Thursday, September 20, 2012

प्रकृति के रहस्यों पर हस्तक्षेप!


ज्योतिषी जी पंचांग लिख रहे थे। दाएं-बाएं अनेक वर्षो के पंचांग बिखरे थे। अचानक भविष्य जानने के इच्छुक कुछ अतिउत्साही लोग आ गए। मालदार 

आसामी थे, ज्योतिषी जी ने पंचांग लेखन अपनी पुत्री को सौंप उन लोगों को लेकर साधना कक्ष में चले गए, बिटिया को बोल गए कि पिछले दस वर्ष का जो पंचांग मैं उतार रहा था उसे तू उतार दे। बिटिया विदुषी थी- वर्ष भर का भविष्य लिखना था। वर्षा, सर्दी, गर्मी लिखनी थी- बोली-पिता जी, वर्षा कितनी लिख दूं। पिता जी बोले- जितनी पिछले वर्ष लिखी थी उससे थोड़ा कम ही लिखना। बेटी बोली िपछले वर्ष की लिखी बरसात तो झूठी निकली, लोग पंचांग पर विश्वास नहीं करेंगे। पिता जी बोले-कौन हमको-तुमको बरसने जाना है, हम जितना लिखते हैं, पानी उतना ही बरसता है-लिख दे, अधिक पानी समुद्र पर, फिर पहाड़ों पर, शेष पृथ्वी पर। यह जरूर लिखना-इस वर्ष वर्षा घमाघम होगी। बेटी ने पूछा-यह घमघम वर्षा क्या होती हे? पिता ने कहा-जब नहीं बरसेगा तो कहूंगा कि कहा था न कि घामइ घाम रहेगा, जब खूब बरसेगा तो कहूंगा कि घमाघम लिखा था न? कमोबेश यही स्थिति मौसम विभाग के वैज्ञानिकों की है, जो यह मानकर चलते हैं कि मौसम की सही भविष्यवाणी विज्ञान ही कर सकता है। प्रकृति के रहस्य का दावा करना नितांत बचकाना दावा है। मौसम विशेषज्ञों की भविष्यवाणी उन्हीं दिनों सही होती है जिस दिन पानी बरसता रहता है,जब वे कहते हैं, कहीं-कहीं हल्की बौछारें और एकाध जगह भारी बरसात होगी, तो हमें ज्योतिषी के घमाघम वर्षा की याद आती है। ज्योतिषी और वैज्ञानिक दोनों अंधेरे में तीर चलाते हैं, देश का हर व्यक्ति जानता है कि चतुर्मास में कहीं-कहीं हल्की, कभी भारी वर्षा प्रत्येक वर्ष होती ही है।
वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी से किसान धोखा अधिक खाता है। इस वर्ष की भविष्यवाणी ताजा उदाहरण है। वैज्ञानिक बच सकता है। कि मैंने स्थान विशेष के लिए थोड़े ही कहा था। देश के बिना पढ़े लिखे अनुभवी किसानों ने प्रकृति का समावेशी साहचर्य प्राप्त कर उनकी हर करवट का अनुमान लगाकर जो सूक्तियां समाज को दी आज का विज्ञान उसका पासंग भी नहीं दे सका। प्रकृति को मशीन से नहीं नापा समझ जा सकता। उसके लिए प्रकृति का सामीप्य चाहिए। वह चेतन है, पशु स्नेह-दुलार की भाषा समझता है, प्रकृति को भी पुराने लोगों ने समझ था, उसकी आहट, उसके तेवर पर मंत्र लिखे थे। वे आज भी कुछ नाम शेष घाघ और भड्डरी की स्मृति के साथ लोक में जीवंत हैं। नए विक्रम संवत के शुरुआत में गांव के पुरोहित पंचांग (पत्रा) सुनाकर उन्हें वर्षा एवं कृषि संबंधी जानकारी और सावधानी की सलाह देते थे।
इस वर्ष वर्षा देर से हुई। मृगशिरा बिना बरसे चला गया। आद्र्रा किसानों का प्राण है, धोखा दे गया। जाते-जाते पुनर्वसु-पुखन के कानों में कुछ कह गया और उन्होंने लाज रखी। सिंह नक्षत्र गरजा नहीं, हस्ति बरसेगा। सिंहा गरजे-हाथी भागै नहीं होया।
जहां कहीं भी धान की फसल है, उन्मुक्त भाव से उत्तरा की हवा उसकी चूनर लहरा रही है। परम्परागत धान की फसलों के आगे उन्नत धान की किस्में उत्पादन भले अधिक दें, बौनी दिखती हैं, हवा के साथ खेलती नहीं हैं, पानी के साथ मचलती नहीं हैं। भादौं किसान जीवन का अहम महीना है। जेकर बना असढ़वा, ओकर बरहों मास बोनी जिसकी सध गई उसका साल सध गया परंतु भादौं दोनों साख का राजा है। भादौं के मेह से दोनों के साख की जड़ बंधती है, खरीफ और रबी दोनों का भविष्य भादौं के मेंह से दोनों के साख की जड़ बंधती है, खरीफ और रबी दोनों का भविष्य भादौं की वर्षा पर निर्भर है। पूर्वा नक्षत्र धान के लिए बहुत बेहतर नहीं होता। इसके पानी से धान के पौधों में बकी नाम रोग लगता है। बहुत रोउना नक्षत्र है। इस साल बादल नहीं नक्षत्र बरसें हैं। ˜जब पुरबा पुरवाई पावै। ओरी क पानी बड़ेरी धावै। कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ, पानी ओरी में नहीं समा सका। उत्तरा को सौंप गया, उसने भी कोताही नहीं की। बरसैं लागे उत्तरा/ माड़ पियैं न कुत्तरा। इतनी धान होगी कि कुत्ते भी माड़ नहीं पियेंगे। अब तो गांवों में भी पुटकी नहीं चढ़ती।
मांड़ के लिए बच्चे लाइन नहीं लगाते। बहनें पुटकी देना नहीं जानतीं, माड़ पसाया ही नहीं जाता, शायद अब चावलों में माड़ की मात्रा कम हो गई है। जब मनुष्य के अंदर ही सत् नहीं रह गया तो चावल से सत् की क्या उम्मीद की जाए। भादौं बीमारी का महीना है। कहनूति है कि भादौं से बचें तो फिर मिलेंगे। गनीमत है सावन में पुरवैया नहीं चली। अन्यथा अकाल की छाया से मुक्ति न मिलती- सावन मास चलै पुरबैया। बेंचे बरदा लीन्हैं गैया। उन दिनों सिर्फ गाय का दूध ही सहारा होता है।
गांवों में परम्परा थी कि यदि सिंह नक्षत्र में गाय ब्याय, सावन में घोड़ी और माघ में भैंस बिआइ तो अशुभ माना जाता है और उन्हें महाब्राrाण को दे दिया जाता है- सावन घोड़ी,भादौं गाय।
माघ मास जो भैंस बिआइ। जी से जाइ या खसमैं खाय। सावन भादौं में अनेक पदार्थो के खाने का भी निषेध है- सावन साग न भादौं दही। क्वांर मीन न कातिक मही (मट्ठा)। क्वांर में मछली गर्भावस्था में होती है, अत: वे अखाद्य है। इनके न खाने के वैज्ञानिक कारण भी हैं। किसान की हमेशा तैयार तरकारी कोंहड़ौरी बड़ी होती है, लेकिन वह उड़द की दाल की बनी हो तभी अच्छी लगती है- उड़दी, उड़दों की भली, रस की अच्छी खीर। लाज जो राखै पीव की वह ही अच्छी बीर।उत्तरा-हस्ति नक्षत्र की वर्षा की मुख्य सहयोगी हवा होती है। वातावरण में ठंडक आ जाती है। हाथी की तरह सूंड़ डुलाता यह नक्षत्र धान की पकी-अधपकी फसल को नुकसान भी पहुंचाता है लेकिन लोक में इस नक्षत्र की प्रतिष्ठा है- हथिया बरसे तीन में शाली (धान) शक्कर (गन्ना) मास(उड़द)। हथिया बरसे तीन गें कोदौ, तिली कपास। हथिया के बरसने से जहां धान, ईख और उड़द को लाभ होता है वहीं कौदौं, तिली और कपास की क्षति होती है। लोक ने जन को सोने तक की चेतावनी दी है- सावन सोबैं सांथरे, माघ खुरैरी खाट। आपहिं वे मरि जाहिगे, जेठ चलैं जो बार।जो लोग सावन में जमीन में सोएंगें, बरसाती कीड़े गीली धरती-सांप, बिच्छू के काटने से मरेंगे, माघ में ङिालगी खाट में सोएंगे और जेठ की लुआरि में चलेंगे, उनकी मृत्यु निश्चित है।
गांव की ये चेतावनियां लोगों के लिए नीति निर्देश का काम करती है। सुनामी और भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी हमें नहीं हो पाती। धरती की सतह और हवा से प्राकृतिक रूप से जुड़े रहने के कारण पशु-पक्षियों में प्रकृति के बदलाव की आहट उनके अस्वाभाविक क्रियाकलाप से देखी जा सकती है। मौसम और प्राकृतिक बदलाव पर फिलहाल भारतीय वैज्ञानिक भविष्यवाणियां गलत ही साबित हो रही हैं? प्रकृति आज भी रहस्य है, शायद कल भी रहेगी?

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