(हिंदी विषय लेकर आईएएस में टापर रहे मनोज श्रीवास्तव (प्रमुख सचिव- मुख्यमंत्री) से जाने माने साहित्यकार और दैनिक स्टार समाचार के सम्पादक जयराम शुक्ल की बातचीत के प्रमुख अंश)
हिंदी भाषा का चटनीफिकेशन
हालांकि मैं किसी भाषाई शुद्धता का समर्थक नहीं हूं, क्योंकि भाषा अपने आप में एक ऐसा प्रवाह है, एक ऐसी नदी है जिसमें अड़ोस पड़ोस के बहुत से अन्य प्रवाहों का जल भी आकर मिलता रहता है। हम भाषाओं को किसी कठोर प्रकोष्ठों में बांधकर नहीं रख सकते। इसके बावजूद भाषा के लचीलेपन की भी एक सीमा है। मुझे याद है तब जबकि जवाहरलाल नेहरू हिंदुस्तानी को भारत की राजभाषा के रूप में अभिषिक्त करने के लिए पैरवी कर रहे थे उस समय निराला जी ने एक ट्रेन के कंपार्टमेंट में जाकर उनसे साफ-साफ कहा था कि "देख नेहरू ये बादशाह राम और बेगम सीता वाली हिंदी नहीं चलेगी"। निराला जी का आशय यह था कि भाषा अपने साथ एक संस्कृति का वहन भी करती है और इन संस्कारों में अपचित होकर भाषा की खिचड़ी नहीं पकाई जा सकती, लेकिन उस जमाने में बहस भाषा की खिचड़ी, भाषाओं के अंत:मिश्रण की थी, आज के समय में बहस खिचड़ी की ना होकर चटनी की है। टीवी चैनलों और कुछ अखबारों ने मिलकर हिंदी भाषा का चटनीफिकेशन शुरू किया है। अब उसमें अंग्रेजी के शब्द मजे के लिए मिलाए जाते हैं जरूरत के लिए नहीं। हिंदी अखबार अपने स्तम्भों के शीर्षक अंग्रेजी में रखते हैं और हिंदी को इस तरह से लहक-लहक के बोलने वाली छोटे पर्दे की सुन्दरियां इस भाषा का तपोभंग कर रही है। दुख यह है कि जिस तरह से फ्रांस, रूस, कोरिया, और कनाडा में भाषा के भीतर एक पराई भाषा की गैरजरूरी मिलावट के विरूद्ध सरकारों ने कानून बनाए और व्यवस्थाएं स्थापित की उस तरह से हिंदी में हिंदीजगत की तरफ से कोई मांग ही नहीं आ रही, कोई आंदोलन खड़ा नहीं हो रहा।
ऐसी हिंग्लश से परहेज है
मेरी आपत्ति हिंदी के भीतर दूसरी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करने के विरूद्ध नहीं है, मेरी आपत्ति उस मनोवृत्ति के विरूद्ध है जिसके तहत हम अपने अंग्रेज ना हो पाने की क्षतिपूर्ति हिंदी में उनके शब्दों की गैरजरूरी भर्ती से करते हैं। मैंने एक हिंदी अखबार में पढ़ा जिसमें यूथ गैलरी के नाम से एक पृष्ठ निकलता है युवाओं पर केन्द्रित, वहां एक युवा कहता है कि मैं शू परचेज करने मार्केट गया, मुझे आपत्ति इस तरह की हिंदी से है अन्यथा अंग्रेजी के किसी शब्द विशेष से यदि आपके आशय का बेहतर संप्रेषण हो सकता है तो उसका हिंदी में आवक से कतई इंकार नहीं करना चाहिए।
हिंदी को हक़ की भाषा बनाने की जरुरत
छोटे प्रयास अपने स्तर पर किए जा सकते हैं। जब मैं भोपाल-होशंगाबाद कमिश्नर था तब मैंने अपने सभी जिलों को आदेश दिया था कि ग्राम पंचायतों में होने वाले निर्माण कार्यो के प्राक्कलन हिंदी में तैयार किए जाएं। मेरे लिए यह बात आश्चर्यचकित करने वाली थी कि ग्राम पंचायत तो हिंदी का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाएं हैं वहां निर्माण कार्यो के प्राक्कलन जिन इंजीनियर महोदय द्वारा तैयार किए जाते हैं वह इंजीनियर महोदय हिंदी भलीभांति जानते हुए भी अंग्रेजी में एस्टीमेट बनाते हैं। मैंने कहा कि ना केवल प्राक्कलन हिंदी में तैयार किए जाएं बल्कि उन्हें गांव के सूचना फलक पर किसी दीवाल पर भी चस्पा किया जाए तब मुझे लगा कि हिंदी की संभावना का बड़ा इस्तेमाल भ्रष्टाचार से लड़ने में हो सकता है, क्योंकि अंग्रेजी भारत में अभिव्यक्ति की भाषा उतनी नहीं हैं जितनी यह संगोपन की भाषा है। यह भाषा बहुत कुछ छिपाती है, ग्राम पंचायतों में अंग्रेजी में लिखे एस्टीमेट गांव वालों से बहुत कुछ छिपा लेता है। लेकिन जब हिंदी में एस्टीमेट बनाकर गांव के सूचना फलक पर प्रदर्शन हुआ तो गांव वालों ने देखा कि मुरम की लीड तो दूसरे गांव की बताई गई है लेकिन मुरम तो गांव का ही इस्तेमाल किया जा रहा है। यदि हम सब जन भाषा की पारदर्शिता का इस्तेमाल करें तो वह आम आदमी के व्यवस्था के समकक्ष सशक्तीकरण का एक अच्छा उपकरण बन सकती है। मैं यहां अंग्रेजी भाषा के संगोपन का एक उदाहरण देना चाहूंगा मैंने एक अखबार में एक गुटके का विज्ञापन देखा, पूरा विज्ञापन हिंदी में तैयार किया हुआ था लेकिन विज्ञापन में एक कोने में एक बात छोटे अक्षरों में अंग्रेजी में लिखी हुई थी, गुटका चुइंग इज इंजुरियस टू हेल्थ, यहां अंग्रेजी छिपाने के लिए इस्तेमाल हुई, जो बताने के लिए थी वह संप्रेषण नहीं है। हमारी व्यवस्था का तामझम, हमारी विसंगतियां, हमारा न्याय कई बार एक पराई भाषा के माध्यम से ना केवल जीवित चले आते हैं बल्कि उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं।
मत हिन्दी और अभिमत अंग्रेजी में!
यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि बाजार जनभाषा के माध्यम से चलेंगे। स्टार चैनल शुरू में जब भारत आया तो उसके सारे सीरियल्स अंग्रेजी के होते थे लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने महसूस किया कि यदि भारत में व्यवसाय करना है तो अंग्रेजी उन्हें दूर तक नहीं ले जा सकती, इसलिए जहां रूपया कमाने की बात होती है वहां हिंदी की सेवाएं लेने में बाजार की ताकतें तत्काल अपना लचीलापन दिखाती हैं, फर्क आता है जब इसी बाजार से कमाई गई आर्थिक ताकत के बल पर लोग एक वर्गीय चेतना की स्थापना करने के लिए औपनिवेशिक भाषा का सहारा लेते हैं। मैंने हिंदी सिनेमा में हिंदी के दम पर रोजी रोटी कमाने वालों को इंटरव्यू के वक्त अंग्रेजी में बोलते देखा है। प्रभुता की भाषा औपनिवेशिक है और लाभ की भाषा हिंदी। मत हिंदी में मांगे जाएंगे और अभिमत अंग्रेजी में दिए जाएंगे।
भाषा को लेकर संजीदगी की जरूरत
बहुत कुछ दोष तो हिंदी समाज का है। हिंदी समाज ना तो औपनिवेशिक, आभिजात्य से लड़ने के लिए अपने को तैयार कर रहा है और ना ही क्षेत्रीय भाषाओं की तरह उसने एक ताकतवर उपराष्ट्रीयता का समर्थन किया है। तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलयालम, उड़िया, मराठी जैसी भाषाएं एक सशक्त उपराष्ट्रीयता का पोषण करती हैं और इस अर्थ में वे एक तरह की सामूहिकता की अभिव्यक्ति बनती हैं, हिंदी की मुश्किल ये है कि उसे अपनी अस्मिताई पहचान के रूप में स्वंय हिंदी भाषी ही नहीं लेते।
कंदराओं में वो ब्रह्मराक्षस कौन?
हिंदी, अंग्रेजी की अंतरराष्ट्रीयता और क्षेत्रीय भाषाओं की उपराष्ट्रीयता के बीच कहीं अनुपस्थित होकर रह गई है। इसका निदान खुद हिंदी समाज को ढूंढना होगा। खुद उसे सोचना होगा कि क्यों वह अपने लेखकों की पुस्तकें खरीदकर नहीं पढ़ता। उसे सोचना चाहिए कि वह आखिरी दिन कब था जब उन्होंने किसी हिंदी लेखक का उपन्यास, कथा संग्रह अथवा कविता संग्रह खरीदकर पढ़ा था, वह दिन कब था जब उन्होंने शिक्षा में या तंत्र में अंग्रेजी के अनावश्यक प्रवेश से होने वाली प्रतिभा क्षति के प्रति अपनी आपत्ति व्यक्त की थी। हिंदी समाज हिंदी को अपनी अस्मिता के स्थापन का एक प्लेटफार्म कब समङोगा, कब वह अपने इस लोकतांत्रिक दावे को बिना किसी आत्महीनता के ठोक कर कहेगा कि हमें हिंदी में फैसले सुने जाने का हक है, कि हमें चिकित्सा हो या अभियांत्रिकी उसकी पढ़ाई हिंदी में करने का हक है और इसके आधार पर पाई गई डिग्री को किसी भी जगह निर्योग्यता के रूप में प्रदर्शित करने के विरूद्ध हक है। जब तक हिंदी समाज हिंदी के प्रति आत्मीयता और अपनी अधिकार स्थापना की संचेतना विकसित नहीं कर लेता तब तक इस भाषा का उद्धार ही नहीं समाज का उद्धार भी असंभव है। जो समाज चेतन भगत की उपन्यासिकाओं को अपना प्रतिष्ठा प्रतीक मानता हो और अलका सरावगी जैसे लेखकों से सर्वथा अपरिचित हो उस समाज को अपने भीतर बहुत गहरे उतरकर देखने की जरूरत है कि उसके भीतर की कंदराओं में कौन सा ब्रम्ह राक्षस छिपा बैठा है।
रोमन लिपि यानी कि हिन्दी का मजाक
मुझे याद है कि आजादी के बाद भारत के नए महाप्रभुओं में से कुछ सज्जन रोमन लिपि में लिखी हिंदी को राजभाषा बनाने के जतन में लगे थे, ये तो पुरूषोत्तम दास टंडन, राजेन्द्र प्रसाद जी और कृपलानी जी जैसे लोगों का प्रयास था कि वह दुर्घटना नहीं हो पाई, लेकिन तब जो थोपने से नहीं हो पाया वह अब सोशल नेटवर्किग के हाथों में खुद को सौंपने से हो रहा है। रोमन की समस्या यह नहीं है कि वह पराई लिपि है, उसकी समस्या यह है कि वह एक असमर्थ लिपि है, वह दादा शब्द को नहीं लिख सकती, वह पिता शब्द को नहीं लिख सकती, वह माता शब्द को नहीं लिख सकती, वहां ये रिश्ते डाडा, पिटा, माटा में बदल जाते हैं। वह भारतीय संदर्भ के अनुकूल लिपि है ही नहीं, आज भी फेसबुक के संदेशों को यदि भारतीय जीवनानुभव के बगैर पढ़ा जाए तो उसमें लिखे हिंदी के रोमन कमेंट हंसने का जोरदार मसाला उपलब्ध करा सकते हैं। भाषा ही नहीं लिपि की भी एक संदर्भ संवेदनशीलता होती है और उन संदर्भो प्रसंगों को वहन करने में जो लिपि समर्थ नहीं है वह लिपि उस भाषा को वहन नहीं कर सकती और वह भाषा का संस्कृति का वहन नहीं कर सकती।
डीएनए में मातृभाषा के तत्व
नॉम चॉस्की का कहना है कि बच्चा जब पैदा होता है तो वह एक जन्मना व्याकरण के साथ पैदा होता है। यह व्याकरण यह भाषाई डीएनए उसे अपनी मां के रक्त और दूध से मिलता है। एकदम बचपन से ही मातृभाषा के प्रयोग की कीमत पर किसी ऐसी भाषा का प्रयोग करने से जो कि उसके परिवेश, परम्परा और पृष्ठभूमि से भिन्न है बच्चे में एक तरह से मनोवैज्ञानिक भ्रंश पैदा होता है इसलिए यह ध्यान रखना होगा कि बचपन जो बच्चों को एक स्वप्न की तरह निर्बन्ध और सहज लगता है सहसा किसी एक बोझ में ना बदल जाए। मातृभाषा मिलती है, पराई भाषा कमाई जाती है। जो दिन बच्चों के खेलने, कूदने, उछलने, मस्त रहने के दिन है वह दिन सहसा अजर्न की जद्दोजहद के दिन बन जाएं तो यह होगा कि हम एक मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक अपुष्ट या अर्धपुष्ट ऐसा नागरिक तैयार करेंगे जिसकी एकमात्र विशेषता फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना होगी। मातृभाषा बच्चे के भीतर की बहुत सी मांगों की पूर्ति करती है, वह एक तरह से उसका मानसिक न्यूट्रीशन है। हमें ध्यान रखना होगा कि हम शारीरिक कुपोषण की चिंता जिस तरह से कर रहे हैं कल को हमें मानसिक, हार्दिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से अल्पपोषित या कुपोषित बचपन की चिंता ना करना पड़े।
मनोज श्रीवास्तव होने के मायने
यह नाम जेहन में आते ही छवि उभरती है एक ऐसे कड़क प्रशासक की, जिसे देश के सर्वश्रेष्ठ 10 प्रभावशाली लोक प्रशासकों में से एक माना गया है। इन्हें इंदौर में डायनामाइट कलेक्टर के रूप में जाना पहचाना गया, तो विभिन्न मंत्रालयों में बेहद संजीदा और नवाचार प्रेमी सचिव के रूप में। लेकिन इन सबके ऊपर और पहले मनोज श्रीवास्तव हिन्दी के ऐसे विद्वान अद्धेता हैं, जिन्होंने हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि में प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान (बरकतउल्लाह विवि भोपाल) अजिर्त करने के साथ ही अपने भविष्य का माध्यम भी हिन्दी को बनाया। 87 में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में हिन्दी विषय ही चुना व प्रवीण्य सूची में प्रथम स्थान प्राप्त किया। अपने अत्यन्त व्यस्त प्रशासनिक दिनचर्या में भी ये अध्ययन, अन्वेषण और लेखन में पूरी ऊर्जा के साथ जुटे हैं। हाल में सुंदरकाण्ड एक पुर्नपाठ, के वृहद छ: खण्ड प्रकाशित हुए हैं। इनकी अन्य पुस्तकों में शिक्षा में संदर्भ और मूल्य, पंचशील, पहाड़ी कोरवा, व्यतीत वर्तमान और विभव, वंदेमातरम, यथाकाल शक्ति-प्रसंग व कविता संग्रह- मेरी डायरी, यादों के संदर्भ पशुपति, स्वरांकित व कुरान कविताएं हैं। इन्हें भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद एवं नेहरू केंद्र लंदन द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय वातायन पुरस्कार से सम्मानित किया गया, वहीं सुन्दरकाण्ड पर लिखी गई पुस्तक के लिए संत समाज ने अयोध्या में रामकिंकर पुरस्कार से विभूषित किया।
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