चन्द्रिका प्रसाद चन्द
हम अपनी पहचान श्रुतियों और स्मृतियों में ढूृंढ़ते हैं। इसे ही अपने विकास का इतिहास मानते हैं। जब लिपि नहीं थी तब भी पीढ़ियां स्मृतियों के सहारे श्रुतियों को सहेजती थीं, जिस समाज की स्मृति जितनी ही संवेदनशील और दायित्वपूर्ण होगी, वह उतना ही प्रभावकारी होगा। अपने बहसों और तर्कों से हम अक्सर श्रुति और स्मृति के बल पर ही प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं। यही हमारा अतीत है। सच है कि अतीत के सहारे हम वर्तमान का सामना नहीं कर सकते। लेकिन सदियों के संघर्ष की स्थिति हमें स्थिर रहकर लड़ने की प्रेरणा देती रहती है। यह क्या कम है कि वर्तमान से लड़ते हुए हमारे पांव अतीत के मजबूत आधार स्तंभों पर ही टिके होते हैं। जिन समाजों का लम्बा अतीत नहीं है, उनके विचार और व्यवहार सदैव अनिश्चित रहते हैं। भारत और उसका जन-समाज अतीतजीवी रहा है इसी कारण परम्परा और आधुनिकता के बीच सामंजस्य बनाने में उसे हमेशा ही परेशानी होती रही है। स्मरण मात्र से सिद्धि प्राप्त होने की संकल्पना गोस्वामीजी ने भी की है-‘जेंहि सुमिरत, सिधि होय’। स्मृतियों का त्रासद अनुभव भी सुखद होता है। एक व्यक्ति की स्मृति दूसरे को भी प्रवृत्त करती है और यादों का अनंत सिलसिला जीवन को गतिशील बनाये रखता है। कितनी ही परंपराएं समय की आंधी में उड़ गई तो कितनी ही नई आकर परम्परा बन गई।
कुछ दिन पहले एक पारिवारिक विवाह कार्यक्रम में भाग लेने गांव गया था। बातचीत के दौरान पता चला कि उनका ‘भतहा-भायप’ इस साल टूट गया। याद आया कि गांव में दो तरह के भायप होते हैं एक ‘भतहा’ दूसरा सोहरिहा’। भात से जुड़ना ही असली भायप होता है जिसमें पूरे परिवार को कच्चा खाना खिलाया जाता था। यह खाना जोड़ता था भावना से, आत्मीयता से। रक्त-सम्बन्धों में ही भात खाना हुआ करता था। भात के साथ कढ़ी-फुलौरी होती थी। नमक डालने को महत्वपूर्ण माना जाता था। नमक से जुड़ना ‘भतहा’ खानदान की आवश्यक शर्त थी। भात जुड़ने, भात टूटने के अनेकार्थ होते थे। भात-दाल, भाजी-भात, कोदई-भाजी के अनेक सामाजिक निहितार्थ होते थे। बड़े गर्व से कहा जाता था कि मेरा उनका भतहा-सम्बन्ध है। आज सबसे सबके भतहा सम्बन्ध हैं, लेकिन उनमें सम्बन्धों की पारस्परिक ऊष्मा नहीं है। डालडा घी से परेशान खाने वाले हर कहीं भात खाने की लालसा रखते हैं, लेकिन क्या वे सच्चे अर्थों में उस भात से जुड़ पाते हैं जिसके लिए भात संज्ञा बन गया। यह कच्चा खाना था, जो नितांत पारिवारिक था। कढ़ी भात से जुड़ना अतीत का मुश्किल व्यवहार था, आज बिना अर्थ समझे अतिसामान्य। पक्का खाना में पूड़ी-चीनी-सोहारी-सब्जी, खीर-सिवैंया आती थीं। सब्जी में नमक पहले से नहीं डाला जाता था कि पता नहीं मेरा डाला हुआ नमक वे खायें न खाएं? नमक डालने तक उसे कोई पका सकता था। इसीलिए खाने की पांति में नमक अलग से दिया जाता था। दुग्ध पक्व और घृत पक्व पक्का खाना था, जो सार्वजनिक था। घी के सोहारी की गंध पूरे परिवेश को महकाती थी, अब तो शुद्ध घी से भी सुगंध गायब है। समिधा को अर्पित साकल्प के घी की गंध से आसमान भी महकता था, अब न साकल्प में वह शुद्धता रही न घी में वह स्वाद रहा? पहला कौर ‘तुम्यमेव समर्पये’ की विनम्रता के साथ प्रभु को अर्पित था, अपना पेट प्रसाद से भरता था। ताजा भात तो प्रभु का प्रसाद था, लेकिन बासी भात में उसका कोई हिस्सा नहीं होता था, वह सिर्फ अपना था।
गांव में शहरी संस्कृति पूरी धज से प्रवेश कर चुकी थी। बहुत दिन बाद विधिवत शास्त्र और परम्परा सम्मत विवाह-संस्कार होते देखकर लगा कि इस भागमभाग-समय में यदि कुछ समय आत्मीय संस्कारों के साथ बीत गए तो जिन्दगी ज्यादा बेमानी नहीं हुई है। अंध आधुनिकता के सम्पर्क, डीजे के कर्णकटु स्वर में परम्परा को पीठ दिखा रहे हैं। यदि हम संस्कारों से जुड़े हैं तो, उन्हें सुनने और समझने का धैर्य और समय भी हमारे पास होना चाहिए। जीवन के इतने समझौते विवाह के मंत्रों की मंगलकामना और सप्तपदी के अर्थों को भी समझना होगा। विवाह रुक-रुक कर धीरे-धीरे कदम-कदम मिलाकर चलने का संस्कार है। उसे भी हम आचार्य को जल्दी में निपटाने को कहते हैं। विवाह में हमें माटी मांगर, मंड़वा गीत जैसे कई गीत वर्षों बाद सुनने को मिले। गीत के साथ उसके भावार्थ के निहितार्थ देखे। ‘बैठे सजन जंघजोरी ह’ की गारी पालथी मार कर खाते हुए सुनने का आनंद अवर्णनीय था। अपनी परम्परा की सम्पन्नता देखी। जनक जैसे विदेहराज और कण्व ऋषि जैसे महामानवों को भी पुत्री की विदाई में बिलखते पढ़ा था, लेकिन पूरे गांव के स्त्री-पुरुषों की आंखों में भरे आंसुओं को हाथों से पोंछते बहुत दिन बाद देखा था। भारतीय समाज में कन्या चाहे किसी जाति, प्रदेश की हो। होती तो पराया धन ही है, उसे अपने घर में ताउम्र नहीं रखा जा सकता, परंतु इस पराये धन को विदा होते देखकर वह लोकगीत जीवंत हो उठा कि ‘बाप के रोय नदिया बहतहइ, मामा के रोये तलाउ/भइया के रोये हिरदय फटत हइ, बहिनी चली हइ परदेश’। शहरों के आंसू तो सूख चुके हैं। गांव में अभी आंखों में पानी है, पानी का लिहाज है। हर जाति की कन्या की विदा में, उसके आंसुओं ने अर्ध्य दिया है। विदा के बाद का सन्नाटा सब एक दूसरे को देखते मौन, ऐसी समाधि तो कबीर ने भी नहीं देखी थी।
कभी कभी लगता है कि गरीबी अच्छी थी। सब मिलजुलकर गरीबी का दुख-दर्द बांटते थे। गरीबी में सामाजिक सरोकार बढ़ जाते हैं। किसी के घर में खाना नहीं है यह जानकर पड़ोसी खुश नहीं रहता था। अपने थाली में उसको खिलाकर ही खाता था। सुख-दुख साझे के थे। परिवार और पड़ोसी मात्र शब्द नहीं थे, वे भाव की संज्ञा से जीते थे। जहां गरीबी है, अभाव है, वहां एका का भाव है। अमीरी ने मनुष्य को बांटा है। प्रतिस्पर्धा ने ईर्ष्याभाव विकसित हुआ है, इसी को हमने विकास और आधुनिकता का नाम दे रखा है। इस आधुनिकता में संवेदना और आत्मीयता खो गई है। परंपरा को अंधी लाठी से न पीटकर आधुनिकता के साथ सामंजस्य बनाना, गांव और संस्कृति को बचाने और संवारने से ही हमारी पहचान, विश्व भर में रही है, रहेगी। अन्यथा परम्पराओं के लुप्त हो जाने से हम अपनी विरासत खो देंगे। क्योंकि परंपरा मधु है उसका विकल्प शक्कर नहीं है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430.
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