Wednesday, June 27, 2012

धरती माता की तपस्या का सुफल


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
 ग्रीष्म का तापमान पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ रहा है। इस साल पारा सैंतालीस पार पहुंच गया। यूं भी पारे के तापमान और धरती के प्यारे-मनुष्य के तापमान के पीछे उसी के कर्मफल हैं। ये तापमान शहरों के हैं, शहरी लोग हाय-हाय कर रहे हैं। पसीना उनके शरीर से बह रहा है। वे कहीं, किसी से मिलकर सिर्फ गर्मी का रोना रो रहे हैं। खस की टट्टियों  और कूलर की ठंडी हवा होने के बावजूद उनका रोना जारी है। गांव खुश है कि अच्छी गर्मी पड़ रही है, उसके पास न खस है न कूलर, पसीना बह रहा है, फिर भी खुश है, क्योंकि उसका मानना है कि अच्छी गर्मी ही अच्छी बरसात लाएगी। शहरी गर्मी, वर्षा, सर्दी सबसे परेशान होता है। तापमान शहरों का ही बताया जाता है गांव पारा नहीं जानता। बीस प्रतिशत शहरियों के तापमान से अखबार, रेडियो, टीवी छाये हैं। अस्सी प्रतिशत लोग ग्रीष्म की तपन आश्वस्त भाव से ले रहे हैं। शहर की सड़कों पर दोपहर में सन्नाटा है, गांव जाग रहा है। बच्चे आम-पेड़ के नीचे फलों की रखवाली करते हुए बगीचे में कभी कबड्डी और सुटुर्रा खेलते थे, अब क्रिकेट का आईपीएल खेल रहे हैं। मां-बहनें अमचूर-अमहरी-छूना के चक्कर में खुशी-खुशी दोपहर ओसारी या देहरी पर वर्ष भर का इंतजाम कर रही हैं। ऋतुएं प्रतिवर्ष आती हैं, आयेंगी उनका स्वागत उनके अनुकूल होता रहा है, होता रहेगा। गांवों में तेंदूपत्ता तोड़ने, कहीं महुआ के फल पीटने, बीज निकालने के काम हैं। किसान खेतिहर, मजूर कोई खाली नहीं है। पहले खेतों में खन्नी-मेड़ के काम, खादी गोबर-राख फेंकने के काम थे, अब मनरेगा में मसकल्ला मारने और बिना कुछ किए मजूरी पाने के हक में उतान हैं, गन्त हैं।
 ग्रीष्म की भयावहता हमेशा से रही है। कवियों ने इसका अतिरंजित, किंबहुना, यथार्थ चित्रण किया है। सेनापति ने वृष राशि के सूर्य को धरती पर अपनी हजारों किरणों से लपटों का जाल फेंकते हुए देखा है। आग बरस रही है, संसार जल रहा है, (कवियों का संसार उनके आस-पास ही होता है।) ठंडी छाया की तलाश में पंथी और पंछी भटक रहे हैं। थोड़ी दोपहर बीतते ही उमस बढ़ जाती है और पत्तों का डोलना भी बन्द हो जाता है। कवि कहता है कि मुझे लगता है कि हवा भी किसी ठंडी जगह में बैठकर एक घरी घाम बीतने के इंतजार में हैं, इसीलिए पत्ते नहीं डोल रहे, उसम बढ़ी है। इस समय इस यथार्थ दृश्य की अनदेखी करना गर्मी को कमतर आंकना है। शहर में लू चलती है, गांव में लुआरि बहती है। घाम भी ‘चरेर’ और ‘कोमर’ होता है जो सहने की सीमा निश्चित करता है, गांव कंक्रीट के मकानों से अभी मुक्त हैं। कच्चे मकानों में प्राय: गरीब के भी पटौंहा होता है। जिसमें सभी बच्चे-वृद्ध कथरी बिछाकर एसी का सुख भोगते हैं। एक लोकोक्ति वहां का सूत्र वाक्य है- ‘नारि, पटौंहा, कूप-जल, अरु बरगद की छांह। गर्मी  में ठंडात है, ठंडी में गरमाय।’  मां के पेट में छुपके बच्चे गुड़ी-मुड़ी (गोड़-मूड़ पानी सिर-पैर) अंग्रेजी के आठ अंक बन कर ठंडी की रात में एक खोल या पिछौरी में काट देते थे। गर्मी की तपन को भी ठेंगा दिखाते हैं। मां के पेट से ठंडी जगह बच्चों के लिए कहीं नहीं। कोठरी जिसकी छत मिट्टी की हो, कु एं का जल और बरगद की छाया सम्पूर्ण लू और सर्दी को चुनौती देते हैं। अब न तो बच्चों को मां का वह स्पर्श मिलता है। बच्चे के लिए अलग बिस्तर होने लगा। तीस-चालीस वर्ष पहले बच्चे बारह-चौदह बरस तक मां के साथ, दादा-दादी के साथ सोते थे। बरगद के दिन जरूर लौटे हैं इस लू के दिनों में उसकी पूजा होती है। शायद इसलिए कि ग्रीष्म को खुली चुनौती लहलहाते पत्तों के साथ सिर्फ वही देता है।
    ग्रीष्म, इंतजाम की ऋतु है। वर्ष भर की व्यवस्था की योजना का महीना जेठ है। जेठ का अर्थ ज्येष्ठ अर्थात (प्रथम) बड़ा है। बारह महीनों में सबसे बड़ा, ऐसा लगता है कि वर्ष की गिनती के क्रम में जेठ पहला महीना होता था। आज भी गांवों में जेठ-अषाढ़ से ही गिनती प्रारंभ करते हैं। बड़ा है तो तपेगा ही? सभी बड़े छोटों को तपाते ही हैं। ताप और गर्मी का पुराना संबंध है। साधक लोग तपस्या करते थे, पंचाग्नि जलाते थे। शरीर की चमड़ी को सुखाकर संवेदन रहित करते थे, तब तपस्या फलीभूत होती थी। धरती की साधना की ऋतु है, ग्रीष्म। पेड़-पौधों की परीक्षा, पंथी-पक्षी की परीक्षा, जड़-चेतन की परीक्षा, साधना की उस मुद्रा में सिर और कान में अगांैछा बांधे लोग सूरज के ताप से दो-दो हाथ करते हैं। धूल पर नंगे पांव चलकर पार होना, किसी अग्नि पर चलने से कम नहीं है। अग्नि परीक्षा पूरा गांव महीने भर देता है परंतु उसका रिकार्ड किसी सरकारी फाइल में नहीं है।
     इन दिनों गरीबों के भी पेट की आग शांत है। शाम को ही गगरी में महुआ के सूखे फूल धो-साफ कर कंडे-उपरी की आग में चूल्हे पर चढ़ा दिये गये हैं। स्वाद के लिए चना अथवा छीला हुआ आम डाल देते हैं। सुबह तक महुआ पककर छुहारे की तरह हो जाता है। चने और आम के अतिरिक्त दही के साथ डोभरी खाने का आनंद स्वर्गिक हैं। डोभरी खाने का आनंद ग्रीष्म में ही है। खाने के बाद की नींद और बहते पसीने सा सुख कहीं नहीं। शहरी पसीने की चिपचिपाहट उसमें नहीं। गर्मी के इस सुख का वर्णन एक बिरहा में देखें-बड़े सकारे लाई-महुआ, दुपहर रोटी-दार/ दिन बूड़त का   बनी महेरी, सजन! मोर गरजि नहिं आइ। संतुष्टि के इस सुख पर तो सारी कायनात के ऐश्वर्य न्यौछावर हो जाएं। गर्मी के दिनों में खेतों में बहने वाले पसीने का फल ही है, दोनों की मिठास! जब से किसान का पसीना खेतों में बहना बंद हो गया है, अन्न से मिठास चली गई है, भले ही दाने सुन्दर और चमकदार हों।
  महाकवि बिहारी ने ठीक ही कहा है कि ‘उमस कहल’ और प्रचंड गर्मी की मार से सारा संसार तपोवन की तरह लगता है जहां सूर्य, मोर, हिरण और बाघ एक साथ बैठे हैं ‘कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ/ जगत तपोवन सों कियो, दीरघ दाघ निदाघ।’ लू के थपेड़े अपनी पूरी ताकत से हवा को धमका रहे हैं। प्रकृति देख-सुन-सह रही है। मजदूर की गैंती कुंद हो गई खन्ती खोदते-खोदते, और नपिया ने आकर चार सइका खन्ती को तीन बताकर नाच गया, उसे शोषण की किस परिभाषा से निरखेंगे। अमोल बटरोही की एक कविता का उनमान देखें-‘गैंती गोठाइ जाइ, भुंइ जाक मारि जाय, हम खनी जब जेठ कइ दुपहरी लजाइ जाय/ नपिया जो आइ जाइ, लट्ठा लगाइ जाइ, चारि सइका खंती तीन सइका बताइ जाइ/ तऊ संतोस करी, राम जपी घरी घरी/’ संतुष्टि का यह भाव वरेण्य है।
                                - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
                                        सम्पर्क सूत्र - 09407041430.

ईमानदारी की हांडी में काली दाल


चिन्तामणि मिश्र
 टी म अन्ना ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर कोयला ब्लाकों के आवंटन में भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है और एक हजार पृष्ठों के दस्तावेजी प्रमाण उन्हें भेज कर जवाब मांगा है। यह कारनामा उस समय का बताया जाता है, जब प्रधानमंत्री के पास कोयला मंत्रालय का भी प्रभार था। आरोप है कि आवंटन में बहुत भारी तादाद में रकम बनाई गई और सरकार को भारी हानि हुई। जाहिर है कि प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठे व्यक्ति पर भ्रष्टाचार का आरोप लगेगा तो वह चिल्लर जैसी टुच्ची रकम का तो होगा नहीं। प्रधानमंत्री ने इन आरोपों को दुर्भाग्यपूर्ण और गैर जिम्मेदाराना बताते हुए नकार दिया और कहा है कि उनका जीवन खुली हुई किताब की तरह है। यदि उनके खिलाफ आरोप सिद्ध होते हैं तो वे सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लेंगे। कितनी भोली किन्तु चटखारेदार सफाई है। सरकार  प्रधानमंत्री पर लगे ऐसे संगीन आरोपों की किसी स्वतंत्र जांच कमेटी से जब जांच ही नहीं कराना चाहती तो कैसे पता चलेगा कि आरोप झूठे हैं। जब कोई जांच ही नहीं होनी है तो आला-हजरत संन्यासी बनने के झंझट से भी बच गए। हालांकि प्रधानमंत्री को अपनी साख और कोयले की कोठरी से पाक-साफ निकलने का बेहतरीन मौका है, कि वे अपनी अग्नि-परीक्षा देकर विरोधियों को हमेशा के लिए मौन कर सकते थे। यदि उन्हें अपनी ईमानदारी पर इतना विश्वास है तो जांच कराने से परहेज क्यों? यह किसी के समझ में नहीं आ रहा है।
     इसे तो सारा देश जानता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह योग्य, मेहनती और व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं। कहते हैं कि वे रोज सोलह घन्टे फाइलों के बीच रहते हैं। वे अर्थशास्त्र में विदेश से डॉक्ट्रेट किए हैं। भारत सरकार के नौकरशाह रह चुके हैं। वे पेंनशरों की जिन्दगी बिता रहे थे, किन्तु कांग्रेस ने नरसिंहराव के मंत्रिमंडल में उन्हें वित्त मंत्री बना दिया। फिर जब कांग्रेस की मिली-जुली सरकार बनी तो उन्हें प्रधानमंत्री के पद पर बैठा दिया गया। मेरे विचार से केवल इतनी ही विशेषताओं से उनकी ताजपोशी नहीं की गई। लगता है कि कांगे्रस उन्हें प्रधानमंत्री पद पर इसलिए लाई कि उनकी निजी तौर पर कोई महत्वाकांक्षा नहीं रही। वे नौकरशाह की अपनी लम्बी पारी में शक्ति केन्द्र के समक्ष यस सर कहने और इसी के अनुरूप फैसला लेने की आदत के आदी हो चुके थे और कांगे्रस को ऐसे ही मुखौटे की अपने लिए तलाश थी। ऐसा योग्य प्रधानमंत्री कांग्रेस को मिलना कठिन था, कि जिसके मंत्री अरबों-खरबों का घोटाला करते रहें और प्रधानमंत्री अपनी ईमानदारी की राम-नामी चादर ओढ़े गठबंधन सरकारों की मजबूरी का देश को प्रवचन देते रहें। देश आज तक वह नहीं समझ पाया कि ऐसे दलों को जिनके पास भारत जैसे विविधता वाले देश के प्रजातंत्र को चलाने का विजन ही नदारद है। उनका काकटेल बना कर सरकार गठित करने की क्या बाध्यता थी? क्या प्रधानमंत्री को किसी डॉक्टर ने सलाह दी थी कि वे अपनी सेहत के लिए ऐसा करें। केन्द्र में एक पार्टी का बहुमत अगर किसी को नहीं मिला था तो फिर से चुनाव हो जाने देते। कम से कम देश की ऐसी दुर्दशा तो न होती। इतिहास में उनकी सरकार को अभी तक की सरकारों में सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार के रूप में दर्ज तो न करता ।
          उनके मंत्री भ्रष्टाचार की दौड़ में हर लक्ष्मण रेखा को पार करते जा रहे हैं। रोज नए-नए कांड उजागर हो रहे हैं और प्रधानमंत्री टुकुर-टुकुर ताकते जा रहे हैं। जिम्मेवारी से बचने के लिए शब्द-जाल बहुत कमजोर होते हैं। प्रशासक में जो गुण होने चाहिए वे उनमें हैं, किन्तु लोकतंत्र के लिए एक शासक में जो सब से बड़ा गुण होना चाहिए वह उनमें है ही नहीं- वह है जनता से जुड़ाव। राज्यसभा का सदस्य बन कर संविधान की औपचारिकता पूरी की जा सकती है, किन्तु जनता से जीवन्त संवाद का सिलसिला नहीं चल सकता। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने से यह हौसला नहीं आ जाता है। केन्द्र सरकार इसका दुखद प्रमाण है। पूरा शासन नगरपालिका की तरह चल रहा है। चौतरफा ढिलाई, दायित्वहीनता और भगौड़ापन बढ़ गया है। प्रधानमंत्री का राजनीतिक भोलापन और उनकी उनकी निर्विकार मुख-मुद्रा श्रद्धा को तो जन्म दे सकती है, किन्तु उनकी ईमानदारी और भोलेपन को यह देश ओढ़े या बिछाए? सूझ-बूझ और साहस का अभाव नेतृत्व के लिए कालसर्प योग की तरह है। इसके चलते वे वैचारिक हालात का सामना करने से भी झिझकते हैं। किसी तरह बहाने बना कर, दूसरों से मदद की अपेक्षा करते हुए जो स्वर्ग मिला है उसको भोग लेना टाइमपास करना कहलाता है। यह विशेषता हर नौकरशाह में होती है।
      मनमोहन सिंह ने इस धारणा को भी शायद झुठलाने की ओर कदम बढ़ा दिए हैं कि शिखर पर बैठा हुआ व्यक्ति अगर ईमानदार हो तो सरकार भी ईमानदारी से चलती है  और अगर ऊपर भी बेईमान बैठा हो तो, फिर देश का भगवान ही मालिक होता है। अब यह कोई पहेली नहीं रह गई है कि हमारे देश का मालिक भगवान ही है। प्रधानमंत्री की हर मौके पर चुप्पी और कमजोरी से देश की अर्थव्यवस्था पाताल लोक जा चुकी है। उनका रवैया राजनेता जैसा है ही नहीं। राजनेता देश के प्रश्नों पर इतनी कमजोर न तो प्रतिक्रिया करता है और न साहस से दूर भागता है। ऐसा साफतौर पर सभी को लगता है कि वे   प्रधानमंत्री पद की नौकरी बजा रहे हैं। जनादेश लेकर आया हुआ प्रधानमंत्री टीम अन्ना के आरोपों पर अपनी ऐसी प्रतिक्रिया या सफाई नहीं देता। प्रधानमंत्री खुद को पाक-साफ बता कर और किसी भी जांच से पलायन करने की बात कह कर क्यों अपने लिए देश में प्रचलित कानून से बचना चाहते हैं? अभी देश में तो यही कानून है कि जिस पर आरोप लगाया जाता है उसको अपनी सफाई देने का मौका तो दिया जाता है किन्तु केवल उसके यह कह देने से कि वह बेकसूर है जांच और अभियोजन की प्रक्रिया बंद नहीं की जा सकती। हर आरोपी खुद को बेकसूर ही कहता है। हम नहीं जानते कि हमारे प्रधानमंत्री किसी घपले में दोषी हैं या टीम अन्ना द्वारा जड़े गए आरोप सच हैं। परन्तु देश यह जरूर जानना चाहता है कि जो आरोप उछाले गए हैं तो उनकी जांच कराने में हर्ज ही क्या है? यह भी तो हो सकता है कि कोयला ब्लाकों के आवटंन में प्रधानमंत्री ने कोई अवैध कमाई नहीं की हो सकती किन्तु उनके कार्यालय ने या फिर उनकी पार्टी के शक्ति केन्द्र ने रसगुल्लों की कड़ाही से कुछ शीरा निकाला भी तो हो सकता है।
                                            - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक है।                                          
                                                 सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

साठ भूत समधी के लागें..


        चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
 बतरस के रसिया बादशाह ने बीरबल से पूछा-‘बीरबल! इस समय देश में सबसे बड़ा कौन है। अकबर महान था, उत्तर जानता था कि सहज रूप से कहेगा कि जहापनाह! आपसे बड़ा कौन है भला। बीरबल किसी विचार प्रवाह में थे। अप्रत्याशित प्रश्न से चौंके। बादशाह ने प्रश्न दुहराया। बीरबल ने कहा- जहांपनाह! हर समय में सबसे बड़ा, लड़के का बाप होता है। बादशाह ने कहा-‘मुझसे भी बड़ा!’ बीरबल मुस्कराए,-‘हां जहांपनाह! लड़के के बाप के आगे आप कहीं लगते ही नहीं!’ अकबर की भौंहें तन गर्इं बोला-‘और सबसे छोटा कौन है?’ बीरबल ने कहा- लड़की का बाप। ‘कैसे? बीरबल ने बादशाह से कहा-‘जहांपनाह! ये जो महावत हाथी पर बैठा है, आपका गुलाम है! गुस्ताखी मुआफ हो, इससे आप कहें कि मैं अपनी बेटी का ब्याह तुम्हारे बेटे से करना चाहता हूं।’ बादशाह हंसे-‘बोले बीरबल! महावत के भाग्य खुल जाएंगे, वह कभी इंकार करेगा?’ बीरबल ने कहा- ‘सरकार! कहकर देखें। अकबर ने गंभीर होकर महावत से बात कही। महावत के हाथ से, मारे डर के अंकुश गिर पड़ा। बादशाह का गंभीर चेहरा देखा, सकपकाया फिर संभला, सकुचाते हुए बोला- जहांपनाह अपनी बेगम से पूछ लें फिर बताएंगे। बादशाह आसमान से गिरे, बीरबल की ओर देखा और बोले- हाथी वापस ले चलो। रास्ते भर बादशाह बीरबल की बातों का निहितार्थ खोजते रहे। बीरबल ने उन्हें समझाया- जहांपनाह! इसे महावत की हुक्मउदूली न मानें, कल उसके घर चलकर बीबी से भी बात कर लेते हैं। बादशाह रात भर बेचैन रहे। बेटे का बाप इतना बड़ा कि जहांपनाह की बात कट गई। सोचने लगे, बीबी से बात करेगा, बीबी धन्य हो जाएगी। दूसरे दिन बीरबल अकबर को एक बेटी के बाप की तरह महावत के यहां ले गया। बीबी ने कहा- जहांपनाह! बिरादरी से पूछ लें फिर बताएंगे! बादशाह का दंभ चूर-चूर हो गया। बोले- बीरबल तुमने ठीक ही कहा था, मैंने जो सोचा था, गलत था।’
   इन दिनों विवाह का मौसम है। कहते हैं विवाह ऊपर से ही तय होते हैं, मनुष्य सिर्फ तलाशता है और जब विवाह हो जाता है उसे ही तय नियति मान लेता है। अपने देश में धरती के मनुष्य के विवाह का मुहूर्त आकाश के सितारे बताते हंै। राम-सीता का विवाह भी शुभ मुहूर्त में ही हुआ रहा होगा। राज्याभिषेक के लिए भी शुभ समय रहा होगा। सारे शुभ समयों की कहानी -परिणाम शास्त्र और लोक में विदित है। कुछ लोग विवाह को पूर्व जन्म से जोड़ते हंै। विवाह, सामाजिक, स्वीकृति और समझौते का व्यवस्थित नियमन है। यह अलग बात है कि विवाह के अनेक रूप मनुष्य के साथ आदिकाल से चलते रहे हैं। भारतीय संत-महात्माओं ने विवाह को माया का बंधन कहा, राम भगति में बाधक माना, परंतु विवाह के लिए ललकते रहे, तुलसीबाबा का यह हास्य नहीं, यथार्थ था कि ‘होइहें शिला सब चंद्रमुखी, परसे पद पंकज’ कबीर जैसे संत भी नहीं बचे। रहीम ने कहा- ‘रहिमन ब्याह विअधि है, सकौ तो जाहु बचाय। पायन में बेड़ी पड़त, ढोल बजाय बजाय।’  हमेशा ही कन्या के लिए योग्य वर की तलाश होती रही है। कन्याओं ने भी इच्छित वर के लिए तपस्याएं की लेकिन किसी पुरुष ने किसी कन्या के लिए तप नहीं किया। ये कहानियां पुरुष वर्चस्व को प्रमाणित करती हैं, परंतु स्त्रियां, पुरुष मनोभावों को जितनी जल्दी समझ लेती हैं, पुरुष आजीवन साथ रहते हुए स्त्री-मनोभाव को नहीं समझ सका। पुरुष शासक होने का दंभ भले पाले लेकिन वह अक्सर स्त्री से ही शासित होता रहा है। किसकी चलती है? उसी की सलाह और संकेतों पर इतिहास और संस्कृतियां बदली हैं।
एक समय था कि बेटी का विवाह नाई-पंडित के जिम्मे था और ये दोनों बड़ी ईमानदारी से घर-वर, समधी-समधिन को देख-सुनकर बातें करके बराबर की हैसियत वाले के यहां ही विवाह कराते थे। समय बदला, घर कोई नहीं देखता। नाई-पंडित, परिजन-पुरजन सभी किसी की भी बेटी के विवाह के लिए चिंतित रहते थे। किसी भी जाति की बेटी, पूरे गांव की बेटी थी। अब सबको अपनी-अपनी पड़ी है। समाज विभाजित है। समधी-समधिन हाशिये पर हैं, सिर्फ वर हैं। गांव भी, बेटी के सुख के लिए शहर भाग रहा है। शहरों में आत्महत्या, हत्या की शिकार ग्रामीण बेटियां ही अधिक होती हैं। समधी के सामने समाज कैसे पेश होता है, समधिन की साख गांव-समाज में कैसी है,क्योंकि बहू को ढालने का काम सास ही करती है। बदलना तो बहू को है।
      विवाह एक संस्कार मात्र नहीं है, कितने ही रिश्तों, संबंधों को प्रेमपूर्वक वहन करने का नाम विवाह है। ऋषि रैक्य की तरह उद्वाह नहीं, विवाह सिर्फ वहन करना नहीं, निर्वहन(निर्वाह)करने की शर्त भी है। ‘सप्तपदी’ का तात्पर्य भी यही है। सब कुछ देख-सुन, ठोंक पीटकर ही कन्यादान होता था। बेटी को अधिकतम देने की परम्परा बहुत पुरानी है। अब मांगकर लिया जाता है। दहेज, समाजों के सिर पर सवार है, कोई भी समाज दहेज से अछूता नहीं है, सिवाय परम्परागत आदिवासी समाजों के। पता नहीं बेटी देने वाला छोटा कैसे हो गया, इसका उत्तर न युधिष्ठिर और यक्ष के पास न था न बीरबल-अकबर के पास। अनेक समाजों में आज भी बेटा, बेटी के घर में आकर रहता है। मातृसत्तात्मक परिवार पैतृक वैधता के लिए चुनौती है।
  सभ्यता के इस दौर में भी बेटों वालों की स्थिति   में बहुत अंतर नहीं आया। वे आज भी बेटे को रिजर्व बैंक चेक समझते हैं। वे अपने को ‘गेनर’ और बेटी वालों को ‘लूजर’ की संज्ञा से अभिहित करते हैं। उस लोकोक्ति में कोई अंतर नहीं आया जिसमें अहं और श्रेष्ठता का दंभ सदियों से समाहित रहा है- ‘साठ भूत समधी के लागें, सत्तर लागें वर के।  बारह भूत बाराती लागें, सात-सात सब घर के।’  सभ्यता के उस युग की हम प्रतीक्षा करेंगे जब बेटे वाले अपनी संतति के विकास के लिए किसी की बेटी का हाथ मांगने अनुनय विनय के साथ जायेंगे और बेटी का बाप संसार का छोटा आदमी, निरीह और दया का पात्र नहीं समझा जायेगा और धरती के सारे देवतागण उसके सामने नतमस्तक, दक्ष की कन्याओं का हाथ मांगने के लिए कतारबद्ध खड़े रहेंगे। फिलहाल बघेली कवि रामसिया शर्मा की इस कविता पंक्ति से अधिक स्थिति बदली नहीं है-‘एकठे दिखेन बिआह रहा तौ, बिटिया थोर क धचकै/शादिन के पहिले नउआ पहुंचा संदेशा लइकै/ कहिस के समधी दस हजार धचकौना मांगत हं/ कमोवेश आज भी सामाजिक स्थिति ऐसी ही है। सम समधी कब दिखेंगे, प्रतीक्षा है?
                                     - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
                                         सम्पर्क सूत्र - 09407041430.

भाजपा की मजबूरी, मोदी जरूरी


 चिन्तामणि मिश्र
दि ल्ली और गुजरात में नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाते हुए पोस्टर जारी किए गए हैं, इनमेंं भाजपा की कथनी और करनी को कठघरे में खड़ा करके आइना दिखाया गया है। इसके  पीछे मुम्बई में हुई भाजपा की राष्टÑीय कार्यकारणी की बैठक के पूर्व संजय जोशी से इस्तीफा लेकर मोदी को मनाने और बैठक में उनके आगमन की शर्त पूरी करने के लिए किए गए समर्पण की रोमाचंक महाभारत का अगला एपीसोड है। भाजपा अध्यक्ष गडकरी जिस तरह मोदी के आगे लाचार दिखे, उससे पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व की कमजोरी ही साबित हुई है। पिछले एक दशक से कुछ अधिक समय से गुजरात पर राज करने के कारण भाजपा के लिए मोदी बहुत मायने रखते हैं किन्तु भाजपा नेतृत्व ने मुम्बई में जैसी हरकत की है उससे तो प्रत्यक्ष में  एक ही अर्थ निकलता है कि मोदी का कद पार्टी से भी बड़ा हो गया है। अब कार्यकारणी की बैठक के बाद जैसी रस्साकशी चल रही है उससे भी आभास होता है कि पार्टी के भीतर सब कुछ  सही नहीं है। आडवाणी ने अपने ब्लॉग में पार्टी अध्यक्ष गडकरी की आलोचना की है। पार्टी के मुख पत्र कमल सन्देश ने सम्पादकीय में मोदी का नाम लिए बगैर लिखा कि किसी के ऐसे व्यवहार से पार्टी नहीं चल सकती, कि सिर्फ उसकी चलेगी,नहीं तो किसी की नहीं चलेगी। अखबार ने नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाया है। उधर आरएसएस का अखबार आर्गनाइजर कमल सन्देश से अलग राह पकड़ते हुए मोदी के पक्ष में खड़ा हो गया है। आम सहमति और सामूहिक विचार-विमर्श से चलने के दावे पर सवालिया निशान लग गया है। अब भाजपा में निजी महत्वाकांक्षा तथा अहं की लड़ाई सतह पर आ गई है। कहा जाने लगा है कि राष्टÑीय अध्यक्ष गडकरी ने मोदी के हाथों में पार्टी का गिरवीनामा सौंप दिया है।
  मोदी पर भाजपा के और अन्य दूसरे दल के नेता तानाशाह होने का आरोप लगा कर हर हाल में उन्हें गुजरात तक में ही सीमित देखना चाहते हैं। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इस भय का भूत चैन नहीं लेने दे रहा कि अगर राष्टÑीय राजनीति में मोदी ने घुसपैठ कर ली तो उन्हें बौना बना कर गमलों में रोप दिया जाएगा। उधर मोदी को कांगे्रस, वामपंथी, सपा, बसपा और  एनडीए के अन्य घटक दल अपने लिए खतरा मानते हैं। मोदी को गुजरात नर-सहांर का खल-नायक घोषित करके मोदी फैक्टर की हर मौके बे-मौके हवा निकालने में जुटे रहते हैं। हालात यह बन गए हैं कि मोदी से उनकी पार्टी और अन्य पार्टियां भयभीत हैं। मोदी की कार्यशैली में तानाशाही की झलक से किसी को इंकार नहीं हो सकता है, किन्तु भारतीय राजनीति में मोदी पहले तानाशाह नहीं हैं। महात्मा गांधी ने कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में अध्यक्ष के अपने उम्मीदवार डॉ. सीता रमैया की सुभाष बोस के हाथों हुई पराजय को अपनी पराजय कहा था। सुभाष बोस को कांग्रेस छोड़नी पड़ी। नेहरू ने प्रधानमंत्री बनते ही गांधी के ग्रामस्वराज को नकार दिया और पूर्व में पारित इस प्रसंग की गाइड लाइन से हट कर अपने मन के कार्यक्र म चलाए। पार्टी की कार्यसमिति और अध्यक्ष की उपेक्षा करते रहे। सरदार पटेल को हाशिए पर धकेल दिया। इन्दिरा गांधी की तानाशाही आपातकाल के नाम से इतिहास में दर्ज है। तानाशाही तो मनुष्य के गर्भनाल से ही जुड़ी रहती है। हमारे राजनेता भी तो मनुष्य ही हैं। वैसे भी सबकी राय और सब को साथ लेकर चलने का सिद्धांत किताबी होता है। इसे व्यवहारिक नहीं बनाया जा सकता है।
वैसे सत्ता हो या पार्टी संचालन मोदी की अपनी अलग शैली है। इसे भाजपा का शीर्ष नेतृत्व प्रारम्भ से ही जानता है। मोदी को पहली बार गुजरात का मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए बुलाई कई कोर कमेटी की बैठक में जब मोदी का नाम आया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने विरोध जताते हुए कहा था कि ‘यह गलती मत करना। अगर यह मुख्यमंत्री बन गया तो सिर पर पिस्तौल रख कर फैसले करवाएगा।’ गुजरात दंगों के बाद अपने गुजरात दौरे में वाजपेयी ने मंच पर मोदी की उपस्थिति में कहा था कि मोदी को राजधर्म निभाना चाहिए था। मोदी पर गुजरात दंगों का भूत चस्पा है, किन्तु ऐसे शर्मनाक दंगों की देश में कमी नहीं रही। दिल्ली में सिख विरोधी दंगे क्रांगे्रस के शासन काल में हुए जिसमें सिखों का नरसंहार बड़ी संख्या में किया गया। मेरठ में कई सैकड़ा अल्पसंख्यक युवकों को तत्कालीन कांग्रेसी सरकार की पुलिस ने दंगों की प्रतिक्रिया में गोली मार दी थी। मुम्बई में बाबरी मस्जिद के ढहाने के बाद शरू हुए दंगों की श्रृंखला में तत्कालीन कांग्रेस सरकार की पुलिस को श्रीकृष्ण आयोग ने जिम्मेवार बताया था। हमारे राजनेता ऐसी कलाबाजी करते रहते हैं जिसमें विपक्षी की वही करतूत उन्हें अनैतिक और अपराधिक लगती है जिसें वे स्वंय अवसर मिलने पर करने से नहीं चूकते।
भाजपा अगले लोकसभा चुनाव को लेकर सहमी है। उसके पास जनता को प्रभावित करने वाले मुद्दों और करिश्मा दिखाने वाले प्रचारकों का अकाल है। ऐसा लगता है कि मुम्बई में जोशी का इस्तीफा और दिल्ली में पोस्टरबाजी के बाद जोशी की भाजपा से विदाई सोची-समझी और काफी होम-वर्क करने के बाद उठाया हुआ कदम है। राजनीति में जो दिखाई देता है या फिर जो सुनाई देता है वह अधूरा सच होता है। फिर से सत्ता पर काबिज होने की सम्भावनाओं के अभाव में भाजपा की मोदी की   पालकी उठाना मजबूरी है। राजनैतिक हलचलों पर नजर रखने वाले समझ गए हैं कि भाजपा में  मोदी युग की शुरूआत हो चुकी है। अब भाजपा हिन्दुत्व की जमीन पर खड़े होकर आगामी लोकसभा चुनाव का सामना करेगी। आरएसएस तो वर्षों से हिन्दुत्व का सपना देख रहा है और उसका लक्ष्य भाजपा को दिल्ली के सिहांसन पर आसीन कराना है। मोदी में ऐसे गुण हैं। यह अलग बात है कि फिर देश की एकजुटता का क्या होगा? साम्प्रदायिक धु्रवीकरण में खतरा तो होता ही है। मोदी को महत्व देने का फैसला गडकरी जैसे आंचलिक जनाधार वाले नेता का नहीं हो सकता, भले ही वे पार्टी के राष्टÑीय अध्यक्ष के आसन पर बैठे हैं। मोदी स्वतंत्र स्वभाव के और पिछड़े वर्ग के अनुभवी नेता हैं। कल्याण सिंह, उमा भारती और येदियुरप्पा जैसे पिछड़े वर्ग के नेताओं से अलग उन्होंने अपना प्रभा-मंडल बना रखा है। मोदी भाजपा के लिए मजबूरी ही सही किन्तु जरूरी हैं।
                                  - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                     सम्पर्क  सूत्र -09425174450.

क्या आज भी सबसे उत्तम है खेती!


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
आहार, निद्रा और मैथुन सृष्टि का प्राकृत, न्याय और विकास क्रम है। पाषाण युग से विज्ञान युग तक कोई भी जीव इन क्रियाओं से मुक्त नहीं है। जन्म से ही उसे आहार की तलाश रही है। सभी जीवधारियों में मनुष्य सदैव से चेतनशील रहा है। उसने अपने स्वरूप और प्रारूप, आहार के लिए बदले हैं। कभी पत्थरों की मदद ली, कभी वृक्षों से। अपना पेट भरने के कितने जतन मनुष्य ने आदिकाल से किये। प्रयोगों का अंतहीन सिलसिला आज भी जारी है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, वनस्पति, धरती पर जो कु छ भी प्रकृति प्रदत्त था, सबको अपने अनुकूल बनाया, ढाला, उनका दोहन और उपभोग किया। सृष्टि का आधार मैथुन है इसे लोक और शास्त्र दोनों स्वीकारते हैं। जीवनयापन के क्रम में कभी चरवाहा बना तो कभी हलवाहा। दूध देने वाले पशुओं की प्रजाजियों का उन्मुक्त विचरण उससे देखा नहीं गया, पालतू बनाकर अपने अनुशासन उन पर लागू किये। पशुओं की संतानों को उनकी मां का पूरा दूध भी पीने नहीं दिया। दूध देने की दशा तक पहुंचते ही उन्हें मां के थन से अलग कर दिया, और सारा दूध अपनों को पिला दिया। चरी के लिए खूब जमीन थी, वह चरवाह था। हल बना लिए, धरती को जोता, जो भी उगा, सहेजा, खाया फिर बोआ। अपने सुविधा, क्षमता और दक्षता के अनुसार नियम बनाए, तरीके ईजाद किए। खेती का पहला औजार हल था, वह हलवाहा बना, हलधर कहलाया। संसार के अस्सी प्रतिशत लोग धरती से उपजे अन्न पर जीवित हैं। भारत की आबादी का पचहत्तर प्रतिशत कृषि पर निर्भर किसान आज हाशिये पर है। जिस देश का सारा साहित्य कृषकों की श्वास-प्रश्वास का उच्छवास है, उसकी लागत, कीमत वे तय कर रहे हैं। जिन्होंने खेत देखे नहीं हैं, खेती कैसे होती है, जानते नहीं ।
‘उत्तम खेती, मद्धिम बान’ लोकोक्ति जब चली होगी तब किसान प्रथम दर्जे का व्यक्ति रहा होगा। घर-परिवार, गांव-समाज की विस्तृत संस्कृति थी। ‘बढ़त देख निज गोत’ के सुख का अंदाज कल्पना में नहीं यथार्थ था। आज किसी पढ़े-लिखे को खेती करते देख-संगर्वित महसूस नहीं करते। उसे हतभाग्य मानते हैं, गंवार कहते हैं, जब अन्नदाता के साथ ऐसे विशेषण जुड़ेंगे तो खेती उत्तम कैसे कहलाएगी। खेती कैसे करनी चाहिए, यह बताने वाले पुस्तकीय विद्वान हैं जिन्होंने सिद्धान्त पढेÞ हैं व्यवहार में खेती देखी नहीं है, वे शहरी कृषि वैज्ञानिक हैं, जो गमलों में फसलें तैयार करते हैं। खाद-पानी देते हैं, वे अनावृष्टि और अतिवृष्टि की शिकार कृषि को क्या समझेंगे। जिसे अक्सर सारा देश भोगता है। किसान-समस्याओं पर चर्चा करने वाले कृषि वैज्ञानिक होते हैं, खेती से जूझने वाले किसान नहीं। प्रसव पीड़ा का बखान बांझ कर रही है। ऐसी स्थिति में जननी से कोइ नहीं पूछ रहा है कि जनन का सुख-दुख कैसा है। एक प्रोफेसर वनस्पति शास्त्र में सरसों की खेती के बारे में छात्रों को पढ़ा रहे थे। छात्र भी प्रोफेसर की तरह शहरी थे, सिर्फ एक छात्र गांव का था। प्रोफेसर साहब ने कहा कि आज तुम लोगों को पै्रक्टिकल के लिए गांव ले चलेंगे और सरसों के पौधे-फूल-फल दिखाएंगे। गांव में सभी फसलें बोई थीं, चना, मसूर, गेहूं, जौ, अलसी, सरसों। पीली-पीली सरसों छात्रों ने पढ़ी थी, प्रोफेसर साहब सरसों के खेत से गुजरते हुए अन्य फसलें भी देखकर खुश थे, लेकिन सरसों के फूल कहीं नहीं दिखे क्योंकि सरसों में फल लग चुके थे, फूलों का मौसम बीत चुका था। दुखी मन से बोले कि इस गांव में लोग सरसों की खेती नहीं करते, कल दूसरे गांव चलेंगे। गांव वाले छात्र ने कहा, सर! हम लोग तो सरसों के खेत में ही खड़े हैं। सरसों पक गया है। प्रोफेसर ने कहा- चुप रहो! सरसों में फूल नहीं आए, पीला नहीं हुआ, तुम क्या जानो? ऐसे ही कृषि विशेषज्ञ कृषि-नीति निश्चित करते हैं। किसानों की चुनी हुई सरकार में उसका प्रतिनिधि उसकी समस्याओं पर प्रश्न नहीं उठाता। जब खेती उत्तम मानी गई थी तब उसके पास पशु थे, गोबर था, गोधन था। पशु पक्षी, कीट-पतंगे भी कृषि के सहायक उपादान थे। आज ये सभी कृषि से गायब हैं। खाद बनाने वाले कॉरपोरेट क्षेत्र के हंै, प्रतिवर्ष उसकी कीमत बढ़ती है। अन्न का भाव लगभग स्थिर रहता है। अधिक उत्पादन का लालच देकर संकर बीजों की कीमतें आसमान छू रही हैं। हर वर्ष किसान को नए बीज खरीदने पड़ते हैं। सदियों से चले आते बीज खत्म हो गए। बीजों से अपनी माटी की गंध समाप्त हो गई है। नए बीजों की उम्र एक साल है जबकि परंपरा से चले आ रहे बीजों की उर्वरता पर प्रश्न चिन्ह नहीं है। अधिक उत्पादन के चक्कर में किसान से विज्ञान ने संतोष छीन लिया। वह रेस में शामिल हो सुख शांति भूल गया। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि लाखों टन सड़े अनाज समुद्र में फेंकने के आदेश जारी होते हैं, भूख से मरते कितने ही लोगों को सड़ा अनाज भी उपलब्ध नहीं हो पाता। देश के पास अनाज भण्डारण के लिए उपयुक्त व्यवस्था नहीं है। किसान आज व्यापारी हो गया है, और बाजार, अन्नदाता के अन्न का भाव तय कर रहा है।  अब खेती उत्तम श्रेणी में नहीं आती, कहावत के अंतिम चरण ‘भीख’ से उसकी प्रतिदिन की आमदनी सुन ईर्ष्यालु हो रही है।
एक समय चाकरी को निकृष्ट माना गया था। निश्चित रूप से चाकर, सिर्फ मालिक का हुक्म बजाने वाला प्राणी होता था। उसकी अपनी कोई स्वायत्ता नहीं होती थी। वह वेतन भोगी था कब मालिक का   आदेश हो जाए, हर क्षण कुत्ते की तरह पूंछ डुलाने के लिए तत्पर, मुंंह जोहते खड़े, सिर झुकाए व्यक्ति की हिम्मत क्या कभी मालिक से नजर मिलाने की हो सकी है। व्यवसाय और चाकरी के लिए निकले नामचीनों की विदेशों में खानातलाशी व्यापार और चाकरी की हैसियत बता देती है। फिर भी आज चाकरी, जीवनयापन की प्रथम पायदान पर है। पता नहीं क्यों? मनुष्य की भी कीमत तय है, कभी उसकी गहराई, गंभीरता, दक्षता और क्षमता का कोई मूल्य नहीं था, वे अमूल्य थे। आज डालर के बाजार ने मनुष्य को बाजार में खड़ा कर दिया है और सच तो यह है कि कोई भी आदमी जूते की नाप के बाहर नहीं है-‘जी हां! माल दिखाइए, दाम बताउंगा’ जैसी स्थिति है। ऐसी स्थिति में किसान भले ही गरीब हो, प्रकृति से हार गया हो, द्वार पर किसी अतिथि से रोटी के दाम नहीं मांगेगा। न ही भूले भटके को गलत राह बताकर राहजनी करवाएगा, जबकि व्यापार और चाकरी में यह सब कुछ चल रहा है। देश, व्यापारियों और कॉरपोरेट जगत के हाथ में जब तक रहेगा, खेती उत्तमता का दर्जा कैसे पा सकेगी? किसान के अन्न का बीज, व्यापारी तैयार करेगा। उन्नत बीजों की असीमित खाद पानी ने धरती मां को बंजर कर दिया, तब बंजर की औलादें मुंह बाए व्यापारी को देखती रहेंगी। सकारात्मक सोच की कमी ने खेती को हाशिये पर खड़ा कर दिया है।
                        - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
                             सम्पर्क सूत्र-09407041430.

लोग सड़कों पर मरते क्यों हैं


     चिन्तामणि मिश्र
मध्य प्रदेश में हजारों लोग हर साल सड़कों पर कुचल कर मार दिए जाते हैं। सारे देश में सड़कों पर मारे जाने वालों का आंकड़ा कई गुना है। गहराई से आंकड़ों की खोज-पड़ताल की जाए तो जाहिर होता है कि एक्सपे्रस या सामान्य हाई-वे में पैदल और साइकिल सवार राहगीरों की संख्या शहरी आबादी में मरने वालों की तुलना में कम है। वाहनों से कुचल कर घायल होकर सारी जिन्दगी विकलांगता का दंश भोगने वालों की तादात भी बहुत ज्यादा है। कानूनी परिभाषा में इन्हें दुर्घटना कहा जाता है, लेकिन हकीकत में इन्हें मानव वध की श्रेणी में दर्ज होना चाहिए। मध्य प्रदेश के लगभग सभी शहरों,कस्बों में पैदल राहगीरों और साइकिल सवारों के लिए फुटपाथ सड़कों से नदारत हैं। नियमानुसार हर सड़क के दोनों ओर फुटपाथ होने चाहिए। इन फुटपाथों की न्यूनतम चौड़ाई तीन फिट तथा उंचाई चार इंच होनी चाहिए। फुटपाथ और मुख्य सड़क के बीच रेलिंग लगाई जानी चाहिए, किन्तु ऐसा है नहीं। राजधानी भोपाल के सहित महानगर के नाम से पुकारे जाने वाले इन्दौर,ग्वालियर,जबलपुर में भी सड़कों पर फुटपाथ की व्यवस्था जरूरी नहीं समझी जा रही , जिसके चलते कभी भी,कहीं भी मौत दबे पांव आकर जिन्दगी को दबोच लेती है। हालांकि पैदल चलने वाले लोग भी इस देश के नागरिक हैं और उन्हें भी संवैधानिक अधिकार मिले हैं, किन्तु उनके अधिकारों तथा उनकी सुरक्षा की परवाह सरकारों के सरोकारों से बाहर हैं।
      वाहनों को चलाने के लिए कई तरह के प्रतिबन्धात्मक प्रावधान मोटर व्हीकल एक्ट में दर्ज जरूर हैं किन्तु इनको लागू करने-कराने तथा इनका पालन कराने में जिम्मेवार एजेंसियों की दिलचस्पी नहीं है। ऐसे वाहन चालकों की संख्या बहुत अधिक है जिनकी पास या दूर देखने की नजर कमजोर है, रंग अंधत्व के शिकार हैं। दृष्टि-भम्र के रोग से पीड़ित हैं। सामने से आ रहे वाहन की लाइट से कई चालक चकाचौध के शिकार होने के दोष से ग्रसित हैं। कई वाहन चालक मतिभ्रम के शिकार है। ऐसे लोगों को स्टेयरिगं से दूर रखा जाना चाहिए किन्तु इस तरह के लोगों को हमारा सिस्टम वाहन चलाने की इजाजत देकर अपनी जिम्मेवारी को पूरा करने का पाखंड पाल लेता है, और ऐसे वाहन चालक सड़कों पर लोगों को मौत के मुहं में धकेल कर सजा से बचते चले आ रहे हैं। वाहन चालकों पर दायित्व ही नहीं तय किया गया है कि वे कम से कम साल में एक बार अपनी आंखों का परीक्षण करा कर प्रशासन को इसकी रपट सौपें। इस लापरवाही के चलते सड़कों पर मौत बनाम जिन्दगी का ट्वन्टी-ट्वन्टी खेला जा रहा है। असल में हमारा सिस्टम वाहन चलाने का लायसेन्स नहीं देता, वह देता है, लायसेन्स-टू-किल। हल्के और भारी वाहन चलाने के लिए लायसेन्स की जैसी प्रक्रिया है वह अपना काम कैसे करती है,यह पहेली नहीं है, सभी जानते हैं कि लायसेन्स घर बैठे बन कर आ जाते हैं। यदि बिना रसीद का भुगतान कर दिया जाए तो जांच-पड़ताल,स्वास्थ्य परीक्षण,वाहन चलाने की समझ जैसे जरूरी बिन्दु औपचारिक खाना-पूर्ति तक रह जाते हैं।  शराब पी कर वाहनों को चलाना और अंधाधुंध रफ्तार से दौड़ाना किसी भी सड़क का आम नजारा है। नशा और तेज रप्तार अब समाज में स्टेटस-सिम्बल बन गया है। बाइकर नाम के मोटरसाइकिल से स्टंट दिखाने वालों की नई विरादरी पैदा हो गई है। इनके कारनामें राह चलते लोगों के लिए अंग-भंग और प्राण-लेवा हो रहे हैं। नशा का सेवन करके वाहन चलाना प्रतिबंधित है किन्तु अधिकांश चालक अल्कोहलिक हैं। शराब हर स्थान पर आसानी से सुलभ है। पानी का अकाल,पानी का संकट जैसे जुमले हर जगह सुनाई देते हैं, किन्तु शराब का अकाल,शराब की कमी कभी सुनाई नहीं देती। शराब ही ऐसी चीज है जो देश का राष्टÑीय उत्पादन होने का दावा कर सकती है। इसके वितरण का नेटवर्क इतना सधा हुआ है कि देशी और विदेशी खुदरा व्यापार करने वाली कम्पनियों के भारी-भरकम वेतन पैकेज पाने वाले सीईओ की व्यवसायिक प्रबन्ध कुशलता बौनी है। सरकार इस कमाउ धंधे को बन्द करने के बारे में सोच  ही नहीं सकती। सतना जैसे सामान्य से शहर से सरकार को हर साल बीस करोड़ की रकम बिना एक रुपए खर्च किए मिलती है। इन हालातों में समाज कल्याण और समाज के प्रति जिम्मेवारी जैसे शब्द टाइम-पास कीर्तन जैसे हो जाते हैं।
       गांधी शराबबन्दी की बातें करते थे किन्तु गांधीगीरी से फिल्म बना कर उसे हिट तो बनाया जा सकता है।  इससे सरकारें नही चल सकती हैं। यह भी सोचने की ही बात है कि शराब खरीदने के लिए ग्राहक जो नोट काउन्टर पर देता है उसमें साक्षात बापू ही तो विराजमान है, वह भी हंसते मुस्कुराते हुए। आजादी के बाद बापू एक साल भी तो जीवित नहीं रहे। हो सकता है कि अगर बापू जीवित रहते तो हमारी सरकारें शराब को लेकर उनके विचार बदलने के लिए हाई-पावर कमेटियां बना कर प्रयास करती । इतना तो तय है कि हमारी सरकारों ने शराब,घूस,दहेज,भूण-हत्या आदि के कामों में बापू न सही उनकी फोटो का इस्तेमाल तो कर ही लिया है। हम अपने राष्टÑपिता को नहीं भूले  हैं। वे सदैव हमारे साथ रहते हैं। हमारी यादों में बसते हैं। हम नोटों में छपे उनके फोटो के सपने   देखते हैं इनको पाने के लिए राह-कुराह नहीं देखते हैं। ऐसा है हम लोगों का गांधी प्रेम। सड़कों पर पैदल राहगीरों को वाहन-चालक बड़ी हिकारत से देखते हैं। अक्सर इनको देख कर अपना आपा तक खो देते हैं। मैंने कई संभ्रांत वाहन चालकों का कहते सुना है कि यह लोग सड़कों पर क्यों निकल आते हैं। अपने घरों में ही क्यों नहीं रहते? मरने के लिए क्यों आ जाते हैं ?
          रोज सड़कों पर इतने लोग मरते क्यों हैं/ जिन्दा जब लौटने की उम्मीद ही नहीं/ तो अपने घरों से लोग निकलते क्यों हैं/ सारी सड़कें  हैं वाहनों के लिए आरक्षित हैं/ पैदल चलने की जिद लोग करते क्यों हैं?
 बे-गुनाह राहगीरों को कुचलने की घटनाओं के पीछे वाहनों के रख-रखाव में लापरवाही और गैर जिम्मेवारी का भी बड़ा हाथ है। दोपहिया, चारपहिया अथवा चाहे जितने पहिया वाले वाहन हों, सड़कों पर दौड़ाने के पूर्व इनके ब्रेक,स्टीयरिंग,गियर,क्लच जैसे उपकरणों की किसी निश्चित अन्तराल में तकनीकी जांच करने की अनिवार्यता ही नहीं है। अगर हवाई जहाज और ट्रेनों की यात्रा के पूर्व तथा यात्रा के दौरान तकनीकी जांच हो सकती है तो सड़कों पर चलने वाले वाहनों की क्यों नहीं हो सकती? कौन सुरक्षा देगा ,पैदल औा साइकिल पर चलने वालों को, आखिर सड़कें किसकी हैं?            
                            - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।    
                                    सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

परम्पराओं की सार्थकता


    चन्द्रिका प्रसाद चन्द
 हम अपनी पहचान श्रुतियों और स्मृतियों में ढूृंढ़ते हैं। इसे ही अपने विकास का इतिहास मानते हैं। जब लिपि नहीं थी तब भी पीढ़ियां स्मृतियों के सहारे श्रुतियों को सहेजती थीं, जिस समाज की स्मृति जितनी ही संवेदनशील और दायित्वपूर्ण होगी, वह उतना ही प्रभावकारी होगा। अपने बहसों और तर्कों से हम अक्सर श्रुति और स्मृति के बल पर ही प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं। यही हमारा अतीत है। सच है कि अतीत के सहारे हम वर्तमान का सामना नहीं कर सकते। लेकिन सदियों के संघर्ष की स्थिति हमें स्थिर रहकर लड़ने की प्रेरणा देती रहती है। यह क्या कम है कि वर्तमान से लड़ते हुए हमारे पांव अतीत के मजबूत आधार स्तंभों पर ही टिके होते हैं। जिन समाजों का लम्बा अतीत नहीं है, उनके विचार और व्यवहार सदैव अनिश्चित रहते हैं।  भारत और उसका जन-समाज अतीतजीवी रहा है इसी कारण परम्परा और आधुनिकता के बीच सामंजस्य बनाने में उसे हमेशा ही परेशानी होती रही है। स्मरण मात्र से सिद्धि प्राप्त होने की संकल्पना गोस्वामीजी ने भी की है-‘जेंहि सुमिरत, सिधि होय’। स्मृतियों का त्रासद अनुभव भी सुखद होता है। एक व्यक्ति की स्मृति दूसरे को भी प्रवृत्त करती है और यादों का अनंत सिलसिला जीवन को गतिशील बनाये रखता है। कितनी ही परंपराएं समय की आंधी में उड़ गई तो कितनी ही नई आकर परम्परा बन गई।
    कुछ दिन पहले एक पारिवारिक विवाह कार्यक्रम में भाग लेने गांव गया था। बातचीत के दौरान पता चला कि उनका ‘भतहा-भायप’ इस साल टूट गया। याद आया कि गांव में दो तरह के भायप होते हैं एक ‘भतहा’ दूसरा सोहरिहा’। भात से जुड़ना ही असली भायप होता है जिसमें पूरे परिवार को कच्चा खाना खिलाया जाता था। यह खाना जोड़ता था भावना से, आत्मीयता से। रक्त-सम्बन्धों में ही भात खाना हुआ करता था। भात के साथ कढ़ी-फुलौरी होती थी। नमक डालने को महत्वपूर्ण माना जाता था। नमक से जुड़ना ‘भतहा’ खानदान की आवश्यक शर्त थी। भात जुड़ने, भात टूटने के अनेकार्थ होते थे। भात-दाल, भाजी-भात, कोदई-भाजी के अनेक सामाजिक निहितार्थ होते थे। बड़े गर्व से कहा जाता था कि मेरा उनका भतहा-सम्बन्ध है। आज सबसे सबके भतहा सम्बन्ध हैं, लेकिन उनमें सम्बन्धों की पारस्परिक ऊष्मा नहीं है। डालडा घी से परेशान खाने वाले हर कहीं भात खाने की लालसा रखते हैं, लेकिन क्या वे सच्चे अर्थों में उस भात से जुड़ पाते हैं जिसके लिए भात संज्ञा बन गया। यह कच्चा खाना था, जो नितांत पारिवारिक था। कढ़ी भात से जुड़ना अतीत का मुश्किल व्यवहार था, आज बिना अर्थ समझे अतिसामान्य। पक्का खाना में पूड़ी-चीनी-सोहारी-सब्जी, खीर-सिवैंया आती थीं। सब्जी में नमक पहले से नहीं डाला जाता था कि पता नहीं मेरा डाला हुआ नमक वे खायें न खाएं? नमक डालने तक उसे कोई पका सकता था। इसीलिए खाने की पांति में नमक अलग से दिया जाता था। दुग्ध पक्व और घृत पक्व पक्का खाना था, जो सार्वजनिक था। घी के सोहारी की गंध पूरे परिवेश को महकाती थी, अब तो शुद्ध घी से भी सुगंध गायब है। समिधा को अर्पित साकल्प के घी की गंध से आसमान भी महकता था, अब न साकल्प में वह शुद्धता रही न घी में वह स्वाद रहा? पहला कौर ‘तुम्यमेव समर्पये’ की विनम्रता के साथ प्रभु को अर्पित था, अपना पेट प्रसाद से भरता था। ताजा भात तो प्रभु का प्रसाद था, लेकिन बासी भात में उसका कोई हिस्सा नहीं होता था, वह सिर्फ अपना था।
गांव में शहरी संस्कृति पूरी धज से प्रवेश कर चुकी थी। बहुत दिन बाद विधिवत शास्त्र और परम्परा सम्मत विवाह-संस्कार होते देखकर लगा कि इस भागमभाग-समय में यदि कुछ समय आत्मीय संस्कारों के साथ बीत गए तो जिन्दगी ज्यादा बेमानी नहीं हुई है। अंध आधुनिकता के सम्पर्क, डीजे के कर्णकटु स्वर में परम्परा को पीठ दिखा रहे हैं। यदि हम संस्कारों से जुड़े हैं तो, उन्हें सुनने और समझने का धैर्य और समय भी हमारे पास होना चाहिए। जीवन के इतने समझौते विवाह के मंत्रों की मंगलकामना और सप्तपदी के अर्थों को भी समझना होगा। विवाह रुक-रुक कर धीरे-धीरे कदम-कदम मिलाकर चलने का संस्कार है। उसे भी हम आचार्य को जल्दी में निपटाने को कहते हैं। विवाह में हमें माटी मांगर, मंड़वा गीत जैसे कई गीत वर्षों बाद सुनने को मिले। गीत के साथ उसके भावार्थ के निहितार्थ देखे। ‘बैठे सजन जंघजोरी ह’ की गारी पालथी मार कर खाते हुए सुनने का आनंद अवर्णनीय था। अपनी परम्परा की सम्पन्नता देखी। जनक जैसे विदेहराज और कण्व ऋषि जैसे महामानवों को भी पुत्री की विदाई में बिलखते पढ़ा था, लेकिन पूरे गांव के स्त्री-पुरुषों की आंखों में भरे आंसुओं को हाथों से पोंछते बहुत दिन बाद देखा था। भारतीय समाज में कन्या चाहे किसी जाति, प्रदेश की हो। होती तो पराया धन ही है, उसे अपने घर में ताउम्र नहीं रखा जा सकता, परंतु इस पराये धन को विदा होते देखकर वह लोकगीत जीवंत हो उठा कि ‘बाप के रोय नदिया बहतहइ, मामा के रोये तलाउ/भइया के रोये हिरदय फटत हइ, बहिनी चली हइ परदेश’। शहरों के आंसू तो सूख चुके हैं। गांव में अभी आंखों में पानी है, पानी का लिहाज है। हर जाति की कन्या की विदा में, उसके आंसुओं ने अर्ध्य दिया है। विदा के बाद का सन्नाटा सब एक दूसरे को देखते मौन, ऐसी समाधि तो कबीर ने भी नहीं देखी थी।  
कभी कभी लगता है कि गरीबी अच्छी थी। सब मिलजुलकर गरीबी का दुख-दर्द बांटते थे। गरीबी में सामाजिक सरोकार बढ़ जाते हैं। किसी के घर में खाना नहीं है यह जानकर पड़ोसी खुश नहीं रहता था। अपने थाली में उसको खिलाकर ही खाता था। सुख-दुख साझे के थे। परिवार और पड़ोसी मात्र शब्द नहीं थे, वे भाव की संज्ञा से जीते थे। जहां गरीबी है, अभाव है, वहां एका का भाव है। अमीरी ने मनुष्य को बांटा है। प्रतिस्पर्धा ने ईर्ष्याभाव विकसित हुआ है, इसी को हमने विकास और आधुनिकता का नाम दे रखा है।  इस आधुनिकता में संवेदना और आत्मीयता खो गई है। परंपरा को अंधी लाठी से न पीटकर आधुनिकता के साथ सामंजस्य बनाना, गांव और संस्कृति को बचाने और संवारने से ही हमारी पहचान, विश्व भर में रही है, रहेगी। अन्यथा परम्पराओं के लुप्त हो जाने से हम अपनी विरासत खो देंगे। क्योंकि परंपरा मधु है उसका विकल्प शक्कर नहीं है।
                                 - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
                                       सम्पर्क सूत्र - 09407041430.

गठबंधन की अंधी सुरंगों में


  जयराम शुक्ल
रा ष्टÑपति के चुनाव की प्रक्रिया के साथ ही देश में जो राजनीतिक परिदृश्य उभरा है उसे देखते हुए लगता है कि जनता की तमाम उकताहट के बावजूद भी यूपीए का फिलहाल कोई विकल्प नहीं। एनडीए की धार भोथरी हो चुकी है और उसके गठबंधन में घुन लग चुका है। तीसरे विकल्प की स्थिति अलग-अलग दिशा में दौड़ने वाले घोड़ों के रथ जैसी है। कुल मिलाकर राष्टÑपति चुनाव में यूपीए के प्रत्याशी प्रणव मुखर्जी की एकतरफा जीत तय है। संगमा महज नामचार के प्रत्याशी साबित होंगे और राजनीतिक पटल में एनडीए खासकर भाजपा की भद्द पिटनी तय है। राष्टÑपति चुनाव के बाद यूपीए-टू हर वह ख्वाहिश पूरी करेगी, जो लेफ्ट की लगाम के चलते यूपीए-वन में नहीं कर पाई थी। मसलन रिटेल सेक्टर में एफडीआई (फॉरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट) का फैसला। कई सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश, बीमा, शिक्षा, विधि और मीडिया क्षेत्र में विदेशी निवेशकों के दरवाजे खुलेंगे, ये फैसले एक के बाद एक होंगे और जब तक यूपीए के घटक विद्रोह का मूड बना पाएंगे, एनडीए एकजुट हो पाएगा और तीसरे मोर्चे की रूपरेखा बन पाएगी। तब तक यूपीए का शेष कार्यकाल भी पूरा हो जाएगा। इसके बाद अगले चुनाव में आप जाने,अपका भाग्य जाने।
विचार बनाम - मौकापरस्ती
देश में जब से गठबंधन सरकारों का दौर चला है तब से छोटे-छोटे दलों ने सत्ता की भूख के चलते विचारों को तिरोहित कर दिया और मौकापरस्ती ही स्थायी भाव हो गया। करुणानिधि, अजीत सिंह, फारुख अब्दुल्ला, पासवान जैसे नेताओं की पार्टियां एनडीए की हिस्सा थीं और यूपीए की भी हैं। तीसरे मोर्चे के गठबंधन के सत्ता के आसार बने तो ये लोग वहां भी हाजिर मिलेंगे। जब गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ तब एक आशा जगी थी कि अब सही मायने में फेडरलिज्म देखने को मिलेगा व एक दल की स्वेच्छाचारिता का अंत हो जाएगा। लेकिन समय के साथ इनकी विकृतियां सामने आने लगीं। आज छोटे राजनीतिक दल सत्ता के स्टेक होल्डर बनकर रह गए हैं। इनका कोई ईमान-धरम और अपने वोटरों के प्रति जवाबदेही नहीं बची। मायावती और मुलायम भी दिल्ली में एक घाट में पानी पीते नजर आते हैं, वजह भ्रष्टाचार के आरोप और सीबीआई का डर। भविष्य में क्षेत्रीय और छोटे दलों की मौकापरस्ती के नए पैतरे देखने को मिलेंगे। इन पैतरों में सपा का समाजवाद और बसपा का बहुजनवाद चारों खाने चित्त मिलेगा।
भाजपा-कांग्रेस की जीरॉक्स
चारित्रिक रूप से देखें तो भाजपा और कांग्रेस में कोई बुनियादी फर्क नजर नहीं आता। ये तो भाजपा के बड़े-बुजुर्ग नेता भी कहने लगे हैं कि हमने कांग्रेस के सारे दुर्गुण आत्मसात कर लिए हैं और पार्टी कांग्रेस की प्रतिकृति बनकर रह गई है। कांग्रेस सोनिया गांधी के दस जनपथ के पिंजरे में कैद है तो भाजपा नागपुर के केशव कुटी में। मोहन भागवत यदि नितिन गडकरी को पार्टी के ऊपर थोपते हैं तो कार्यकर्ताओं की यह मजबूरी है कि न चाहते हुए भी उन्हें ढोएं। देश के दोनों राजनीतिक दलों का आंतरिक लोकतंत्र न जाने कब का मर चुका है। मरे हुए बछड़े में भुस भरकर जैसे गाय को धोखे में रखा जाता है उसी तरह दोनों पार्टियां अपने आंतरिक लोकतंत्र के मामले में देश को धोखे में रखे हुई हैं। कभी कांग्रेस के लिए यह मशहूर था कि उसे लड़ने के लिए विपक्ष की जरूरत नहीं, खुद ही एक-दूसरे को निपटाने के लिए समर्थ हैं। वही हाल भाजपा का है। भाजपा के साथ एक मुश्किल और है। वह यह कि संघ राजनीति से निरपेक्ष रहने का ढोंग करते हुए राजनीतिक फैसले थोपता है जबकि कांग्रेस में ऐसा खुल्लम खुल्ला होता है। दस जनपथ ने कहा कि यह आम नहीं इमली है तो ब्लाक इकाइयों तक आम नहीं इमली का संदेश पहुंच जाता है और कार्यकर्ता सोनिया जी के निर्देश पर आम के नीचे बैठकर सर्वसम्मति से इमली का प्रस्ताव पारित कर आलाकमान के अंतिम निर्णय के लिए भेज देते हैं। सो, अगली सरकार चाहे भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए की बने या फिर कांग्रेस की अगुआई में यूपीए-तृतीय का खेल शुरू हो, राजकाज, तौर तरीकों में कोई बुनियादी फर्क नहीं आने वाला।
तीसरा विकल्प फिलहाल गल्प
 यूपीए-टू के घपले घोटालों से उकताए लोगों ने जैसे ही एनडीए की ओर आशा भरी नजरों से देखना शुरू किया वैसे ही प्रधानमंत्री को लेकर यहां भी घमासान शुरू हो गया। एक लोकप्रिय कहावत है - सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठ। बैठे ठाले अपनी फजीहत कैसे कराई जाती है यह कोई भाजपा से सीखे। पिछली मर्तबे लालकृष्ण आडवाणी को पीएम इन वेटिंग घोषित करके अपने बुजुर्ग नेता की जगहंसाई करवाई थी, इस बार नरेन्द्र मोदी खुद ही पीएम इन वेटिंग बनकर आगे आ गए। एनडीए के प्रमुख घटक जदयू के नीतिश कुमार ने लंगड़ी मार दी और राष्टÑपति चुनाव में भाजपा से अलग रास्ते पर चल पड़े। ऐसे में तीसरे विकल्प की ओर नजरें जमती हैं। यूपी को फतह करने के साथ ही मुलायम सिंह को उनके अनुयायियों ने तीसरे विकल्प के रहनुमा की तरह पेश किया पर यह रहनुमा जिस तरह दिल्ली दरबार में जाकर बिछ गए उससे उम्मीदों पर तुषारापात हो गया। दक्षिण के क्षेत्रीय दलों में देवगौड़ा के पास दम नहीं बचा। चन्द्रबाबू हैदराबाद में सिमटकर रह गए। नवीन पटनायक अपनों के विद्रोह से जूझ रहे हैं। महारानी जयललिता, करुणानिधि से   अपने पुराने हिसाब चुकता करने में लगी हैं। मायावती को कभी तीसरा विकल्प रास ही नहीं आया और देवी ममता बनर्जी मछली की भांति चंचला हैं। कब किधर गोता लगा दें कोई अनुमान नहीं लग सकता। वैसे तीसरे विकल्प का सपना बिना लेफ्ट के पूरा नहीं हो सकता। राष्टÑपति चुनाव में भाकपा और फारवर्ड ब्लाक, माकपा से अलग सुर साध रहे हैं। इसलिए तीसरे विकल्प की चर्चा करना भी फिलहाल गल्प की ही तरह है। एक उम्मीद यह बन सकती है कि शरद पवार यूपीए से निकलें और नीतीश एनडीए से, जैसा कि रह-रहकर संकेत देते हैं तो तीसरे विकल्प का कुछ आकार उभर सकता है। पर यहां भी प्रधानमंत्री कौन...? को लेकर गोटी फंसेगी, क्योंकि मुलायम को लेना अनिवार्य होगा, ऐसे में इन तीनों महत्वाकांक्षियों के बीच तय हो पाना मुश्किल होगा कि कौन किसका नेता है।
लेफ्ट की लगाम वाली यूपीए
राष्टÑपति के चुनाव को लेकर यूपीए की स्थिति अप्रत्याशित रूप से सुधरी है। शेष कार्यकाल के यद्यपि अभी दो साल बाकी हैं लेकिन अब 24 अकबर रोड की बुझी हुई आंखों के दहाने से हल्की चमक दिखने लगी है। स्थितियां ऐसी ही बनी रहें तो अगले चुनाव में थोड़े नुकसान के साथ यूपीए आ सकती है। ममता बनर्जी से जिस तरह तेजी से मोह भंग हुआ है उसके विकल्प में कांग्रेस का एक वर्ग लेफ्ट की ओर निहार रहा है। भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को रोकने के लिए लेफ्ट न चाहते हुए भी यूपीए के साथ आ सकता है।  लेफ्ट के लगाम वाली यूपीए-प्रथम की सरकार ने बेहतरीन नतीजे दिए हैं, सो ऐसी स्थिति फिर से बन जाए तो आश्चर्य नहीं। वैसे गठबंधन की अंधी सुरंगों में बैठे देश को फिलहाल कोई दूसरा छोर नजर नहीं आ रहा है।
                       - लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं।
                     सम्पर्क - 09425813208.

लोकतंत्र की बिदाई का षड़यंत्र

 चिन्तामणि मिश्र
   दि ल्ली में एक बड़े सरकारी अस्पताल को निजी हाथों में सांैपने का फैसला हो चुका है। इन्दौर के भी सौ साल पुराने मेडिकल कॉलेज और इससे जुड़े अस्पताल को निजी कम्पनी को देने की कागजी कार्यवाही अंतिम दौर में हैं। इस तरह के कारनामें पिछले दो साल से बिना हल्ला-गुल्ला मचाए किए जा रहे हैं। सरकारी संस्थानों से जो सीधे आम आदमी के कल्याण से जुड़े हैं उनको सरकार बाजार के हवाले कर के अपनी संवैधानिक जिम्मेवारी से पलायन करने में लगी है। भूमंडलीकरण के विष फल अब पकने लगे हैंं। इन फलों का स्वाद चखना ही नहीं बल्कि देश को इन्हें निगलना भी पड़ेगा क्योंकि हम सब के भाग्यविधाताओं की बिरादरी उदारीकरण के प्रेत की श्मशान पूजा के लिए जन कल्याण की बलि चढ़ाने का संकल्प ले चुकी है। देश के सत्तर प्रतिशत हाई-वे निजी हाथों में सौंपे जा चुके हैं। इनका इस्तेमाल करने पर अच्छी-खासी रकम टौल टैक्स के रूप में चुकानी पड़ती है। बिजली उत्पादन और वितरण का भी काम सरकारों ने कम्पनियों को सांैप दिया है। इन कम्पनियों ने अपने खर्च और आमदनी के हिसाब-किताब को सात तालों में ऐसा बन्द कर रखा है कि किसी को झलक भी नहीं दिखती। किन्तु कम्पनियां घाटा-हाय-घाटा की अखंड कव्वाली गाते-गाते साल में कई बार बिजली का रेट बढ़ाती रहती हैं। जनता से हकीकत इतनी चतुराई से छिपाई जाती है कि घाटा और मुनाफा के सच का पता नहीं चल पाता। बिजली कम्पनियों की बैलेन्स शीट का कभी प्रकाशन नहीं होता । रेल्वे ने अपने तीस प्रतिशत काम निजी हाथों में सौप दिया है और इसमें बढ़ोतरी चल रही है। शिक्षा निजी हाथों में सांैपी जा चुकी है।
       सरकार वे काम जो उसे करने चाहिए उनको एनजीओ को देकर मगन होकर बैठ गई है। उदारीकरण के अश्वमेघ का  घोड़ा देश में मदान्ध दौड़-दौड़ कर आम आदमी को रौंद रहा है। लेकिन कोई लव-कुश अब इसे पकड़ने के लिए बाल्मीक के आश्रम से बाहर नहीं निकल रहा है। कहते हैं कि कलयुग है। अब त्रेता युग के न बाल्मीक हैं, न उनका आश्रम है और न अब लव-कुश हैं। आज का कलयुगी बाल्मीक अयोध्या के सिंहासन की चरण-पीठिका बना हुआ सत्ता के पग पखार रहा है।
      लोकतंत्र का अर्थ ही है- लोक कल्याण। अब हालात बदल दिए गए हैं। लोकतंत्र का झंडा उठाए जन कल्याणकारी राज्य होने का ढोल तो पीटे जा रहे हैं, किन्तु जमीनी हालात कुछ और हैं। आम आदमी के दैनिक जीवन में लोकतंत्र का लोक कल्याण किस तरह और कितना बचा है यह जानने और समझने के लिए शीर्षासन करने की जरूरत नहीं है। दैनिक उपभोग की अनिवार्य वस्तुओं को उचित कीमत पर सुलभ कराने के दायित्व से सरकारें छुटकारा लेने में जुटी हैं। गरीबों के लिए सब्सिडी देने और हजारों करोड़ रुपए का राजस्व घाटे का रोना हर सरकार पूरी बेशर्मी से रोया करती है, किन्तु गरीबों की सब्सिडी साधन सम्पन्न व्हीआईपी भकोस रहे हैं। आम आदमी जो सरकार की नजर में चिरकुट है, उसे रसोई गैस का एक सिलेंडर पाने के लिए गैस एजेन्सी की आरती उतारनी पड़ती है और भोग-प्रसाद चढ़ाना पड़ता है, किन्तु अति-विशिष्ट लोगों को एक संदेशा भेजने पर उनके निवास में गैस सिलेंडर पहुंचा दिए जातें हैं। आम आदमी एक गैस सिलेंडर पाने के लिए कई दिन तक ऐजेन्सी में हाथ जोड़े घिघिआता भटकने के लिए मजबूर बना दिया गया है। लोक कल्याण और आम आदमी की फिकर करने का दावा करने वाली हमारे देश की सरकारों को आम आदमी का कितना ध्यान है यह अकेले नमक के उदाहरण से समझ में आ जाता है। बाजार में ब्रांडेड नमक आयोडिन का लेबल लगा कर बहुराष्टÑीय कम्पनियां बारह से पन्द्ररह रुपए किलो के दाम पर बेच रही है। कितनी बड़ी नौटंकी चल रही है कि देश के करोड़ों लोगों का बिना क्लीनिकल परीक्षण कराए सरकार ने कम्पनियों के कहने पर सभी को आयोडिन की कमी होने का तर्क मान कर कम्पनियों को बेतहासा मुनाफा बटोरने की खुली छूट दे दी है। यही वह नमक था जिसके लिए गांधी ने दांडी यात्रा का सत्याग्रह किया और लाखों लोग जेल गए। नमक देश की आजादी के आंदोलन का पर्याय बन गया था और अब यही नमक हमारे लोकतंत्र को फिर कम्पनियों के हाथों गुलाम बनाने का माध्यम बना दिया गया हैं। देशी-विदेशी बहुराष्टÑीय कम्पनियों को उनके दरवाजे के सामने  हमारे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री हल्दी-चावल लेकर  यहां पधार कर पूंजी-निवेश करने का निमत्रंण देने में जूटे हैं। इन कम्पनियों को जमीन,जल,बिजली,सड़क,रेल और टैक्सों में  भारी छूट तथा लगभग मुफ्त में उपलब्ध कराने के वायदों की झड़ी लगाते जाते हैं। लगता है कि हमारे लोकतंत्र के नए राजाओं,नबाबों,सुल्तानों ने तय कर लिया है कि वे सन 1857 के पहले के कम्पनी राज को वापस लाकर ही रहेगें। हमारे भाग्यविधाता इस हकीकत को स्वीकार करने में लजाते हैं कि उदारीकरण की कहानी अब समाप्ति बिन्दु पर पहुंच चुकी है। इसका नफा नुकसान पूरी दुनिया के सामने है।
         आंख बंद कर उदारीकरण के खुर-पूजन का नतीजा देश को यह मिला कि दो तरह का देश विभाजन हो गया। इंडिया उन बड़े उद्योगपतियों, बड़े व्यापारियों और दलालों का है जो शेयर बाजार उठाते गिराते रहते हैं तथा एक   ही दिन में अरबों रुपए का बारा-न्यारा कर लेते हैं। इस टोले में बड़े भ्रष्टाचारी,राज नेता,दागी बड़े अफसर शामिल हैं। दूसरा खालिस भारत है जिसमें वे करोड़ों लोग हैं जो अपनी गरीबी शेयर बाजार से नहीं मुहल्ले-गांव के बाजार से नापते हैं, जहां रोज दाम बढ़ते हैं। मुक्त बाजार का दर्शन ऐसा ही है कि सरकार बाजार को नियंत्रित नही कर सकती ,बल्कि बाजार सरकार पर नियत्रंण रखता है। बाजार उसी की सुध लेता है जिसके पास पैसा है। बाजार को समतावादी समझना भूल है। जब सरकार ही बे-लगाम बाजार की पक्षधर हो तो लोक-कल्याणकारी लोकतंत्र की उम्मीद किस तरह की जा सकती है। इस पांच साल या इससे भी कम अन्तराल में जन-प्रतिनिधि चुनने और सभी को वोट देने के अधिकार से लोकतंत्र की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं हो जाती। बैंकों के लोन और ब्याज तंत्र के बूते फली-फूली बिना जड़ की मनमोहनी अर्थ-व्यवस्था देश में लोकतंत्र को निगल रही है।
                                      - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                         - सम्पर्क सूत्र - 09425174450.


राजनीतिक शून्यता का लोकतंत्र

राजनीतिक शून्यता का लोकतंत्र

Monday, June 4, 2012

आपन जात कबीर की

भी-कभी सोचता हूं कि आज के दौर में कबीर होते तो क्या होता? कबीर जीवन भर सत्ताओं की आंखों में भटकटैया की तरह गड़ते रहे। राजसत्ता के भी, धर्मसत्ता के भी। एक ओर इब्राहीम लोदी की सल्तनत को फटकारते रहे, दूसरी ओर काशी के पन्डों और पोंगापंथियों की खोज खबर लेते रहे। इब्राहीम लोदी की सल्तनत की क्रूरता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लखनऊ के एक सूफी विद्वान को खौलते कड़ाह में इसलिए डलवा दिया क्योंकि उसने इस्लाम की कट्टरता और दकियानूसीपन पर खुलेआम टिप्पणी कर दी थी। इधर काशी की गलियों में कबीरदास मुल्ला और पण्डों को फटकराते हुए अपनी मंडली के साथ गाते रहे कि ‘कांकर-पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय। ता चढ़ि मुल्ला बाग दे बहिरा हुआ खुदाय’। या फिर ‘पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार। ताते या चाकी भली पीस खाय संसार’। यह कबीर का आत्मबल और ‘लोक’ के बीच उनकी मास अपील का चमत्कार था कि दिल्ली के क्रूर सुल्तान इब्राहीम लोदी की हिम्मत नहीं हुई कि कबीर का बाल भी बांका कर सके। न ही बनारस की धर्मसत्ता में इतना साहस था कि वे कबीर को काशी से निष्कासित कर दें। बर्बर और दमनकारी कहे जाने वाले मध्ययुग में भी इतनी सहिष्णुता शेष बची थी कि खरी-खरी कहने वाले कबीर और उनकी मंडली न सिर्फ जिन्दा व सही सलामत बची रही अपितु उनके पंथ का इतना विस्तार हुआ कि देश के कई राजे रजवाड़े उनके चेले हो गए। अपने रीवा राज्य के महाराज वीर सिंह जूदेव कबीर के बड़े अनुयायी थे। तब बांधवगद्दी का विस्तार रतनपुर (बिलासपुर) तक था। कबीर पंथ का प्रभाव आज भी छत्तीसगढ़ और पुराने रीवा राज्य में दिखता है।
बहरहाल आज हम जिस दौर में जी रहे हैं, उस दौर में कबीर का गुजर-बसर कैसे होता कल्पना करिए। देवबंद उनका सर कलम करने के लिए अलग फतवा जारी करता और विहिप-बजरंग दल त्रिशूल-बाना-भाला लिए ढूंढते फिरते। महान चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को अंतकाल में उनके मादर-ए-वतन में दो गज जमीन भी नसीब नहीं हुई कि उनके पार्थिव शरीर को सुपुर्द-ए-खाक किया जा सके। कट्टरपंथियों ने उस हुसैन को देश निकाला दिया था, जिसने डॉक्टर राममनोहर लोहिया के कहने पर हैदराबाद में ब्रदीविशाल पित्ती के घर में 12 वर्ष एकांत बिताकर रामायण का सजीव चित्रांकन किया था। हुसैन की वो कृतियां आज भारतीय कला संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। शैतान की आयतें (सैटनिक-वर्सेस) लिखने वाले सलमान रुश्दी के आने की खबर मात्र से हलचल मच जाती है। सरकारें कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक देती हैं। समकालीन समाज की विद्रूपताओं, औरतों के शोषण और दमन को उपन्यासों में उद्घाटित करने वाली तस्लीमा नसरीन को देश निकाला (बांगलादेश) मिलता है। और वह दृश्य आज भी ताजा हो जाता है जब हैदराबाद के एक साहित्यिक समारोह में इस महिला के साथ इस्लाम के धरम-धुरंधरों ने अपनी मर्दानगी दिखाई। ‘साहबानों’ के हक के खिलाफ हमारी राजसत्ता संविधान में संशोधन कर देती। और इस्लामिक कट्टरपंथियों को नसीहत देने का माद्दा रखने वाले डॉ. राही मासूम रजा जब महाभारत ‘सीरियल’ के डायलाग्स लिख रहे होते हैं तब हिन्दू कट्टरपंथी उन्हें धमकाते हैं कि एक मुसलमान हमारे धर्मग्रंथ पर अपनी कलम क्यों चल रहा है।देश में सहिष्णुता गर्त में मिल गई। पाखण्ड के खिलाफ अपना  घर जारते हुए कोई मसाल थामने को तैयार नहीं। कबीर ने कहा था ‘जो घर जारे आपना चले हमारे साथ’ पाखण्ड के खिलाफ मोर्चा लेना आसान नहीं। आज देश में राजसत्ता के समानांतर धर्मसत्ता है। कबीर लोकमंगल-लोकचेतना के लिए अपना घर जारने को तत्पर थे, आज के धरम-धुरंधर अपना घर भर रहे हैं। महलनुमा आश्रमों में अरबों की दौलत इकट्ठी है। नित्यानंद-निर्मलबाबा जैसे स्वामियों के महलों के तलघर में नवाबों की तरह हरम हैं। यहां कीर्तन के साथ व्यभिचार होते हैं। हाल ही में एक बाबाजी मर गए। नाम था जय गुरुदेव। खुद को परमात्मा घोषित कर चुके बाबाजी चेलों को उपदेश देते थे कि वे कपड़ों की बजाय टाट के वस्त्र पहनें। कम खाएं, गम खाएं, खुश रहें व धरम के लिए कमाई का हिस्सा चढोत्री चढ़ाएं। अखबारों में पढ़ने से मालूम हुआ कि टाट वाले बाबा के बड़े ठाट थे। 12 हजार करोड़ की मिल्कियत निकली। बीएमडब्लू, रोल्सरायस, मर्सडीज जैसी महंगी गाड़ियों का बेड़ा था उनके-पास। सोने-चांदी के सिंहासन, पलंग, बर्तन-बाथरूम। धर्मभीरू जनता को दुहना कितना आसान है। एक निर्मल बाबा हैं कमाई का दसबंद मांगते हैं, फिर कृपा करते हैं। कृपा खरीदने वालों की संख्या इतनी हुई कि निर्मल बाबा का टर्न ओवर एक साल में ही सैकड़ों करोड़ का हो गया।रामदेव की मंडली और कई समाजसेवी नेता विदेशों में जमा कालेधन को वापस लेने की आवाज उठाते हैं। आज तक किसी कोने से आवाज नहीं उठी कि धरम के इन पाखंडियों की अरबों-खरबों की काली कमाई को देशहित में जब्त किया जाए। विदेशों में कालेधन की बात तो महज-जुबानी-जमा खर्च है, पर इन पाखंडियों की बेसुमार दौलत इनके ऐशोआराम तो आखों से दिखता है। बाबाओं के आश्रमों की जमापूंजी को जब्त करने की शुरुआत बाबा रामदेव से ही की जानी चाहिए। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र की रचना रामदेव की दुकान सजाने के लिए नहीं की थी। लोककल्याण के लिए की   थी। ये बाबा-स्वामी-महंत, आचार्य लोग अपने प्रवचनों में विदेशी कालाधन की बात इसलिए करते हैं ताकि उनके कालेधन की ओर कानून की नजर न जाए। यदि आज कबीर होते तो हाथ में जलती हुई लुकाठी लेकर देश की जनता-जनार्दन का आह्वान करते, उनका अगुआ बनते और देश को कुतर-कुतर कर खा रहे नेताओं व भोले लोगों की भावनाओं से खेलने व कृपा बेचने वाले पाखंडी बाबाओं के महलों व आश्रमों पर धावा बोल देते। राजसत्ता को उनकी दौलत जब्त कर आम आदमी की बरक्कत में खर्च करने के लिए मजबूर करते। काश.. आज के दौर में वाकई कोई कबीर बनकर सामने आता।                       - लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं।                     सम्पर्क - 09425813208.

Friday, June 1, 2012

शोषण के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं विन्ध्य के किसान

बिजली का कारखाना लगाने जा रही कम्पनी मोजरवेयर के खिलाफ किसानों के गुस्से को प्रशासन और फैक्ट्री प्रबंधन ने भले ही लाठी- गोली का भय दिखाकर दबा दिया हो, पर अनूपपुर जैतहरी से शोषण के खिलाफ जो आग सुलगी है वक्त रहते सचेत नहीं हुए तो उसे लपट का रूप लेते देर नहीं लगेगी और ऐसे में कोई जैतहरी नहीं समूचा विंध्य झुलसेगा। प्रदेश सरकार ने पूंजीनिवेश के लिए जिस तरह कारपोरेट के लिए कारपेट बिछाए और प्रशासन के लठैतों को उनके हितों की रक्षा के लिए तैनात कर रखा है उसका प्रतिरोध होना तय है। आदिवासी बहुल अनूपपुर जैतहरी में बिजली कारखाने के लिए किसानों की जमीनें औने-पौने दाम पर अधिग्रहीत की गई गुस्से की जड़ रही है। यह प्रक्रिया हर उस क्षेत्र में है जहां बिजली व सीमेण्ट के कारखाने खुलने जा रहे हैं। आज जैतहरी के किसान गुस्से में हैं, तो कल वेलेस्पन के खिलाफ बहरी के ग्रामीण उठ खड़े होंगे। मैहर के आसपास के सैकड़ों गांवो की जमीनों पर रिलायंस से लेकर कई जाइंट कम्पनियों की नजर है। सतना के इर्द गिर्द भी खुलने जा रहे कारखानों की यही स्थिति है। रीवा के डभौरा क्षेत्र में वीडियोकोन और अभिजीत इण्डस्ट्रीज के थर्मल प्लांट खुलने जा रहे हैं यहां की कहानी भी जैतहरी के मोजरवेयर से जुदा नहीं है। दरअसल हर कम्पनियां सरकार की भू-अधिग्रहण व विस्थापन नीति की अपने तई धज्जियां उड़ा रही हैं। नौकरी, बेहतर विस्थापन और कारपोरेट सोशल रिस्पान्सबिल्टी से बचने के लिए ये कम्पनियां अपने दलालों के माध्यम से किसी दूसरे काम के नाम पर सस्ते में जमीनें खरीद रही हैं और उसे अपने नाम कर रही हैं। निश्चित ही इस छल से बचने वाले अरबों रुपयों में नेता नौकरशाहों का भी हिस्सा होगा नहीं तो किसानों के शोषण की ऐसी अनदेखी हरगिज नहीं की जाती। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने रूलिंग दी है कि निजी उद्योगों के लिए सरकार भू-अधिग्रहण से परहेज बरते। इस रूलिंग पर जब तक अमल होगा तब तक किसानों की लाखों एकड़ जमीनें ठगी जा चुकी होंगी। भू-अधिग्रहण व विस्थापन पर केन्द्र सरकार में कानून बनने की प्रक्रिया लगातार लटकती जा रही है। अपने प्रदेश की सरकार भी इस कानून को लेकर ज्यादा संजीदा नहीं दिखती, लिहाजा, पंूजीपतियों- किसानों व ग्रामीणों के बीच संघर्ष की बुनियाद स्वमेव पक्की होती जा रही है। जैतहरी- अनूपपुर के किसानों के लिए लू लपट के बीच उत्तर भारत के किसानों ने जिस तरह एकजुटता दिखाई, प्रशासन के डंडे व गोलियों के भय से भले ही उसका प्रकटीकरण न हो पाया हो लेकिन अपने काश्त की जमीनों से हाथ धोते जा रहे विंध्य के किसानों में एक उम्मीद जागी है कि राजनीतिक पार्टियों के इतर भी उनके लिए लड़ने वाले लोग और संगठन है। स्टार समाचार ने कई दफे इस मुद्दे को संजीदगी से उठाते हुए कहा है कि जब तक केन्द्र व राज्य में भू-अधिग्रहण व विस्थापन का कानून अमली जामा नहीं पहनता तब तक हर उद्योगों के लिए भू-अधिग्रहण और विस्थापन का हरियाणा मॉडल लागू किया जाना चाहिए। हरियाणा मॉडल काफी हद तक किसानों की व्यथा, उनकी बेहतरी को ध्यान में रखकर हुड्डा सरकार ने तैयार किया है और इस मॉडल के लागू होने के बाद वहां कभी संघर्ष की स्थिति नहीं बनी। आशा है कि औद्योगिकीकरण के खिलाफ कई और सिंगुर बनने से पहले हमारी सरकार जरूर चेतेगी।