Friday, May 3, 2013

गुरुदेव के स्वप्न का मायालोक


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
गुरुदेव के स्वप्न का मायालोक हि न्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के 65 वें राष्ट्रीय अधिवेशन में म.प्र. के हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रतिनिधि एवं सम्मेलन की स्थाई समिति का सदस्य होने के कारण पिछले तीन दिनों से शांति निकेतन में हूं। सम्मेलन की कार्यसमिति ने शांतिनिकेतन में अधिवेशन इसलिए रखा कि यह वर्ष कवीन्द्र रवीन्द्र एवं स्वामी विवेकानन्द के जन्म का 150 वां और गुरुदेव के नोबल पुरस्कार का सौंवा वर्ष है। गुरुदेव, बंगाल और भारत की वैश्विक साहित्य जगत में स्थापना का शताब्दी वर्ष, सम्मेलन ने एतिहासिक यादगार तरीके से मनाया। देश भर के राज्यों के प्रतिनिधि हिन्दी सेवियों के दिल दिमाग में तीन दिन तक सिर्फ रवीन्द्रनाथ अपनी विभिन्न रूपाकृतियों में छाए रहे। कभी उनका अभिजात्य याद आता कभी उनकी तरल सरल एकला चलो की चिंता मग्न छवि, मनों को कुरेदती रही। क्या स्वप्न थे, उन मनीषी के, जिसने सारी सम्पत्ति आश्रम के विद्यार्थियों के लिए लुटा दी। शांति निकेतन चलता रहे, इसके लिए गुरुदेव ने नाटक लिखे, अभिनय निर्देशन करते रहे। गीत-संगीत सब कुछ लिखते, कम्पोज करते हुए कभी स्वास्थ्य का ध्यान ही नहीं रखा। परम्परा और आधुनिकता के समन्वय के वे प्रथम भारतीय कवि कलाकार थे।
शांति निकेतन घूमते हुए उनके विभिन्न आवासों को देखेंगे तो बिना चमत्कृत हुए नहीं रह सकते। विशाल अट्टालिका, स्थापत्य और विशाल कलायुक्त रवीन्द्र सदन (उदयन) का निर्माण उनके निर्देशन में एक तरफ, तो मिट्टी के घर श्यामली में जीवन के उत्तराद्र्घ में आवास निवास दूसरी तरफ अध्यापकों के रहने के लिए ‘गुरुपल्ली’ फूस का छाजन, पौत्रियों के रहने के लिए नूतन घर परंतु छत, घासपूस की, उत्तरायण, उदयन, कोर्णाक, नूतन घर, श्यामली, कोई ऐसी जगह नहीं जहां नंदलाल बसु, रामकिंकर बैज या अन्य कलाकारों की उकेरी हुई कलाकृतियां न हों। कलाकृतियों में पुराण कथाएं हैं, साहित्य है और हैं अदभुत ग्राम्य दृश्य जो भारतीय सांस्कृतिक एकता की कहानी कहते हैं। गुरुदेव ने साबरमती आश्रम देखा था, उसके पहले महात्मा गांधी शांति निकेतन गए थे। गुरुदेव ने 1935 में ‘श्यामली’ (मिट्टी के घर) में गृहप्रवेश किया था। गुरुदेव की मृत्यु के बाद बापू ‘45’ में शांतिनिकेतन गए और ‘श्यामली’ में ही रुके। अपने वैभवपूर्ण अतीत को याद करते हुए काले आवरण में सजा (काले को श्याम कहता हुआ) ‘श्यामली’ पूरी सज धज से दर्शन के लिए आमंत्रित करता है। आज भी चारों तरफ में वृक्षों से घिरे इस घर के सामने, विद्वत गोष्ठियां या उद्घाटन समारोह कर गुरुदेव की स्मृति का सामीप्य लाभ प्राप्त करते हैं। अद्वितीय और दर्शनीय शांति निकेतन, भारतीय संस्कृति की अतुलनीय धरोहर है।
सांस्कृतिक संध्या में उपनिषदों के स्नेत, बंगाल के ‘बाउल गीत’ चैतन्य महाप्रभु की भक्ति विह्वलता की याद ताजा कर रहे थे। भटियाली और ‘भवाई गीतों’ का आनंद जहां बंगाल की ग्राम्य संस्कृति की झंकी पेश करता है वहीं ‘ढिमरिहाई’ गीतों की लय में सचिन दा, का गाया ‘सुन मेरे साथी, सुन मेरे मितवा, सुन मेरे बंधू’ गीत याद आता रहा। शालीन और भव्य परिधान में सजी धजी विश्वभारती की छात्राएं संगीत तथा ताल की लय में मुग्ध कर रही थीं। भारतीय संगीत उत्तेजक नहीं आह्लादमय होता है, इसीलिए उसमें ब्रह्मानंद की अनुभूति होती है। भारतीय संगीत नटराज और नटनागर की देन है, शायद इसीलिए इसके प्रारंभ में इनकी मुद्राओं की अभ्यर्थना की प्रस्तुति होती है। बंगाल ने मैथिल कोकिल विद्यापति को इतना आत्मसात कर लिया है कि वे उन्हें बांग्ला कवि मानते हैं। बंगाल की यह गर्वोक्ति बिना किसी असहमति के स्वीकार की जा सकती है कि उनके कवि के लिखे गीत दो देशों के राष्ट्रगीत है। उन्होंने गुरुदेव के अतिरिक्त देश को रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राममोहनराय, अरविन्द, पाल और सुभाष दिए। एक समय यह मुहावरा प्रचलित था- ‘आज बंगाल जो सोचता है कल वही भारत सोचता है।’ यह अतिरंजित बात नहीं, इतिहास यथार्थ है।
गुरुदेव ने विश्व के अनेक देशों का भ्रमण किया। कला और साहित्य रूपों को देखा और सभी को आत्मसात करके भारतीय दृष्टि दी। वे भारतीय शुद्घतावाद के अहं से मुक्त व्यक्ति भी थे, कलाकार भी, वे बुद्घ के अनात्मवाद और उपनिषदों के आत्मवाद के समन्वित रूप थे शायद इसीलिए उन्होंने लिखा है- बुद्घ ही विश्व विजेता हैं, सिंकदर नहीं। हिन्दी साहित्य में नारी की उपेक्षा को लेकर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के लेख की चिंता के मूल मे रवीन्द्र नाथ की ही प्रेरणा थी। जिसने हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श को साकेत, यशोधरा, वैदेही वनवास, प्रिय प्रवास, उर्मिला के माध्यम से काव्य की धारा ही बदल दी।
कवीन्द्र, रवीन्द्र ने न सिर्फ बांग्ला साहित्य को नई दिशा दी, समूची भारतीय भाषाओं ने उनसे प्रेरणा ग्रहण की। पाश्चात्य जीवन की ओर आकर्षित आज के भारत को देख गुरुदेव का 1941 में लिखित ‘सभ्यता का संकट’ लेख स्मरण आता है‘ मानव जाति को पीड़ित करने वाले महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा से जन्म हुआ है। हमारे अभागे, असहाय, पराधीन देश की दरिद्रता में क्या हमें इस चीज का आभास नहीं है। मेरा विश्वास था कि सभ्यता का दान ही योरप की आंतरिक सम्पत्ति है। आज जब जीवन से विदा होने का दिन समीप आ रहा है, मेरे इस विश्वास का दिवाला निकल चुका है। मैं आशा करता हूं कि मुक्तिदाता पूर्व दिगंत से आएगा।’ विश्व के फलक पर आज भी रविन्द्र की प्रासंगिकता है।
‘ऐन ओपेन स्कूल’ पाठ पढ़ा था, हाई स्कूल में। सम्मेलन का पत्र आते ही उस स्कूल को देखने के सपनो को पंख लग गए।
कहानी, उपन्यास, पढ़ने का चस्का भी शरदचंद्र को उपन्यासों को पढ़कर ही लगा। हिन्दी में शरद, बंकिम, रवीन्द्र के उपन्यासों के अनुवाद ने संवेदना की भाषिक सीमा लांघी और हिन्दी का अनुवाद जगत धन्य हो गया। पाठकों और लेखकों को दिशा मिली अन्यथा कोलकाता और बंगाल, हिन्दी लोक में ‘छ: छ: पैसा, चल कलकत्ता’ या ‘बंगाले का जादू’ था, जहां औरतें, पुरुषों को दिन में भेंड़ा बना कर रखती थीं। इस मायालोक का भ्रम बंगाली लेखकों ने पहले ही तोड़ दिया था। शांति निकेतन का जादू पूरे देश के सिर पर चढ़कर बोलते पिछले तीन दिनों से देख रहा हूं। बौद्घिकता, कलात्मकता और नैसर्गिकता का ऐसा सामंजस्य देख विस्मय विमुग्ध हृदय, कृष्ण के विश्वरूप सा आभासी मायालोक में भटक जाता है। धरती पर हम, जैसों के लिए इससे बड़ा कोई तीर्थ नहीं? शांति निकेतन में होना, गुरुदेव के संग साथ होना है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क - 09407041430. लोकायन 

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