगा? गांव के बदलने का आशय कुछ समझ में नहीं आता। गांव में अभी भी शहरों की अपेक्षा करुणा, प्रेम, अहिंसा और संवेदना है। उसे बदलकर शहर न बनाएं, बना सकें तो ‘रालेगण सिद्धि’ जैसा गांव बनाएं। गांव से लगे जंगल बचाएं, नदी, तालाब, पोखर बचाएं। पक्षी के घोंसले बचाएं, पशु बचाएं ,गांव से खत्म होते कुटीर उद्योग बचाएं। चुनावों की चाशनी में जाति, वर्ग और वर्ण का जहर न परोसे। गुणवत्ता और योग्यता का कुछ प्रतिशत तय करें। बुनियादी जरूरतें पूरी करते हुए गांव को गांव रहने दें। खेतों को शल्य-श्यामला रहने दें, कंक्रीट की फैक्टरी खड़ी करके धन्ना सेठों से ग्रामीणों का पुश्तैनी जमीनी मोह न छीनें।
पिछले दिनों गांव गया था। एक रात एकाएक बादल जाने कहां से आए, शायद सुदूर पड्डुचेरी के तूफान का प्रभाव था। दूर-दूर तक बारिश हुई। किसानों के चेहरे खिल उठे। गांवों में लोकोक्ति है, ‘पानी बरसैं आधा पूस/आधा गेहूं आधा भूस’/ अरहर-सरसों के फूलों ने बसंत आगमन की सूचना दे दी। सबेरे नहर के किनारे-किनारे दूर तक घूम आया। जाड़े की गुनगुनी धूप का आनंद लेने बाहर बैठ गया। आम के पेड़ से उतरकर गिलहरियों का जोड़ा धूप का आनंद लेता हुआ खलिहान में विखरे कोने-अंतरे धान के छिलके उतारकर पास से गुजरता हुआ दो पैरों पर खड़ा होकर हमें निहारता अपनी सफलता पर गुनगुना रहा था। राम के सेतुबंध के इस सहयोगी पर रश्क किए बिना नहीं रहा जाता। गौरैया, गलरी, पोड़की, परेवा अपने जोड़ों के साथ धूप का आनंद लेते दाने भी तलाश रहे थे। जाड़े की धूप का नशा जीवन के अनेक जीवन्त नशों से कमतर नहीं होता। धूप सेंकते हुए पक्षियों की हरकत, पशुओं की जुगाली देखने का सुख शहर में कहां। शहर में भौतिक सुख हो सकते हैं, लेकिन उन्मुक्त प्रकृति, आकाश, एक गांव से लगे दूसरे गांव तक की चहल-पहल और स्निग्ध मुक्त हवा का आनंद भाव तो सिर्फ गांव में है, उन्हें बचाना होगा। गांव का दूध-दातून शहर चला गया, वह अब गांवों में कम मिलता है। लेकिन हवा-पानी बचा है, करुणा, अहिंसा कुछ शेष है- ‘साधु रेंगा भुइया-भुइंया, चिहुंटी बचाइकै।’ किसी के दुख-सुख में शामिल होने का भाव रस्मी तौर पर नहीं, दायित्व के रूप में अभी भी बचा है। बड़े-छोटे का लिहाज है, रिश्तों की गरमी है, काका-काकी, बाबा-दाई, दिद्दा-बूटू, फूफा-फु फू , मामा-मामी, मौसा-मौसिया के रिश्ते पूरी शिद्दत से अपनी धज बनाए हुए हैं। आंख में शरम और हया अभी शेष है।
संवेदनाशीलता मनुष का सहज गुण है, आज उस सहजात गुण से ही हम दूर होते जा रहे हैं। प्रेम और करुणा का भाव मूर्खता माना जा रहा है। समाज की एक नैतिक चेतना थी, किसी के साथ अन्याय करते-होते देख, लोग बोल उठते थे। किसी का गिरा हुआ बटुआ उस तक पहुंच जाता था। अपरिचित के यहां भी रात भर रुका जा सकता था। अब परिचितों के यहां भी रुकने में डर लगता है। विश्वास का इतना संकट कहां से पैदा हो गया। पैसे के आगे सब रिश्ते कैसे छोटे पड़ गए? संतोष की गठरी कहां खो गई जिसके आगे सभी धन धूल के समान थे। सार्त्र नोबेल ठुकरा देते हैं, कृष्ण बलदेव वैद ज्ञानपीठ को पीठ दिखा देते हैं और राम विलास शर्मा पुरस्कार की राशि को देखे बिना साक्षरता के नाम पर दान कर देते हैं।
विश्व में जितने भी महान व्यक्ति हुए, उनका हृदयाकाश वृहद, उन्मुक्त एवं सीमाहीन था उनकी चाहत में शहर नहीं थे, नदी के किनारे, पहाड़ की कंदराएं ही उनके आश्रय स्थल थे। उनसे शिक्षा लेने सिकन्दर भी जाता था, अकबर भी। आजादी के इतने दिनों बाद तमाम दुरभिसंधियों के बीच भी देश के गांवों का आकाश मुक्त है, सिर पर उसकी छत है, पवन मुक्त है, क्या आपने उन्हें देखा है? कुछ ऐसा ही अदम गोंडवी भी कहते हैं-
फटे कपड़ों में तन ढांके, गुजरता हो जिधर कोई
समझ लेना वो पगडंडी, ‘अदम’ के गांव जाती है।
¨ चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
सम्पर्क - 09407041430.
शहर की ऊंची और भव्य इमारतें आकाश देखने में बाधा उत्पन्न करती हैं। नदी नाले, शहर के पास बहने का अभिशाप भोग रहे हैं। गो कि संसार भर की सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है, लेकिन जितनी प्रदूषित हमारी सप्त और इतर नदियां हुई हें उतनी ह्वांगहो, नील ओर डेन्यूब नहीं हुई। इतना धुंध युक्त आकाश हमारे ऊपर चिमनियों ने तान दिया है कि ताजमहल के शारदीय पूनम (मूनलाइट) के सौंदर्य का आनंद रघुवीर सिंह के ‘ताज’ को पढ़कर ही लिया जा सकता है, मकबरे के सामने बैठ या लेटकर नहीं। कवियों ने एकांत को कभी दुख नहीं माना, चिंतन और दर्शन उन्हीं क्षणों की देन है- ‘कोई जब साथ न दे, खुद से प्रीति जोड़ ले। बिछौना धरती को करके अरे आकाश ओढ़ ले।’ नदियां किसी से मोह बढ़ाने के लिए रुकती नहीं निरंतर चलती हुई कल-कल का अविराम दर्शन देती हैं, जिसे हमारे मनीषियों ने समझकर उन्हें मां कहकर पूजा, आदि शंकराचार्य जैसे अद्वैतवादी ने भी ‘गंगा’ और ‘नर्मदाष्टक’ लिखे।
प्रकृति के खुलेपन का अहसास शहरों के किसी कोने में पार्क में किया जा सकता है, लेकिन शाम को बिजली के नियान बल्बों से छनकर चांद देखने का आनंद नहीं लिया जा सकता। शहरों में रहने-पढ़ने वालों के सामान्य ज्ञान में तिथियां नहीं होतीं, अमावस और पूनम नहीं होते, यहां तक कि ऋतुएं भी गर्मी, वर्षा और सर्दी में तब्दील हो गई हैं। शरद, शिशिर, हेमंत और वसंत कविताआें में बसे हैं। शहरों से गांव की समस्याओं का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। ‘भारत भाग्य विधाता’ दो दिन गांव में रुककर कहने लगे हैं कि गांव में रुको, देखो और गांव को बदल दो।’ गांव से यदि ग्राम्यत्व छिन गया तो फिर क्या बचेगा? गांव के बदलने का आशय कुछ समझ में नहीं आता। गांव में अभी भी शहरों की अपेक्षा करुणा, प्रेम, अहिंसा और संवेदना है। उसे बदलकर शहर न बनाएं, बना सकें तो ‘रालेगण सिद्धि’ जैसा गांव बनाएं। गांव से लगे जंगल बचाएं, नदी, तालाब, पोखर बचाएं। पक्षी के घोंसले बचाएं, पशु बचाएं ,गांव से खत्म होते कुटीर उद्योग बचाएं। चुनावों की चाशनी में जाति, वर्ग और वर्ण का जहर न परोसे। गुणवत्ता और योग्यता का कुछ प्रतिशत तय करें। बुनियादी जरूरतें पूरी करते हुए गांव को गांव रहने दें। खेतों को शल्य-श्यामला रहने दें, कंक्रीट की फैक्टरी खड़ी करके धन्ना सेठों से ग्रामीणों का पुश्तैनी जमीनी मोह न छीनें।
पिछले दिनों गांव गया था। एक रात एकाएक बादल जाने कहां से आए, शायद सुदूर पड्डुचेरी के तूफान का प्रभाव था। दूर-दूर तक बारिश हुई। किसानों के चेहरे खिल उठे। गांवों में लोकोक्ति है, ‘पानी बरसैं आधा पूस/आधा गेहूं आधा भूस’/ अरहर-सरसों के फूलों ने बसंत आगमन की सूचना दे दी। सबेरे नहर के किनारे-किनारे दूर तक घूम आया। जाड़े की गुनगुनी धूप का आनंद लेने बाहर बैठ गया। आम के पेड़ से उतरकर गिलहरियों का जोड़ा धूप का आनंद लेता हुआ खलिहान में विखरे कोने-अंतरे धान के छिलके उतारकर पास से गुजरता हुआ दो पैरों पर खड़ा होकर हमें निहारता अपनी सफलता पर गुनगुना रहा था। राम के सेतुबंध के इस सहयोगी पर रश्क किए बिना नहीं रहा जाता। गौरैया, गलरी, पोड़की, परेवा अपने जोड़ों के साथ धूप का आनंद लेते दाने भी तलाश रहे थे। जाड़े की धूप का नशा जीवन के अनेक जीवन्त नशों से कमतर नहीं होता। धूप सेंकते हुए पक्षियों की हरकत, पशुओं की जुगाली देखने का सुख शहर में कहां। शहर में भौतिक सुख हो सकते हैं, लेकिन उन्मुक्त प्रकृति, आकाश, एक गांव से लगे दूसरे गांव तक की चहल-पहल और स्निग्ध मुक्त हवा का आनंद भाव तो सिर्फ गांव में है, उन्हें बचाना होगा। गांव का दूध-दातून शहर चला गया, वह अब गांवों में कम मिलता है। लेकिन हवा-पानी बचा है, करुणा, अहिंसा कुछ शेष है- ‘साधु रेंगा भुइया-भुइंया, चिहुंटी बचाइकै।’ किसी के दुख-सुख में शामिल होने का भाव रस्मी तौर पर नहीं, दायित्व के रूप में अभी भी बचा है। बड़े-छोटे का लिहाज है, रिश्तों की गरमी है, काका-काकी, बाबा-दाई, दिद्दा-बूटू, फूफा-फु फू , मामा-मामी, मौसा-मौसिया के रिश्ते पूरी शिद्दत से अपनी धज बनाए हुए हैं। आंख में शरम और हया अभी शेष है।
संवेदनाशीलता मनुष का सहज गुण है, आज उस सहजात गुण से ही हम दूर होते जा रहे हैं। प्रेम और करुणा का भाव मूर्खता माना जा रहा है। समाज की एक नैतिक चेतना थी, किसी के साथ अन्याय करते-होते देख, लोग बोल उठते थे। किसी का गिरा हुआ बटुआ उस तक पहुंच जाता था। अपरिचित के यहां भी रात भर रुका जा सकता था। अब परिचितों के यहां भी रुकने में डर लगता है। विश्वास का इतना संकट कहां से पैदा हो गया। पैसे के आगे सब रिश्ते कैसे छोटे पड़ गए? संतोष की गठरी कहां खो गई जिसके आगे सभी धन धूल के समान थे। सार्त्र नोबेल ठुकरा देते हैं, कृष्ण बलदेव वैद ज्ञानपीठ को पीठ दिखा देते हैं और राम विलास शर्मा पुरस्कार की राशि को देखे बिना साक्षरता के नाम पर दान कर देते हैं।
विश्व में जितने भी महान व्यक्ति हुए, उनका हृदयाकाश वृहद, उन्मुक्त एवं सीमाहीन था उनकी चाहत में शहर नहीं थे, नदी के किनारे, पहाड़ की कंदराएं ही उनके आश्रय स्थल थे। उनसे शिक्षा लेने सिकन्दर भी जाता था, अकबर भी। आजादी के इतने दिनों बाद तमाम दुरभिसंधियों के बीच भी देश के गांवों का आकाश मुक्त है, सिर पर उसकी छत है, पवन मुक्त है, क्या आपने उन्हें देखा है? कुछ ऐसा ही अदम गोंडवी भी कहते हैं-
फटे कपड़ों में तन ढांके, गुजरता हो जिधर कोई
समझ लेना वो पगडंडी, ‘अदम’ के गांव जाती है।
¨ चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
सम्पर्क - 09407041430.
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