Wednesday, June 27, 2012

लोग सड़कों पर मरते क्यों हैं


     चिन्तामणि मिश्र
मध्य प्रदेश में हजारों लोग हर साल सड़कों पर कुचल कर मार दिए जाते हैं। सारे देश में सड़कों पर मारे जाने वालों का आंकड़ा कई गुना है। गहराई से आंकड़ों की खोज-पड़ताल की जाए तो जाहिर होता है कि एक्सपे्रस या सामान्य हाई-वे में पैदल और साइकिल सवार राहगीरों की संख्या शहरी आबादी में मरने वालों की तुलना में कम है। वाहनों से कुचल कर घायल होकर सारी जिन्दगी विकलांगता का दंश भोगने वालों की तादात भी बहुत ज्यादा है। कानूनी परिभाषा में इन्हें दुर्घटना कहा जाता है, लेकिन हकीकत में इन्हें मानव वध की श्रेणी में दर्ज होना चाहिए। मध्य प्रदेश के लगभग सभी शहरों,कस्बों में पैदल राहगीरों और साइकिल सवारों के लिए फुटपाथ सड़कों से नदारत हैं। नियमानुसार हर सड़क के दोनों ओर फुटपाथ होने चाहिए। इन फुटपाथों की न्यूनतम चौड़ाई तीन फिट तथा उंचाई चार इंच होनी चाहिए। फुटपाथ और मुख्य सड़क के बीच रेलिंग लगाई जानी चाहिए, किन्तु ऐसा है नहीं। राजधानी भोपाल के सहित महानगर के नाम से पुकारे जाने वाले इन्दौर,ग्वालियर,जबलपुर में भी सड़कों पर फुटपाथ की व्यवस्था जरूरी नहीं समझी जा रही , जिसके चलते कभी भी,कहीं भी मौत दबे पांव आकर जिन्दगी को दबोच लेती है। हालांकि पैदल चलने वाले लोग भी इस देश के नागरिक हैं और उन्हें भी संवैधानिक अधिकार मिले हैं, किन्तु उनके अधिकारों तथा उनकी सुरक्षा की परवाह सरकारों के सरोकारों से बाहर हैं।
      वाहनों को चलाने के लिए कई तरह के प्रतिबन्धात्मक प्रावधान मोटर व्हीकल एक्ट में दर्ज जरूर हैं किन्तु इनको लागू करने-कराने तथा इनका पालन कराने में जिम्मेवार एजेंसियों की दिलचस्पी नहीं है। ऐसे वाहन चालकों की संख्या बहुत अधिक है जिनकी पास या दूर देखने की नजर कमजोर है, रंग अंधत्व के शिकार हैं। दृष्टि-भम्र के रोग से पीड़ित हैं। सामने से आ रहे वाहन की लाइट से कई चालक चकाचौध के शिकार होने के दोष से ग्रसित हैं। कई वाहन चालक मतिभ्रम के शिकार है। ऐसे लोगों को स्टेयरिगं से दूर रखा जाना चाहिए किन्तु इस तरह के लोगों को हमारा सिस्टम वाहन चलाने की इजाजत देकर अपनी जिम्मेवारी को पूरा करने का पाखंड पाल लेता है, और ऐसे वाहन चालक सड़कों पर लोगों को मौत के मुहं में धकेल कर सजा से बचते चले आ रहे हैं। वाहन चालकों पर दायित्व ही नहीं तय किया गया है कि वे कम से कम साल में एक बार अपनी आंखों का परीक्षण करा कर प्रशासन को इसकी रपट सौपें। इस लापरवाही के चलते सड़कों पर मौत बनाम जिन्दगी का ट्वन्टी-ट्वन्टी खेला जा रहा है। असल में हमारा सिस्टम वाहन चलाने का लायसेन्स नहीं देता, वह देता है, लायसेन्स-टू-किल। हल्के और भारी वाहन चलाने के लिए लायसेन्स की जैसी प्रक्रिया है वह अपना काम कैसे करती है,यह पहेली नहीं है, सभी जानते हैं कि लायसेन्स घर बैठे बन कर आ जाते हैं। यदि बिना रसीद का भुगतान कर दिया जाए तो जांच-पड़ताल,स्वास्थ्य परीक्षण,वाहन चलाने की समझ जैसे जरूरी बिन्दु औपचारिक खाना-पूर्ति तक रह जाते हैं।  शराब पी कर वाहनों को चलाना और अंधाधुंध रफ्तार से दौड़ाना किसी भी सड़क का आम नजारा है। नशा और तेज रप्तार अब समाज में स्टेटस-सिम्बल बन गया है। बाइकर नाम के मोटरसाइकिल से स्टंट दिखाने वालों की नई विरादरी पैदा हो गई है। इनके कारनामें राह चलते लोगों के लिए अंग-भंग और प्राण-लेवा हो रहे हैं। नशा का सेवन करके वाहन चलाना प्रतिबंधित है किन्तु अधिकांश चालक अल्कोहलिक हैं। शराब हर स्थान पर आसानी से सुलभ है। पानी का अकाल,पानी का संकट जैसे जुमले हर जगह सुनाई देते हैं, किन्तु शराब का अकाल,शराब की कमी कभी सुनाई नहीं देती। शराब ही ऐसी चीज है जो देश का राष्टÑीय उत्पादन होने का दावा कर सकती है। इसके वितरण का नेटवर्क इतना सधा हुआ है कि देशी और विदेशी खुदरा व्यापार करने वाली कम्पनियों के भारी-भरकम वेतन पैकेज पाने वाले सीईओ की व्यवसायिक प्रबन्ध कुशलता बौनी है। सरकार इस कमाउ धंधे को बन्द करने के बारे में सोच  ही नहीं सकती। सतना जैसे सामान्य से शहर से सरकार को हर साल बीस करोड़ की रकम बिना एक रुपए खर्च किए मिलती है। इन हालातों में समाज कल्याण और समाज के प्रति जिम्मेवारी जैसे शब्द टाइम-पास कीर्तन जैसे हो जाते हैं।
       गांधी शराबबन्दी की बातें करते थे किन्तु गांधीगीरी से फिल्म बना कर उसे हिट तो बनाया जा सकता है।  इससे सरकारें नही चल सकती हैं। यह भी सोचने की ही बात है कि शराब खरीदने के लिए ग्राहक जो नोट काउन्टर पर देता है उसमें साक्षात बापू ही तो विराजमान है, वह भी हंसते मुस्कुराते हुए। आजादी के बाद बापू एक साल भी तो जीवित नहीं रहे। हो सकता है कि अगर बापू जीवित रहते तो हमारी सरकारें शराब को लेकर उनके विचार बदलने के लिए हाई-पावर कमेटियां बना कर प्रयास करती । इतना तो तय है कि हमारी सरकारों ने शराब,घूस,दहेज,भूण-हत्या आदि के कामों में बापू न सही उनकी फोटो का इस्तेमाल तो कर ही लिया है। हम अपने राष्टÑपिता को नहीं भूले  हैं। वे सदैव हमारे साथ रहते हैं। हमारी यादों में बसते हैं। हम नोटों में छपे उनके फोटो के सपने   देखते हैं इनको पाने के लिए राह-कुराह नहीं देखते हैं। ऐसा है हम लोगों का गांधी प्रेम। सड़कों पर पैदल राहगीरों को वाहन-चालक बड़ी हिकारत से देखते हैं। अक्सर इनको देख कर अपना आपा तक खो देते हैं। मैंने कई संभ्रांत वाहन चालकों का कहते सुना है कि यह लोग सड़कों पर क्यों निकल आते हैं। अपने घरों में ही क्यों नहीं रहते? मरने के लिए क्यों आ जाते हैं ?
          रोज सड़कों पर इतने लोग मरते क्यों हैं/ जिन्दा जब लौटने की उम्मीद ही नहीं/ तो अपने घरों से लोग निकलते क्यों हैं/ सारी सड़कें  हैं वाहनों के लिए आरक्षित हैं/ पैदल चलने की जिद लोग करते क्यों हैं?
 बे-गुनाह राहगीरों को कुचलने की घटनाओं के पीछे वाहनों के रख-रखाव में लापरवाही और गैर जिम्मेवारी का भी बड़ा हाथ है। दोपहिया, चारपहिया अथवा चाहे जितने पहिया वाले वाहन हों, सड़कों पर दौड़ाने के पूर्व इनके ब्रेक,स्टीयरिंग,गियर,क्लच जैसे उपकरणों की किसी निश्चित अन्तराल में तकनीकी जांच करने की अनिवार्यता ही नहीं है। अगर हवाई जहाज और ट्रेनों की यात्रा के पूर्व तथा यात्रा के दौरान तकनीकी जांच हो सकती है तो सड़कों पर चलने वाले वाहनों की क्यों नहीं हो सकती? कौन सुरक्षा देगा ,पैदल औा साइकिल पर चलने वालों को, आखिर सड़कें किसकी हैं?            
                            - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।    
                                    सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

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