चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
आहार, निद्रा और मैथुन सृष्टि का प्राकृत, न्याय और विकास क्रम है। पाषाण युग से विज्ञान युग तक कोई भी जीव इन क्रियाओं से मुक्त नहीं है। जन्म से ही उसे आहार की तलाश रही है। सभी जीवधारियों में मनुष्य सदैव से चेतनशील रहा है। उसने अपने स्वरूप और प्रारूप, आहार के लिए बदले हैं। कभी पत्थरों की मदद ली, कभी वृक्षों से। अपना पेट भरने के कितने जतन मनुष्य ने आदिकाल से किये। प्रयोगों का अंतहीन सिलसिला आज भी जारी है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, वनस्पति, धरती पर जो कु छ भी प्रकृति प्रदत्त था, सबको अपने अनुकूल बनाया, ढाला, उनका दोहन और उपभोग किया। सृष्टि का आधार मैथुन है इसे लोक और शास्त्र दोनों स्वीकारते हैं। जीवनयापन के क्रम में कभी चरवाहा बना तो कभी हलवाहा। दूध देने वाले पशुओं की प्रजाजियों का उन्मुक्त विचरण उससे देखा नहीं गया, पालतू बनाकर अपने अनुशासन उन पर लागू किये। पशुओं की संतानों को उनकी मां का पूरा दूध भी पीने नहीं दिया। दूध देने की दशा तक पहुंचते ही उन्हें मां के थन से अलग कर दिया, और सारा दूध अपनों को पिला दिया। चरी के लिए खूब जमीन थी, वह चरवाह था। हल बना लिए, धरती को जोता, जो भी उगा, सहेजा, खाया फिर बोआ। अपने सुविधा, क्षमता और दक्षता के अनुसार नियम बनाए, तरीके ईजाद किए। खेती का पहला औजार हल था, वह हलवाहा बना, हलधर कहलाया। संसार के अस्सी प्रतिशत लोग धरती से उपजे अन्न पर जीवित हैं। भारत की आबादी का पचहत्तर प्रतिशत कृषि पर निर्भर किसान आज हाशिये पर है। जिस देश का सारा साहित्य कृषकों की श्वास-प्रश्वास का उच्छवास है, उसकी लागत, कीमत वे तय कर रहे हैं। जिन्होंने खेत देखे नहीं हैं, खेती कैसे होती है, जानते नहीं ।
‘उत्तम खेती, मद्धिम बान’ लोकोक्ति जब चली होगी तब किसान प्रथम दर्जे का व्यक्ति रहा होगा। घर-परिवार, गांव-समाज की विस्तृत संस्कृति थी। ‘बढ़त देख निज गोत’ के सुख का अंदाज कल्पना में नहीं यथार्थ था। आज किसी पढ़े-लिखे को खेती करते देख-संगर्वित महसूस नहीं करते। उसे हतभाग्य मानते हैं, गंवार कहते हैं, जब अन्नदाता के साथ ऐसे विशेषण जुड़ेंगे तो खेती उत्तम कैसे कहलाएगी। खेती कैसे करनी चाहिए, यह बताने वाले पुस्तकीय विद्वान हैं जिन्होंने सिद्धान्त पढेÞ हैं व्यवहार में खेती देखी नहीं है, वे शहरी कृषि वैज्ञानिक हैं, जो गमलों में फसलें तैयार करते हैं। खाद-पानी देते हैं, वे अनावृष्टि और अतिवृष्टि की शिकार कृषि को क्या समझेंगे। जिसे अक्सर सारा देश भोगता है। किसान-समस्याओं पर चर्चा करने वाले कृषि वैज्ञानिक होते हैं, खेती से जूझने वाले किसान नहीं। प्रसव पीड़ा का बखान बांझ कर रही है। ऐसी स्थिति में जननी से कोइ नहीं पूछ रहा है कि जनन का सुख-दुख कैसा है। एक प्रोफेसर वनस्पति शास्त्र में सरसों की खेती के बारे में छात्रों को पढ़ा रहे थे। छात्र भी प्रोफेसर की तरह शहरी थे, सिर्फ एक छात्र गांव का था। प्रोफेसर साहब ने कहा कि आज तुम लोगों को पै्रक्टिकल के लिए गांव ले चलेंगे और सरसों के पौधे-फूल-फल दिखाएंगे। गांव में सभी फसलें बोई थीं, चना, मसूर, गेहूं, जौ, अलसी, सरसों। पीली-पीली सरसों छात्रों ने पढ़ी थी, प्रोफेसर साहब सरसों के खेत से गुजरते हुए अन्य फसलें भी देखकर खुश थे, लेकिन सरसों के फूल कहीं नहीं दिखे क्योंकि सरसों में फल लग चुके थे, फूलों का मौसम बीत चुका था। दुखी मन से बोले कि इस गांव में लोग सरसों की खेती नहीं करते, कल दूसरे गांव चलेंगे। गांव वाले छात्र ने कहा, सर! हम लोग तो सरसों के खेत में ही खड़े हैं। सरसों पक गया है। प्रोफेसर ने कहा- चुप रहो! सरसों में फूल नहीं आए, पीला नहीं हुआ, तुम क्या जानो? ऐसे ही कृषि विशेषज्ञ कृषि-नीति निश्चित करते हैं। किसानों की चुनी हुई सरकार में उसका प्रतिनिधि उसकी समस्याओं पर प्रश्न नहीं उठाता। जब खेती उत्तम मानी गई थी तब उसके पास पशु थे, गोबर था, गोधन था। पशु पक्षी, कीट-पतंगे भी कृषि के सहायक उपादान थे। आज ये सभी कृषि से गायब हैं। खाद बनाने वाले कॉरपोरेट क्षेत्र के हंै, प्रतिवर्ष उसकी कीमत बढ़ती है। अन्न का भाव लगभग स्थिर रहता है। अधिक उत्पादन का लालच देकर संकर बीजों की कीमतें आसमान छू रही हैं। हर वर्ष किसान को नए बीज खरीदने पड़ते हैं। सदियों से चले आते बीज खत्म हो गए। बीजों से अपनी माटी की गंध समाप्त हो गई है। नए बीजों की उम्र एक साल है जबकि परंपरा से चले आ रहे बीजों की उर्वरता पर प्रश्न चिन्ह नहीं है। अधिक उत्पादन के चक्कर में किसान से विज्ञान ने संतोष छीन लिया। वह रेस में शामिल हो सुख शांति भूल गया। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि लाखों टन सड़े अनाज समुद्र में फेंकने के आदेश जारी होते हैं, भूख से मरते कितने ही लोगों को सड़ा अनाज भी उपलब्ध नहीं हो पाता। देश के पास अनाज भण्डारण के लिए उपयुक्त व्यवस्था नहीं है। किसान आज व्यापारी हो गया है, और बाजार, अन्नदाता के अन्न का भाव तय कर रहा है। अब खेती उत्तम श्रेणी में नहीं आती, कहावत के अंतिम चरण ‘भीख’ से उसकी प्रतिदिन की आमदनी सुन ईर्ष्यालु हो रही है।
एक समय चाकरी को निकृष्ट माना गया था। निश्चित रूप से चाकर, सिर्फ मालिक का हुक्म बजाने वाला प्राणी होता था। उसकी अपनी कोई स्वायत्ता नहीं होती थी। वह वेतन भोगी था कब मालिक का आदेश हो जाए, हर क्षण कुत्ते की तरह पूंछ डुलाने के लिए तत्पर, मुंंह जोहते खड़े, सिर झुकाए व्यक्ति की हिम्मत क्या कभी मालिक से नजर मिलाने की हो सकी है। व्यवसाय और चाकरी के लिए निकले नामचीनों की विदेशों में खानातलाशी व्यापार और चाकरी की हैसियत बता देती है। फिर भी आज चाकरी, जीवनयापन की प्रथम पायदान पर है। पता नहीं क्यों? मनुष्य की भी कीमत तय है, कभी उसकी गहराई, गंभीरता, दक्षता और क्षमता का कोई मूल्य नहीं था, वे अमूल्य थे। आज डालर के बाजार ने मनुष्य को बाजार में खड़ा कर दिया है और सच तो यह है कि कोई भी आदमी जूते की नाप के बाहर नहीं है-‘जी हां! माल दिखाइए, दाम बताउंगा’ जैसी स्थिति है। ऐसी स्थिति में किसान भले ही गरीब हो, प्रकृति से हार गया हो, द्वार पर किसी अतिथि से रोटी के दाम नहीं मांगेगा। न ही भूले भटके को गलत राह बताकर राहजनी करवाएगा, जबकि व्यापार और चाकरी में यह सब कुछ चल रहा है। देश, व्यापारियों और कॉरपोरेट जगत के हाथ में जब तक रहेगा, खेती उत्तमता का दर्जा कैसे पा सकेगी? किसान के अन्न का बीज, व्यापारी तैयार करेगा। उन्नत बीजों की असीमित खाद पानी ने धरती मां को बंजर कर दिया, तब बंजर की औलादें मुंह बाए व्यापारी को देखती रहेंगी। सकारात्मक सोच की कमी ने खेती को हाशिये पर खड़ा कर दिया है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र-09407041430.
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