चिन्तामणि मिश्र
हिन्दी को लेकर हर साल सितम्बर महीने के शुरूआत में और चौदह तारीख को कुछ केन्द्र सरकार के दफ्तरों और कुछ बैंकों, स्कूल-कालेजों में हिन्दी पखवारा तथा हिन्दी दिवस मनाने का कर्मकांड सम्पन्न होता है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार का कागजी दावा करने वाली कुछ संस्थाएं भी इस मौके पर लोकगीत, लोकसंगीत, कविता पाठ, अन्ताक्षरी, वादविवाद आयोजित करके हिन्दी का वार्षिक श्राद्ध करती हैं और एक साल के लिए लापता हो जाती हैं। इस मौके पर सरकार को कोसा जाता है कि वह हिन्दी को राष्ट्र भाषा घोषित नहीं कर रही तथा संविधान में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने के बाद भी अंग्रेजी को बढ़ाती जा रही है। समाज से कहा जाता है कि वह हिन्दी का अधिक से अधिक प्रयोग करें। अंग्रेजी माध्यम के महंगे स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने से हिन्दी को पांव पसारने का मौका नहीं लग रहा है।
हालांकि हिन्दी के लिए अपनी छाती कूट-कूट कर रुदन करने वाले अपने बेटे-बेटियों और नाती-पोतों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में ही पढ़ा रहे हैं। बैंकों तथा रेलवे के रिजर्वेशन फार्म हिन्दी का विकल्प होने पर भी अंग्रेजी में भर रहे हैं। घर के बाहर इनके नामपट अंग्रेजी में टंगें हैं। शादी-ब्याह और जनम-मरण के निमंत्रण कार्ड अंग्रेजी में ही छपाये जाते हैं।
असल में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बाधा के लिए सरकार की तरफ से कम, हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र के लोगों और हिन्दी का झंडा उठाये हिन्दी के नाम पर मलाई चाट रहे हिन्दी के पंडे सर्वाधिक जिम्मेवार हैं। यही लोग हैं जिन्होंने हिन्दी को दूसरी भाषाओं, बोलियों से घुलने मिलने का हमेशा विरोध किया और हिन्दी को संस्कृत-निष्ठ, पंडताऊ तथा उबाऊ बनाने का प्रयास किया।
हिन्दी की पालकी में सवार कालेजों और विश्वविद्यालय के कई मास्टरों ने भ्रम फैला रखा है कि हिन्दी का जनम संस्कृत की कोख से हुआ है। हिन्दी को शुद्ध और पवित्र रखने के लिए किसी अन्य भाषा और बोली से दूर रखा जाना चाहिए अन्यथा हिन्दी का सतीत्व भंग हो जाएगा। इन महाविद्वानों को अभी तक यह समझ नहीं आई कि हिन्दी का जन्म और विकास बाजार में हुआ। इसे लोक संस्कृति और लोक मानस ने अपनी गोद में रख कर पालन किया। हिन्दी को भारतीय बोलियों ने ही नहीं बल्कि यूरोप, अरब, ईरान आदि की भाषाओं ने अपने शब्द देकर जीवन्त तथा सक्षम बनाया है।
दिल्ली के अमीर खुसरो और काशी के कबीर के बीच भौगोलिक दूरी थी किन्तु दोनों हिन्दी में ही अपनी रचना करते थे। एक का संबंध दरबार और दरगाह से था तो दूसरे का बुनकरों के श्रमिक तंत्र से, लेकिन दोनों जन साधारण की भाषा और बोली से जुड़े। तुलसी संस्कृत के विद्वान थे किन्तु अपनी कालजयी रचनाएं उसी हिन्दी में रचीं, जिसमें दूसरी भाषाओं और बोलियों के शब्द हैं। समझने की बात तो यह है कि हिन्दी को खतरा देश की बोलियों और भाषाओं से नहीं, खतरा अंग्रेजी से है।
देश की बागडोर आजादी के बाद जिनके हाथों में आई वे अंग्रेजी के चारण थे और आजाद भारत में अंग्रेजी को बनाए रखने लिए कटिबद्ध थे। जब राष्ट्र भाषा और राज भाषा का प्रश्न संविधान सभा के सामने विचाराधीन था तभी जवाहर लाल नेहरू ने मद्रास में मार्च 1948 में घोषित किया कि संविधान ने हिन्दी को राज भाषा स्वीकार किया तो वे उसका विरोध करेंगे। नेहरू संवैधानिक प्रावधान बनने से तो नहीं रोक सकते थे, किन्तु वे प्रधानमंत्री के रूप में तो रोक सकते थे और उन्होंने यही किया। हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिए कभी भी सरकारों ने ठोस कदम नहीं उठाए। अब भूमंडलीकरण ने अंग्रेजी को हर जगह फैलाने का वातावरण बना दिया।
भूमंडलीकरण ऐसा कनखजूरा है जिसके बावन हाथ हैं। जीवन का कोई भी पहलू, कोई भी कोना इससे अछूता नहीं है। इस भूमडंलीकरण ने पहली कक्षा से ही अंग्रेजी अनिवार्य कर दी, शिक्षा शास्त्री चिल्लाते ही रह गए कि बालक की प्राथमिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही दी जाए। नेहरू के बाद दिल्ली की सल्तनत पर जो लोग पधारे वे नेहरू से भी ज्यादा हिन्दी के शत्रु और अंग्रेजी मइया के असली बेटे बनने के लिए संविधान के साथ चोरसिपाही का खेल खेलने लगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के अपने भाषण में अंग्रेजों का भरोसा दिलाया था कि आपका वह साम्राज्य अब भले न रहा हो जिस पर सूर्य कभी डूबा न था, लेकिन आपकी भाषा अंग्रेजी बोलने वालों पर आज भी सूर्य डूबता नहीं है। यह हमारे प्रधानमंत्री है जिनके ज्यादातर लोगों और राज की भाषा हिन्दी है। कभी इस प्रधानमंत्री को भारत में कहते नहीं सुना कि हिन्दी दुनिया भर में बोली जाती है। सन इक्यानवे के बाद रईस हुए, मुटियाए और इतराए लोगों के लिए इस बात का कोई मतलब नहीं कि गांधी, तिलक, बोस और राजाजी जैसे गैर हिन्दी नेताओं ने आंदोलन चलाया कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। लेकिन अब नए इंडिया के लोग भूमंडलीकृत विश्व के नागरिक हैं। वे राष्ट्रभाषा जैसी संकीर्ण भाषा क्यों बोलें? उन्हें तो विश्व भाषा में काम करना है और विश्व भाषा अंग्रेजी है। अंग्रेजी भारत में भेद-भाव और शोषण की भाषा है और भ्रष्टाचार की भी। हमारे यहां कानून अंग्रेजी में बोलता है।
अदालतें अंग्रेजी में सुनती हैं, और न्याय अंग्रेजी में होता है। शासन की नीति अंग्रेजी में बनती हैं और सरकारी दफ्तर की फाइलें अंग्रेजी में दौड़ती हैं। अंग्रेजी को सारे दंश में पक्के तौर पर आसीन करने के लिए हिन्दी में अंग्रेजी के शब्दों को बिना जरूरत धकेले जाने का षड्यंत्र चलाया जा रहा है। हिंग्लिश को हिन्दी के नाम पर जो परोसा जा रहा है वह हिन्दी नहीं दंशी अंग्रेजी ही है। हिन्दी में अन्य भाषाओं से लेनदेन बुरा नहीं है लेकिन हिन्दी को उसकी गर्भ-नाल से ही काट कर हिंग्लिश में रूपान्तरण करना बेईमानी है। बाजारवाद ने अंग्रेजी को रोजी-रोटी की सीढ़ी घोषित कर रखा है। इस रोजी-रोटी के ही स्वार्थ ने द्रोणाचार्य और भीष्म को दुर्योधन के सारे पापों का अनुमोदन करने की तर्क-बुद्धि दी थी।
इस हकीकत को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि देश की एकता को भंग करने वाले सारे आंदोलन अब तक उन इलाकों में चले हैं जहां अंग्रेजी को अपनी भाषाओं की लाशों पर भी बनाए रखने को भारी समर्थन मिलता रहा है। जो लोग दो सौ साल तक अंग्रेजी राज का मजा लूटते रहे उनके लिए अंग्रेजी सोने की नथ बन गई। आम आदमी की मजबूरी तो समझ में आती है कि उसने बिना संघर्ष किए अंग्रेजी खुरों में अपना सिर रख दिया, लेकिन हिन्दी के बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा हिन्दी इलाके के राजनेताओं ने अपनी भाषा के लिए लड़ाई नहीं लड़ी, यह उनके जन-विमुख होने का प्रमाण है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।)
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