मार्कंडेय काटजू
भारत में मीडिया जो भूमिकाएं निभा रहा है,उसे समझने से पहले हमें ऐतिहासिक संदर्भों को समझना होगा। वर्तमान भारत अपने इतिहास में संक्रमण के दौर से गुजर रहा है: एक सामंती खेतिहर समाज से औद्योगिक समाज की ओर संक्रमण। यह बहुत पीड़ादायक और व्यथित कर देने वाला दौर है। पुराने सामंती समाज की चूलें हिल रही हैं और कुछ तब्दीलियां हो रही हैं लेकिन नया, आधुनिक, औद्योगिक समाज अभी तक संपूर्ण ढंग से स्थापित नहीं हुआ है। पुराने मूल्यों की किरचें बिखर रही हैं, सारी चीजें उबाल पर हैं। शेक्सपियर के मैकबेथ को याद करें... रौशन चीजें धूल धूसरित हैं और धूल धूसरित रौशन...। सभी देशप्रेमियों का, मीडिया सहित, यह फर्ज है कि वे इस संक्रमण से कम से कम पीड़ा और तत्काल उबारने में हमारे समाज की मदद करें। इस संक्रमण काल में मीडिया को एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होती है क्योंकि इसका ताल्लुक विचारों से होता है, सिर्फ वस्तुओं से नहीं। अत: अपने मूल स्वभाव में मीडिया किसी अन्य साधारण व्यवसाय की तरह नहीं हो सकता।
ऐतिहासिक तौर पर, प्रिंट मीडिया का उद्भव यूरोप में सामंती शोषण के खिलाफ जनता के एक सक्रिय हस्तक्षेप के बतौर हुआ। उस वक्त सत्ता के सभी उपकरण दमनकारी सामंती अधिकारियों के हाथों में थे। अत: नए लोगों को एक माध्यम की जरूरत थी, जो उनका प्रतिनिधित्व कर सके। इसलिए प्रिंट मीडिया को चौथे स्तंभ की तरह जाना जाने लगा। यूरोप और अमेरिका में यह भविष्य की आवाज का प्रतिनिधित्व करता था, जो सामंती अंगों-अवशेषों, जो कि यथास्थिति को बनाए रखना चाहते थे, के विपरीत था। मीडिया ने इसलिए सामंती यूरोप को आधुनिक यूरोप में परिवर्तित करने में एक अहम भूमिका अदा की।
मेरे ख्याल से भारत के मीडिया को एक वैसी प्रगतिशील भूमिका का निर्वहन करना चाहिए, जैसी कि यूरोप की मीडिया ने उसके संक्रमण काल में निभाया था। ऐसा वह पुरातन, सामंती विचारों और व्यवहारों- जातिवाद,साम्प्रदायिकता और अंध-मान्यताओं पर आक्रमण करते हुए, आधुनिक, वैज्ञानिक और तार्किक विचारों को प्रोत्साहित करते हुए कर सकता है। लेकिन क्या हमारा मीडिया ऐसा कर रहा है? मेरी राय में, भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा(खासतौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया) जनता के हितों को पूरा नहीं करता, वास्तव में इनमें से कुछ यकीनन(सकारात्मक तौर पर)जनविरोधी है। भारतीय मीडिया में तीन प्रमुख दोष हैं जिन्हें मैं रेखांकित करना चाहता हूं। पहला, मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से अवास्त्विक मुद्दों की ओर भटकाता है। वास्तविक मुद्दे भारत में आर्थिक-सामाजिक हैं भयंकरतम गरीबी, जिसमें हमारे 80 फीसदी लोग जीते हैं। कमरतोड़ मंहगाई,स्वास्थ्य, शिक्षा जरूरतों की कमी और पुरातनपंथी सामाजिक प्रथाएं। अपने कवरेज का अधिकांश हिस्सा इन मुद्दों को देने के बजाय, मीडिया अ-वास्तविक मुद्दों को केंद्रित करता है जैसे फिल्मी हस्तियां और उनकी जीवन शैली, फेशन परेड, नाच-गाना, ज्योतिष, क्रिकेट, रियल्टी शो, और अन्य कई मुद्दे।
इसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि मीडिया लोगों को मनोरंजन मुहैया कराता है, लेकिन इसे अतिरेक में नहीं परोसा जाना चाहिए। स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रम, कृषि और पर्यावरण इन सबको मिलाकर मनोरंजन को नौ गुना ज्यादा कवरेज मिलता है। क्या एक भूखे या बेरोजगार व्यक्ति का दिल ऐसे मनोरंजन से बहलेगा। कई चैनल दिनभर और दिन के बाद भी क्रिकेट दिखाते रहते हैं। रोमन शासक कहा करते थे कि अगर आप लोगों को रोटियां नहीं दे सकते, तो उन्हें सर्कस दिखाइए। लगभग यही नजरिया भारत के सत्ता-स्थापनाओं का भी है, जिसे हमारा मीडिया भी सहयोग करता है। हाल ही में ‘द हिन्दू’ ने प्रकाशित किया कि पिछले 15 सालों में ढाई लाख किसानों ने आत्महत्या की है। लक्मे फैशन सप्ताह 512 आधिकारिक पत्रकारों द्वारा कवर किया गया। उस फैशन सप्ताह में, मॉडल्स सूती कपड़ों पर रैंप में शो कर रहीं थी, जबकि विदर्भ में कपास उगाने वाले किसान आत्महत्या कर रहे थे। कस्बाई पत्रकारों को छोड़ इन बदनसीबों पर किसी की नजर नहीं पड़ी। यूरोप में, विस्थापित किसानों को औद्योगिक क्रांति द्वारा स्थपित कारखानों तें रोजगार मिल मिल गए थे। भारत में विस्थापन किसानों के लिए अभिशाप से कम नहीं। कई कारखानों को साजिशन बंदकर रियल स्टेट में बदल दिया गया। विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार की तीव्र गिरावट देखी गई है। ये सभी चीजें मीडिया द्वारा नजरअंदाज की जाती हैं, जो हमारे अस्सी फीसदी लोगों की कठोर आर्थिक वास्तविकताओं के प्रति नेल्सन की आंख जैसे नजर फेरे हुए हैं, और बदले में कुछ चमकते दमकते पोतेमकिन गांवों की और सारा ध्यान लगाए हुए हैं।
दूसरा, मीडिया अक्सर ही लोगों को विभाजित करता है। जब कभी भी कोई बम विस्फोट होता है, कुछेक घंटों के भीतर ही टीवी चैनल कहना शुरू कर देते हैं कि इंडियन मुजाहिदीन या जैस-ए-मोहम्मद से जिम्मेदारी कबूल करते हुए उन्हें एक ई-मेल या एसएमएस मिला हे। यह नाम हमेशा ही एक मुस्लिम का होता है। अब ये ई-मेल या एसएमएस कोई भी ऐसे बुरे इरादों वाला आदमी भेज सकता है जिसका मकसद साम्प्रदायिक नफरत फै लाना हो। उन्हें टीवी स्क्रीन पर और अगले ही दिन टीवी स्क्रीन पर क्यों दिखाया जाना चाहिए। इसके दिखाने का सीधा संदेश यह देना होता है कि सभी मुसलमान आतंकी हैं या बमबाज हैं।
आज भारत में रहने वाले तकरीबन 90 से 93 फीसदी लोग विभिन्न तरह के विस्थापित जड़ों से ताल्लुक रखते हैं। अत: भारत में एक जबरदस्त विविधता है: कई सारे धर्म, जातियां,भाषाएं, नृजातीय समूह। यह बेहद जरूरी है कि अगर हम लोगों को एकजुट और समृद्ध रखना चाहते हैं तो सारे समुदायों के प्रति सहिष्णुता और समानता हो। जो भी हमारे लोगों के बीच विभाजन के बीज बोता है, चाहे यह धर्म य जाति या भाषा या क्षेत्रीयता किसी के भी आधार पर हो, वह वास्तव में हमारा दुश्मन है। जैसा कि मैने पहले ही कहा है कि इस संक्रमण काल में हमारी जनता को आधुनिक, वैज्ञानिक युग की ओर अग्रसर करने में मीडिया को सहायक की भूमिका अदा करनी चाहिए। इस उद्देश्य के लिए मीडिया को तार्किक और वैज्ञानिक विचारों का प्रचार-प्रसार करना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के बजाय हमारे मीडिया का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न तरह के अंधविश्वासों को परोसता रहता है। यह सच्चाई है कि बहुतेरे भारतीयों का बौद्धिक स्तर बहुत कम है वे जातिवाद, साम्प्रदायिकता और अंधविश्वासों में जकड़े हुए हैं। हालांकि सवाल यह है: तार्किक और वैज्ञानिक विचारों के प्रचार-प्रसार के जरिए मीडिया को हमारे लोगों के बौद्धिक स्तर को उन्नत करना चाहिए। यूरोप के पुनर्जागरण के युग में, मीडिया ने लोगों के मानसिक स्तरों में इजाफा किया,उसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तथा तार्किक चिंतन का प्रचार-प्रसार करते हुए लोगों की मानसिकता में बदलाव लाया। वॉल्तेयर ने अंधविश्वासों पर आक्रमण किए और डिंकेस ने जेल,स्कूलों, अनाथालयों, अदालतों आदि की भयानक दशाओं की आलोचना की। हमारे मीडिया को भी क्या यही सब नहीं करना चाहिए? एक समय में राजा राम मोहन रॉय जैसे साहसी लोगों ने अपने अखबारों मिरातुल और संवाद कौमुदी में सती-प्रथा, बाल-विवाह और पर्दाप्रथा के खिलाफ आलेख लिखे। निखिल चक्रवर्ती ने 1943 बंगाल के अकाल की भयावहता के बारे में लिखा। प्रेमचंद और शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने सामंती रिवाजों और महिलाओं के उत्पीड़न के बारे में लिखा। सआदत हसन मंटो ने विभाजन के खौफ के बारे में लिखा। लेकिन आज के मीडिया में हमें क्या दिखता है? कई चैनल नक्षत्र-शास्त्र पर आधारित कार्यक्रम दिखाते हैं। नक्षत्र-शास्त्र को खगोल-विज्ञान के साथ गड्डमगड नहीं किया जाना चाहिए। खगोल-विज्ञान एक विज्ञान है जबकि नक्षत्र-शास्त्र पूरी तरह अंध-विश्वास और गोरख धंधा है। यहां तक कि एक सामान्य विवेक भी हमें बता सकता है कि तारों और ग्रहों की परिक्रमा या किसी आदमी के पचास या अस्सी साल में मरने, या किसी के इंजीनियर, डॉक्टर, वकील बनने के बीच कोई संबंध नहीं है। मैं यह नही ंकहता कि पूरे मीडिया में कोई अच्छा पत्रकार नहीं है। कई अच्छे पत्रकार हैं। इन्हीं लोगों ने ही किसानों की चिंता की। उनकी आत्महत्याओं के मामलों उजागर किया। पर ऐसे अच्छे पत्रकार अपवाद हैं। बहुसंख्या ऐसे लोगों की है, जो जनहित में खरा उतरने की चाहत नहीं रखते।
मीडिया के इन दोषों को दूर करने के लिए मुझे दो चीजें करनी है। पहला, मेरा प्रस्ताव है कि प्रत्येक दो माह या अन्य किसी अंतराल में मीडिया (इलेक्ट्रानिक मीडिया सहित) नियमित बैठकें हों। ये बैठकें समूची प्रेस कौंसिल की होने वाली नियमित बैठकें नहीं होंगी, लेकिन अनौपचारिक मेलजोल होगा, जहां हम मीडिया से संबंधित मुद्दों पर विचार विमर्श करेंगे और उनका लोकतांत्रिक तरीके से, अर्थात बातचीत के जरिए सुलझााने की कोशिश करेंगे। मेरा यकीन है नब्बे फीसदी समस्याएं इन तरीकों से सुलझाई जा सकती हैं। दूसरा एक हद के बाद जहां मीडिया का एक हिस्सा उपरोक्त सुझाए गए लोकतांत्रिक प्रयासों के बावजूद इन्हें अनुत्पादक साबित करने की हठ पर अड़ा हो, कठोर उपायों की जरूरत पड़ेगी। इस संबंध में मैंने प्रधानमंत्री को प्रेस आयोग अधिनियम में संशोधन करने का आग्रह किया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया को भी प्रेस कौंसिल के दायरे में लाया जाए और इसे शक्ति-सम्पन्न बनाया जाए। मिसाल के तौर पर सरकारी विज्ञापन बंद करना, या अतिरेक स्थिति में मीडिया हाउस के लाइसेंस को स्थगित करना। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- भय बिन होय न प्रीति। यद्यपि इसका इस्तेमाल सिर्फ बेहद अतिरेक स्थितियों और लोकतांत्रिक उपायों के असफल होने के बाद ही किया जाएगा। यहां एक आपत्ति हो सकती है कि यह तो मीडिया की स्वतंत्रता को बाधित करना है। ऐसी कोई स्वतंत्रता नहीं हो सकती, जो अमूर्त और परम हो। सभी स्वतंत्रताएं तर्कसंगत सीमा का विषय होती हैं, और इसमें जिम्मेदारी भी निहित होती है। एक लोकतंत्र मे हर कोई जनता के प्रति उत्तरदायी है, और इसलिए हमारा मीडिया भी।
निष्कर्षत: भारतीय मीडिया को अब आत्म-चिंतन, एक उत्तरदायित्व की समझ और परिपक्वता विकसित करना चाहिए। इसका अर्थ नहीं है कि इसे सुधारा नहीं जा सकता। मेरी मान्यता है कि गड़बड़ी करने वालों में 80 फीसदी एक धैर्यपूर्ण बातचीत के जरिए, उनकी गलतियों को इंगित करके अच्छे लोग बनाए जा सकते हैं और धीरे-धीरे उन्हें सम्मानजनक स्थिति की ओर अग्रसर किया जा सकता है, जिस पर यूरोप का मीडिया नवजागरण काल में चल रहा था।
भारत में मीडिया जो भूमिकाएं निभा रहा है,उसे समझने से पहले हमें ऐतिहासिक संदर्भों को समझना होगा। वर्तमान भारत अपने इतिहास में संक्रमण के दौर से गुजर रहा है: एक सामंती खेतिहर समाज से औद्योगिक समाज की ओर संक्रमण। यह बहुत पीड़ादायक और व्यथित कर देने वाला दौर है। पुराने सामंती समाज की चूलें हिल रही हैं और कुछ तब्दीलियां हो रही हैं लेकिन नया, आधुनिक, औद्योगिक समाज अभी तक संपूर्ण ढंग से स्थापित नहीं हुआ है। पुराने मूल्यों की किरचें बिखर रही हैं, सारी चीजें उबाल पर हैं। शेक्सपियर के मैकबेथ को याद करें... रौशन चीजें धूल धूसरित हैं और धूल धूसरित रौशन...। सभी देशप्रेमियों का, मीडिया सहित, यह फर्ज है कि वे इस संक्रमण से कम से कम पीड़ा और तत्काल उबारने में हमारे समाज की मदद करें। इस संक्रमण काल में मीडिया को एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होती है क्योंकि इसका ताल्लुक विचारों से होता है, सिर्फ वस्तुओं से नहीं। अत: अपने मूल स्वभाव में मीडिया किसी अन्य साधारण व्यवसाय की तरह नहीं हो सकता।
ऐतिहासिक तौर पर, प्रिंट मीडिया का उद्भव यूरोप में सामंती शोषण के खिलाफ जनता के एक सक्रिय हस्तक्षेप के बतौर हुआ। उस वक्त सत्ता के सभी उपकरण दमनकारी सामंती अधिकारियों के हाथों में थे। अत: नए लोगों को एक माध्यम की जरूरत थी, जो उनका प्रतिनिधित्व कर सके। इसलिए प्रिंट मीडिया को चौथे स्तंभ की तरह जाना जाने लगा। यूरोप और अमेरिका में यह भविष्य की आवाज का प्रतिनिधित्व करता था, जो सामंती अंगों-अवशेषों, जो कि यथास्थिति को बनाए रखना चाहते थे, के विपरीत था। मीडिया ने इसलिए सामंती यूरोप को आधुनिक यूरोप में परिवर्तित करने में एक अहम भूमिका अदा की।
मेरे ख्याल से भारत के मीडिया को एक वैसी प्रगतिशील भूमिका का निर्वहन करना चाहिए, जैसी कि यूरोप की मीडिया ने उसके संक्रमण काल में निभाया था। ऐसा वह पुरातन, सामंती विचारों और व्यवहारों- जातिवाद,साम्प्रदायिकता और अंध-मान्यताओं पर आक्रमण करते हुए, आधुनिक, वैज्ञानिक और तार्किक विचारों को प्रोत्साहित करते हुए कर सकता है। लेकिन क्या हमारा मीडिया ऐसा कर रहा है? मेरी राय में, भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा(खासतौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया) जनता के हितों को पूरा नहीं करता, वास्तव में इनमें से कुछ यकीनन(सकारात्मक तौर पर)जनविरोधी है। भारतीय मीडिया में तीन प्रमुख दोष हैं जिन्हें मैं रेखांकित करना चाहता हूं। पहला, मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से अवास्त्विक मुद्दों की ओर भटकाता है। वास्तविक मुद्दे भारत में आर्थिक-सामाजिक हैं भयंकरतम गरीबी, जिसमें हमारे 80 फीसदी लोग जीते हैं। कमरतोड़ मंहगाई,स्वास्थ्य, शिक्षा जरूरतों की कमी और पुरातनपंथी सामाजिक प्रथाएं। अपने कवरेज का अधिकांश हिस्सा इन मुद्दों को देने के बजाय, मीडिया अ-वास्तविक मुद्दों को केंद्रित करता है जैसे फिल्मी हस्तियां और उनकी जीवन शैली, फेशन परेड, नाच-गाना, ज्योतिष, क्रिकेट, रियल्टी शो, और अन्य कई मुद्दे।
इसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि मीडिया लोगों को मनोरंजन मुहैया कराता है, लेकिन इसे अतिरेक में नहीं परोसा जाना चाहिए। स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रम, कृषि और पर्यावरण इन सबको मिलाकर मनोरंजन को नौ गुना ज्यादा कवरेज मिलता है। क्या एक भूखे या बेरोजगार व्यक्ति का दिल ऐसे मनोरंजन से बहलेगा। कई चैनल दिनभर और दिन के बाद भी क्रिकेट दिखाते रहते हैं। रोमन शासक कहा करते थे कि अगर आप लोगों को रोटियां नहीं दे सकते, तो उन्हें सर्कस दिखाइए। लगभग यही नजरिया भारत के सत्ता-स्थापनाओं का भी है, जिसे हमारा मीडिया भी सहयोग करता है। हाल ही में ‘द हिन्दू’ ने प्रकाशित किया कि पिछले 15 सालों में ढाई लाख किसानों ने आत्महत्या की है। लक्मे फैशन सप्ताह 512 आधिकारिक पत्रकारों द्वारा कवर किया गया। उस फैशन सप्ताह में, मॉडल्स सूती कपड़ों पर रैंप में शो कर रहीं थी, जबकि विदर्भ में कपास उगाने वाले किसान आत्महत्या कर रहे थे। कस्बाई पत्रकारों को छोड़ इन बदनसीबों पर किसी की नजर नहीं पड़ी। यूरोप में, विस्थापित किसानों को औद्योगिक क्रांति द्वारा स्थपित कारखानों तें रोजगार मिल मिल गए थे। भारत में विस्थापन किसानों के लिए अभिशाप से कम नहीं। कई कारखानों को साजिशन बंदकर रियल स्टेट में बदल दिया गया। विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार की तीव्र गिरावट देखी गई है। ये सभी चीजें मीडिया द्वारा नजरअंदाज की जाती हैं, जो हमारे अस्सी फीसदी लोगों की कठोर आर्थिक वास्तविकताओं के प्रति नेल्सन की आंख जैसे नजर फेरे हुए हैं, और बदले में कुछ चमकते दमकते पोतेमकिन गांवों की और सारा ध्यान लगाए हुए हैं।
दूसरा, मीडिया अक्सर ही लोगों को विभाजित करता है। जब कभी भी कोई बम विस्फोट होता है, कुछेक घंटों के भीतर ही टीवी चैनल कहना शुरू कर देते हैं कि इंडियन मुजाहिदीन या जैस-ए-मोहम्मद से जिम्मेदारी कबूल करते हुए उन्हें एक ई-मेल या एसएमएस मिला हे। यह नाम हमेशा ही एक मुस्लिम का होता है। अब ये ई-मेल या एसएमएस कोई भी ऐसे बुरे इरादों वाला आदमी भेज सकता है जिसका मकसद साम्प्रदायिक नफरत फै लाना हो। उन्हें टीवी स्क्रीन पर और अगले ही दिन टीवी स्क्रीन पर क्यों दिखाया जाना चाहिए। इसके दिखाने का सीधा संदेश यह देना होता है कि सभी मुसलमान आतंकी हैं या बमबाज हैं।
आज भारत में रहने वाले तकरीबन 90 से 93 फीसदी लोग विभिन्न तरह के विस्थापित जड़ों से ताल्लुक रखते हैं। अत: भारत में एक जबरदस्त विविधता है: कई सारे धर्म, जातियां,भाषाएं, नृजातीय समूह। यह बेहद जरूरी है कि अगर हम लोगों को एकजुट और समृद्ध रखना चाहते हैं तो सारे समुदायों के प्रति सहिष्णुता और समानता हो। जो भी हमारे लोगों के बीच विभाजन के बीज बोता है, चाहे यह धर्म य जाति या भाषा या क्षेत्रीयता किसी के भी आधार पर हो, वह वास्तव में हमारा दुश्मन है। जैसा कि मैने पहले ही कहा है कि इस संक्रमण काल में हमारी जनता को आधुनिक, वैज्ञानिक युग की ओर अग्रसर करने में मीडिया को सहायक की भूमिका अदा करनी चाहिए। इस उद्देश्य के लिए मीडिया को तार्किक और वैज्ञानिक विचारों का प्रचार-प्रसार करना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के बजाय हमारे मीडिया का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न तरह के अंधविश्वासों को परोसता रहता है। यह सच्चाई है कि बहुतेरे भारतीयों का बौद्धिक स्तर बहुत कम है वे जातिवाद, साम्प्रदायिकता और अंधविश्वासों में जकड़े हुए हैं। हालांकि सवाल यह है: तार्किक और वैज्ञानिक विचारों के प्रचार-प्रसार के जरिए मीडिया को हमारे लोगों के बौद्धिक स्तर को उन्नत करना चाहिए। यूरोप के पुनर्जागरण के युग में, मीडिया ने लोगों के मानसिक स्तरों में इजाफा किया,उसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तथा तार्किक चिंतन का प्रचार-प्रसार करते हुए लोगों की मानसिकता में बदलाव लाया। वॉल्तेयर ने अंधविश्वासों पर आक्रमण किए और डिंकेस ने जेल,स्कूलों, अनाथालयों, अदालतों आदि की भयानक दशाओं की आलोचना की। हमारे मीडिया को भी क्या यही सब नहीं करना चाहिए? एक समय में राजा राम मोहन रॉय जैसे साहसी लोगों ने अपने अखबारों मिरातुल और संवाद कौमुदी में सती-प्रथा, बाल-विवाह और पर्दाप्रथा के खिलाफ आलेख लिखे। निखिल चक्रवर्ती ने 1943 बंगाल के अकाल की भयावहता के बारे में लिखा। प्रेमचंद और शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने सामंती रिवाजों और महिलाओं के उत्पीड़न के बारे में लिखा। सआदत हसन मंटो ने विभाजन के खौफ के बारे में लिखा। लेकिन आज के मीडिया में हमें क्या दिखता है? कई चैनल नक्षत्र-शास्त्र पर आधारित कार्यक्रम दिखाते हैं। नक्षत्र-शास्त्र को खगोल-विज्ञान के साथ गड्डमगड नहीं किया जाना चाहिए। खगोल-विज्ञान एक विज्ञान है जबकि नक्षत्र-शास्त्र पूरी तरह अंध-विश्वास और गोरख धंधा है। यहां तक कि एक सामान्य विवेक भी हमें बता सकता है कि तारों और ग्रहों की परिक्रमा या किसी आदमी के पचास या अस्सी साल में मरने, या किसी के इंजीनियर, डॉक्टर, वकील बनने के बीच कोई संबंध नहीं है। मैं यह नही ंकहता कि पूरे मीडिया में कोई अच्छा पत्रकार नहीं है। कई अच्छे पत्रकार हैं। इन्हीं लोगों ने ही किसानों की चिंता की। उनकी आत्महत्याओं के मामलों उजागर किया। पर ऐसे अच्छे पत्रकार अपवाद हैं। बहुसंख्या ऐसे लोगों की है, जो जनहित में खरा उतरने की चाहत नहीं रखते।
मीडिया के इन दोषों को दूर करने के लिए मुझे दो चीजें करनी है। पहला, मेरा प्रस्ताव है कि प्रत्येक दो माह या अन्य किसी अंतराल में मीडिया (इलेक्ट्रानिक मीडिया सहित) नियमित बैठकें हों। ये बैठकें समूची प्रेस कौंसिल की होने वाली नियमित बैठकें नहीं होंगी, लेकिन अनौपचारिक मेलजोल होगा, जहां हम मीडिया से संबंधित मुद्दों पर विचार विमर्श करेंगे और उनका लोकतांत्रिक तरीके से, अर्थात बातचीत के जरिए सुलझााने की कोशिश करेंगे। मेरा यकीन है नब्बे फीसदी समस्याएं इन तरीकों से सुलझाई जा सकती हैं। दूसरा एक हद के बाद जहां मीडिया का एक हिस्सा उपरोक्त सुझाए गए लोकतांत्रिक प्रयासों के बावजूद इन्हें अनुत्पादक साबित करने की हठ पर अड़ा हो, कठोर उपायों की जरूरत पड़ेगी। इस संबंध में मैंने प्रधानमंत्री को प्रेस आयोग अधिनियम में संशोधन करने का आग्रह किया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया को भी प्रेस कौंसिल के दायरे में लाया जाए और इसे शक्ति-सम्पन्न बनाया जाए। मिसाल के तौर पर सरकारी विज्ञापन बंद करना, या अतिरेक स्थिति में मीडिया हाउस के लाइसेंस को स्थगित करना। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- भय बिन होय न प्रीति। यद्यपि इसका इस्तेमाल सिर्फ बेहद अतिरेक स्थितियों और लोकतांत्रिक उपायों के असफल होने के बाद ही किया जाएगा। यहां एक आपत्ति हो सकती है कि यह तो मीडिया की स्वतंत्रता को बाधित करना है। ऐसी कोई स्वतंत्रता नहीं हो सकती, जो अमूर्त और परम हो। सभी स्वतंत्रताएं तर्कसंगत सीमा का विषय होती हैं, और इसमें जिम्मेदारी भी निहित होती है। एक लोकतंत्र मे हर कोई जनता के प्रति उत्तरदायी है, और इसलिए हमारा मीडिया भी।
निष्कर्षत: भारतीय मीडिया को अब आत्म-चिंतन, एक उत्तरदायित्व की समझ और परिपक्वता विकसित करना चाहिए। इसका अर्थ नहीं है कि इसे सुधारा नहीं जा सकता। मेरी मान्यता है कि गड़बड़ी करने वालों में 80 फीसदी एक धैर्यपूर्ण बातचीत के जरिए, उनकी गलतियों को इंगित करके अच्छे लोग बनाए जा सकते हैं और धीरे-धीरे उन्हें सम्मानजनक स्थिति की ओर अग्रसर किया जा सकता है, जिस पर यूरोप का मीडिया नवजागरण काल में चल रहा था।
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