चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
उन्नीस सौ पचास ईस्वी सन् की छब्बीस जनवरी को भारत (दैट इज इंडिया) में लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना संवैधनिक रूप से की गई। पहला आम चुनाव जिसमें जनता ने पहली बार मतदान, सरकार बनाने के लिए किया जो दो वर्ष बाद सम्भव हो सका ओर पहली पंचवर्षीय योजना और सरकार उन्नीस सौ बावन में विधिवत कार्यक्रम में गठित हुई। 26 जनवरी 50 को इतिहास रावी तट के किनारे हुए एतिहासिक कांग्रेस अधिवेशन 26 जनवरी 30 के पारित प्रस्ताव ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ के पुनरावृत्ति की तारीख है। आज गणतंत्र शब्द 26 जनवरी के अंक में तब्दील हो चुका है। 62 वर्ष पूर्व पहले देश की आबादी तैंतीस करोड़ थी, आज एक अरब इक्कीस करोड़ से अधिक है। जनतंत्र के जन्म पर राष्ट्रकवि दिनकर ने एक कविता ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है,’ कालांतर में जेपी आंदोलन का नारा भी बनी, लिखी थी ‘सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा। तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो। अभिषेक आज राजा का नहीं प्रजा का है। तैंतींस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।’ 1950 का जनतंत्र सपनों का जनतंत्र था। आज के जनतंत्र का यथार्थ यह है कि 543 सांसदों में 408 सांसद करोड़पति हैं और वे भारत के प्रतिनिधि हैं जिन्हें जनता ने चुना है और जो स्वयं 20 रुपये रोज पर गुजारा करती है। ये सांसद साधारण पानी नहीं मिनरल वाटर पीते हैं और 77 प्रतिशत आबादी के अधिकांश हिस्से में पीने के पानी के लिए पोखरों, तालाबों और नदियों के गंदले पानी पर निर्भर रहना पड़ता है। बाइस रुपये वाला अपने मत की कीमत कितनी लगा सकता है। मुकुट जनता के सिर से छीन लिया गया।
संसद, हमारी चुनी हुइ सबसे बड़ी पंचायत है। पंडित नेहरु को उत्तरार्द्ध शासन में संसद की ताकत का अहसास डॉ. लोहिया ने कराया था। 67-68 में मुधलिमये ने सुरक्षा कोष और सुखड़िया को सोने की र्इंट प्रकरण में घेरा था। क्रम से घिरते हुए कितने ही मंत्री बहुमत के बल पर बचते रहे, जनता देखती रही, जानती रही कि हमारा प्रतिनिधि चोर है, लेकिन पांच वर्ष तो सब्र करना ही था। संसद की सर्वोपरिता का दावा करने वाले भी जानते हैं कि सच क्या है? लेकिन न्यायिक प्रक्रिया की जय हो, आज तक किसी बड़े नेता (सिवाय सुखराम) के दोषी, पूर्णता नहीं करार दिया जा सका। संसद पर ‘धूमिल’ ने तीखी टिप्पणी की थी- ‘मेरे देश की संसद/तेली की वह धानी है/ जिसमें आधा तेल और आधा पानी है।’ या फिर यही सच है- ‘यहां, सिर्फ वह आदमी, देश के करीब है/ जो या तो मूर्ख है/ या फिर गरीब है।’
देश का करोड़ों अरबों का काला धन स्विस बैंको में जमा है, जिसे सरकार और जनता दोनो जानती हैं, परंतु कुछ कर क्यों नहीं पाती, यह बताने वाला कोई नहीं है। कुछ दिन पहले धैर्य का उन्माद था, अब जातीय उन्माद है। जातिगत आधार और संख्या बल पर सभी दल टिकट बांट रहे हैं। जातियां लड़ रहीं हैं, नफरत और घृणा चरम पर है। आरक्षण की पूंछ हनुमानजी की पूंछ की तरह बढ़ रही है। डॉ. अम्बेडकर ने पिछड़े, अनुसूचितों, जनजातियों के लिए इतने दिनों तक आरक्षण की स्वीकृति नहीं दी थी। अल्पसंख्यकों को आरक्षण देकर एक और पाकिस्तान बनाने की भूमिका की तैयारी है। कोई भी लोकतंत्र ऐसा नहीं हो सकता जो अल्पसंख्यकों को ऐसे विशेषाधिकार दे जिनसे बहुसंख्यक समाज को वचिंत रखा जाए। आरक्षण में पढ़ाई की, ढेर सारी सुविधाएं देना तो ठीक है, लेकिन चयन या नियुक्ति पर गुणवत्ता का ध्यान रखा जाय, जिससे देश की बौद्धिक क्षमता का ग्राफ न गिरे। हमारे प्रधानमंत्री बड़े बेबाक और बेलाग कहते हैं कि देश की गणतीय और भौतिकीय प्रतिभाएं कम हो रही हैं। जो प्रतिभाएं हैं उनका लाभ अमेरिका और ब्रिटेन ले रहा है। उनकी दृष्टि में न देश है न समाज, वे सिर्फ अपने लिए जी रहे हैं। प्रतिभा पलायन क्यों हो रहा है। कमोवेश यही स्थिति राजनेताओं की है। देश सेवा मात्र शब्द रह गया है। कभी एक धृतराष्टÑ था, अंधा था, स्वाभाविक था अपने बेटों का मोह! आज आंख वाले धृतराष्टÑ हैं, उन्हें सिर्फ अपने बेटे दिख रहे हैं, यह गणतंत्र सिर्फ भारत का हो सकता है। प्रत्येक दल अपने दुर्याेधनों को सुयोधन समझ रहा है। क्या यह वही देश है जहां गांधी, तिलक, गोखले, सुभाष, भगत सिंह, आजाद, लोहिया, जेपी, गणेशशंकर विद्यार्थी हुए थे, जिन्होंने अपनी पुत्र-परम्परा की तरफदारी नहीं की। क्या त्याग बलिदान का भी कुछ अर्थ होता है? आज क्या हम ईमानदारी से किसी एक ईमानदार नेता की कल्पना कर सकते हैं? अन्ना को जिस तरह घेरकर निरर्थक साबित किया जा रहा है वह चिंतनीय है। 42 वर्ष पूर्व तक धूल खा रहे लोकपाल को थोड़ा झाड़-फंूककर संसद में लाना सरकार की प्रतिबद्धता नहीं मजबूरी थी। जनलोकपाल वह रस्सी थी जो सबके गले में फिट बैठ रही थी। अपना गला भला कौन फंसाना चाहेगा? ईमानदार और सही व्यक्ति के लिए मुहावरा गढ़ लिया गया है कि ‘वह इसलिए ईमानदार है कि उसे मौका नहीं मिला।’ राजनीति कभी सेवा के रूप में जन्मी थी, आज वह मेवा बन चुकी है। गणतंत्र का गाल सूखा है, माथे पर झुर्रियां हैं, गले की नसें तनी हैं, लोक का तंत्र नहीं रहा, कुछ लोगों का तंत्र हो गया है। लोक ठगा सा अपने बनाए तंत्र के आगे बेबस है, जिसे भी चुनता है, वही उस पर धौंस जमाता है। शासक, शासित हो गया है। शायद इन्हीं हुक्मरानों को देखकर अदम गोंडवी ने कहा है- ‘जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे/ कमीशन दो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे।’ यह सच है कि लोकतंत्र से बेहतर कोई शासन व्यवस्था नहीं हो सकती परंतु 20-25 प्रतिशत मत पाने वाला 75-80 प्रतिशत का भाग्य विधाता कैसे हो सकता है? यह प्रश्न उठाकर चुनाव प्रक्रिया में परिवर्तन की मांग भी उठना आज के समय की मांग है। सार्वजनिक जीवन में शुचिता की नितांत आवश्यकता है। कोई रोल मॉडल नहीं दिखता। बहुत पहले भवानी भाई ने प्रश्न किया था- कोई है, कोई है, कोई है, जिसकी जिन्दगी दूध की धोई है। आज भी करोड़ों ऐसे दूध के धोए लोग हैं, जो हाशिये पर हैं, क्योंकि वे राजनीति का छल-प्रपंच नहीं जानते। विश्वास का ऐसा यह संकट जन-गण में क्यों है?
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