ऐसा हठयोग तो लोकतंत्र में ही चल सकता है, माओतंत्र में नहीं। तालिबान तंत्र में तो हरगिज नहीं। अभी हाल ही में अफगानिस्तान के समरकंद में नाचते-गाते 17 स्त्री-पुरुषों का गला रेत दिया तालिबानियों ने। अपने यहां लोकतंत्र है, इसलिए कोई कुछ भी कहने को स्वतंत्र हैं-स्वतंत्र क्या स्वच्छन्द हैं।
अभिव्यक्ति का सर्वोच्च मंच पार्लियामेंट पिछले दस दिनों से ठप पड़ी है। संसद में हल्ला-सड़क में हंगामा। एक तरफ सोनिया गांधी तो दूसरी तरफ सुषमा स्वराज। सुषमा जी का हठ है कि प्रधानमंत्री इस्तीफा दें तो संसद चले। सोनिया जी का जवाब है मनमोहन जी इस्तीफा नहीं देंगे सो नहीं देंगे। दोनों ओर तर्को-कुतर्को की हठात् मुठभेड़। कोई तीसरा रास्ता नहीं। डॉ. मनमोहन सिंह असल में नरसिंहराव के शिष्य हैं। राव साहब के सामने जब भी ज्वलंत मुद्दे आते, तो वे बिना सोचे विचारे उसे "˜फ्रीज" कर देते। मौन होकर राज चलाया। जरूरी बहुमत नहीं था तो भी। ज्यादा जरूरत पड़ी तो झरखण्डी सांसदों को खरीद लिया। संसद में खरीद-फरोख्त का फार्मूला उन्हीं का ईजाद किया हुआ है। यूपीए-प्रथम में भी वही काम आया।
अमेरिका के साथ परमाणु समझौते को लेकर संसद के जो हालात थे वही आज भी हैं। इत्तेफाक देखिए, उस बार का डेडलॉक भी ऊर्जा को लेकर था इस बार भी ऊर्जा को लेकर है। परमाणु समझौते के बाद "परमाणु भट्ठियों" से तो महज ढाई हजार मेगावाट बिजली बननी है, पर इस बार कोयले से कोई 40 हजार मेगावाट की बिजली बनाने का करार है। यह करार देश के निजी क्षेत्र की कम्पनियों और पूंजीपतियों के साथ हुआ है।
नब्बे के दशक के पहले दीवारों पर एक गलीज नारा लिखा जाता था।
नब्बे के दशक के पहले दीवारों पर एक गलीज नारा लिखा जाता था।
"खादी ने मखमल से ऐसी साठगांठ कर डाली है, टाटा-बिड़ला- डालमिया की बरहोंमास दिवाली है।" खादी और मखमल की यह साठगांठ अब गाली नहीं रही, प्रशंसापत्र हो चुकी है। ये नारा समाजवादियों का था, आज के प्रखर समाजवादी मुलायम सिंह का लंच अम्बानी साहब के साथ होता है तो डिनर सहाराश्री सुब्रतो राय के साथ।
कुछेक साल पहले हमारे इलाके में एक बड़े उद्योगपति ने अपने सीमेंट कारखाने के लिए कैपटिव पॉवर प्लांट डाला था। सूबे के मुख्यमंत्री जी उद्घाटन करने आए। उद्घाटन के पहले सार्वजनिक सभा के मंच में उद्योगपति जी को दण्डवत् प्रणाम किया। मंच पर ही बैठे एक पुराने खांटी समाजवादी नेता के मुंह से निकल गया "देखो पूंजी के आगे सत्ता कैसे बिछी पड़ी है, इस देश का अब तो भगवान ही मालिक।" बहरहाल खादी और मखमल के बीच साठगांठ कोई गलीज नारा नहीं रहा। सुषमाजी को यह समझना चाहिए। उन्हें कौन याद दिलाए कि वाजपेई जी की पहली तेरह दिन की सरकार ने सिर्फ एक फैसला लिया था, महाराष्ट्र में विदेशी कम्पनी एनरान के पॉवर प्लांट के क्लियरेन्स का। तब पुण्यात्मा प्रमोद महाजन जी थे। एनरान की सत्ता के साथ सौदेबाजी और पैसठ करोड़ रुपये के घपले का मामला उठा था। बाद में कम्पनी ने कैफियत दी थी कि ये रूपए कमीशन में नहीं वातावरण निर्माण में खर्च हुए हैं। दुनिया भर में एक अकेली एनडीए सरकार ही ऐसी थी जिसने सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने के लिए भरा पूरा विनिवेश मंत्रालय ही बना दिया था। अरूण शोरी साहब उसके मंत्री थे। बाल्को का सौदा अनिल अग्रवाल की स्टरलाइट के साथ हुआ। बताते हैं कि स्टरलाइट ने जितनी पूंजी लगाकर बाल्को का अधिग्रहण किया था, उतना तो उसने कारखाने का स्क्रैप बेंचकर कमा लिया। इस दौर में और भी सौदे हुए। आईटीडीसी के होटल बिके।
वाजपेयी जी के मानस दमाद रंजन भट्टाचार्य पर अंगुलियां उठी। और अब छत्तीसगढ़ में गड़करी साहब के प्रिय संचेती ब्रदर्स की कम्पनी को छत्तीसगढ़ खनिज विकास निगम का हिस्सा बेचने का मामला गरमाया है।
कांग्रेस और भाजपा के चाल चरित्र और चेहरे में कोई बुनियादी फर्क नहीं। सो जो लोग कहते है कि भाजपा संसद में बहस से इसलिए बचना चाहती है कि वह कहीं निपर्द न हो जाए। संभवत: ठीक ही कहते हैं। अपने ग्रेट इंडियन पॉलटिकल थियेटर में नाना प्रकार के पात्र हैं।
खबर है कि भाजपा ने ममता बनर्जी से आग्रह किया है कि वे दागी यूपीए से बाहर आ जाएं। ममता जी का हठ तो हठों का सरताज है। दुनिया की ऐसी पहली घटना होगी जब रेल मंत्री को बजट पेश करने के बाद पद त्यागना पड़ा। दिनेश त्रिवेदी ममता हठ के शिकार हो गए। जाधवपुर यूनिवर्सिटी के एक प्राध्यापक ने कार्टून में इस घटना की कलाकारी दिखाई तो जेल भेज दिया गया। एक बच्ची ने पश्चिम बंगाल के भविष्य को लेकर सवाल पूछा तो उसे माओवादी करार दे दिया गया। हाल ही में एक किसान ने कृषकों की समस्या पर उनका ध्यान खींचा तो उसे भी नक्सली करार दे दिया गया। ममता जी सिंहवाहिनी हैं, रायल बंगाल टायगर पर सवार हैं, जाहिर है उनका हठ-हठात् नहीं होता। योगासान और अनुलोम विलोम से ऊब चुके बाबा रामदेव भी राजनीति के रंगमंच में दाल-भात में मूसरचंद की तरह हाजिर हो गए। आंवला और एलोवेरा के जूस की कमाई और योग की ट्यूशन फीस से इतनी रकम आ गई कि उसका निवेश कहीं न कहीं तो करना पड़ेगा। उन्हें राजीव दीक्षित याद नहीं आते। वही प्रखर मेधावी राजीव दीक्षित जिन्होंने भारत स्वाभिमान आन्दोलन चलाया और रामदेव की सर्वस्वीकार्यता की पृष्ठभूमि तैयार की। फर्जी पासपोर्ट बनवाने का मुकदमा झेल रहे बालकृष्ण, भगत सिंह और सुभाषचन्द्र बोस हो गए। रामलीला मैदान में पुलिस की लाठियों से मरने के लिए छोड़ दी गई राजबाला-वीरांगना लक्ष्मीबाई हो गई। मैंने कहीं पढ़ा था कि एक बार इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र से पण्डित नेहरू के खिलाफ एक साधु को चुनाव लड़ाने की तैयारी की तो पण्डित नेहरू ने कहा कि यदि साधु-बाबाओं को ही देश की राजनीति करनी है तो मैं राजनीति ही छोड़े देता हूं। बाबा रामदेव के लिए कई क्षेत्र हैं। मठ-मंदिरों, धार्मिक स्थलों में कथित मठाधीशों-बाबाओं के भ्रष्टाचार-व्यभिचार के खिलाफ अभियान चलाएं, समूचा देश उनके पीछे हो लेगा, पर नेताओं व राजनीतिक दलों के पपेट बनकर वे इंडियन पॉलटिकल थिएटर में महज विदूषक बनकर रह जाएंगे।
संसद विधानसभा व अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं में अब तर्क-तथ्य और संवाद के लिए कोई जगह नहीं। यहां तक कि अब विवाद की भी गुंजाइश खत्म होती जा रही है। संवाद से समाधान निकलता है विवाद से विमर्श शुरू होता है, पर हठ का क्या इलाज? जो ठान लिया सो ठान लिया। अपना लोकतंत्र फिलहाल इसी हठयोग के चलते शीर्षासन पर है।
जयराम शुक्ल
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