चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
बतरस के रसिया बादशाह ने बीरबल से पूछा-‘बीरबल! इस समय देश में सबसे बड़ा कौन है। अकबर महान था, उत्तर जानता था कि सहज रूप से कहेगा कि जहापनाह! आपसे बड़ा कौन है भला। बीरबल किसी विचार प्रवाह में थे। अप्रत्याशित प्रश्न से चौंके। बादशाह ने प्रश्न दुहराया। बीरबल ने कहा- जहांपनाह! हर समय में सबसे बड़ा, लड़के का बाप होता है। बादशाह ने कहा-‘मुझसे भी बड़ा!’ बीरबल मुस्कराए,-‘हां जहांपनाह! लड़के के बाप के आगे आप कहीं लगते ही नहीं!’ अकबर की भौंहें तन गर्इं बोला-‘और सबसे छोटा कौन है?’ बीरबल ने कहा- लड़की का बाप। ‘कैसे? बीरबल ने बादशाह से कहा-‘जहांपनाह! ये जो महावत हाथी पर बैठा है, आपका गुलाम है! गुस्ताखी मुआफ हो, इससे आप कहें कि मैं अपनी बेटी का ब्याह तुम्हारे बेटे से करना चाहता हूं।’ बादशाह हंसे-‘बोले बीरबल! महावत के भाग्य खुल जाएंगे, वह कभी इंकार करेगा?’ बीरबल ने कहा- ‘सरकार! कहकर देखें। अकबर ने गंभीर होकर महावत से बात कही। महावत के हाथ से, मारे डर के अंकुश गिर पड़ा। बादशाह का गंभीर चेहरा देखा, सकपकाया फिर संभला, सकुचाते हुए बोला- जहांपनाह अपनी बेगम से पूछ लें फिर बताएंगे। बादशाह आसमान से गिरे, बीरबल की ओर देखा और बोले- हाथी वापस ले चलो। रास्ते भर बादशाह बीरबल की बातों का निहितार्थ खोजते रहे। बीरबल ने उन्हें समझाया- जहांपनाह! इसे महावत की हुक्मउदूली न मानें, कल उसके घर चलकर बीबी से भी बात कर लेते हैं। बादशाह रात भर बेचैन रहे। बेटे का बाप इतना बड़ा कि जहांपनाह की बात कट गई। सोचने लगे, बीबी से बात करेगा, बीबी धन्य हो जाएगी। दूसरे दिन बीरबल अकबर को एक बेटी के बाप की तरह महावत के यहां ले गया। बीबी ने कहा- जहांपनाह! बिरादरी से पूछ लें फिर बताएंगे! बादशाह का दंभ चूर-चूर हो गया। बोले- बीरबल तुमने ठीक ही कहा था, मैंने जो सोचा था, गलत था।’
इन दिनों विवाह का मौसम है। कहते हैं विवाह ऊपर से ही तय होते हैं, मनुष्य सिर्फ तलाशता है और जब विवाह हो जाता है उसे ही तय नियति मान लेता है। अपने देश में धरती के मनुष्य के विवाह का मुहूर्त आकाश के सितारे बताते हंै। राम-सीता का विवाह भी शुभ मुहूर्त में ही हुआ रहा होगा। राज्याभिषेक के लिए भी शुभ समय रहा होगा। सारे शुभ समयों की कहानी -परिणाम शास्त्र और लोक में विदित है। कुछ लोग विवाह को पूर्व जन्म से जोड़ते हंै। विवाह, सामाजिक, स्वीकृति और समझौते का व्यवस्थित नियमन है। यह अलग बात है कि विवाह के अनेक रूप मनुष्य के साथ आदिकाल से चलते रहे हैं। भारतीय संत-महात्माओं ने विवाह को माया का बंधन कहा, राम भगति में बाधक माना, परंतु विवाह के लिए ललकते रहे, तुलसीबाबा का यह हास्य नहीं, यथार्थ था कि ‘होइहें शिला सब चंद्रमुखी, परसे पद पंकज’ कबीर जैसे संत भी नहीं बचे। रहीम ने कहा- ‘रहिमन ब्याह विअधि है, सकौ तो जाहु बचाय। पायन में बेड़ी पड़त, ढोल बजाय बजाय।’ हमेशा ही कन्या के लिए योग्य वर की तलाश होती रही है। कन्याओं ने भी इच्छित वर के लिए तपस्याएं की लेकिन किसी पुरुष ने किसी कन्या के लिए तप नहीं किया। ये कहानियां पुरुष वर्चस्व को प्रमाणित करती हैं, परंतु स्त्रियां, पुरुष मनोभावों को जितनी जल्दी समझ लेती हैं, पुरुष आजीवन साथ रहते हुए स्त्री-मनोभाव को नहीं समझ सका। पुरुष शासक होने का दंभ भले पाले लेकिन वह अक्सर स्त्री से ही शासित होता रहा है। किसकी चलती है? उसी की सलाह और संकेतों पर इतिहास और संस्कृतियां बदली हैं।
एक समय था कि बेटी का विवाह नाई-पंडित के जिम्मे था और ये दोनों बड़ी ईमानदारी से घर-वर, समधी-समधिन को देख-सुनकर बातें करके बराबर की हैसियत वाले के यहां ही विवाह कराते थे। समय बदला, घर कोई नहीं देखता। नाई-पंडित, परिजन-पुरजन सभी किसी की भी बेटी के विवाह के लिए चिंतित रहते थे। किसी भी जाति की बेटी, पूरे गांव की बेटी थी। अब सबको अपनी-अपनी पड़ी है। समाज विभाजित है। समधी-समधिन हाशिये पर हैं, सिर्फ वर हैं। गांव भी, बेटी के सुख के लिए शहर भाग रहा है। शहरों में आत्महत्या, हत्या की शिकार ग्रामीण बेटियां ही अधिक होती हैं। समधी के सामने समाज कैसे पेश होता है, समधिन की साख गांव-समाज में कैसी है,क्योंकि बहू को ढालने का काम सास ही करती है। बदलना तो बहू को है।
विवाह एक संस्कार मात्र नहीं है, कितने ही रिश्तों, संबंधों को प्रेमपूर्वक वहन करने का नाम विवाह है। ऋषि रैक्य की तरह उद्वाह नहीं, विवाह सिर्फ वहन करना नहीं, निर्वहन(निर्वाह)करने की शर्त भी है। ‘सप्तपदी’ का तात्पर्य भी यही है। सब कुछ देख-सुन, ठोंक पीटकर ही कन्यादान होता था। बेटी को अधिकतम देने की परम्परा बहुत पुरानी है। अब मांगकर लिया जाता है। दहेज, समाजों के सिर पर सवार है, कोई भी समाज दहेज से अछूता नहीं है, सिवाय परम्परागत आदिवासी समाजों के। पता नहीं बेटी देने वाला छोटा कैसे हो गया, इसका उत्तर न युधिष्ठिर और यक्ष के पास न था न बीरबल-अकबर के पास। अनेक समाजों में आज भी बेटा, बेटी के घर में आकर रहता है। मातृसत्तात्मक परिवार पैतृक वैधता के लिए चुनौती है।
सभ्यता के इस दौर में भी बेटों वालों की स्थिति में बहुत अंतर नहीं आया। वे आज भी बेटे को रिजर्व बैंक चेक समझते हैं। वे अपने को ‘गेनर’ और बेटी वालों को ‘लूजर’ की संज्ञा से अभिहित करते हैं। उस लोकोक्ति में कोई अंतर नहीं आया जिसमें अहं और श्रेष्ठता का दंभ सदियों से समाहित रहा है- ‘साठ भूत समधी के लागें, सत्तर लागें वर के। बारह भूत बाराती लागें, सात-सात सब घर के।’ सभ्यता के उस युग की हम प्रतीक्षा करेंगे जब बेटे वाले अपनी संतति के विकास के लिए किसी की बेटी का हाथ मांगने अनुनय विनय के साथ जायेंगे और बेटी का बाप संसार का छोटा आदमी, निरीह और दया का पात्र नहीं समझा जायेगा और धरती के सारे देवतागण उसके सामने नतमस्तक, दक्ष की कन्याओं का हाथ मांगने के लिए कतारबद्ध खड़े रहेंगे। फिलहाल बघेली कवि रामसिया शर्मा की इस कविता पंक्ति से अधिक स्थिति बदली नहीं है-‘एकठे दिखेन बिआह रहा तौ, बिटिया थोर क धचकै/शादिन के पहिले नउआ पहुंचा संदेशा लइकै/ कहिस के समधी दस हजार धचकौना मांगत हं/ कमोवेश आज भी सामाजिक स्थिति ऐसी ही है। सम समधी कब दिखेंगे, प्रतीक्षा है?
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430.
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