नक्सलबाड़ी का जनविद्रोह इसलिए हुआ था क्योंकि वहां कि सरकार खेतिहर मजदूरों, आदिवासियों पर जुल्म ढ़ाने वाले जमींदारों के साथ खड़ी थी, आज केन्द्र व राज्य की सरकारें उद्योगों के नाम पर जंगल व पहाड़ों को पट्टे में लेने वाले कारपोरेट घरानों की लठैत बनी हैं। वन से बेदखल आदिवासी और जोत की जमीन से वंचित खेतिहर मजदूर व किसान जाएं तो जाएं कहां? हर कहीं माओवादी इन्हीं स्थितियों का लाभ उठा रहे हैं। माओवादी रक्तक्रांति के जरिए सत्ता हासिल करना चाहते हैं उनका कृत्य राष्ट्र के खिलाफ युद्धघोष है। ..................................................................................................... बस्तर के सुकमा में घटी वीभत्स घटना के बहाने लाल आतंक की तह तक जाने के पहले जरुरी है कि कुछ तथ्य बिल्कुल साफ कर लिए जाएं। पहली बात नक्सलवाद और माओवाद दोनों एक नहीं है, जैसा कि मीडिया रिपोर्ट और बौद्धिकों के वक्तव्यों में दोनों को गुड्डम-गड्ड किया जा रहा है। दूसरी बात लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले जैसे वक्तव्य, इस पर भी तफसील से जाने की जरूरत है, इसका वर्गीकरण होना चाहिए कि कौन मारे जाए तो उसे लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला माना जाएगा और किनके मरने पर नहीं। बात आगे बढ़ाएं कि इस बीच भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के मध्यप्रदेश के राज्य सचिव बद्रीप्रसाद का प्रेस नोट जो मुङो आज ही ई-मेल से मिला, का थोड़ा सा जिक्र कर लिया जाए। यह इसलिए भी जरुरी है क्योंकि नक्सलवादियों का सबसे पुराना और पैतृक संगठन इसे ही माना जाता है। माओवादियों की इस अराजक कार्रवाई का माकपा (माले) निन्दा करती है क्योंकि ऐसी कार्रवाईयों से 1967 में उत्तरी बंगाल में जमीन और सामाजिक बदलाव के लिए भूमिहीन-गरीब किसानों के नक्सलबाड़ी जनविद्रोह और उनके नेतृत्व में विभिन्न राज्यों में चल रहे जन संघर्षो की छवि धूमिल होती है। दरअसल नक्सलवाद और माओवाद दोनों को अलग-अलग करके देखना जरूरी है। नक्सलवाद का जन्म विशुद्ध रुप से गरीब आदिवासियों व खेतिहर मजदूरों का जमीदारों और उनके संरक्षण देने वाली तत्कालीन पश्चिम बंगाल की सरकार के खिलाफ स्वफूर्त जनविद्रोह था। यह ऐतिसासिक घटना दार्जीलिंग के समीप नक्सलवाड़ी नाम के एक गांव में 1967 में घटी। पश्चिम बंगाल में जमीदारों का आतंक था, वहीं सरकार व प्रशासन में प्रतिनिधित्व करते थे। लैण्डहोल्डिंग की स्थिति यह थी कि राज्य की सारी जोत की जमीन महज 2 प्रतिशत जमीदारों के कब्जे में थी। खेतिहर मजदूर खेतों में काम करते थे, पर जिस अन्न को वो उपजाते थे उन पर उनका हक नहीं था। आवाज उठाने पर जमींदारों के कारिंदे पुलिस के साथ मिलकर जुल्म ढ़ाते थे। इस जुल्म और अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद की सिलीगुड़ी किसान सभा के अध्यक्ष जंगल संथाल ने और नेतृत्व संभाला कानू सन्याल ने। खेतिहर मजदूरों को जमीदारों के खेत की फसलें काटनें और कब्जा कर जोत लेने का आव्हान किया गया। आन्दोलन को संथाल परगना के आदिवासियों ने परवान चढ़ाया। जब यह जनविद्रोह शुरु हुआ तब इसकी कोई वैचारिक दृष्टि नहीं थी। पर चूंकि वहां कांग्रेस के सिद्धर्थशंकर रे की सरकार के खिलाफ कम्युनिस्टी लड़ रहे थे इसलिए वे इन विद्रोहियों के वैसे ही स्वाभाविक मित्र हो गए । चारू मजूमदार वो शख्स थे जिन्होंने नक्सलबाड़ी के जनविद्रोह को वैचारिक आधार दिया। मजूमदार ने इस विद्रोह के साथ- बुद्धिजीवियों व सृजनधर्मियों के साथ छात्रों को भी जोड़ा। कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रेसीडेन्सी कालेज क्रांतिकारी छात्रों का मुख्यालय बन गया और यह वैचारिक क्रांति देश के कई नामचीन विश्वविद्यालयों के छात्रों तक पहुंच गई। नक्सली आन्दोलन पूरे पश्चिम बंगाल में फैल गया तो एक कमेटी गठित की गई। नाम था आल इण्डिया कोर्डिनेशन कमेटी आफ कम्युनिस्ट रिवाल्यूशनरिज (एआईसीसीआर) 1969 में इसी की कोख से माकपा (माले) का जन्म हुआ। इधर सन् 1977 में ज्योति बसु के नेतृत्व में कम्युनिस्ट गंठबंधन की सरकार के गठन के बाद पहला और सबसे बड़ा काम भूमि सुधार का हुआ लिहाजा नक्सल आन्दोलन की तीव्रता घटी। इसी बीच माओवादी कम्युनिस्ट सेन्टर (एमसीसी) का उदय हुआ- दक्षिण देशम ग्रुप इसी से निकला और प्रकाशन्तर में पीपुल्स वार ग्रुप बना फिर यही कम्युनिस्ट पार्टी आफ इन्डिया माओवादी में बदल गया। बस्तर की घटना के पीछे यही संगठन है। नक्सलवाद जहां गरीब आदिवासियों व खेतिहर मजदूरों के हक के लिए सामाजिक व आर्थिक बदलाव का आन्दोलन था वहीं माओवादी रक्तपात व हिंसक क्रांति के सहारे सत्ता में काबिज होने की लिप्सा रखते हैं। इनका आन्दोलन विशुद्ध राजनीतिक है और आदिवासी इनकी ढ़ाल है। इनका आदिवासियों के हक-हकूक और बेहतरी से कोई लेना-देना नहीं। जहां तक खूनी कार्रवाइयों का प्रश्न है- माओवादी माओ की विचाधारा क्यूबा के क्रांतिकारी चे- ग्वारा के तौर तरीकों से प्रेरित हैं ये बिगड़े और भ्रमित नौजवान नहीं है अपितु अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रतिबद्ध और वैचारिक तौर पर दृढ़ लोग हैं, इनकी आस्था देश, यहां की संस्कृति, संविधान, कानून प्रजातंत्र पर नहीं है। इस दृष्टि से इनकी हर कार्रवाई राष्ट्र के खिलाफ युद्ध है। इनसे निपटने की रणनीति वैसे ही बनानी पड़ेगी जैसे कि दुश्मन देश के खिलाफ बनाई जाती है। एक पेंचीदा सवाल यह है कि इन्हें वनवासियों व ग्रामीणों का इतना समर्थन क्यों हासिल है? साफ जवाब है कि पश्चिम बंगाल में जहां सरकार गरीबों आदिवासियों के खिलाफ जमीदारों के साथ खड़ी नजर आती थी वहीं आज वह कारपोरेट घरानों की संरक्षक नजर आती है, चाहे वह केन्द्र की सरकार हो या राज्य सरकारें। जयराम रमेश ठीक कहते हैं ज्यादा खदानें-ज्यादा माओवादी। उड़ीसा, झरखण्ड, आंध्र में वहीं माओवादियों का बोलबाला है, जहां बड़े घरानों को जंगल, पहाड़, खनने-खोदने के लिए दे दिए गए हैं। बस्तर के आंचल में खदानों की अकूत संपदा छिपी है। 2006 में टाटा और एस्सार को यहां की लीजें दी गईं। बड़ी परियोजनाओं की वजह से वनवासियों का विस्थापन एक भयावह समस्या है। ये अपनी ही जमीन पर यतीम बना दिए जाते हैं और जब देखते हैं कि सरकार उद्योगपतियों के साथ खड़ी है तो अपना हमदर्द ये माओवादियों में ढूंढते हैं। दूसरे सुरक्षाबलों की कार्रवाई में यही शिकार होते हैं माओवादियों को पनाह देने के नाम पर क्या सरकार को ये नहीं मालुम कि गरीब आदिवासियों के घर पर हथियार बंद माओवादी आ जाएं तो विकल्प ही क्या सिवाय उन्हें आश्रय देने के। आखिरी बात, लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले की, जैसा कि मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी से लेकर विभिन्न दलों के लोग बार- बार दोहरा रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस के निहत्थे नताओं कार्यकर्ताओं को आत्मसमर्पण के बाद भी गोलियों से भूनना वीभत्स व क्रूरकर्म है। लेकिन सीआरपीएफ के 74 जवानों को सुरंग लगाकर उड़ा देना या सुरक्षा एजेन्सियों के हाथों अनगिनत निदरेष आदिवासियों, महिलाओं और बच्चों का मारा जाना भी इतना ही दर्दनाक है। लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला तो वह भी घटना है जिसमें दंतेवाड़ा की एक आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी के गुप्तांग में पत्थर बालू गिट्टी का ठूस दिया जाना। सुप्रीमकोर्ट के आदेश पर जांच और उसमें दोषी पाए गए अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई ना होना। किसी फौरी कार्रवाई से समस्या का दीर्घकालिक हल नहीं हो सकता। अच्छी जीडीपी हासिल करने के लिए सरकार की अर्थनीति कारपोरेट के औद्योगिक विस्तार पर है। उसकी नीति के केन्द्र में किसान, खेतिहर मजदूर - आदिवासी और अपनी जमीन से बेदखल किये हुए लोग नहीं है। इसीलिए किसान आत्मघात करते हैं, विस्थापित आदिवासी माओवादियों के पाले में पहुंच जाता है। इन पेंचीदा मसलों को बातों से हल नहीं किया जा सकता है। जरुरत है नीतियों को लक्ष्य हासिल करने या तरक्की को गति देने भर के लिए नहीं अपितु मानवीय संवेदनाओं का ध्यान रखकर बनाया जाए। - लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। सम्पर्क-09425813208.Details |
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अनुसार कर्नाटक में क्लिक करेंकांग्रेस की जीत के सूत्रधार हैं राहुल गांधी. राहुल गांधी से पूछें तो शायद वे मधुसूदन मिस्त्री को श्रेय देंगे. या कहेंगे कि पार्टी संगठन ने अद्भुत काम किया.
क्लिक करेंकांग्रेस संगठन जीता ज़रूर पर पार्टी अध्यक्ष परमेश्वरन खुद चुनाव हार गए. कमल नाथ के अनुसार यह कांग्रेस की नीतियों की जीत है.
कांग्रेस की इस शानदार जीत के लिए वास्तव में पार्टी संगठन, उसके नेतृत्व और नीतियों को श्रेय मिलना चाहिए.
पर उन बातों पर भी गौर करना चाहिए, जिनका वास्ता कांग्रेस पार्टी से नहीं किन्ही और ‘चीजों’ से हैं.
राज्यपाल की भूमिका
सन 1987 में जस्टिस आरएस सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्तियों को लेकर दो महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे. पहला, घनघोर राजनीतिक व्यक्ति को जो सक्रिय राजनीति में हो, उसे राज्यपाल नहीं बनाना चाहिए.
दूसरा यह कि केंद्र में जिस पार्टी की सरकार हो, उसके सदस्य की विपक्षी पार्टी के शासन वाले राज्य में राज्यपाल के रूप में नियुक्ति न हो.
30 मई 2008 को येदियुरप्पा सरकार बनी और उसके एक साल बाद 25 जून 2009 को क्लिक करेंहंसराज भारद्वाज कर्नाटक के राज्यपाल बने, जो संयोग से जो इन योग्यताओं से लैस थे.
विधि और न्याय मंत्रालय में भारद्वाज ने नौ वर्षों तक राज्यमंत्री के रूप में और पांच साल तक कैबिनेट मंत्री रहकर कार्य किया. वे देश के सबसे अनुभवी कानून मंत्रियों में से एक रहे हैं.
वे तभी खबरों में आए जब उन्होंने यूपीए-1 के दौर में कई संवेदनशील मुद्दों में हस्तक्षेप किया. प्रायः ये सभी मामले 10 जनपथ से जुड़े थे.
सीबीआई ने बोफोर्स मामले के प्रमुख अभियुक्त क्वात्रोक्की के कई बैंक खातों को सील कराया था. कानून मंत्री ने बिना सीबीआई से पूछे ही उन सील खातों को खुलवा दिया.
वे अचानक कुछ ‘बातों’ के लिए चर्चा में आ गए थे, इसलिए केन्द्र से उन्हें हटना पड़ा. संयोग है कि कर्नाटक को एक सुयोग्य राज्यपाल की तब ज़रूरत थी.
मुख्यमंत्री पर मुकदमे की अनुमति
कर्नाटक के राज्यपाल के रूप में उनकी सक्रियता काफी महत्वपूर्ण रही. उन्होंने दो वकीलों के अनुरोध पर राज्य के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दी थी.
राज्यपाल को निजी शिकायत पर इस तरह से कार्रवाई के आदेश देने का अधिकार तो है लेकिन इसके पहले तक यह अनुमति तभी मिलती थी, जब जाँच एजेंसियों ने पूरी कर ली हो. येदियुरप्पा पर मुकदमा चलाने की अनुमति तब दी गई, जब लोकायुक्त की जांच चल रही थी.
लगता है कि जिस दिन हंसराज भारद्वाज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया था, उसी दिन तय हो गया था कि येदियुरप्पा सरकार की शामत आने वाली है. बताते हैं कि राज्यपाल का निवास विपक्ष और खासकर कांग्रेस के दफ्तर में तब्दील हो गया.
येदियुरप्पा का बहुमत निर्दलीय और दागी विधायकों के समर्थन की बदौलत था. निर्दलीय और दागी विधायकों ने समर्थन वापस लेकर येदियुरप्पा की सरकार को गिराने की कोशिशें शुरू कर दीं.
राज्यपाल ने दो बार येदियुरप्पा को विधानसभा में बहुमत साबित करने का आदेश थमाया. दोनों बार उन्होंने बहुमत साबित किया. मामला अदालतों तक गया. इससे सरकार की फज़ीहतें बढ़ीं.
येदियुरप्पा का प्रतिशोध
कुछ दिन पहले जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम आ रहे थे तब जेडीयू के नेता शिवानंद तिवारी ने कहा, "कांग्रेस को जीत की यह माला येदियुरप्पा को पहनानी चाहिए. कांग्रेस की जीत में सबसे बड़ा हाथ उनका रहा है."
हालांकि येदियुरप्पा खुद चुनाव जीत गए, पर उन्होंने यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि भाजपा जीतने न पाए. उनके अपने जिले शिमोगा में भी पार्टी साफ हो गई.
प्रदेश में लिंगायत वोट तकरीबन 19 फीसदी है. सन 2008 के चुनाव में तकरीबन 75 फीसदी लिंगायत वोट भाजपा को मिले थे. इस बार उसके आधे भी नहीं मिले होंगे. वोटों के बँटवारे ने भाजपा की कमर तोड़ कर रख दी.
अनंत कुमार फैक्टर
चुनाव परिणाम आते ही आनन फानन भाजपा ने संसदीय बोर्ड की बैठक बुला ली और समीक्षा भी कर ली. ऐसी समीक्षाओं पर उन पार्टी कार्यकर्ताओं को भरोसा नहीं है जो यह जानते हैं कि समीक्षा भी वही लोग कर रहे हैं जो इस संकट के रचनाकार हैं.
इस बैठक में नरेन्द्र मोदी शामिल नहीं हुए. इसकी वजह साफ है. उनकी पार्टी के केन्द्रीय नेताओं से नहीं बनती. येदियुरप्पा के साथ उनके सम्बन्ध पिछले कुछ वर्षों में बेहतर हुए हैं.
मोदी को कर्नाटक में हार का अहसास था और उन्होंने चुनाव प्रचार में मामूली हिस्सेदारी की. मोदी से कांग्रेस की रंज़िश स्वाभाविक है, पर लगता है पार्टी के शिखर पर उन्हें लेकर कड़वाहट कम नहीं हुई है.
मोदी को कर्नाटक में हार का अहसास था और उन्होंने चुनाव प्रचार में मामूली हिस्सेदारी की. मोदी से कांग्रेस की रंज़िश स्वाभाविक है, पर लगता है पार्टी के शिखर पर उन्हें लेकर कड़वाहट कम नहीं हुई है.
सन 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के बाद अनंत कुमार भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में थे. पार्टी के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड की तब चलती तो अनंत कुमार ही मुख्यमंत्री बनते.
उस वक्त येदियुरप्पा का ज़मीन पर आधार इतना मजबूत था कि वे मुख्यमंत्री बने. ऐसा न होता तो पार्टी में विद्रोह हो जाता.
पहला विश्वासघात
2004 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 78 सीटें जीतीं थीं. उस वक्त जब 58 सीटों वाले जनता दल सेकुलर के साथ मिलकर भाजपा ने सरकार बनाई तो उपमुख्यमंत्री क्लिक करेंयेदियुरप्पाही बने थे. बीस-बीस महीने तक सरकार चलाने का वह समझौता 5 अक्टूर 2006 को एचडी कुमारस्वामी का कार्यकाल पूरा होने के बाद खत्म हो गया.
जेडीएस ने जो ‘विश्वासघात’ किया उसका फायदा भाजपा को 2008 के चुनाव में मिला. येदियुरप्पा ने अनंत कुमार के साथ-साथ पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को भी अपने खिलाफ कर लिया.
इनमें लाल कृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज दोनों थे. 2008 से 2011 के बीच येदियुरप्पा अपने नेताओं से लड़ते रहे. दूसरी ओर एचडी कुमारस्वामी और राज्यपाल हंसराज भारद्वाज भाजपा के ताबूत में कीलें ठोकते रहे.
बेल्लारी बंधुओं का पदार्पण
येदियुरप्पा पर आरोप था कि उन्होंने बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं को संरक्षण दिया. पर यह बाद की बात है. जिस वक्त सन 2008 में सरकार बन रही थी येदियुरप्पा नहीं चाहते थे कि रेड्डी बंधु उनकी सरकार में शामिल हों. सम्भवतः सुषमा स्वराज के दबाव में वे मंत्री बनाए गए.
यह संयोग भर है कि प्रदेश के लोकायुक्त एन संतोष हेगड़े की जाँच की आँच येदियुरप्पा पर भी पड़ी. संतोष हेगड़े कि पिता केएस हेगड़े सन 1977 की जनता सरकार के दौर से आडवाणी जी के मित्र थे. संतोष हेगड़े ने 2011 की जाँच में पाया कि खदान घोटाले में मुख्यमंत्री
येदियुरप्पा भी दोषी हैं. मार्च 2012 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने येदियुरप्पा को भले बरी कर दिया, पर तब तक काम हो चुका था.
भाजपा से बाहर जाने के बाद येदियुरप्पा और उनके लिंगायत समुदाय ने वह काम किया जिसकी भाजपा ने कल्पना नहीं की थी.
खाली खजाना
बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं ने कर्नाटक में भाजपा से और आंध्र में वाईएस आर की कांग्रेस के साथ अच्छे रिश्ते रखे. उनका काफी कारोबार आंध्र प्रदेश में है. बहरहाल 2008 के चुनाव में कर्नाटक भाजपा के पास पैसा था। इसकी व्यवस्था रेड्डी बंधुओं ने की थी. पर इस बार भाजपा पैसे से भी तंग थी.
चूंकि भ्रष्टाचार मामले पर केंद्र में विपक्ष के विरोध का सामना कर रही कांग्रेस के लिए यह जीत 2014 के आम चुनाव से पहले उसका मनोबल बढ़ाने वाली है.
यह जीत निश्चित तौर कांग्रेस के लिए `संजीवनी` का काम करेगी. बीजेपी के लिए यह शिकस्त एक सबक है. और इस बात को बीजेपी से बेहतर कोई और नहीं जानता.