जहां देश के शहीदों के पराक्रम को भुलाकर, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के योगदान की अनदेखी करके, फिल्मी परदे पर गत्ते की तलवार भांजने वाले अभिनेता को शताब्दी का महानायक घोषित कर दिया जाता हो। ग्यारह साल से अनशनरत गाँधीवादी योद्धा शर्मिला एरोम को हाशिए में डालकर, पोर्न स्टार सनी लियोन और फूहड़ राखी सावंत की अदाओं को सुर्खियां दी जाती हों, वहां हर विवेकशील व्यकित की प्रतिक्रिया जस्टिस मार्कडेय काटजू की तरह ही होगी कि अपने यहां टीवी का मतलब..क्रिकेट, केटरीना और कोलावेरी डी के ज्यादा कुछ भी नहीं। सुप्रीम कोर्ट के जज रहे जस्टिस काटजू वर्तमान में प्रेस कौंसिल आॅफ इन्डिया के अध्यक्ष हैं। नब्बे के दशक के शुरुआती दिनों में जब देश में एक के बाद एक आकाशीय चैनलों को अनुमति दी जा रही थी, तब एक मीडिया विशेषज्ञ की टिप्पणी काटजू की तरह ही तल्ख थी। उथले दिमाग वाले अप्रशिक्षित हाथों में जनसंचार का इतना सशक्त औजार देने का मतलब बंदर के हाथ में उस्तरा देने जैसा है। इसके जवाब में कहा गया था कि समय के साथ सब ज्ञानवान और कुशल हो जाएंगे। उदारीकरण की प्रक्रिया के बाइस साल हो गए क्या हम टीवी चैनलों के संदर्भ में आशा के अनुरूप दक्ष हो पाए? समाजिक सरोकार और राष्टÑीय हित को ध्यान में रखते हुए, क्या हम अपनी प्राथमिकताओं को तय कर पाए? हम जिस अमेरिका की उन्मुक्तता की दुहाई देते हुए आगे बढ़ रहे हैं, उसी अमेरिका से सबक लेने की जरूरत है। भारतयात्रा पर आर्इंओपरा विन्फ्रे जिन्हें इन दिनों अपने शताब्दी के महानायक ड्राइवर बनकर घुमा रहे हैं, वे अमेरिकी टीवी की नामचीन हस्ती हैं। विन्फ्रे के टॉक शो में आने के लिए दुनिया की बाड़ी से बड़ी हस्ती तरसती हैं। वे ऐश्वर्या राय जैसी सुंदर नहीं अपितु औसत नीग्रो महिला हैं। वस्तुत: विन्फ्रे के टॉक शो की विश्वसनीयता इतनी जबरदस्त है कि वे जिस लेखक की पुस्तक को सराह देती हैं तो वह लेखक रातों-रात सेलीबे्रटी और उसकी पुस्तक बेस्ट सेलर बन जाती है। विन्फ्रे के टॉक शो में बुलाए जाने मात्र से उस व्यक्ति का सोशल स्टेटस बढ़ जाता है। जाहिर है कि विन्फ्रे की प्रज्ञाचक्षु यथार्थ देखती है न कि किसी की हैसियत के मुताबिक उसकी विरुदावली पढ़ती हैं। अपने टीवी जगत में क्या कोई है ऐसा विश्वसनीय चेहरा? कभी इंडियन एक्सप्रेस में गंभीर व अच्छा लिखने वाले रजत शर्मा का चैनल इंडिया टीवी भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास परोसता है। रजत शर्मा के टॉक शो में राखी सावंत और बाबा रामदेव के स्वयंवर की चर्चाएं होती हैं। हम अमेरिका की जिस उन्मुक्तता की बात करते हैं उसी अमेरिका के चैनलों की राष्टÑ के प्रति जवाबदेही देखना है तो स्मृतियों को ताजा करिए, ट्विन-टॉवर और ट्रेडसेंटर पर अलकायदा के हवाई हमले पर जाइए। हमले के दृष्य के बाद न तो इमारतों का ध्वस्त मलबा दिखाया गया और न कटे हाथ और झुलसी लाशें। अपने यहां के उत्साही चैनलों ने आतंकवादियों के मुंबई हमले का लाइव प्रसारण किया। यह भी हो सकता है कि लाइव प्रसारण के आधार पर ही इस्लामाााद से गाइडेड आतंकवादियों को सुनियोजित हमले करने के दिशा निर्देश मिले, हेमंत करकरे, अशोक कामटे जैसे कर्मठ पुलिस अफसर मारे गए। अमेरिका के टीवी चैनल दुनिया में अपने देश की गरिमा को लेकर इतने सचेत हैं कि पूॅजीवाद के खिलाफ भड़के युवाओं के आंदोलन को भी बेहद समझदार तरीके से पेश करते हैं। जाकि हम हुड़दंगियों की छोटी सी खुराफातों तक को राष्टÑीय खबर बना देते हैं। कई साल पहले तीसरी दुनिया के मीडिया सम्मेलन(नामीडिया) में एक देश के प्रतिनिधि ने तो यहां तक कह दिया था कि जितने खतरनाक अमेरिका-ब्रिटेन के बमबर्षक और मिसाइलें नहीं हैं उससे कहीं ज्यादा खतरनाक एपी(अमेरिकी न्यूज एजेंसी) और रॉयटर(ब्रिटिश न्यूज एजेंसी) हंै। चाहे इराक हो या अफगानिस्तान दोनों देशों के खिलाफ युद्ध का वातावरण तैयार करने में इनके प्रोपेगंडा की ही प्रमुख भूमिका रही है। देश की अच्छी या बुरी छवि वहां का मीडिया गढ़ता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मायने यह नहीं कि हम कुछ भी दिखा दें और देश को दुनिया के सामने शर्मसार होने के लिए छोड़ दें। मीडिया के राष्टÑीय सरोकारों के संदर्भ में मुझे एक वाकया और याद आता है। याद करिए वह सीरीज, जिसमें इंग्लैंड के खिलाफ विनोद काम्बली ने दोहरा शतक जड़ा था और भारत ने सीरीज जीती थी। जानते हैं इंग्लैंड के गार्जियन जैसे प्रतिष्ठित अखाार ने क्या लिखा था? ...मुम्बई की गंदी चाल में रहने वाले एक लड़के, जिसकी जाति को भारत में अछूत माना जाता है, की किस्मत क्रिकेट ने रातों-रात बदल दी। अपने देश की हार के कारणों के बारे में गार्जियन ने कैफियत दी थी कि मुम्बई की उमस, कानपुर की गर्मी, हैदराबाद के प्रदूषण और कोलकाता की बेस्वाद झींगा मछलियों ने हमारे खिलाड़ियों का मनोबल तोड़ दिया और वे ऐसा खेल दिखाने से वंचित रह गए जिसके कि वे हकदार थे। ..विदेशी अखाारों में भारत.. पर एक अध्ययन में ये बातें सामने आर्इं थी, टाइम्स आॅफ इंडिया ने इस रिपोर्ट को छापा था। क्या हम अमेरिका और ब्रिटेन के राष्टÑवादी मीडिया से यह सीख लेंगे? मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं कि टीवी चैनल दर्शकों को वही परोसते हैं जो व देखना चाहते हैं। ऐसा तर्क देने वाले अज्ञानी हैं या दर्शकों को मूर्ख बनाने वाले। दूरदर्शन के जमाने में यदि रामायण,महाभारत के धार्मिक आख्यानों के सीरियलों को छोड़ दें तो भी उस दौर में ाुनियाद, हम"ोग, तमस, भारत एक खोज, चाणक्य जैसे सीरियल ज्ञानवर्धन के साथ-साथ भरपूर मनोरंजन देते थे। आज टीवी स्क्रीन से फूहड़पन और अपसंस्कृति मवाद की तरह रिसती है। घर में जितने कमरे उतने टीवी, क्योंकि परिवार के साथ देखते हुए कब बिग-बॉस में रियल रेप का लाइव प्रसारण हो जाए, कहा नहीं जा सकता। हाल ही में ब्राजील में ऐसा ही हुआ। दरअसल आक्रमण सामने से हो तो कैसे भी बचा जा सकता है पर दुश्मन सेंध लगाकर हमारे परिवार में शामिल हो जाए तो उससे निपटना मुश्किल होता है। हमारे ड्राइंगरूम में यह अपसंस्कृति सेंध लगाकर पहुंचे को है, इस खतरे को समय रहते ही भांपना होगा। रही बात देश के खबरिया चैनलों की, तोे वे इतने संजीदा हैं कि राजधानी दिल्ली में परिवहन संचार की क्रांति ला देने वाले मैट्रोमैन के नाम से मशहूर ई.श्रीधरन कब रिटायर्ड हो जाते हैं मालूम ही नहीं पड़ता। पर एक बार मैट्रो के निर्माणाधीन पुल का एक पटिया गिर गया तो उसे तीन दिन दिखाते रहे। देश की सबसे दुर्गम कोंकण रेल परियोजना को मूर्त रूप देने वाले अभियंता शिरोमणि श्रीधरन की योग्यता और क्षमता पर बहस के लिए विशेषज्ञों के पैनल बैठाते रहे। मालूम होना चाहिये कि आजादी के बाद राष्टÑ निर्माण में श्रीधरन का योगदान भारतरत्न सर विश्वेसरैया से किसी भी मायने में कम नहीं। क्या हम अपने टीवी चैनलों से(प्रिंटमीडिया से भी) यह उम्मीद कर सकते हैं कि सनी लियोन, राखी सावंत या फिर शतादी के महानायक की२ फोािया से उारकर श्रीधरन को भारतरत्न देने की आवाज बुलंद करेंगे?
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