चंद्रिका प्रसाद चंद्र |
वेहमारे पूर्वज थे। जब हम नहीं थे, तब भी धरती पर नदियां, पहाड़, जंगल, पशु-पक्षी और जानवर थे। हमारे धरती पर आते ही सभी सहमें चौंके फिर भी सभी ने हमारा स्वागत किया। नदियों ने जीवन, पहाड़ों, वृक्षों ने छाया दी, पशुओं ने दूध दिया, पोषण किया। हमने भी उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। फूल-पत्ती, पेड़-पौधे, वर्षा-बादल, अग्नि-वायु, नदी-पहाड़, समुद्र-वन पर ऋचाएं लिखीं, उनकी अभ्यर्थना की। वृक्षों ने मीठे फल दिये, और तो और मक्खी जैसे छोटे जीव ने अपनी अनुपम रचना से मधु दिये। आखेट युग से उद्योग युग तक का लम्बा सफर मनुष्य के विकास की कहानी है। प्रकृति के इन्हीं उपादानों ने हमें मनुष्य की संज्ञा दी। अनेक प्रसंगों पर हमारी संवेदना की परीक्षा ली और उस परीक्षा में अनेक बार हम सफल हुए। नंदिनी गाय की रक्षा में दिलीप ने अपने को दांव पर लगा दिया और हमने कुत्ते को भी, गुरु बनाने में परहेज नहीं किया। नदियों ने हमें बहना सिखाया, हमने कोताही नहीं की उन्हें मां कहा, हर नदी को ‘गंगा च यमुना चैव गोदावरी सरस्वती’ कहकर सप्त नदियों से जोड़ा। सिर पर एक लोटा पानी गंगाजल बनकर हमें पवित्रतम होने की अनुभूति देता रहा। नद और नदियों को भी पुरुष और स्त्री की संज्ञा दी, उनकी मान-मनौव्वल की, उन पर कथाएं लिखीं आद्य शंकराचार्य भी ‘नर्मदाष्टक’ लिखने से अपने को नहीं रोक सके। श्रोण (सोन) और नर्मदा एक ही साथ अगल-बगल जन्मे, बचपन में खेले-कूदे साथ-साथ। प्रेम परवान चढ़ा। नर्मदा ने सहेली जुहिला से श्रोण नद के पास परिणय प्रस्ताव भेजा। श्रोण ने जुहिला से ही संगम बना पूर्वाभिमुख हो चल पड़ा। नर्मदा ने शाप दिया। जीवन की अंतिम सांस के साथ गंगाजल मुंह में डाल, विदा लेकर अपने को धन्य माना, उनके लिए मुक्ति मांगी। वृक्ष हमारे साथी थे, उनकी छाया थकान मिटाती। फलों के राजा आम को भाई माना, उसकी टहनी तक नहीं तोड़ी, दातून नहीं किया, उसकी बौर को पूजा। प्रत्येक मांगलिक कार्य में आम की टेरी को कलश में रखकर पूजा की। अपने रोपे पौधे को बिना संस्कार किये फल, ग्रहण नहीं किया। अपने खोदे कु एं का पानी भी बिना पूजन के नहीं पिया। बौर को विवाह भी मौर से जोड़ा। पीपल, वट, तुलसी में ब्रrा की उपस्थिति मानी। महुआ के फूल की डोभरी को हलछठ का फलाहार माना। फल के तेल से मौहरी छानी। डोरी के तेल से बरसाती कंदरी से मुक्ति पाई। प्रकृति के कण-कण से जुड़कर प्रकृतस्थ रहे। नदी को प्रदूषित करने की बात नहीं जानते थे। पर्यावरण विषय नहीं था। हम पर्यावरणीय जीव थे, प्रकृति हमारी सांस थी, जीवन के सारे सुख-दुख साङो के थे। एक दिन सुना कि कोई पेड़ काट रहा है, काटने की आवाज आ रही थी। सयाने पेड़ ने कहा- देखो हमें कोई लोहा-कुल्हाड़ी तब तक नहीं काट सकती जब तक मेरा अपना सगा कोई लोहे का सहयोगी नहीं होगा। देखा, तो पाया गया कि कुल्हाड़ी का बेट लकड़ी का है। जब से किसी टहनी या शाखा ने विजातीय तत्वों से दुरभिसंधि कर ली तब से पेड़ों की संख्या कम होने लगी। पहले हमने सिर्फ सूखे पेड़ों को काटा सिर्फ उपभोग के लिए। कालांतर में हरे पेड़ काटकर बेचना और धन कमाना शुरू हो गया। आम, जामुन, अमरूद, चीकू, बेर, तेंदू, चार हमारे मौसमी और सामूहिक फल थे। जिसके लिए संघर्ष नहीं होता था। सहज रूप से एक दूसरे को देते थे, द्वार पर आने का पहला स्वागत इन्हीं फलों से होता था। ये बेचने की वस्तु नहीं थे। आज भी जिन गांवों में ये फल हैं, लोग इन्हें बेचते नहीं। जिस दिन से आम के बगीचे बंटे, पुश्तैनी पेड़ लम्बरबार हो गए। पेड़ों ने फलना, बंद कर दिया। प्रत्येक वर्ष फलने वाले तीसरे साल आने लगे लगे। वे आभास दिला रहे हैं कि आपने भाई को बेचा है। पेड़ की शाखाएं टूटने लगीं, पेड़ सूखने लगे। बगीचे समाप्त होने की कगार पर हैं। ‘चिपको आन्दोलन’ से जुड़ी महिलाओं ने कितने वृक्षों से लिपटकर उनकी रक्षा की। धरती जिस पर हम खड़े हैं, उसकी सतह भर से हम संतुष्ट नहीं हुए। उसके नीचे की र8 राशि को खोजने मे इस तरह जुटे कि सारी पृथ्वी खोद डाली। दोहन की इंतिहा कर दी। उसका संतुलन बिगड़ रहा है। धैर्य की भी सीमा होती है। पुराणोतिहास में कभी राजा सगर के साठ हजार पुत्रों ने अश्व र8 को धरती में छिपे होने के भ्रम में सारी धरती खोद डाली थी। धरती का पानी निकाल लिया। ध्यानस्थ कपिलमुनि के पीछे बंधे अश्व को देखकर अपशब्द बोले। समाधिस्थ मुनि ने आंख खोली, सभी सगर पुत्र जलकर खाक हो गए। उन्हीं का उद्धार करने वंशज भागीरथ को गंगा धरती पर लानी पड़ी। अब इस धरती के मनुष्य की रक्षा के लिए कोई भागीरथ नहीं आएगा। हमने समुद्र को ढकेल-पाट कंक्रीट के महल खड़े कर लिए। सुनामी की एक अंगड़ाई हमारा गर्व चूर करने के लिए पर्याप्त है। जनसंख्या बढ़ती रही, प्राकृतिक संसाधन कम होते जा रहे हैं। पेड़ कम हुए, नदियां पाट दी गईं, प्रदूषण के गंदे नालों में सांस लेते हुए हम विकास की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। हमारी लोकचेतना जागृत थी। हमारे लोककथाओं में वृक्षों ने घरों की पहरेदारी की है। अब बाड़ ही मेड़ खा रही है। कहते हैं कि एक बार एक गांव में महामारी (हैजा) फैली। अकाल पड़ा। एक परिवार में सात भाई और एक बहन सोनिया रहते थे। घर छोड़ते भाइयों ने बहन से कहा- बहन! तुम्हारे लिए खाना पानी है, हम परदेश जा रहे हैं, किवाड़ बंद रखना, जब हम लौटें और कहें कि ‘सोनिया बहिनी, खोल दे किवाड़/सातों भाई दुआरे ठाढ़।’और वे चले गए। चोरों ने बात सुन ली। महीनों बाद चोर आए-बोले- सोनिया बहिनी खोल दे किवाड़/सातों भाई दुआरे ठाढ़। जैसे ही बहन द्वार खोलने बढ़ी, बाड़ी से नीम का पेड़, बोल उठा-‘सोना बहिनी-खोले ना किवाड़/ चोर तोरे दुआरे ठाढ़। चोरी तो बच गई, चोरों ने पेड़ काट डाला। जब-जब वे चोरी करने आए, पेड़ की कटी शाखाएं, टहनियां बोल-बोल कर सोनिया को सावधान करती रहीं। अंत में जब सातों भाई आए-बोले, सूखी लकड़ियों ने पुष्टि की। बहिन ने किवाड़ खोला। बहन और भाई उस कटे पेड़ से लिपटकर रोते रहे। पेड़ प्यार के आंसुओं से सिंचकर हरा हो गया। कहां बिला गया यह भाव! हरियाली उत्सव का सरकारी दिखावटी कर्मकाण्ड प्रत्येक वर्ष हो रहा है और वृक्ष कम होते जा रहे हैं। अपने गिरेबां में झंककर तो देखिए कि आप क्या कर रहे हैं? - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क सूत्र - 09407041430. |
Wednesday, September 5, 2012
अपने गिरेबां में झंककर तो देखो
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