''रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न उबरे, मोती मानूष चून।'' सैकड़ों साल पहले लिखा गया यह दोहा कभी नीति वाक्य लगता था, लेकिन अब डराता है। सचमुच वह दिन आने वाला है, जब पानी के कारण सब सूना होने वाला है। अगर मनुष्य जाति समय रहते नहीं चेती, तो 2030 तक जीवन कहा जाने वाला जल दुर्लभ हो जाएगा। यह पहले भी कई बार कहा जा चुका है।
सेटेलाइट से ली गई ताजा तस्वीरें भी इसकी तस्दीक कर रही हैं। भारत, चीन और अमेरिका सहित मध्य पूर्व के देशों में जिन स्थानों पर शहर, उद्योग और खाद्यान्न उत्पादन के केंद्र स्थित हैं, वहां जमीन के अंदर पानी का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। यह सब जरूरत से ज्यादा पानी निकाले जाने की वजह से हो रहा है। ऑस्ट्रेलिया के नेशनल सेंटर फॉर ग्राउंडवाटर रिसर्च एंड ट्रेनिंग [एनसीजीआरटी] के निदेशक क्रेग सिमंस ने चेतावनी दी कि शहरों और कृषि क्षेत्र के विस्तार के कारण भूजल स्तर बहुत तेजी से गिर रहा है। बकौल सिमंस, 'इस धरती पर ताजा पानी का 97 फीसदी स्त्रोत भूजल है और इसका 40 फीसदी इस समय इस्तेमाल हो रहा है।'
यूनेस्को के ग्लोबल ग्राउंडवाटर गवर्नेंस प्रोग्राम के सदस्य सिमंस के अनुसार ज्यादातर लोगों को इसका अहसास नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था भूजल के दम पर चल रही है, लेकिन यह हकीकत है। अगर यह स्त्रोत सूख गया तो, पूरे उद्योग जगत का पहिया थम सकता है। पानी का गंभीर संकट खड़ा हो सकता है। जरूरत से ज्यादा भूजल दोहन के कारण पर्यावरणीय समस्याएं भी पैदा हो रही हैं। ग्लोबल वार्मिग ने इसे और गंभीर बना दिया है। गिरता जलस्तर झीलों और नदियों को भी खाली कर सकता है।
सिमंस का कहना है कि मध्य पूर्व के देशों में भूजल स्त्रोत सूखने के कारण ही वहां से खेती का काम अफ्रीका में स्थानांतरित किया जा रहा है। इसे धनी देशों द्वारा अफ्रीका जैसे देशों में 'जमीन कब्जाने' की प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा है। पानी का संकट सिर्फ भारत, चीन और मध्य पूर्व में ही नहीं है। अमेरिका जैसा समृद्ध देश भी इससे प्रभावित है। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ एरिजोना के प्रोफेसर रॉबर्ट ग्लेनॉन कहते हैं, 'एक चौथाई जल आपूर्ति भूजल से हो रही है। हमारे देश में हर साल आठ लाख नए कुएं खोदे जा रहे हैं। इससे जलस्त्रोतों पर दबाव बढ़ रहा है। स्थिति गंभीर हो सकती है।'
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