चंद्रिका प्रसाद चन्द्र
अहं ब्रrास्मि’ और ‘स्वयमेव मृगेन्द्रता’ का उद्घोष करने वाला देश, ईश्वराधीन और भाग्यवादी कैसे हो गया? सब कुछ वह करता है, हम निमित्त मात्र हैं, ‘उसके’ हाथ की कठपुतली हैं, डोर उसी के हाथ में है, जैसा नचाता है, नाचते हैं, कभी लकड़ी के डर से, कभी प्रेम भरी पुचकार से। उस नंदी बाबा की तरह जो पैर पर लाठी लगने से दाता को आशीष में पैर उठा देता है। परिवार और स्वजन मोह से ग्रस्त कुरुक्षेत्र के खड़े अजरुन को समझने के सारे तर्क जब निष्फल हो गए तब कृष्ण ने उसे अपना विराट रूप दिखाया। और सबको मरा हुआ दिखाया, तब भी अजरुन ने गांडीव नहीं उठाया। अंत में कृष्ण ने सब कुछ छोड़कर अपनी शरण में आने को कहकर आश्वस्त भाव से युद्ध के लिए प्रबुद्ध किया। गीता के उपदेश निश्चेष्ट और अकर्मण्यता के विरुद्ध प्रवृत्ति के मार्ग पर चलने के हैं। लोक में गीता पढ़ना वजिर्त है, शायद इसलिए कि वह महाभारत का अंश है और महाभारत पढ़ने की लोक स्वीकृति नहीं है, क्योंकि वह युद्ध ग्रंथ है और युद्ध की समाप्ति के साथ का निव्रेद भाव अशांति उपजाकर मरने के लिए स्वर्गारोहरण का छद्म करता है। भारतीय बहुसंख्यक वर्ग ‘गॉड पार्टिकल’ की सूचना के बावजूद ईश्वर की मूर्ति स्थापना में लगा है। ऋषियों ने ज्ञान बल से ईश्वर चिंतन की अनुभूति की परंतु अपनी शक्ति को कमतर नहीं माना और इसकी स्थापना से इंकार नहीं किया कि उसने ही ईश्वर को जन्म दिया। साकार, निराकार और ‘नहीं होने’ के तर्क भी दिये परंतु चिंतकों के तमाम निषेधों के बीच लोक ने ईश्वर को इंकार नहीं किया। वह धरती पर मरता खपता रहा, उसका भाग्य वह अदृश्य ईश्वर लिखता रहा । वह इसे ब्रrा वाक्य मानता रहा कि ‘जो विधना ने लिख दिया, छठी रात के अंक। राई घटे न तिल बढ़े, रहुरे जीव निशंक।’ लेकिन उस भाग्य-लेख की लिपि किसी के पल्ले कभी नहीं पड़ी। सब कुछ हो जाने पर ‘यही भाग्य में लिखा था’ का स्वीकार भाव की परिणति ही उसकी निष्पत्ति रही, इसे ही भाग्य-बोध कहा गया।
भाग्य पर जीने वालों ने भाग्य से समझोता कर प्रतिरोध की संस्कृति को द्वार के बाहर ही रखा। इसी कारण इतने विशाल देश का भाग्य हमेशा विदेशी आकर लिखते रहे। कितनी संख्या में यवन, शक और हूण आए और हमारी भाग्यवादिता का मजाक उड़ाते हम पर शासन करते रहे। सकिंदर भाग्यवादी नहीं था, वह अपनी शक्ति से अनेक देशों पर विजय करते अंत में भारत पहुंचा था। सीमावर्ती पश्चिमी जनपदों में विजयी हुआ था परंतु लड़ते लड़ते थक चुका था। अपने देश तक वापस नहीं पहुंच सका।
अपना भाग्य, अपने कर्मो से विश्व इतिहास में लिख गया। विश्व विजेता भले ही न रहा हो, विश्व विजेता कहलाया। बाबर कितनी सेना लेकर आया लेकिन उसकी सल्तनत ने कई पीढ़ियों तक हम पर शासन किया। कर्म का यह सिद्धान्त हमारे देश में राम और कृष्ण से पहले भी था, परंतु हमने उन्हें अमानवीय या अतिमानवीय मानकर हाशिए पर डाल दिया। पिद्दी जैसे लोगों के सामने घुटने टेकने की अनगिनत कहानियां हमारे इतिहास में दर्ज हैं। आपसी मनमुटाव और भेदभाव में अम्भीक बनकर यवनों को निमंत्रित करते रहे। मुहम्मद गोरी और महमूद गजनवी के दंश को देश भोगता रहा। अंधभक्ति की अति तो तब हुई जब सोमनाथ के महंतों ने शिव की मूर्ति पर ही विश्वास कर कि ‘स्वयं सोमनाथ ही गजनवी का संहार करेंगे’ महामृत्युंजय मंत्र का पाठ करते रहे और मूर्ति गजनवी के गदे के प्रहार से खण्ड-खण्ड हो गई। मंदिर में स्थापित मूर्तियां अन्यायी को दण्ड देगी, यह मनोभावना आज भी हमारी आस्तिकता का मेरुदण्ड है? पद्मनाभि मंदिर के उस गर्भ गृह को खोलने की इजाजत देने की शक्ति किसी व्यवस्था के पास नहीं है। मंदिरों में जमा असंख्य र8राशि जो ‘डम्प’ पड़ी है वह किसकी है और किसके काम आएगी? क्या वह जनता की गाढ़ी कमाई नहीं है जिसे राजाओं ने छुपाकर धर्मप्राण जनता को ठगा था, ईश्वर और उसके घर के नाम पर।
परम्पराओं के अत्यधिक दबाव से अक्सर हमने वर्तमान को समझने में भूल की। व्यापार की भीख मांगने वालों ने न सिर्फ हम पर शासन किया, हमारा इतिहास भी लिखा, हमें अपनी तरह बाहर से आया हुआ घोषित भी किया और जाते जाते सम्प्रदाय का वह विष बो गए जो आज भी फलफूल रहा है। उनके आने के पहले हमारे सम्प्रदाय संघर्ष की कहानी इतनी विषाक्त नहीं थी। डेढ़ सौ वर्ष की अंग्रेजी संस्कृति ने हमारी हजारों वर्षो की भारतीय संस्कृति की चूलें हिला दीं। आज भी हम उनके स्वागत में लाल दरी बिछाते हैं। वे जो हमारा कोहिनूर, तख्त-ए-ताउस चुरा ले गए। वे जिन्होंने लाल किले की छतों के फानूस, हीरे, नग, नोच लिए । वे जो हमारे बादशाहों की कोर्निश, हाथ जमीन पर रख सिर घुटने तक झुकाकर करते थे, आज उनकी भाषा और धोखा देने वाली संस्कृ ति का गुणगान करते नहीं थकते और वे हमें अपना पिछलग्गू समझते हैं। गोरी और गजनवी ने हमारी संस्कृति नहीं छीनी थी, धन लूटा था जिसे हम हाथ का मैल कहते थे, वे देश के आदर्श नहीं बने थे लेकिन अंग्रेज हमारे आदर्श बने हैं, हम भारतीय भाषाओं का विशाल भण्डार लिए अंग्रेजी में सोच और लिखकर ‘बुकर पुरस्कार’ पाने पर गर्वित हैं। भोजन, भारत का करके इंग्लैण्ड, अमेरिका में सांस ले रहे हैं। किस मुंह से हम विवेकानन्द, गांधी, रवीन्द्र का नाम लेते हैं। नाम स्मरण भक्ति का स्वरूप हो सकती है। उनके कार्यो को समय की आवश्यकतानुसार नया स्वरूप देना ही उन्हें याद करना है। कितनी अजीब विसंगति है कि गीता का कर्मयोग संतों और सन्यासियों की व्याख्या तक सीमित रह गया। उसे गांधी विनोबा, तिलक और अरविन्द ने जिस तरह समझ, उस तरह देश के निर्माताओं ने नहीं समझ।
हमने इतिहास से कभी सबक नहीं लिया, कदाचित इसीलिए हम हर बार पराजित होते रहे। राष्ट्रीय गान की तरह शब्द के अर्थ से परहेज करते हुए गाते रहे- ‘एक धोखा खा चुके हैं, और खा सकते नहीं’परंतु कभी विश्वास करते हुए कभी दबाव वश वार्ताओं की परिणामहीन परम्परा का निर्वाह करते रहे, कर रहे हैं। कभी कच्छ के रण का, कभी सियाचिन का कभी मेघालय, नागालैण्ड की सीमारेखा का रोना देश के सामने रोते रहे। हम न तो ठीक से किसी के विरोधी हो सके न मित्र। यह जानते हुए भी कि अमेरिका और चीन किसी के मित्र नहीं हो सकते, एकतरफा दोस्ती का हाथ बढ़ाते रहे। अमेरिका विश्व के लिए सिरदर्द ‘दादाभाई’ है। भारत उसके लिए सिर्फ उसका कबाड़ खरीदने के लिए बाजार है, चीन का भी सबसे बड़ा बाजार भारत है। हमने अपनी अस्मिता से समझोता कर लिया। अमेरिका-चीन नहीं बन सके परंतु क्यूबा और इजराइल से भी कुछ नहीं सीख सके। रूस जैसे मित्र को भी हाशिए पर डाल दिए। ‘अहं ब्रrास्मि’ दार्शनिकों के हिस्से में चला गया लेकिन मृगेन्द्र तो हम स्वयं थे, कहां गए वे भाव जो हमारे जीवन मूल्य थे।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430.
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