चंद्रिका प्रसाद चंद्र | ||
सन् 1835 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में लार्ड मैकाले ने कहा था- मैंने लम्बाई से लेकर चौड़ाई तक समस्त भारत की यात्रा की है और अपनी इस यात्रा के दौरान मैंने एक भी व्यक्ति को नहीं देखा जो कि भिखारी हो, चोर हो। मुङो इस देश में ऐसी दौलत, ऐसी उच्च नैतिक मूल्य, ऐसी क्षमता वाले लोग दिखाई दिये हैं कि मैं नहीं समझता कि जब तक हम यहां की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत, जो कि इस देश की रीढ़ की हड्डी है, को तोड़ न दें, हम इस देश को कभी भी विजित कर पाएंगे और इसलिए मैं प्रस्तावित करता हूं कि हम उसके पुराने और प्राचीन शिक्षा प्रणाली, उसकी संस्कृति को बदल दें ताकि भारतीय समझने लगें कि यह सब (अपनी वस्तुएं) विदेशी हैं और अंग्रेजी हमारी अपनी भाषा से अधिक महान है, वे अपने आत्मसम्मान, अपनी मूल आत्मसंस्कृति को खो दें, और वैसे बन जाएं जैसा कि हम चाहते हैं। भारत सचमुच में हमारा शासित राष्ट्र बन जाए।’ आज पार्थिव रूप से न होते हुए भी मैकाले के भारतीय वंशज हैं। संसार भर के मनीषी यह मानते हैं कि बच्चे का स्वाभाविक विकास अपनी मातृभाषा में होता है। प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में, माध्यमिक शिक्षा राष्ट्रभाषा में और उच्चतर शिक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय भाषा में सीखना चाहिए। मैकाले ने अंग्रेजी को उच्चतर और माध्यमिक शिक्षा के लिए चुना था, क्योंकि उसे बाबू चाहिए थे। लेकिन ज्ञान आयोग ने एक ऐसी रिपोर्ट पेश की जिससे भारत की समस्त अस्मिता दांव पर लग गई। भारत, इंडिया हो गया। राजा भरत हाशिये पर हैं। इस ज्ञान आयोग की रिपोर्ट में पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाने की बात भी कही गई है। कई राज्यों में प्राथमिक स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाना शुरू कर दिया है। यह सारे देश ने मान लिया कि ज्ञान, बड़ी नौकरी और नए संसार की भाषा अंग्रेजी है। प्रगति और विकास के घोड़े पर सवार भारत आजादी के इतने दिनों बाद भी गुलामी की भाषा से मुक्त नहीं हो सका। हमारे महामहिम और प्रधानमंत्री अंग्रेजी में ही अपनी बात कहते हैं। काश! वे बंगला और पंजाबी में बोलते। अपने देश की भाषा में बोलना शायद हीनता बोध है। बांग्ला तो भारतीय भाषाओं में सबसे समर्थ है। ऐसी स्थिति में नेताओं और प्रशासकों से उम्मीद करना सूरज को दिया दिखाना है, क्योंकि वे मानते हैं कि देश अंग्रेजी के रथ पर सवार होकर ही विकास के सोपान चढ़ सकता है। कभी हम अंग्रेजी के बिना उत्कृष्ट थे, आज वहीं अंग्रेज हमें काउबेल्ट, सपेरों और जादूगरों के देश के रूप में जानते हैं। हमारी भाषाई सीमाएं जब कोई अंग्रेज बनाता है हम उसे मानक मान लेते हैं। गियर्सन ने पूर्वी हिन्दी में तीन बोलियों की चर्चा की है। अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी। सच तो यह है कि उन्होंने रीवा को न देखा, सुना और जाना। बघेल राजा थे उन्होंने बघेली लिख दी। रीमां रियासत में सेंगर बेनवंश, कोल, परिहार, चौहान दिग्गजों की पवाइयां थी। सभी की मूल बोली ‘रिमही’ थी। बघेल वंश और बघेलखण्ड की पहचान बघेलों से थी। वह बोली थी जिसे रिमही कहते हैं। सन 46 में निष्काषित राजा गुलाब सिंह ने कहा था कि ‘रीमा रिमहों का है।’ उन्होंने पुष्पराजगढ़ घोषणापत्र में ‘रिमही’ की बात की थी। वे रीवा को बघेली भी कह सकते थे। वे दूरदर्शी थे, उन्होंने रिमही की बात की। ता उम्र रिमहों के बीच रिमही में बोले। इस परम्परा का पालन मार्तण्ड सिंह ने भी किया। रिमही अवधी में कोई अन्तर नहीं। ‘तुलसी का मानस’ जितना रीमां में गाया जाता है, उतना अवध में नहीं। संवत् 1500-1600 के दौरान रेवाखण्ड में बीरभानु सिंह राजा थे, उनके समय में रेवाखण्ड का बहुत विस्तार हुआ था- एक दोहा है, ‘उत्तर सरिता सई लौं पश्चिम नदी धसान। पूरुब हद बिहार लौं, दक्षिण बौद्ध प्रमान।यह संयोग ही था कि उन्हीं दिनों तुलसी मानस लिखने को तैयार थे।’ मानस में हर तीसरी चौपाई रिमही है। ‘कृषी निरावहि चतुर किसाना’से लेकर ‘नाथ हमार इहै सेवकाई। लेहि न बासन बसन चुराई।’ मानस की अवधी में सत्तर अस्सी प्रतिशत शब्द रिमही के हैं। रिमही एक बोली है पता नहीं कैसे लोग ने इसे भाषा बनाकर किताबें लिख दीं। यदि ये भाषा है तो हिन्दी को क्या कहेंगे? आत्मश्लाघा के चलते यह सब काम हुआ जो नितांत गलत है। ‘पद्मावत’ के प्रसंग ठेठ रिमही के मानस में है। ‘जायस’ और ‘सलोन’का संबंध रीवा से था। देखें- ‘बरसहिं मघा झकोर झकोरी। मोर दोउ नैन चुअै जस ओरी।’ इसमें रिमही कहां नहीं है। बेनी छोर झरि जो बारा। सरग पतार होत अंधिआरा।‘मानस में रिमही शब्दावली शोधपत्र की आवश्कयता है।’ अवधी विशुद्ध रूप से रिमही है, चूंकि रीवा का कोई प्रवक्ता नहीं था इसलिए रिमही उपेक्षित रह गई। रीवा, सतना, सीधी, शहडोल, का कोई भी, प्रदेश के बाहर रिमहा कहलाता है। उसकी अलग धज और शान है। बघेली या बघेलखण्डी के रूप में उसकी पहचान नहीं है। हिन्दी विभिन्न लोक बोलियों का समुच्चय है। लोक भाषाएं किसी भी व्याकरण सम्मत भाषा से अधिक जीवन्त लचीली और सर्वग्राही होती है। बोलियों में ध्वनि, व्याकरण एवं शब्द भण्डार के भेद होते हैं। यदि दो बोलियों के शब्द भण्डार मूलत: भिन्न हैं तो अन्य समानताओं के रहते हुए भी उसके बोलने वाले एक दूसरे की बात न समङोंगे। मैथिल, मगही, छत्तीसगढ़ी के शब्द भण्डार अलग हैं लेकिन अवधी और रिमही के शब्द भण्डार एक हैं, बाबा नागाजरुन की मानें तो हिन्दी क्षेत्र की लोकबोलियां ही हिन्दी की रीढ़ हैं। यह भावना तुम्ही ने हमने घोली। जब छोरा गंगा किनारे वाला (अमिताभ बच्चन) अपनी बोली में बात करता है, तब उसके संवाद प्रांतीय भाषाओं की सीमा लांघकर राष्ट्रीय हो जाते हैं। ठेठ रिमहे अंदाज में जब वह बोलता है- ‘का फुकुर-फुकुर हवा भरते हैं, जाने नहीं, ठकुराइन के लड़िका भ’ और जब लोक शैली में- हमका अइसन वइसन न समझ हम बड़े काम की चीज। एक दिन गए हम जंगल मांही, मिलि गए हमका डाकू। केहू के हाथ म फरसा बल्लम, केहू के हाथ म चाकू। कौन भला है कौन बुरा है, हमका हवै तमीज गाता है, लोगों के दिल में गीत उतर जाते हैं। निरा रिमहे अंदाज में उसके गाए फगुआ ‘होरी खेले रघुबीरा अवध में’, और ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली’का अपना अंदाज है। राजभाषा समस्या नेताओं के हाथ की चूजी है। जिसे वे हल करना नहीं चाहते। इसी मुद्दे पर अपनी राजनीति चमकाते हैं- कहना पड़ता है कि- यह सियासत की तवायफ का दुपट्टा है/ किसी आंसुओं से तर नहीं होता। - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क सूत्र - 09407041430. |
Friday, September 14, 2012
हिन्दी की रीढ़ हैं लोकबोलियां
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