Thursday, September 20, 2012

प्रकृति के रहस्यों पर हस्तक्षेप!


ज्योतिषी जी पंचांग लिख रहे थे। दाएं-बाएं अनेक वर्षो के पंचांग बिखरे थे। अचानक भविष्य जानने के इच्छुक कुछ अतिउत्साही लोग आ गए। मालदार 

आसामी थे, ज्योतिषी जी ने पंचांग लेखन अपनी पुत्री को सौंप उन लोगों को लेकर साधना कक्ष में चले गए, बिटिया को बोल गए कि पिछले दस वर्ष का जो पंचांग मैं उतार रहा था उसे तू उतार दे। बिटिया विदुषी थी- वर्ष भर का भविष्य लिखना था। वर्षा, सर्दी, गर्मी लिखनी थी- बोली-पिता जी, वर्षा कितनी लिख दूं। पिता जी बोले- जितनी पिछले वर्ष लिखी थी उससे थोड़ा कम ही लिखना। बेटी बोली िपछले वर्ष की लिखी बरसात तो झूठी निकली, लोग पंचांग पर विश्वास नहीं करेंगे। पिता जी बोले-कौन हमको-तुमको बरसने जाना है, हम जितना लिखते हैं, पानी उतना ही बरसता है-लिख दे, अधिक पानी समुद्र पर, फिर पहाड़ों पर, शेष पृथ्वी पर। यह जरूर लिखना-इस वर्ष वर्षा घमाघम होगी। बेटी ने पूछा-यह घमघम वर्षा क्या होती हे? पिता ने कहा-जब नहीं बरसेगा तो कहूंगा कि कहा था न कि घामइ घाम रहेगा, जब खूब बरसेगा तो कहूंगा कि घमाघम लिखा था न? कमोबेश यही स्थिति मौसम विभाग के वैज्ञानिकों की है, जो यह मानकर चलते हैं कि मौसम की सही भविष्यवाणी विज्ञान ही कर सकता है। प्रकृति के रहस्य का दावा करना नितांत बचकाना दावा है। मौसम विशेषज्ञों की भविष्यवाणी उन्हीं दिनों सही होती है जिस दिन पानी बरसता रहता है,जब वे कहते हैं, कहीं-कहीं हल्की बौछारें और एकाध जगह भारी बरसात होगी, तो हमें ज्योतिषी के घमाघम वर्षा की याद आती है। ज्योतिषी और वैज्ञानिक दोनों अंधेरे में तीर चलाते हैं, देश का हर व्यक्ति जानता है कि चतुर्मास में कहीं-कहीं हल्की, कभी भारी वर्षा प्रत्येक वर्ष होती ही है।
वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी से किसान धोखा अधिक खाता है। इस वर्ष की भविष्यवाणी ताजा उदाहरण है। वैज्ञानिक बच सकता है। कि मैंने स्थान विशेष के लिए थोड़े ही कहा था। देश के बिना पढ़े लिखे अनुभवी किसानों ने प्रकृति का समावेशी साहचर्य प्राप्त कर उनकी हर करवट का अनुमान लगाकर जो सूक्तियां समाज को दी आज का विज्ञान उसका पासंग भी नहीं दे सका। प्रकृति को मशीन से नहीं नापा समझ जा सकता। उसके लिए प्रकृति का सामीप्य चाहिए। वह चेतन है, पशु स्नेह-दुलार की भाषा समझता है, प्रकृति को भी पुराने लोगों ने समझ था, उसकी आहट, उसके तेवर पर मंत्र लिखे थे। वे आज भी कुछ नाम शेष घाघ और भड्डरी की स्मृति के साथ लोक में जीवंत हैं। नए विक्रम संवत के शुरुआत में गांव के पुरोहित पंचांग (पत्रा) सुनाकर उन्हें वर्षा एवं कृषि संबंधी जानकारी और सावधानी की सलाह देते थे।
इस वर्ष वर्षा देर से हुई। मृगशिरा बिना बरसे चला गया। आद्र्रा किसानों का प्राण है, धोखा दे गया। जाते-जाते पुनर्वसु-पुखन के कानों में कुछ कह गया और उन्होंने लाज रखी। सिंह नक्षत्र गरजा नहीं, हस्ति बरसेगा। सिंहा गरजे-हाथी भागै नहीं होया।
जहां कहीं भी धान की फसल है, उन्मुक्त भाव से उत्तरा की हवा उसकी चूनर लहरा रही है। परम्परागत धान की फसलों के आगे उन्नत धान की किस्में उत्पादन भले अधिक दें, बौनी दिखती हैं, हवा के साथ खेलती नहीं हैं, पानी के साथ मचलती नहीं हैं। भादौं किसान जीवन का अहम महीना है। जेकर बना असढ़वा, ओकर बरहों मास बोनी जिसकी सध गई उसका साल सध गया परंतु भादौं दोनों साख का राजा है। भादौं के मेह से दोनों के साख की जड़ बंधती है, खरीफ और रबी दोनों का भविष्य भादौं के मेंह से दोनों के साख की जड़ बंधती है, खरीफ और रबी दोनों का भविष्य भादौं की वर्षा पर निर्भर है। पूर्वा नक्षत्र धान के लिए बहुत बेहतर नहीं होता। इसके पानी से धान के पौधों में बकी नाम रोग लगता है। बहुत रोउना नक्षत्र है। इस साल बादल नहीं नक्षत्र बरसें हैं। ˜जब पुरबा पुरवाई पावै। ओरी क पानी बड़ेरी धावै। कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ, पानी ओरी में नहीं समा सका। उत्तरा को सौंप गया, उसने भी कोताही नहीं की। बरसैं लागे उत्तरा/ माड़ पियैं न कुत्तरा। इतनी धान होगी कि कुत्ते भी माड़ नहीं पियेंगे। अब तो गांवों में भी पुटकी नहीं चढ़ती।
मांड़ के लिए बच्चे लाइन नहीं लगाते। बहनें पुटकी देना नहीं जानतीं, माड़ पसाया ही नहीं जाता, शायद अब चावलों में माड़ की मात्रा कम हो गई है। जब मनुष्य के अंदर ही सत् नहीं रह गया तो चावल से सत् की क्या उम्मीद की जाए। भादौं बीमारी का महीना है। कहनूति है कि भादौं से बचें तो फिर मिलेंगे। गनीमत है सावन में पुरवैया नहीं चली। अन्यथा अकाल की छाया से मुक्ति न मिलती- सावन मास चलै पुरबैया। बेंचे बरदा लीन्हैं गैया। उन दिनों सिर्फ गाय का दूध ही सहारा होता है।
गांवों में परम्परा थी कि यदि सिंह नक्षत्र में गाय ब्याय, सावन में घोड़ी और माघ में भैंस बिआइ तो अशुभ माना जाता है और उन्हें महाब्राrाण को दे दिया जाता है- सावन घोड़ी,भादौं गाय।
माघ मास जो भैंस बिआइ। जी से जाइ या खसमैं खाय। सावन भादौं में अनेक पदार्थो के खाने का भी निषेध है- सावन साग न भादौं दही। क्वांर मीन न कातिक मही (मट्ठा)। क्वांर में मछली गर्भावस्था में होती है, अत: वे अखाद्य है। इनके न खाने के वैज्ञानिक कारण भी हैं। किसान की हमेशा तैयार तरकारी कोंहड़ौरी बड़ी होती है, लेकिन वह उड़द की दाल की बनी हो तभी अच्छी लगती है- उड़दी, उड़दों की भली, रस की अच्छी खीर। लाज जो राखै पीव की वह ही अच्छी बीर।उत्तरा-हस्ति नक्षत्र की वर्षा की मुख्य सहयोगी हवा होती है। वातावरण में ठंडक आ जाती है। हाथी की तरह सूंड़ डुलाता यह नक्षत्र धान की पकी-अधपकी फसल को नुकसान भी पहुंचाता है लेकिन लोक में इस नक्षत्र की प्रतिष्ठा है- हथिया बरसे तीन में शाली (धान) शक्कर (गन्ना) मास(उड़द)। हथिया बरसे तीन गें कोदौ, तिली कपास। हथिया के बरसने से जहां धान, ईख और उड़द को लाभ होता है वहीं कौदौं, तिली और कपास की क्षति होती है। लोक ने जन को सोने तक की चेतावनी दी है- सावन सोबैं सांथरे, माघ खुरैरी खाट। आपहिं वे मरि जाहिगे, जेठ चलैं जो बार।जो लोग सावन में जमीन में सोएंगें, बरसाती कीड़े गीली धरती-सांप, बिच्छू के काटने से मरेंगे, माघ में ङिालगी खाट में सोएंगे और जेठ की लुआरि में चलेंगे, उनकी मृत्यु निश्चित है।
गांव की ये चेतावनियां लोगों के लिए नीति निर्देश का काम करती है। सुनामी और भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी हमें नहीं हो पाती। धरती की सतह और हवा से प्राकृतिक रूप से जुड़े रहने के कारण पशु-पक्षियों में प्रकृति के बदलाव की आहट उनके अस्वाभाविक क्रियाकलाप से देखी जा सकती है। मौसम और प्राकृतिक बदलाव पर फिलहाल भारतीय वैज्ञानिक भविष्यवाणियां गलत ही साबित हो रही हैं? प्रकृति आज भी रहस्य है, शायद कल भी रहेगी?

Wednesday, September 19, 2012

अर्थव्यवस्था के शव साधक


चिन्तामणि मिश्र

गुटखा पर रोक, दारू बेखौफ मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों ने तमाखू गुटखा पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। इसका बनाना और बेचना दडंनीय अपराध भी घोषित कर रखा है। यह अलग बात है कि गुटखा अभी भी हर जगह आसानी से ज्यादा कीमत चुकाने पर उपलब्ध है, किन्तु इसके लिए कानून लागू करने वाली एजेंसियां और गुटखा गुटकने वाले लोग जिम्मेवार हैं। सरकारों ने देर ही से सही, आम आदमी की सेहत से जुड़े सवाल को गम्भीरता से सोचा और जनहित में इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया। डाक्टरों और समाज सुधारकों की राय है कि गुटखा से कैन्सर हो जाता है, जिसका कोई इलाज नहीं है। कैन्सर तो बीड़ी-सिगरेट, शराब, मिलावटी भोजन-पानी, नकली घी-दूध से भी हो जाता है। लेकिन इन सब से खतरनाक शराब है जो आदमी,परिवार और समाज को मारती है। फिर भी गुटखा पर प्रतिबन्ध लगाना अभिनन्दनीय है।
जब सरकारों में आसीन हमारे भाग्य-विधाता समाज के कल्याण के लिए ऐसे कदम उठाते हैं तो खुशी होती है, अन्यथा अभी तक देश का आम आदमी सरकारों के सरोकारों से हाशिए पर हमेशा धकेला जाता रहा है। जो लोग सरकारों पर आरोप लगाते हैं कि वह गरीब आदमी की फिक्र नहीं करती उन्हें अब अपनी सोच इस उम्मीद में बदलनी चाहिए कि शायद सरकारें हर नशे पर हमला बोलने वाली है। गुटखा का सेवन गरीब आदमी और निम्न मध्यम वर्ग ज्यादा करता है। बड़े लोगों का शगल गुटखा कभी नहीं रहा, वे तो देशी-विदेशी ब्रान्ड की शराब का सेवन करते हैं। इसे भी खारिज नहीं किया जा सकता कि आम आदमी अपनी रोजी-रोटी तथा आसमान छू रही महंगाई को लेकर तनाव और दहशत में रोज मर-मर कर जी रहा है।
कदम-कदम पर नौकरशाही, नेताओं, दबंगों और कानून के रखवालों द्वारा लतिआया जा रहा है, जिसे भुलाने और अपने भीतर झूठी ताकत का एहसास तथा तनाव से कुछ पल राहत पाने के लिए उसे गुटखा ही सस्ता तथा सर्व-सुलभ सहारा समझ में आता है। पांच-दस रुपए खर्च करके वह नरक हो रही जिन्दगी से जूझने और अपने भीतर कुछ साहस का भ्रम पाल लेता है।
हालांकि ऐसा ही काम शराब भी करती है, किन्तु शराब सामाजिक और आर्थिक कारणों से उसकी पहुंच से बाहर होती है। गुटखा की तुलना में देशी दारू भी मंहगी है। गुटखा पर प्रतिबन्ध स्वागत योग्य फैसला है सरकार ने लाखों लोगों को कैन्सर के जबड़े में जाने से बचाने का पुण्य किया है, किन्तु शराब बनाने और बेचने पर प्रतिबन्ध लगाने में ऐसा ही साहस कहां चला गया? सरकारें चला रहे भाग्य-विधाताओं की शराब पर प्रतिबन्ध न लगा पाने की विवशता लोग समझते हैं। शराब से सरकारों को कई हजार करोड़ का राजस्व मिल रहा है। शराब कुबेर का खजाना है। हर साल देशी और विदेशी शराब के ठेकों से मोटी कमाई हो रही है। होटलो,रेस्त्रां, ढाबों, पांच-सितारा बारों में शराब सर्व-सुलभ है। कई जिलों के ग्रामीण इलाकों में मोटर साइकिलों से शराब घर-घर उपलब्ध कराई जा रही है।
अपने देश में कुछ स्थानों में पूरी तरह और कुछ में आशिंक रूप से पानी का संकट स्थायी बन गया है किन्तु शराब का संकट कभी नहीं सुना। पीने का पानी हमारी सरकारें घर-घर उपलब्ध कराने में जरूर असफल हैं किन्तु शराब की धार, घर-घर पहुँच रही है। देश के कर्णधार शराब से हो रही तबाही से परिचित हैं, किन्तु इस पर प्रतिबन्ध लगाने का विचार भी करना गुनाह समझ रहे हैं। अब तो शराब निर्माता संसद सदस्य भी होने लगे है। हम और हमारा देश बाजारवाद का कीर्तन कर रहा है और सरकारें कॉरपोरेट सेक्टर की पिछलग्गू हो चुकी हैं।
असल में, हमारे देश की सरकारें कॉरपोरेट सेक्टर की पूंछ पकड़ कर रेंग रही हैं। संविधान कहता है कि राष्ट्र जनता चलाती है और सरकारें जनता के प्रति जबाबदेह हैं, किन्तु हकीकत में हमारे देश की सरकारों के नबाबों सुलतानों तथा महाराजाओं को खाए-अघाए कॉरपोरेट सेक्टर के मालिकों की मर्जी से शासन चलाने का श्राप हैं। देश का अन्नदाता किसान हर घन्टे देश में मर रहा है। मंहगाई से अस्सी करोड़ नागरिक तबाह हो रहे हैं लेकिन बीस करोड़ लोगों को लूटने की आजादी सरकारों ने दे रखी है। अभी सरकार ने डीजल में प्रति लीटर पांच रुपया बढ़ाया है और रसोई गैस सिलन्डर की राशनिंग कर दी है।
सरकार कह रही है कि सब्सिडी पेट्रोलियम पदार्थो में देने से उसे घाटा हो रहा है। लेकिन इसी सरकार ने बीते तीन साल में दो लाख करोड़ से ज्यादा कॉरपोरेट सेक्टर को छूट दी है। इसके अलावा उत्पाद शुल्क में चार लाख करोड़, सीमा शुल्क में सात लाख करोड़ की भी छूट दी है। अस्सी करोड़ गरीब जनता को डीजल और रसोई गैस में दी जा रही सबसिडी से सरकार का दिवाला निकल रहा है किन्तु कॉरपोरेट सेक्टर को अरबों रुपए की सब्सिडी थाल सजा कर भेंट कर दी जाती है। शराब बनाने और बोतलबन्द करने से लेकर बिक्री करने का काम भी कॉरपोरेट सेक्टर के पास है। लेकिन किसान अपने उत्पादन का दाम निर्धारण खुद नहीं कर सकता है। देशी दारू स्वयं सरकार की निगरानी में हैं। शराब आदमी के शरीर को ही नहीं खाती, शराब हत्या, बलात्कार, डकैती, सड़क दुर्घटना भी कराती है।
गुटखा खा कर कोई अपराध नहीं करता है। शराब बेहद खतरनाक है। गुटखा के साथ शराब के भी बनाने और बेचने पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए वैसे भी देश के नागरिकों का स्वास्थ्य सरकारों की प्राथमिक जिम्मेवारी है, लेकिन सरकारों पर काबिज गिरोह केवल अपने और धन्धेबाजों के हितों के आगे कुछ नहीं करना चाहते। गांधी ने आजादी की लड़ाई के साथ शराबबन्दी के लिए जबरदस्त आन्दोलन किए, क्योंकि व जानते थे कि आजादी और शराब दोनो एक साथ नहीं रह सकती। जब देश आजाद हुआ तो गांधी के नशाबन्दी को ही सत्ताधारी भूल गए। हमारे प्रधानमंत्री तो कभी जनता के बीच अपने लिए बोट मांगने ही नही गए। स्वराज की गंगा को जनता के खेत तक लाने की भगीरथी तपस्या उन्होंने नहीं की। वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद की उपज हैं और मैकाले और क्लाइव के पांवों पर चल कर लुटियन के टीले पर बैठे हैं। ऐसे लोग हर व्यवस्था के सेवक हो जाते हैं। ऐसे लोग गांधी और गांधी दर्शन को नहीं जानते, ऐसे लोग हिन्द स्वराज और ग्राम स्वराज भी नहीं जानते। ऐसे लोग कॉरपोरेट सेक्टर की अर्थ व्यवस्था के शव साधक हैं और आवारा पूंजी से बाजार को खुली लूट में बदलने में सहायक होते हैं। शराब बन्दी के लिए जिस ईमान और साहस की जरूरत होती है वह नदारत है। गुटखा पर प्रतिबन्ध भी कागजी है।

Friday, September 14, 2012

हिन्दी की रीढ़ हैं लोकबोलियां

चंद्रिका प्रसाद चंद्र

सन् 1835 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में लार्ड मैकाले ने कहा था- मैंने लम्बाई से लेकर चौड़ाई तक समस्त भारत की यात्रा की है और अपनी इस यात्रा के दौरान मैंने एक भी व्यक्ति को नहीं देखा जो कि भिखारी हो, चोर हो। मुङो इस देश में ऐसी दौलत, ऐसी उच्च नैतिक मूल्य, ऐसी क्षमता वाले लोग दिखाई दिये हैं कि मैं नहीं समझता कि जब तक हम यहां की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत, जो कि इस देश की रीढ़ की हड्डी है, को तोड़ न दें, हम इस देश को कभी भी विजित कर पाएंगे और इसलिए मैं प्रस्तावित करता हूं कि हम उसके पुराने और प्राचीन शिक्षा प्रणाली, उसकी संस्कृति को बदल दें ताकि भारतीय समझने लगें कि यह सब (अपनी वस्तुएं) विदेशी हैं और अंग्रेजी हमारी अपनी भाषा से अधिक महान है, वे अपने आत्मसम्मान, अपनी मूल आत्मसंस्कृति को खो दें, और वैसे बन जाएं जैसा कि हम चाहते हैं। भारत सचमुच में हमारा शासित राष्ट्र बन जाए।’ आज पार्थिव रूप से न होते हुए भी मैकाले के भारतीय वंशज हैं। संसार भर के मनीषी यह मानते हैं कि बच्चे का स्वाभाविक विकास अपनी मातृभाषा में होता है। प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में, माध्यमिक शिक्षा राष्ट्रभाषा में और उच्चतर शिक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय भाषा में सीखना चाहिए। मैकाले ने अंग्रेजी को उच्चतर और माध्यमिक शिक्षा के लिए चुना था, क्योंकि उसे बाबू चाहिए थे। लेकिन ज्ञान आयोग ने एक ऐसी रिपोर्ट पेश की जिससे भारत की समस्त अस्मिता दांव पर लग गई। भारत, इंडिया हो गया। राजा भरत हाशिये पर हैं।
इस ज्ञान आयोग की रिपोर्ट में पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाने की बात भी कही गई है। कई राज्यों में प्राथमिक स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाना शुरू कर दिया है।
यह सारे देश ने मान लिया कि ज्ञान, बड़ी नौकरी और नए संसार की भाषा अंग्रेजी है। प्रगति और विकास के घोड़े पर सवार भारत आजादी के इतने दिनों बाद भी गुलामी की भाषा से मुक्त नहीं हो सका। हमारे महामहिम और प्रधानमंत्री अंग्रेजी में ही अपनी बात कहते हैं। काश! वे बंगला और पंजाबी में बोलते। अपने देश की भाषा में बोलना शायद हीनता बोध है। बांग्ला तो भारतीय भाषाओं में सबसे समर्थ है। ऐसी स्थिति में नेताओं और प्रशासकों से उम्मीद करना सूरज को दिया दिखाना है, क्योंकि वे मानते हैं कि देश अंग्रेजी के रथ पर सवार होकर ही विकास के सोपान चढ़ सकता है। कभी हम अंग्रेजी के बिना उत्कृष्ट थे, आज वहीं अंग्रेज हमें काउबेल्ट, सपेरों और जादूगरों के देश के रूप में जानते हैं।
हमारी भाषाई सीमाएं जब कोई अंग्रेज बनाता है हम उसे मानक मान लेते हैं। गियर्सन ने पूर्वी हिन्दी में तीन बोलियों की चर्चा की है। अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी। सच तो यह है कि उन्होंने रीवा को न देखा, सुना और जाना। बघेल राजा थे उन्होंने बघेली लिख दी। रीमां रियासत में सेंगर बेनवंश, कोल, परिहार, चौहान दिग्गजों की पवाइयां थी। सभी की मूल बोली ‘रिमही’ थी। बघेल वंश और बघेलखण्ड की पहचान बघेलों से थी।
वह बोली थी जिसे रिमही कहते हैं। सन 46 में निष्काषित राजा गुलाब सिंह ने कहा था कि ‘रीमा रिमहों का है।’ उन्होंने पुष्पराजगढ़ घोषणापत्र में ‘रिमही’ की बात की थी। वे रीवा को बघेली भी कह सकते थे। वे दूरदर्शी थे, उन्होंने रिमही की बात की। ता उम्र रिमहों के बीच रिमही में बोले। इस परम्परा का पालन मार्तण्ड सिंह ने भी किया। रिमही अवधी में कोई अन्तर नहीं। ‘तुलसी का मानस’ जितना रीमां में गाया जाता है, उतना अवध में नहीं।
संवत् 1500-1600 के दौरान रेवाखण्ड में बीरभानु सिंह राजा थे, उनके समय में रेवाखण्ड का बहुत विस्तार हुआ था- एक दोहा है, ‘उत्तर सरिता सई लौं पश्चिम नदी धसान। पूरुब हद बिहार लौं, दक्षिण बौद्ध प्रमान।यह संयोग ही था कि उन्हीं दिनों तुलसी मानस लिखने को तैयार थे।’ मानस में हर तीसरी चौपाई रिमही है। ‘कृषी निरावहि चतुर किसाना’से लेकर ‘नाथ हमार इहै सेवकाई। लेहि न बासन बसन चुराई।’ मानस की अवधी में सत्तर अस्सी प्रतिशत शब्द रिमही के हैं। रिमही एक बोली है पता नहीं कैसे लोग ने इसे भाषा बनाकर किताबें लिख दीं। यदि ये भाषा है तो हिन्दी को क्या कहेंगे? आत्मश्लाघा के चलते यह सब काम हुआ जो नितांत गलत है।
‘पद्मावत’ के प्रसंग ठेठ रिमही के मानस में है। ‘जायस’ और ‘सलोन’का संबंध रीवा से था। देखें- ‘बरसहिं मघा झकोर झकोरी। मोर दोउ नैन चुअै जस ओरी।’ इसमें रिमही कहां नहीं है। बेनी छोर झरि जो बारा। सरग पतार होत अंधिआरा।‘मानस में रिमही शब्दावली शोधपत्र की आवश्कयता है।’ अवधी विशुद्ध रूप से रिमही है, चूंकि रीवा का कोई प्रवक्ता नहीं था इसलिए रिमही उपेक्षित रह गई। रीवा, सतना, सीधी, शहडोल, का कोई भी, प्रदेश के बाहर रिमहा कहलाता है। उसकी अलग धज और शान है। बघेली या बघेलखण्डी के रूप में उसकी पहचान नहीं है।
हिन्दी विभिन्न लोक बोलियों का समुच्चय है। लोक भाषाएं किसी भी व्याकरण सम्मत भाषा से अधिक जीवन्त लचीली और सर्वग्राही होती है।
बोलियों में ध्वनि, व्याकरण एवं शब्द भण्डार के भेद होते हैं। यदि दो बोलियों के शब्द भण्डार मूलत: भिन्न हैं तो अन्य समानताओं के रहते हुए भी उसके बोलने वाले एक दूसरे की बात न समङोंगे। मैथिल, मगही, छत्तीसगढ़ी के शब्द भण्डार अलग हैं लेकिन अवधी और रिमही के शब्द भण्डार एक हैं, बाबा नागाजरुन की मानें तो हिन्दी क्षेत्र की लोकबोलियां ही हिन्दी की रीढ़ हैं।
यह भावना तुम्ही ने हमने घोली। जब छोरा गंगा किनारे वाला (अमिताभ बच्चन) अपनी बोली में बात करता है, तब उसके संवाद प्रांतीय भाषाओं की सीमा लांघकर राष्ट्रीय हो जाते हैं। ठेठ रिमहे अंदाज में जब वह बोलता है- ‘का फुकुर-फुकुर हवा भरते हैं, जाने नहीं, ठकुराइन के लड़िका भ’ और जब लोक शैली में- हमका अइसन वइसन न समझ हम बड़े काम की चीज। एक दिन गए हम जंगल मांही, मिलि गए हमका डाकू। केहू के हाथ म फरसा बल्लम, केहू के हाथ म चाकू। कौन भला है कौन बुरा है, हमका हवै तमीज गाता है, लोगों के दिल में गीत उतर जाते हैं। निरा रिमहे अंदाज में उसके गाए फगुआ ‘होरी खेले रघुबीरा अवध में’, और ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली’का अपना अंदाज है। राजभाषा समस्या नेताओं के हाथ की चूजी है। जिसे वे हल करना नहीं चाहते। इसी मुद्दे पर अपनी राजनीति चमकाते हैं- कहना पड़ता है कि- यह सियासत की तवायफ का दुपट्टा है/ किसी आंसुओं से तर नहीं होता।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430.

हिन्दी का वार्षिक श्राद्ध


चिन्तामणि मिश्र
हिन्दी को लेकर हर साल सितम्बर महीने के शुरूआत में और चौदह तारीख को कुछ केन्द्र सरकार के दफ्तरों और कुछ बैंकों, स्कूल-कालेजों में हिन्दी पखवारा तथा हिन्दी दिवस मनाने का कर्मकांड सम्पन्न होता है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार का कागजी दावा करने वाली कुछ संस्थाएं भी इस मौके पर लोकगीत, लोकसंगीत, कविता पाठ, अन्ताक्षरी, वादविवाद आयोजित करके हिन्दी का वार्षिक श्राद्ध करती हैं और एक साल के लिए लापता हो जाती हैं। इस मौके पर सरकार को कोसा जाता है कि वह हिन्दी को राष्ट्र भाषा घोषित नहीं कर रही तथा संविधान में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने के बाद भी अंग्रेजी को बढ़ाती जा रही है। समाज से कहा जाता है कि वह हिन्दी का अधिक से अधिक प्रयोग करें। अंग्रेजी माध्यम के महंगे स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने से हिन्दी को पांव पसारने का मौका नहीं लग रहा है।
हालांकि हिन्दी के लिए अपनी छाती कूट-कूट कर रुदन करने वाले अपने बेटे-बेटियों और नाती-पोतों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में ही पढ़ा रहे हैं। बैंकों तथा रेलवे के रिजर्वेशन फार्म हिन्दी का विकल्प होने पर भी अंग्रेजी में भर रहे हैं। घर के बाहर इनके नामपट अंग्रेजी में टंगें हैं। शादी-ब्याह और जनम-मरण के निमंत्रण कार्ड अंग्रेजी में ही छपाये जाते हैं।
असल में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बाधा के लिए सरकार की तरफ से कम, हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र के लोगों और हिन्दी का झंडा उठाये हिन्दी के नाम पर मलाई चाट रहे हिन्दी के पंडे सर्वाधिक जिम्मेवार हैं। यही लोग हैं जिन्होंने हिन्दी को दूसरी भाषाओं, बोलियों से घुलने मिलने का हमेशा विरोध किया और हिन्दी को संस्कृत-निष्ठ, पंडताऊ तथा उबाऊ बनाने का प्रयास किया।
हिन्दी की पालकी में सवार कालेजों और विश्वविद्यालय के कई मास्टरों ने भ्रम फैला रखा है कि हिन्दी का जनम संस्कृत की कोख से हुआ है। हिन्दी को शुद्ध और पवित्र रखने के लिए किसी अन्य भाषा और बोली से दूर रखा जाना चाहिए अन्यथा हिन्दी का सतीत्व भंग हो जाएगा। इन महाविद्वानों को अभी तक यह समझ नहीं आई कि हिन्दी का जन्म और विकास बाजार में हुआ। इसे लोक संस्कृति और लोक मानस ने अपनी गोद में रख कर पालन किया। हिन्दी को भारतीय बोलियों ने ही नहीं बल्कि यूरोप, अरब, ईरान आदि की भाषाओं ने अपने शब्द देकर जीवन्त तथा सक्षम बनाया है।
दिल्ली के अमीर खुसरो और काशी के कबीर के बीच भौगोलिक दूरी थी किन्तु दोनों हिन्दी में ही अपनी रचना करते थे। एक का संबंध दरबार और दरगाह से था तो दूसरे का बुनकरों के श्रमिक तंत्र से, लेकिन दोनों जन साधारण की भाषा और बोली से जुड़े। तुलसी संस्कृत के विद्वान थे किन्तु अपनी कालजयी रचनाएं उसी हिन्दी में रचीं, जिसमें दूसरी भाषाओं और बोलियों के शब्द हैं। समझने की बात तो यह है कि हिन्दी को खतरा देश की बोलियों और भाषाओं से नहीं, खतरा अंग्रेजी से है।
देश की बागडोर आजादी के बाद जिनके हाथों में आई वे अंग्रेजी के चारण थे और आजाद भारत में अंग्रेजी को बनाए रखने लिए कटिबद्ध थे। जब राष्ट्र भाषा और राज भाषा का प्रश्न संविधान सभा के सामने विचाराधीन था तभी जवाहर लाल नेहरू ने मद्रास में मार्च 1948 में घोषित किया कि संविधान ने हिन्दी को राज भाषा स्वीकार किया तो वे उसका विरोध करेंगे। नेहरू संवैधानिक प्रावधान बनने से तो नहीं रोक सकते थे, किन्तु वे प्रधानमंत्री के रूप में तो रोक सकते थे और उन्होंने यही किया। हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिए कभी भी सरकारों ने ठोस कदम नहीं उठाए। अब भूमंडलीकरण ने अंग्रेजी को हर जगह फैलाने का वातावरण बना दिया।
भूमंडलीकरण ऐसा कनखजूरा है जिसके बावन हाथ हैं। जीवन का कोई भी पहलू, कोई भी कोना इससे अछूता नहीं है। इस भूमडंलीकरण ने पहली कक्षा से ही अंग्रेजी अनिवार्य कर दी, शिक्षा शास्त्री चिल्लाते ही रह गए कि बालक की प्राथमिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही दी जाए। नेहरू के बाद दिल्ली की सल्तनत पर जो लोग पधारे वे नेहरू से भी ज्यादा हिन्दी के शत्रु और अंग्रेजी मइया के असली बेटे बनने के लिए संविधान के साथ चोरसिपाही का खेल खेलने लगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के अपने भाषण में अंग्रेजों का भरोसा दिलाया था कि आपका वह साम्राज्य अब भले न रहा हो जिस पर सूर्य कभी डूबा न था, लेकिन आपकी भाषा अंग्रेजी बोलने वालों पर आज भी सूर्य डूबता नहीं है। यह हमारे प्रधानमंत्री है जिनके ज्यादातर लोगों और राज की भाषा हिन्दी है। कभी इस प्रधानमंत्री को भारत में कहते नहीं सुना कि हिन्दी दुनिया भर में बोली जाती है। सन इक्यानवे के बाद रईस हुए, मुटियाए और इतराए लोगों के लिए इस बात का कोई मतलब नहीं कि गांधी, तिलक, बोस और राजाजी जैसे गैर हिन्दी नेताओं ने आंदोलन चलाया कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। लेकिन अब नए इंडिया के लोग भूमंडलीकृत विश्व के नागरिक हैं। वे राष्ट्रभाषा जैसी संकीर्ण भाषा क्यों बोलें? उन्हें तो विश्व भाषा में काम करना है और विश्व भाषा अंग्रेजी है। अंग्रेजी भारत में भेद-भाव और शोषण की भाषा है और भ्रष्टाचार की भी। हमारे यहां कानून अंग्रेजी में बोलता है।
अदालतें अंग्रेजी में सुनती हैं, और न्याय अंग्रेजी में होता है। शासन की नीति अंग्रेजी में बनती हैं और सरकारी दफ्तर की फाइलें अंग्रेजी में दौड़ती हैं। अंग्रेजी को सारे दंश में पक्के तौर पर आसीन करने के लिए हिन्दी में अंग्रेजी के शब्दों को बिना जरूरत धकेले जाने का षड्यंत्र चलाया जा रहा है। हिंग्लिश को हिन्दी के नाम पर जो परोसा जा रहा है वह हिन्दी नहीं दंशी अंग्रेजी ही है। हिन्दी में अन्य भाषाओं से लेनदेन बुरा नहीं है लेकिन हिन्दी को उसकी गर्भ-नाल से ही काट कर हिंग्लिश में रूपान्तरण करना बेईमानी है। बाजारवाद ने अंग्रेजी को रोजी-रोटी की सीढ़ी घोषित कर रखा है। इस रोजी-रोटी के ही स्वार्थ ने द्रोणाचार्य और भीष्म को दुर्योधन के सारे पापों का अनुमोदन करने की तर्क-बुद्धि दी थी।
इस हकीकत को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि देश की एकता को भंग करने वाले सारे आंदोलन अब तक उन इलाकों में चले हैं जहां अंग्रेजी को अपनी भाषाओं की लाशों पर भी बनाए रखने को भारी समर्थन मिलता रहा है। जो लोग दो सौ साल तक अंग्रेजी राज का मजा लूटते रहे उनके लिए अंग्रेजी सोने की नथ बन गई। आम आदमी की मजबूरी तो समझ में आती है कि उसने बिना संघर्ष किए अंग्रेजी खुरों में अपना सिर रख दिया, लेकिन हिन्दी के बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा हिन्दी इलाके के राजनेताओं ने अपनी भाषा के लिए लड़ाई नहीं लड़ी, यह उनके जन-विमुख होने का प्रमाण है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।)

भाषा की गैरजरूरी मिलावट भी एक अपराध

(हिंदी विषय लेकर आईएएस में टापर रहे मनोज श्रीवास्तव (प्रमुख सचिव- मुख्यमंत्री) से जाने माने साहित्यकार और दैनिक स्टार समाचार के सम्पादक जयराम शुक्ल की बातचीत के प्रमुख अंश)
हिंदी भाषा का चटनीफिकेशन
हालांकि मैं किसी भाषाई शुद्धता का समर्थक नहीं हूं, क्योंकि भाषा अपने आप में एक ऐसा प्रवाह है, एक ऐसी नदी है जिसमें अड़ोस पड़ोस के बहुत से अन्य प्रवाहों का जल भी आकर मिलता रहता है। हम भाषाओं को किसी कठोर प्रकोष्ठों में बांधकर नहीं रख सकते। इसके बावजूद भाषा के लचीलेपन की भी एक सीमा है। मुझे याद है तब जबकि जवाहरलाल नेहरू हिंदुस्तानी को भारत की राजभाषा के रूप में अभिषिक्त करने के लिए पैरवी कर रहे थे उस समय निराला जी ने एक ट्रेन के कंपार्टमेंट में जाकर उनसे साफ-साफ कहा था कि "देख नेहरू ये बादशाह राम और बेगम सीता वाली हिंदी नहीं चलेगी"। निराला जी का आशय यह था कि भाषा अपने साथ एक संस्कृति का वहन भी करती है और इन संस्कारों में अपचित होकर भाषा की खिचड़ी नहीं पकाई जा सकती, लेकिन उस जमाने में बहस भाषा की खिचड़ी, भाषाओं के अंत:मिश्रण की थी, आज के समय में बहस खिचड़ी की ना होकर चटनी की है। टीवी चैनलों और कुछ अखबारों ने मिलकर हिंदी भाषा का चटनीफिकेशन शुरू किया है। अब उसमें अंग्रेजी के शब्द मजे के लिए मिलाए जाते हैं जरूरत के लिए नहीं। हिंदी अखबार अपने स्तम्भों के शीर्षक अंग्रेजी में रखते हैं और हिंदी को इस तरह से लहक-लहक के बोलने वाली छोटे पर्दे की सुन्दरियां इस भाषा का तपोभंग कर रही है। दुख यह है कि जिस तरह से फ्रांस, रूस, कोरिया, और कनाडा में भाषा के भीतर एक पराई भाषा की गैरजरूरी मिलावट के विरूद्ध सरकारों ने कानून बनाए और व्यवस्थाएं स्थापित की उस तरह से हिंदी में हिंदीजगत की तरफ से कोई मांग ही नहीं आ रही, कोई आंदोलन खड़ा नहीं हो रहा।
ऐसी हिंग्लश से परहेज है
मेरी आपत्ति हिंदी के भीतर दूसरी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करने के विरूद्ध नहीं है, मेरी आपत्ति उस मनोवृत्ति के विरूद्ध है जिसके तहत हम अपने अंग्रेज ना हो पाने की क्षतिपूर्ति हिंदी में उनके शब्दों की गैरजरूरी भर्ती से करते हैं। मैंने एक हिंदी अखबार में पढ़ा जिसमें यूथ गैलरी के नाम से एक पृष्ठ निकलता है युवाओं पर केन्द्रित, वहां एक युवा कहता है कि मैं शू परचेज करने मार्केट गया, मुझे आपत्ति इस तरह की हिंदी से है अन्यथा अंग्रेजी के किसी शब्द विशेष से यदि आपके आशय का बेहतर संप्रेषण हो सकता है तो उसका हिंदी में आवक से कतई इंकार नहीं करना चाहिए।
हिंदी को हक़ की भाषा बनाने की जरुरत
छोटे प्रयास अपने स्तर पर किए जा सकते हैं। जब मैं भोपाल-होशंगाबाद कमिश्नर था तब मैंने अपने सभी जिलों को आदेश दिया था कि ग्राम पंचायतों में होने वाले निर्माण कार्यो के प्राक्कलन हिंदी में तैयार किए जाएं। मेरे लिए यह बात आश्चर्यचकित करने वाली थी कि ग्राम पंचायत तो हिंदी का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाएं हैं वहां निर्माण कार्यो के प्राक्कलन जिन इंजीनियर महोदय द्वारा तैयार किए जाते हैं वह इंजीनियर महोदय हिंदी भलीभांति जानते हुए भी अंग्रेजी में एस्टीमेट बनाते हैं। मैंने कहा कि ना केवल प्राक्कलन हिंदी में तैयार किए जाएं बल्कि उन्हें गांव के सूचना फलक पर किसी दीवाल पर भी चस्पा किया जाए तब मुझे लगा कि हिंदी की संभावना का बड़ा इस्तेमाल भ्रष्टाचार से लड़ने में हो सकता है, क्योंकि अंग्रेजी भारत में अभिव्यक्ति की भाषा उतनी नहीं हैं जितनी यह संगोपन की भाषा है। यह भाषा बहुत कुछ छिपाती है, ग्राम पंचायतों में अंग्रेजी में लिखे एस्टीमेट गांव वालों से बहुत कुछ छिपा लेता है। लेकिन जब हिंदी में एस्टीमेट बनाकर गांव के सूचना फलक पर प्रदर्शन हुआ तो गांव वालों ने देखा कि मुरम की लीड तो दूसरे गांव की बताई गई है लेकिन मुरम तो गांव का ही इस्तेमाल किया जा रहा है। यदि हम सब जन भाषा की पारदर्शिता का इस्तेमाल करें तो वह आम आदमी के व्यवस्था के समकक्ष सशक्तीकरण का एक अच्छा उपकरण बन सकती है। मैं यहां अंग्रेजी भाषा के संगोपन का एक उदाहरण देना चाहूंगा मैंने एक अखबार में एक गुटके का विज्ञापन देखा, पूरा विज्ञापन हिंदी में तैयार किया हुआ था लेकिन विज्ञापन में एक कोने में एक बात छोटे अक्षरों में अंग्रेजी में लिखी हुई थी, गुटका चुइंग इज इंजुरियस टू हेल्थ, यहां अंग्रेजी छिपाने के लिए इस्तेमाल हुई, जो बताने के लिए थी वह संप्रेषण नहीं है। हमारी व्यवस्था का तामझम, हमारी विसंगतियां, हमारा न्याय कई बार एक पराई भाषा के माध्यम से ना केवल जीवित चले आते हैं बल्कि उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं।
मत हिन्दी और अभिमत अंग्रेजी में!
यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि बाजार जनभाषा के माध्यम से चलेंगे। स्टार चैनल शुरू में जब भारत आया तो उसके सारे सीरियल्स अंग्रेजी के होते थे लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने महसूस किया कि यदि भारत में व्यवसाय करना है तो अंग्रेजी उन्हें दूर तक नहीं ले जा सकती, इसलिए जहां रूपया कमाने की बात होती है वहां हिंदी की सेवाएं लेने में बाजार की ताकतें तत्काल अपना लचीलापन दिखाती हैं, फर्क आता है जब इसी बाजार से कमाई गई आर्थिक ताकत के बल पर लोग एक वर्गीय चेतना की स्थापना करने के लिए औपनिवेशिक भाषा का सहारा लेते हैं। मैंने हिंदी सिनेमा में हिंदी के दम पर रोजी रोटी कमाने वालों को इंटरव्यू के वक्त अंग्रेजी में बोलते देखा है। प्रभुता की भाषा औपनिवेशिक है और लाभ की भाषा हिंदी। मत हिंदी में मांगे जाएंगे और अभिमत अंग्रेजी में दिए जाएंगे।
भाषा को लेकर संजीदगी की जरूरत
बहुत कुछ दोष तो हिंदी समाज का है। हिंदी समाज ना तो औपनिवेशिक, आभिजात्य से लड़ने के लिए अपने को तैयार कर रहा है और ना ही क्षेत्रीय भाषाओं की तरह उसने एक ताकतवर उपराष्ट्रीयता का समर्थन किया है। तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलयालम, उड़िया, मराठी जैसी भाषाएं एक सशक्त उपराष्ट्रीयता का पोषण करती हैं और इस अर्थ में वे एक तरह की सामूहिकता की अभिव्यक्ति बनती हैं, हिंदी की मुश्किल ये है कि उसे अपनी अस्मिताई पहचान के रूप में स्वंय हिंदी भाषी ही नहीं लेते।
कंदराओं में वो ब्रह्मराक्षस कौन?
हिंदी, अंग्रेजी की अंतरराष्ट्रीयता और क्षेत्रीय भाषाओं की उपराष्ट्रीयता के बीच कहीं अनुपस्थित होकर रह गई है। इसका निदान खुद हिंदी समाज को ढूंढना होगा। खुद उसे सोचना होगा कि क्यों वह अपने लेखकों की पुस्तकें खरीदकर नहीं पढ़ता। उसे सोचना चाहिए कि वह आखिरी दिन कब था जब उन्होंने किसी हिंदी लेखक का उपन्यास, कथा संग्रह अथवा कविता संग्रह खरीदकर पढ़ा था, वह दिन कब था जब उन्होंने शिक्षा में या तंत्र में अंग्रेजी के अनावश्यक प्रवेश से होने वाली प्रतिभा क्षति के प्रति अपनी आपत्ति व्यक्त की थी। हिंदी समाज हिंदी को अपनी अस्मिता के स्थापन का एक प्लेटफार्म कब समङोगा, कब वह अपने इस लोकतांत्रिक दावे को बिना किसी आत्महीनता के ठोक कर कहेगा कि हमें हिंदी में फैसले सुने जाने का हक है, कि हमें चिकित्सा हो या अभियांत्रिकी उसकी पढ़ाई हिंदी में करने का हक है और इसके आधार पर पाई गई डिग्री को किसी भी जगह निर्योग्यता के रूप में प्रदर्शित करने के विरूद्ध हक है। जब तक हिंदी समाज हिंदी के प्रति आत्मीयता और अपनी अधिकार स्थापना की संचेतना विकसित नहीं कर लेता तब तक इस भाषा का उद्धार ही नहीं समाज का उद्धार भी असंभव है। जो समाज चेतन भगत की उपन्यासिकाओं को अपना प्रतिष्ठा प्रतीक मानता हो और अलका सरावगी जैसे लेखकों से सर्वथा अपरिचित हो उस समाज को अपने भीतर बहुत गहरे उतरकर देखने की जरूरत है कि उसके भीतर की कंदराओं में कौन सा ब्रम्ह राक्षस छिपा बैठा है।
रोमन लिपि यानी कि हिन्दी का मजाक
मुझे याद है कि आजादी के बाद भारत के नए महाप्रभुओं में से कुछ सज्जन रोमन लिपि में लिखी हिंदी को राजभाषा बनाने के जतन में लगे थे, ये तो पुरूषोत्तम दास टंडन, राजेन्द्र प्रसाद जी और कृपलानी जी जैसे लोगों का प्रयास था कि वह दुर्घटना नहीं हो पाई, लेकिन तब जो थोपने से नहीं हो पाया वह अब सोशल नेटवर्किग के हाथों में खुद को सौंपने से हो रहा है। रोमन की समस्या यह नहीं है कि वह पराई लिपि है, उसकी समस्या यह है कि वह एक असमर्थ लिपि है, वह दादा शब्द को नहीं लिख सकती, वह पिता शब्द को नहीं लिख सकती, वह माता शब्द को नहीं लिख सकती, वहां ये रिश्ते डाडा, पिटा, माटा में बदल जाते हैं। वह भारतीय संदर्भ के अनुकूल लिपि है ही नहीं, आज भी फेसबुक के संदेशों को यदि भारतीय जीवनानुभव के बगैर पढ़ा जाए तो उसमें लिखे हिंदी के रोमन कमेंट हंसने का जोरदार मसाला उपलब्ध करा सकते हैं। भाषा ही नहीं लिपि की भी एक संदर्भ संवेदनशीलता होती है और उन संदर्भो प्रसंगों को वहन करने में जो लिपि समर्थ नहीं है वह लिपि उस भाषा को वहन नहीं कर सकती और वह भाषा का संस्कृति का वहन नहीं कर सकती।
डीएनए में मातृभाषा के तत्व
नॉम चॉस्की का कहना है कि बच्चा जब पैदा होता है तो वह एक जन्मना व्याकरण के साथ पैदा होता है। यह व्याकरण यह भाषाई डीएनए उसे अपनी मां के रक्त और दूध से मिलता है। एकदम बचपन से ही मातृभाषा के प्रयोग की कीमत पर किसी ऐसी भाषा का प्रयोग करने से जो कि उसके परिवेश, परम्परा और पृष्ठभूमि से भिन्न है बच्चे में एक तरह से मनोवैज्ञानिक भ्रंश पैदा होता है इसलिए यह ध्यान रखना होगा कि बचपन जो बच्चों को एक स्वप्न की तरह निर्बन्ध और सहज लगता है सहसा किसी एक बोझ में ना बदल जाए। मातृभाषा मिलती है, पराई भाषा कमाई जाती है। जो दिन बच्चों के खेलने, कूदने, उछलने, मस्त रहने के दिन है वह दिन सहसा अजर्न की जद्दोजहद के दिन बन जाएं तो यह होगा कि हम एक मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक अपुष्ट या अर्धपुष्ट ऐसा नागरिक तैयार करेंगे जिसकी एकमात्र विशेषता फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना होगी। मातृभाषा बच्चे के भीतर की बहुत सी मांगों की पूर्ति करती है, वह एक तरह से उसका मानसिक न्यूट्रीशन है। हमें ध्यान रखना होगा कि हम शारीरिक कुपोषण की चिंता जिस तरह से कर रहे हैं कल को हमें मानसिक, हार्दिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से अल्पपोषित या कुपोषित बचपन की चिंता ना करना पड़े।
                                       मनोज श्रीवास्तव होने के मायने  
 यह नाम जेहन में आते ही छवि उभरती है एक ऐसे कड़क प्रशासक की, जिसे देश के सर्वश्रेष्ठ 10 प्रभावशाली लोक प्रशासकों में से एक माना गया है। इन्हें इंदौर में डायनामाइट कलेक्टर के रूप में जाना पहचाना गया, तो विभिन्न मंत्रालयों में बेहद संजीदा और नवाचार प्रेमी सचिव के रूप में। लेकिन इन सबके ऊपर और पहले मनोज श्रीवास्तव हिन्दी के ऐसे विद्वान अद्धेता हैं, जिन्होंने हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि में प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान (बरकतउल्लाह विवि भोपाल) अजिर्त करने के साथ ही अपने भविष्य का माध्यम भी हिन्दी को बनाया। 87 में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में हिन्दी विषय ही चुना व प्रवीण्य सूची में प्रथम स्थान प्राप्त किया। अपने अत्यन्त व्यस्त प्रशासनिक दिनचर्या में भी ये अध्ययन, अन्वेषण और लेखन में पूरी ऊर्जा के साथ जुटे हैं। हाल में सुंदरकाण्ड एक पुर्नपाठ, के वृहद छ: खण्ड प्रकाशित हुए हैं। इनकी अन्य पुस्तकों में शिक्षा में संदर्भ और मूल्य, पंचशील, पहाड़ी कोरवा, व्यतीत वर्तमान और विभव, वंदेमातरम, यथाकाल शक्ति-प्रसंग व कविता संग्रह- मेरी डायरी, यादों के संदर्भ पशुपति, स्वरांकित व कुरान कविताएं हैं। इन्हें भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद एवं नेहरू केंद्र लंदन द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय वातायन पुरस्कार से सम्मानित किया गया, वहीं सुन्दरकाण्ड पर लिखी गई पुस्तक के लिए संत समाज ने अयोध्या में रामकिंकर पुरस्कार से विभूषित किया।

Sunday, September 9, 2012

इन्हें किश्तों में हिन्दुस्तान चाहिए

पिछले दिनों कोयले की कालिमा के घटाघोप के बीच सियासत की कई और संगीन वारदातें हुई है। जिसके चलते भारत महादेश का सीना चाक-चाक हुआ है। उसकी सम्प्रभुता, संघीय
चरित्र, लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज की आत्मा पर गहरी चोट की गई। सत्ता हासिल करने के निमित्त राजनीतिक दलों का कबीलियाई आचरण और व्यवहार उभरकर सामने आया है। यूपीए की अगुआई कर रही कांग्रेस ने प्रमोशन में रिजव्रेशन का दॉंव चलकर ‘जातीय उन्माद के आत्मघाती दौर’ की वापसी का बन्दोबस्त किया है। बांग्लादेशी घुसपैठियों व बोड़ो जनजातियों के बीच घमासान थमने का नाम नहीं ले रहा है। उधर ठाकरे परिवार ने बिहारियों को घुसपैठिया बताते हुए खुलेआम संविधान की आत्मा और देश के संघीय ढांचे के अस्तित्व को ललकारा है।
रही सही कसर तामिलनाडु के डीएमके के नेता पूरा कर रहे है, श्रीलंका के राष्ट्रपति की भारत यात्रा का विरोध करते हुए। एफडीआई (फोरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट) को मंजूरी न दिलवा पाने के लिए विवश डा. मनमोहन सिंह को अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान अपने मीडिया के जरिए ऐसी लानत- मलानत भेज रहा है जैसे वे राष्ट्राध्यक्ष न होकर उसके वायदा खिलाफ नौकर हों। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि आज सभी को अपने-अपने हिस्से का हिन्दुस्तान किश्तों में या एक मुश्त चाहिए।
बात शुरू करते है आरक्षण के दांव से। कांग्रेस ने अजा-अजजा वर्ग के लिए प्रमोशन में रिजव्रेशन को कैबिनेट में मंजूरी दिलवाकर राज्यसभा में रखा। सुप्रीम कोर्ट ने नागराज और इन्दिरा साहनी केस में एक के बाद एक व्यवस्थाएं दी कि पदोन्नति में आरक्षण संविधान में समता के अधिकार का अतिक्रमण हैं।
सॉलिसीटर जनरल गुलाम वाहनवती की राय में भी यह संविधान विरूद्ध है।
इसके बाद भी कांग्रेस क्यों तुली है। यद्यपि जब वह एक बेसहारा महिला को हक से वंचित (साहबानो केस) करने के लिए संविधान में संशोधन ला सकती है तो प्रमोशन में रिजव्रेशन के लिए क्यों नहीं? लेकिन इस बार स्थिति उलट है। वास्तव में वह इस वर्ग को चाहकर भी लाभ नहीं दे सकती। लेकिन वह लाभ देते हुए दिखना चाहती है। इससे पहले सच्चर आयोग ने मुसलमानों की बरक्कत के लिए सिफारिशें की थी। आज तक एक भी लागू नहीं हुई अलबत्ता, मौके-बेमौके सलमान खुर्शीद जैसे नेता इस मुद्दे को उठाते रहते है। अगले साल कई राज्यों के चुनाव होने हैं। घोटालों से बदनाम और जनाधार के मामले में दीवालिया हो चली कांग्रेस इन्दिरा युग के वोट बैंक को येनकेन प्रकारेण वापस लाना चाहती है। इसके लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकती हैं। जातीय उन्माद का वातावरण निर्मित करने से लेकर-समाज को विभाजित करने तक। इसीलिए 15 अगस्त को लालकिले के प्राचीर से डॉ. मनमोहन सिंह के उद्बोधन में असम के मुसलमानों के साथ अत्याचार का जिक्र था, लेकिन मुंबई के आजाद मैदान में मुस्लिम कट्टरपंथियों के नंगा नाच को भूल गए। देश में लगभग 10 से 12 प्रतिशत मुसलमान हैं। अजा-अजजा वर्ग की जनसंख्या 18 से 20 प्रतिशत बैठती है। इस लिहाज से वह 30 से 32 प्रतिशत के वोट बैंक को पुख्ता कर लेना चाहती है।
यदि इन 30 प्रतिशत वोटरों का तीन चौथाई भी मत उसे मिल जाता है तो वह सत्ता के रेसलिंग रिंग में मेन प्लेयर बनी रहेगी। इसीलिए दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं का आजमगढ़ आना-जाना तीर्थाटन की भांति होता है और हेमंत करकरे की मौत के पीछे भगवा चरमपंथी नजर आते हैं।
इधर भाजपा जैसे भ्रम में फंसी राजनीतिक पार्टी शायद ही किसी ने देखा होगा। न तो लक्ष्य स्पष्ट न एजेन्डा और न भविष्य का नेता। कथित कट्टरपंथी और नरमपंथी नेताओं व कार्यकर्ताओं के दो पाटों में फंसी है। ले-देकर उसके पास तुरूप के इक्का नरेन्द्र मोदी हैं, पर उनके आगे करने पर तय है कि एनडीए दरक जाएगी। फिर भी एक नीति स्पष्ट दिखती है कि कांग्रेस जितने ही जोरदार शब्दों में मुसलमान बोलेगी भाजपा उससे भी बुलंद आवाज में हिन्दू। आजादी के पहले तक यही काम मुस्लिम लीग और आरएसएस किया करते थे। आजादी के बाद होने वाले हर दंगों में कांग्रेस का एक चिर परिचित आरोप हुआ करता था कि इसके पीछे मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों और आरएसएस का हाथ है।
वोट बैंक हथियाने के निमित्त यही काम आज कांग्रेस और भाजपा खुलकर और बेशर्मी के साथ करने लगे हैं। देश की सामाजिक समरसता और कौमी एकता के नारे कोरी लफ्फाजी और गुजरे जमाने के जुमले बन चुके हैं।
अब आते है ठाकरे परिवार पर। कांग्रेस को आस्तीन में सांप पालने का शगल पुराना है। पंजाब में भिंडरावाले को अकाली दल के प्रभाव को रोकने के लिए पाला पोसा था। उसी तर्ज में महाराष्ट्र में राज ठाकरे को आगे बढ़ा रही है ताकि शिवसेना को लग्गे से लगाया जा सके। पिछले पांच सालों से राज ठाकरे और उनकी मनसे महाराष्ट्र से बाहरी लोगों को भगाने की बात करते हुए उत्तर भारत के गरीब परदेशियों पर जुल्म ढा रही है। देश के संघीय ढांचे और संविधान को चुनौती दी जा रही है। इधर कांग्रेस का आलाकमान अंत:पुर में तालियां बजा रहा है। नक्सलियों पर यही आरोप है कि वे संविधान और कानून व्यवस्था को नहीं मानते व एक कथित शोषित समाज की सत्ता कायम करने में लगे है। इसके परिणाम में उन्हें जेल-गोलियां और मौत मिलती है। राज ठाकरे भी यही कर रहे हैं, लेकिन महाराष्ट्र सरकार उनके आदेश पर पुलिस अधिकारियों की बदली कर देती है। वे जितनी आग उगलते हैं उसी के हिसाब से उनकी रक्षा के लिए कमाण्डों की संख्या बढ़ा दी जाती है। ये दोहरे मापदण्ड क्यों ? यहां संविधान की रक्षा का सवाल क्यों नहीं ? यहां राज्य की सत्ता को चुनौती क्यों बर्दाश्त है? देश की जनता मूर्ख नहीं, वह ऐसे सवालों का जवाब सियासतदारों और सत्ता के दलालों से पूछती रहेगी। डीएमके अपनी स्थापना के साथ ही देश के संघीय ढांचे में फोड़े की तरह लहकता रहा है। हिन्दी विरोध के साथ शुरू हुआ आंदोलन तमिलों का सरपरस्त बनकर थम गया। आज डीएमके को श्रीलंका के तमिलों की चिंता है। वे मलेशिया में तमिलों की स्थिति को लेकर हिन्दुस्तान में आन्दोलन करते है। प्रवासी तामिलों की नाभिनाल भले ही हिन्दुस्तान में गड़ी है पर वे श्रीलंकाई और मलेशियाई पहले हैं। श्रीलंका में या मलेशिया में क्या हो रहा है यह हमारे दखल का विषय नहीं है। जैसे हम किसी दीगर राष्ट्र के दखल को बर्दाश्त नहीं करते वैसा ही अधिकार दूसरे राष्ट्रों का है। श्रीलंका के राष्ट्रपति राजपक्षे भारत आते है तो वे हमारे परम सम्मानीय मेहमान है। उनके साथ होने वाली कोई भी कृतघ्नता के लिए देश जिम्मेवार होगा। क्या डीएमके की राष्ट्र विरोधी और विभाजनकारी हरकतों को इसलिए बर्दाश्त किया जाता रहेगा कि वह यूपीए का अंग है और यूपीए को दोबारा सत्ता में आना है ? आज ये सभी सवाल हर सच्चे देशवासी को विचलित कर रहे हैं, जिसे इस मातृभूमि से अथाह प्रेम है ? क्या अब यह वक्त नहीं है कि हम अपने सियासी दलों को इन्ही सवालों के पैमाने पर तौले और भविष्य का फैसला लें? ये विचार आपके चिंतन मनन के लिए छोड़ रहा हूं..फिलहाल इतना ही।
-लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। सम्पर्क सूत्र - 09425813208.

Wednesday, September 5, 2012

अपने गिरेबां में झंककर तो देखो

 चंद्रिका प्रसाद चंद्र
वेहमारे पूर्वज थे। जब हम नहीं थे, तब भी धरती पर नदियां, पहाड़, जंगल, पशु-पक्षी और जानवर थे। हमारे धरती पर आते ही सभी सहमें चौंके फिर भी सभी ने हमारा स्वागत किया। नदियों ने जीवन, पहाड़ों, वृक्षों ने छाया दी, पशुओं ने दूध दिया, पोषण किया। हमने भी उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की।
फूल-पत्ती, पेड़-पौधे, वर्षा-बादल, अग्नि-वायु, नदी-पहाड़, समुद्र-वन पर ऋचाएं लिखीं, उनकी अभ्यर्थना की। वृक्षों ने मीठे फल दिये, और तो और मक्खी जैसे छोटे जीव ने अपनी अनुपम रचना से मधु दिये। आखेट युग से उद्योग युग तक का लम्बा सफर मनुष्य के विकास की कहानी है। प्रकृति के इन्हीं उपादानों ने हमें मनुष्य की संज्ञा दी। अनेक प्रसंगों पर हमारी संवेदना की परीक्षा ली और उस परीक्षा में अनेक बार हम सफल हुए। नंदिनी गाय की रक्षा में दिलीप ने अपने को दांव पर लगा दिया और हमने कुत्ते को भी, गुरु बनाने में परहेज नहीं किया। नदियों ने हमें बहना सिखाया, हमने कोताही नहीं की उन्हें मां कहा, हर नदी को ‘गंगा च यमुना चैव गोदावरी सरस्वती’ कहकर सप्त नदियों से जोड़ा। सिर पर एक लोटा पानी गंगाजल बनकर हमें पवित्रतम होने की अनुभूति देता रहा। नद और नदियों को भी पुरुष और स्त्री की संज्ञा दी, उनकी मान-मनौव्वल की, उन पर कथाएं लिखीं आद्य शंकराचार्य भी ‘नर्मदाष्टक’ लिखने से अपने को नहीं रोक सके। श्रोण (सोन) और नर्मदा एक ही साथ अगल-बगल जन्मे, बचपन में खेले-कूदे साथ-साथ। प्रेम परवान चढ़ा। नर्मदा ने सहेली जुहिला से श्रोण नद के पास परिणय प्रस्ताव भेजा। श्रोण ने जुहिला से ही संगम बना पूर्वाभिमुख हो चल पड़ा। नर्मदा ने शाप दिया। जीवन की अंतिम सांस के साथ गंगाजल मुंह में डाल, विदा लेकर अपने को धन्य माना, उनके लिए मुक्ति मांगी।
वृक्ष हमारे साथी थे, उनकी छाया थकान मिटाती। फलों के राजा आम को भाई माना, उसकी टहनी तक नहीं तोड़ी, दातून नहीं किया, उसकी बौर को पूजा। प्रत्येक मांगलिक कार्य में आम की टेरी को कलश में रखकर पूजा की। अपने रोपे पौधे को बिना संस्कार किये फल, ग्रहण नहीं किया। अपने खोदे कु एं का पानी भी बिना पूजन के नहीं पिया। बौर को विवाह भी मौर से जोड़ा। पीपल, वट, तुलसी में ब्रrा की उपस्थिति मानी।
महुआ के फूल की डोभरी को हलछठ का फलाहार माना। फल के तेल से मौहरी छानी। डोरी के तेल से बरसाती कंदरी से मुक्ति पाई।
प्रकृति के कण-कण से जुड़कर प्रकृतस्थ रहे। नदी को प्रदूषित करने की बात नहीं जानते थे। पर्यावरण विषय नहीं था। हम पर्यावरणीय जीव थे, प्रकृति हमारी सांस थी, जीवन के सारे सुख-दुख साङो के थे। एक दिन सुना कि कोई पेड़ काट रहा है, काटने की आवाज आ रही थी। सयाने पेड़ ने कहा- देखो हमें कोई लोहा-कुल्हाड़ी तब तक नहीं काट सकती जब तक मेरा अपना सगा कोई लोहे का सहयोगी नहीं होगा। देखा, तो पाया गया कि कुल्हाड़ी का बेट लकड़ी का है। जब से किसी टहनी या शाखा ने विजातीय तत्वों से दुरभिसंधि कर ली तब से पेड़ों की संख्या कम होने लगी।
पहले हमने सिर्फ सूखे पेड़ों को काटा सिर्फ उपभोग के लिए। कालांतर में हरे पेड़ काटकर बेचना और धन कमाना शुरू हो गया। आम, जामुन, अमरूद, चीकू, बेर, तेंदू, चार हमारे मौसमी और सामूहिक फल थे।
जिसके लिए संघर्ष नहीं होता था। सहज रूप से एक दूसरे को देते थे, द्वार पर आने का पहला स्वागत इन्हीं फलों से होता था। ये बेचने की वस्तु नहीं थे। आज भी जिन गांवों में ये फल हैं, लोग इन्हें बेचते नहीं। जिस दिन से आम के बगीचे बंटे, पुश्तैनी पेड़ लम्बरबार हो गए। पेड़ों ने फलना, बंद कर दिया। प्रत्येक वर्ष फलने वाले तीसरे साल आने लगे लगे। वे आभास दिला रहे हैं कि आपने भाई को बेचा है। पेड़ की शाखाएं टूटने लगीं, पेड़ सूखने लगे। बगीचे समाप्त होने की कगार पर हैं। ‘चिपको आन्दोलन’ से जुड़ी महिलाओं ने कितने वृक्षों से लिपटकर उनकी रक्षा की।
धरती जिस पर हम खड़े हैं, उसकी सतह भर से हम संतुष्ट नहीं हुए। उसके नीचे की र8 राशि को खोजने मे इस तरह जुटे कि सारी पृथ्वी खोद डाली। दोहन की इंतिहा कर दी। उसका संतुलन बिगड़ रहा है। धैर्य की भी सीमा होती है। पुराणोतिहास में कभी राजा सगर के साठ हजार पुत्रों ने अश्व र8 को धरती में छिपे होने के भ्रम में सारी धरती खोद डाली थी। धरती का पानी निकाल लिया। ध्यानस्थ कपिलमुनि के पीछे बंधे अश्व को देखकर अपशब्द बोले। समाधिस्थ मुनि ने आंख खोली, सभी सगर पुत्र जलकर खाक हो गए। उन्हीं का उद्धार करने वंशज भागीरथ को गंगा धरती पर लानी पड़ी। अब इस धरती के मनुष्य की रक्षा के लिए कोई भागीरथ नहीं आएगा। हमने समुद्र को ढकेल-पाट कंक्रीट के महल खड़े कर लिए। सुनामी की एक अंगड़ाई हमारा गर्व चूर करने के लिए पर्याप्त है। जनसंख्या बढ़ती रही, प्राकृतिक संसाधन कम होते जा रहे हैं।
पेड़ कम हुए, नदियां पाट दी गईं, प्रदूषण के गंदे नालों में सांस लेते हुए हम विकास की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं।
हमारी लोकचेतना जागृत थी। हमारे लोककथाओं में वृक्षों ने घरों की पहरेदारी की है। अब बाड़ ही मेड़ खा रही है। कहते हैं कि एक बार एक गांव में महामारी (हैजा) फैली। अकाल पड़ा। एक परिवार में सात भाई और एक बहन सोनिया रहते थे। घर छोड़ते भाइयों ने बहन से कहा- बहन! तुम्हारे लिए खाना पानी है, हम परदेश जा रहे हैं, किवाड़ बंद रखना, जब हम लौटें और कहें कि ‘सोनिया बहिनी, खोल दे किवाड़/सातों भाई दुआरे ठाढ़।’और वे चले गए। चोरों ने बात सुन ली।
महीनों बाद चोर आए-बोले- सोनिया बहिनी खोल दे किवाड़/सातों भाई दुआरे ठाढ़। जैसे ही बहन द्वार खोलने बढ़ी, बाड़ी से नीम का पेड़, बोल उठा-‘सोना बहिनी-खोले ना किवाड़/ चोर तोरे दुआरे ठाढ़। चोरी तो बच गई, चोरों ने पेड़ काट डाला। जब-जब वे चोरी करने आए, पेड़ की कटी शाखाएं, टहनियां बोल-बोल कर सोनिया को सावधान करती रहीं। अंत में जब सातों भाई आए-बोले, सूखी लकड़ियों ने पुष्टि की। बहिन ने किवाड़ खोला। बहन और भाई उस कटे पेड़ से लिपटकर रोते रहे। पेड़ प्यार के आंसुओं से सिंचकर हरा हो गया। कहां बिला गया यह भाव!
हरियाली उत्सव का सरकारी दिखावटी कर्मकाण्ड प्रत्येक वर्ष हो रहा है और वृक्ष कम होते जा रहे हैं। अपने गिरेबां में झंककर तो देखिए कि आप क्या कर रहे हैं? - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
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शिक्षक दिवस का सर्कस

चिन्तामणि मिश्र

हर साल पांच सितम्बर अपने माथे पर शिक्षक दिवस का शिलालेख उठाये आ खड़ा होता है। इस दिन महामहिम राष्ट्रपति, सरकार द्वारा पेश की गई शिक्षकों के नामों की पुरस्कार देने की घोषणा करते हैं।
सरकारी नौकरशाही को छोड़ कर कोई नहीं जानता कि पुरस्कृत किए जाने वाले शिक्षकों के चयन का मापदंड क्या है? खुद शिक्षक भी नहीं जानते। देश में इस दिन शिक्षा विभाग और कहीं-कहीं कुछ समाजसेवी संस्थाएं संक्षिप्त समारोह की रस्म अदा करने के लिए शिक्षक दिवस आयेजित करती हैं। ऐसे समारोह में लोग जाने से कतराते हैं। इस उदासीनता के चलते, बीस-तीस लोगों के बीच कुछ लोग शिक्षकों को तीन रुपए वाली माला पहना कर नारियल थमा देते हैं और शिक्षकों की महिमा पर बुझ-बुझ सा भाषण देकर बोझ उतार कर चल देते हैं। हर भाषण में शिक्षक की गरिमा का बखान और पूर्व राष्ट्रपति डा. राधाकृष्ण की शिक्षकीय प्रसिद्धि का उल्लेख करते हुए शिक्षक का सम्मान करने की जरूरत का विधवा-विलाप जरूर किया जाता है। शिक्षक भी अपनी तुलना डा. राधाकृष्ण से किए जाने पर गद- गद हो जाता है।
असल में हमारे देश में शिक्षक इतना निरीह प्राणी है कि वह समाज और सरकार की चतुराई को समझ नहीं पाता है कि लोग उसके पेशे को महान बता कर उसकी हंसी उड़ा रहे हैं। वह डा. राधाकृष्ण का स्वधर्मी और उनका हमपेशा होने का भ्रम पाले रहता है। उसे समझ ही नहीं आता कि अगर शिक्षक होना आज के युग में महान होता तो खुद डा. राधाकृष्ण शिक्षक ही बने रहते, राष्ट्रपति भवन में प्रवेश न करते। उन्होंने काठ की बेढंगी और खुरदरी कुर्सी की जगह आबनूसी चमाचम सिंहासन पर बैठने को महत्व दिया। आज तक किसी राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और बड़े ओहदेदारों ने अपना पद छोड़कर शिक्षक बनने का साहस नहीं दिखाया। जबकि अनेकों उदाहरण हर जगह हैं, जहां आईएएस, आईपीएस बनने के लिए शिक्षक का पद छोड़ दिया। हमारे देश में शिक्षक के पद को गरिमा, सम्मान के साथ देखा ही नहीं जाता। शिक्षक के साथ बेचारा का पुछल्ला जुड़ा है। सरकार के अन्य विभागों के कर्मचारियों की तुलना में शिक्षक सर्वाधिक शिक्षित होता है।
डीलिट और पीएचडी उपाधिधारी स्कूलों में पचासी रुपए रोज की मजदूरी पर संविदा शिक्षक की तख्ती अपने गले में लाटकाए नरक भोग रहे हैं। हर साल कलेक्टर बहादुर जिले में श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी घोषित करते हैं, किन्तु इन भाग्यहीन शिक्षकों को अकुशल श्रमिकों से भी कम मजदूरी देकर सरकार अपने ही फैसले की अर्थी निकाल रही है। लेकिन शिक्षकों के लिए सरकार की संवेदना कुनमुनाती तक नहीं।
शिक्षक पेशे का आजादी के बाद सर्वाधिक अवमूल्यन हुआ है। ऐसी गिरावट जब देश गुलाम था तब नहीं हुई। स्कूलों का निरीक्षण करने वाले अधिकारी कभी शिक्षक की कुर्सी पर नहीं बैठते थे। किसी भी कार्यालय में शिक्षक के जाने पर उसे बैठने के लिए कुर्सी दी जाती थी। स्कूलों में बिना संस्था प्रधान की अनुमति लिए वर्दीधारी पुलिस किसी भी हालत में स्कूलों में प्रवेश नहीं कर सकती थी। आज पुरानी मर्यादाओं का हमारे देश के तारणहारों ने श्राद्ध कर दिया है। अब तो अधिकारी शिक्षकों की कुर्सी पर बैठते ही नहीं बल्कि शिक्षक को अपने सामने खड़ा रखते हैं और निहायत अशोभनीय सलीके से बात करते हैं।
हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा को लेकर नाना प्रकार के प्रयोग होते रहते हैं।
कभी प्राथमिक और माध्यमिक परीक्षाओं के लिए जिला और संभागीय स्तर पर बोर्ड बना देते हैं तो वे कभी इन परीक्षाओंे को गृह परीक्षा घोषित कर देते हैं और आदेश जारी होता है कि किसी छात्र को फेल न किया जाए। अब सुना है कि प्राथमिक और माध्यमिक परीक्षाओं के लिए फिर बोर्ड बनाने का धतकरम शुरू है। नौकरशाही शिक्षा और शिक्षक का नए-नए हथकन्डों से चीरहरण करती रहती है। शिक्षक के न जाने कितने मालिक हैं। पटवारी, तहसीलदार, डिप्टी कलेक्टर, कलेक्टर, जनपद और जिला पंचायत के अध्यक्ष ,मुख्यकार्यपालन अधिकारी के अलावा शिक्षा विभाग के अधिकारी स्कूलों का निरीक्षण करते हैं। गांव में पंच, सरपंच भी निरीक्षण के लिए और शहरों में पार्षद महापौर शिक्षक की जांच करते हैं। इनमें से कई तो ऐसे भी हैं जो वर्षो पहले प्राथमिक कक्षा में अपना बस्ता छोड़ कर स्कूल को आखरी सलाम बोल कर गायब हो गए थे। अब ऐसे ही लोग शिक्षा और शिक्षक का मूल्यांकन कर रहे हैं। इसे नकारा नहीं जा सकता कि शिक्षकों का एक तबका नियमित स्कूल नहीं जाता और पढ़ाने में रुचि नहीं रखता है। चन्द काली भेड़ें कहां नहीं होती। कुछ गैर-जिम्मेवार लोगों के आधार पर पूरे वर्ग को गैरजिम्मेवार कहना अन्याय है। छात्र आठवीं पास कर लेते हैं, किन्तु गिनती और वर्णमाला तक नहीं आती। लेकिन क्या इसके लिए केवल शिक्षक ही दोषी हैं। हर स्कूल में शिक्षकों से गैर शिक्षिकीय कार्य पूरे साल लिए जाते हैं।
मध्यान्ह भोजन में रोज कई घन्टे नदारद होते हैं। स्कूलों में कागजी लिखापढ़ी और अनकों जानकारियों के प्रपत्र भी भरने और संकुल भेजने की ड्युटी शिक्षकों की है। स्कूलों में चपरासी नहीं रखे जाते अस्तु शिक्षक के जिम्मे उसका भी काम थोपा जाता है। छात्र पढ़ने में रुचि नहीं लेते, क्योंकि उन्हें मालूम है कि वे फेल नहीं किए जाएंगे। ऐसे लापरवाह छात्रों को ताड़ना देना तो बहुत दूर की बात है, इनसे सख्ती से बोलना गुनाह घोषित कर दिया गया है। एफआईआर दर्ज हो जाती है। सरकार और प्रशासन को शिक्षक कामचोर दिखते हैं। समानता और न्याय तो तब होता जब सरकार तहसील कार्यालयों, अस्पतालों, आरटीओ दफ्तरों और पुलिस थानों में शिक्षकों को भी निरीक्षण करने का अधिकार इसी उदारता से देने की हिम्मत दिखाए।
एक प्रश्न यह भी खड़ा है कि जिन लोगों का सरकारी स्कूलों में निरीक्षण करने का अधिकार दिया गया है उनमें से कई लोग अपने बच्चों को खुद घर पर नहीं पढ़ाते हैं, क्योंकि किताबें और पाठ ठीक से समझ में ही नहीं आते।
ऐसे हालात हर जगह हैं। हमारे समाज की तरह सरकारी कर्मचारियों में भी वर्ण भेद है। सरकारी कर्मचारियों की जाति में शिक्षक महादलित श्रेणी में शुमार किया जाता है। इसका उद्धार इस कलि-काल में भगवान श्री राम तो अवतार लेकर नहीं करेंगे। हां शायद कभी कोई डा. भीमराव अम्बेडकर शिक्षकों की दशा जो दुर्दशा बन गई है, उससे निजात दिलाने के लिए आए, तभी इनकी गरिमा और इनका सम्मान वापस आ सकता है, अन्यथा ऐसे शिक्षक दिवस और कुछ को पुरस्कृत करने की रस्म का कोई औचित्य नहीं है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450. 

Monday, September 3, 2012

इस लोकतंत्रलीला में कौन हीरो कौन विलेन!


ऐसा हठयोग तो लोकतंत्र में ही चल सकता है, माओतंत्र में नहीं। तालिबान तंत्र में तो हरगिज नहीं। अभी हाल ही में अफगानिस्तान के समरकंद में नाचते-गाते 17 स्त्री-पुरुषों का गला रेत दिया तालिबानियों ने। अपने यहां लोकतंत्र है, इसलिए कोई कुछ भी कहने को स्वतंत्र हैं-स्वतंत्र क्या स्वच्छन्द हैं।
अभिव्यक्ति का सर्वोच्च मंच पार्लियामेंट पिछले दस दिनों से ठप पड़ी है। संसद में हल्ला-सड़क में हंगामा। एक तरफ सोनिया गांधी तो दूसरी तरफ सुषमा स्वराज। सुषमा जी का हठ है कि प्रधानमंत्री इस्तीफा दें तो संसद चले। सोनिया जी का जवाब है मनमोहन जी इस्तीफा नहीं देंगे सो नहीं देंगे। दोनों ओर तर्को-कुतर्को की हठात् मुठभेड़। कोई तीसरा रास्ता नहीं। डॉ. मनमोहन सिंह असल में नरसिंहराव के शिष्य हैं। राव साहब के सामने जब भी ज्वलंत मुद्दे आते, तो वे बिना सोचे विचारे उसे "˜फ्रीज" कर देते। मौन होकर राज चलाया। जरूरी बहुमत नहीं था तो भी। ज्यादा जरूरत पड़ी तो झरखण्डी सांसदों को खरीद लिया। संसद में खरीद-फरोख्त का फार्मूला उन्हीं का ईजाद किया हुआ है। यूपीए-प्रथम में भी वही काम आया।
अमेरिका के साथ परमाणु समझौते को लेकर संसद के जो हालात थे वही आज भी हैं। इत्तेफाक देखिए, उस बार का डेडलॉक भी ऊर्जा को लेकर था इस बार भी ऊर्जा को लेकर है। परमाणु समझौते के बाद "परमाणु भट्ठियों" से तो महज ढाई हजार मेगावाट बिजली बननी है, पर इस बार कोयले से कोई 40 हजार मेगावाट की बिजली बनाने का करार है। यह करार देश के निजी क्षेत्र की कम्पनियों और पूंजीपतियों के साथ हुआ है।
नब्बे के दशक के पहले दीवारों पर एक गलीज नारा लिखा जाता था।
"खादी ने मखमल से ऐसी साठगांठ कर डाली है, टाटा-बिड़ला- डालमिया की बरहोंमास दिवाली है।" खादी और मखमल की यह साठगांठ अब गाली नहीं रही, प्रशंसापत्र हो चुकी है। ये नारा समाजवादियों का था, आज के प्रखर समाजवादी मुलायम सिंह का लंच अम्बानी साहब के साथ होता है तो डिनर सहाराश्री सुब्रतो राय के साथ।
कुछेक साल पहले हमारे इलाके में एक बड़े उद्योगपति ने अपने सीमेंट कारखाने के लिए कैपटिव पॉवर प्लांट डाला था। सूबे के मुख्यमंत्री जी उद्घाटन करने आए। उद्घाटन के पहले सार्वजनिक सभा के मंच में उद्योगपति जी को दण्डवत् प्रणाम किया। मंच पर ही बैठे एक पुराने खांटी समाजवादी नेता के मुंह से निकल गया "देखो पूंजी के आगे सत्ता कैसे बिछी पड़ी है, इस देश का अब तो भगवान ही मालिक।" बहरहाल खादी और मखमल के बीच साठगांठ कोई गलीज नारा नहीं रहा। सुषमाजी को यह समझना चाहिए। उन्हें कौन याद दिलाए कि वाजपेई जी की पहली तेरह दिन की सरकार ने सिर्फ एक फैसला लिया था, महाराष्ट्र में विदेशी कम्पनी एनरान के पॉवर प्लांट के क्लियरेन्स का। तब पुण्यात्मा प्रमोद महाजन जी थे। एनरान की सत्ता के साथ सौदेबाजी और पैसठ करोड़ रुपये के घपले का मामला उठा था। बाद में कम्पनी ने कैफियत दी थी कि ये रूपए कमीशन में नहीं वातावरण निर्माण में खर्च हुए हैं। दुनिया भर में एक अकेली एनडीए सरकार ही ऐसी थी जिसने सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने के लिए भरा पूरा विनिवेश मंत्रालय ही बना दिया था। अरूण शोरी साहब उसके मंत्री थे। बाल्को का सौदा अनिल अग्रवाल की स्टरलाइट के साथ हुआ। बताते हैं कि स्टरलाइट ने जितनी पूंजी लगाकर बाल्को का अधिग्रहण किया था, उतना तो उसने कारखाने का स्क्रैप बेंचकर कमा लिया। इस दौर में और भी सौदे हुए। आईटीडीसी के होटल बिके।
वाजपेयी जी के मानस दमाद रंजन भट्टाचार्य पर अंगुलियां उठी। और अब छत्तीसगढ़ में गड़करी साहब के प्रिय संचेती ब्रदर्स की कम्पनी को छत्तीसगढ़ खनिज विकास निगम का हिस्सा बेचने का मामला गरमाया है।
कांग्रेस और भाजपा के चाल चरित्र और चेहरे में कोई बुनियादी फर्क नहीं। सो जो लोग कहते है कि भाजपा संसद में बहस से इसलिए बचना चाहती है कि वह कहीं निपर्द न हो जाए। संभवत: ठीक ही कहते हैं। अपने ग्रेट इंडियन पॉलटिकल थियेटर में नाना प्रकार के पात्र हैं।
खबर है कि भाजपा ने ममता बनर्जी से आग्रह किया है कि वे दागी यूपीए से बाहर आ जाएं। ममता जी का हठ तो हठों का सरताज है। दुनिया की ऐसी पहली घटना होगी जब रेल मंत्री को बजट पेश करने के बाद पद त्यागना पड़ा। दिनेश त्रिवेदी ममता हठ के शिकार हो गए। जाधवपुर यूनिवर्सिटी के एक प्राध्यापक ने कार्टून में इस घटना की कलाकारी दिखाई तो जेल भेज दिया गया। एक बच्ची ने पश्चिम बंगाल के भविष्य को लेकर सवाल पूछा तो उसे माओवादी करार दे दिया गया। हाल ही में एक किसान ने कृषकों की समस्या पर उनका ध्यान खींचा तो उसे भी नक्सली करार दे दिया गया। ममता जी सिंहवाहिनी हैं, रायल बंगाल टायगर पर सवार हैं, जाहिर है उनका हठ-हठात् नहीं होता। योगासान और अनुलोम विलोम से ऊब चुके बाबा रामदेव भी राजनीति के रंगमंच में दाल-भात में मूसरचंद की तरह हाजिर हो गए। आंवला और एलोवेरा के जूस की कमाई और योग की ट्यूशन फीस से इतनी रकम आ गई कि उसका निवेश कहीं न कहीं तो करना पड़ेगा। उन्हें राजीव दीक्षित याद नहीं आते। वही प्रखर मेधावी राजीव दीक्षित जिन्होंने भारत स्वाभिमान आन्दोलन चलाया और रामदेव की सर्वस्वीकार्यता की पृष्ठभूमि तैयार की। फर्जी पासपोर्ट बनवाने का मुकदमा झेल रहे बालकृष्ण, भगत सिंह और सुभाषचन्द्र बोस हो गए। रामलीला मैदान में पुलिस की लाठियों से मरने के लिए छोड़ दी गई राजबाला-वीरांगना लक्ष्मीबाई हो गई। मैंने कहीं पढ़ा था कि एक बार इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र से पण्डित नेहरू के खिलाफ एक साधु को चुनाव लड़ाने की तैयारी की तो पण्डित नेहरू ने कहा कि यदि साधु-बाबाओं को ही देश की राजनीति करनी है तो मैं राजनीति ही छोड़े देता हूं। बाबा रामदेव के लिए कई क्षेत्र हैं। मठ-मंदिरों, धार्मिक स्थलों में कथित मठाधीशों-बाबाओं के भ्रष्टाचार-व्यभिचार के खिलाफ अभियान चलाएं, समूचा देश उनके पीछे हो लेगा, पर नेताओं व राजनीतिक दलों के पपेट बनकर वे इंडियन पॉलटिकल थिएटर में महज विदूषक बनकर रह जाएंगे।
संसद विधानसभा व अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं में अब तर्क-तथ्य और संवाद के लिए कोई जगह नहीं। यहां तक कि अब विवाद की भी गुंजाइश खत्म होती जा रही है। संवाद से समाधान निकलता है विवाद से विमर्श शुरू होता है, पर हठ का क्या इलाज? जो ठान लिया सो ठान लिया। अपना लोकतंत्र फिलहाल इसी हठयोग के चलते शीर्षासन पर है।
जयराम शुक्ल
लेखक दैनिक स्टार समाचार के सम्पादक एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं.
jairamshuklarewa@gmail.com