Wednesday, June 27, 2012

लोकतंत्र की बिदाई का षड़यंत्र

 चिन्तामणि मिश्र
   दि ल्ली में एक बड़े सरकारी अस्पताल को निजी हाथों में सांैपने का फैसला हो चुका है। इन्दौर के भी सौ साल पुराने मेडिकल कॉलेज और इससे जुड़े अस्पताल को निजी कम्पनी को देने की कागजी कार्यवाही अंतिम दौर में हैं। इस तरह के कारनामें पिछले दो साल से बिना हल्ला-गुल्ला मचाए किए जा रहे हैं। सरकारी संस्थानों से जो सीधे आम आदमी के कल्याण से जुड़े हैं उनको सरकार बाजार के हवाले कर के अपनी संवैधानिक जिम्मेवारी से पलायन करने में लगी है। भूमंडलीकरण के विष फल अब पकने लगे हैंं। इन फलों का स्वाद चखना ही नहीं बल्कि देश को इन्हें निगलना भी पड़ेगा क्योंकि हम सब के भाग्यविधाताओं की बिरादरी उदारीकरण के प्रेत की श्मशान पूजा के लिए जन कल्याण की बलि चढ़ाने का संकल्प ले चुकी है। देश के सत्तर प्रतिशत हाई-वे निजी हाथों में सौंपे जा चुके हैं। इनका इस्तेमाल करने पर अच्छी-खासी रकम टौल टैक्स के रूप में चुकानी पड़ती है। बिजली उत्पादन और वितरण का भी काम सरकारों ने कम्पनियों को सांैप दिया है। इन कम्पनियों ने अपने खर्च और आमदनी के हिसाब-किताब को सात तालों में ऐसा बन्द कर रखा है कि किसी को झलक भी नहीं दिखती। किन्तु कम्पनियां घाटा-हाय-घाटा की अखंड कव्वाली गाते-गाते साल में कई बार बिजली का रेट बढ़ाती रहती हैं। जनता से हकीकत इतनी चतुराई से छिपाई जाती है कि घाटा और मुनाफा के सच का पता नहीं चल पाता। बिजली कम्पनियों की बैलेन्स शीट का कभी प्रकाशन नहीं होता । रेल्वे ने अपने तीस प्रतिशत काम निजी हाथों में सौप दिया है और इसमें बढ़ोतरी चल रही है। शिक्षा निजी हाथों में सांैपी जा चुकी है।
       सरकार वे काम जो उसे करने चाहिए उनको एनजीओ को देकर मगन होकर बैठ गई है। उदारीकरण के अश्वमेघ का  घोड़ा देश में मदान्ध दौड़-दौड़ कर आम आदमी को रौंद रहा है। लेकिन कोई लव-कुश अब इसे पकड़ने के लिए बाल्मीक के आश्रम से बाहर नहीं निकल रहा है। कहते हैं कि कलयुग है। अब त्रेता युग के न बाल्मीक हैं, न उनका आश्रम है और न अब लव-कुश हैं। आज का कलयुगी बाल्मीक अयोध्या के सिंहासन की चरण-पीठिका बना हुआ सत्ता के पग पखार रहा है।
      लोकतंत्र का अर्थ ही है- लोक कल्याण। अब हालात बदल दिए गए हैं। लोकतंत्र का झंडा उठाए जन कल्याणकारी राज्य होने का ढोल तो पीटे जा रहे हैं, किन्तु जमीनी हालात कुछ और हैं। आम आदमी के दैनिक जीवन में लोकतंत्र का लोक कल्याण किस तरह और कितना बचा है यह जानने और समझने के लिए शीर्षासन करने की जरूरत नहीं है। दैनिक उपभोग की अनिवार्य वस्तुओं को उचित कीमत पर सुलभ कराने के दायित्व से सरकारें छुटकारा लेने में जुटी हैं। गरीबों के लिए सब्सिडी देने और हजारों करोड़ रुपए का राजस्व घाटे का रोना हर सरकार पूरी बेशर्मी से रोया करती है, किन्तु गरीबों की सब्सिडी साधन सम्पन्न व्हीआईपी भकोस रहे हैं। आम आदमी जो सरकार की नजर में चिरकुट है, उसे रसोई गैस का एक सिलेंडर पाने के लिए गैस एजेन्सी की आरती उतारनी पड़ती है और भोग-प्रसाद चढ़ाना पड़ता है, किन्तु अति-विशिष्ट लोगों को एक संदेशा भेजने पर उनके निवास में गैस सिलेंडर पहुंचा दिए जातें हैं। आम आदमी एक गैस सिलेंडर पाने के लिए कई दिन तक ऐजेन्सी में हाथ जोड़े घिघिआता भटकने के लिए मजबूर बना दिया गया है। लोक कल्याण और आम आदमी की फिकर करने का दावा करने वाली हमारे देश की सरकारों को आम आदमी का कितना ध्यान है यह अकेले नमक के उदाहरण से समझ में आ जाता है। बाजार में ब्रांडेड नमक आयोडिन का लेबल लगा कर बहुराष्टÑीय कम्पनियां बारह से पन्द्ररह रुपए किलो के दाम पर बेच रही है। कितनी बड़ी नौटंकी चल रही है कि देश के करोड़ों लोगों का बिना क्लीनिकल परीक्षण कराए सरकार ने कम्पनियों के कहने पर सभी को आयोडिन की कमी होने का तर्क मान कर कम्पनियों को बेतहासा मुनाफा बटोरने की खुली छूट दे दी है। यही वह नमक था जिसके लिए गांधी ने दांडी यात्रा का सत्याग्रह किया और लाखों लोग जेल गए। नमक देश की आजादी के आंदोलन का पर्याय बन गया था और अब यही नमक हमारे लोकतंत्र को फिर कम्पनियों के हाथों गुलाम बनाने का माध्यम बना दिया गया हैं। देशी-विदेशी बहुराष्टÑीय कम्पनियों को उनके दरवाजे के सामने  हमारे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री हल्दी-चावल लेकर  यहां पधार कर पूंजी-निवेश करने का निमत्रंण देने में जूटे हैं। इन कम्पनियों को जमीन,जल,बिजली,सड़क,रेल और टैक्सों में  भारी छूट तथा लगभग मुफ्त में उपलब्ध कराने के वायदों की झड़ी लगाते जाते हैं। लगता है कि हमारे लोकतंत्र के नए राजाओं,नबाबों,सुल्तानों ने तय कर लिया है कि वे सन 1857 के पहले के कम्पनी राज को वापस लाकर ही रहेगें। हमारे भाग्यविधाता इस हकीकत को स्वीकार करने में लजाते हैं कि उदारीकरण की कहानी अब समाप्ति बिन्दु पर पहुंच चुकी है। इसका नफा नुकसान पूरी दुनिया के सामने है।
         आंख बंद कर उदारीकरण के खुर-पूजन का नतीजा देश को यह मिला कि दो तरह का देश विभाजन हो गया। इंडिया उन बड़े उद्योगपतियों, बड़े व्यापारियों और दलालों का है जो शेयर बाजार उठाते गिराते रहते हैं तथा एक   ही दिन में अरबों रुपए का बारा-न्यारा कर लेते हैं। इस टोले में बड़े भ्रष्टाचारी,राज नेता,दागी बड़े अफसर शामिल हैं। दूसरा खालिस भारत है जिसमें वे करोड़ों लोग हैं जो अपनी गरीबी शेयर बाजार से नहीं मुहल्ले-गांव के बाजार से नापते हैं, जहां रोज दाम बढ़ते हैं। मुक्त बाजार का दर्शन ऐसा ही है कि सरकार बाजार को नियंत्रित नही कर सकती ,बल्कि बाजार सरकार पर नियत्रंण रखता है। बाजार उसी की सुध लेता है जिसके पास पैसा है। बाजार को समतावादी समझना भूल है। जब सरकार ही बे-लगाम बाजार की पक्षधर हो तो लोक-कल्याणकारी लोकतंत्र की उम्मीद किस तरह की जा सकती है। इस पांच साल या इससे भी कम अन्तराल में जन-प्रतिनिधि चुनने और सभी को वोट देने के अधिकार से लोकतंत्र की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं हो जाती। बैंकों के लोन और ब्याज तंत्र के बूते फली-फूली बिना जड़ की मनमोहनी अर्थ-व्यवस्था देश में लोकतंत्र को निगल रही है।
                                      - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                         - सम्पर्क सूत्र - 09425174450.


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