चिन्तामणि मिश्र कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं की पिछले माह निबन्ध प्रतियोगिता सम्पन्न हुई थी जिसमें कुछ चुने हुए विषयों पर चालीस मिनट में एक निबन्ध लिखना था। इन निबन्धों का मूल्याकंन करने के लिए आयोजकों को पता नहीं कैसे और क्यों सूझ कि इस दिमाग-खाउ बेगार के काम के लिए मैं ही उपयुक्त हूं। इस धारणा के चलते आयोजक संस्था ने मेरे पास प्रतिभागिओं के बत्तीस निबन्ध मूल्याकंन के लिए भेज दिए। मरता क्या न करता, अपनी साख बचाने के लिए इस चालीस डिग्री के आसपास झूल रहे तापमान में निबन्धों को पढ़ने लिए बैठना पड़ा। इन निबन्धों में आधे से भी ज्यादा निबन्ध औसत दर्जे के थे। कुछ निबन्ध अच्छे थे, किन्तु एक निबन्ध ऐसा भी था कि इसे पढ़ कर न केवल मैं चौंक पड़ा बल्कि इसे मैंने पूरे मनो-योग से तीन बार पढ़ा और मूल्याकंन के लिए निर्धारित अधिकतम सौ अंकों में से इस निबन्ध को मैंने सौ अंक भी दे दिए। इस निबन्ध का विषय था- ‘यदि मैं वित्तमंत्री होता।’ निबन्ध में लिखा गया था कि देश में भ्रष्टाचार को लेकर बहुत हल्ला हो रहा है। वास्तव में भ्रष्टाचार बढ़ा है, किन्तु भ्रष्टाचार को बुराई के रूप में देखने का नजरिया अब बदला जाना चाहिए। वित्तमंत्री की हैसियत से मेरी कोशिश होगी कि विदेशों में भेजे जाने वाले भ्रष्टाचार के काले धन को किसी भी हालत में जाने से रोका जाए। इसके लिए कई उपाए किए जाएंगे। जैसे विदेश में जमा रकम की सूचना देने वाले को सरकार उस रकम का आधा पैसा भुगतान करेगी और जिसका पैसा विदेश में जमा होगा उसे विशेष कानून बना कर पांच साल के लिए बिना किसी अदालत में मुकदमा चलाए जेल में सरकार रखेगी। निबन्ध में लिखा था कि अभी भी हमारे देश में कई ऐसे कानून हैं जिनको अदालतों और जमानतों से अलग रखा गया है। इन कानूनों से देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों की हत्या जरूर होती है, किन्तु देश हित में इनका चलन अभी भी हो रहा है। निबन्ध में लिखा था कि भ्रष्टाचार को खतम करने के लिए सरकारों ने ढेरों उपाए किए लेकिन किसी भी उपाए से कभी सफलता नहीं मिली। सरकार डाल-डाल चलती है तो भ्रष्टाचारी तुरन्त पात-पात चलने लगते हैं। ऐसा लगता है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार करना हमारी परम्परा में है। यही कारण है कि इसे खत्म नही कराया जा सका। वित्तमंत्री बन जाने पर उनकी सरकार भ्रष्टाचार को रोके जाने के लिए कभी कोई उपाए नहीं करेगी। भ्रष्टाचार के आलोचकों की नजर इस बात पर नहीं जाती कि भ्रष्टाचार से कमाया गया काला पैसा देश की अर्थ व्यवस्था को ही मजबूत करता है। अगर यह काला पैसा विदेश नहीं जा पाता है तो हर भ्रष्टाचारी इसे अपने ही देश में खर्च करता है। वह इस पैसे से घर, मकान बंगला, कोठी बनवाता है। बेटे-बेटियों की शादी में बेतहाशा पैसा खर्च करता है। सराफा बाजार में खरीददारी करता है। मंदिरों, मठों और दरगाहों में सोना-चांदी के साथ नकद रकम चढ़ाता है। जाहिर है इससे वे हजारों लोग जो भवन निर्माण,विवाह शादियों और आभूषण बनाने धर्म को और अधिक विस्तार देने आदि का काम करते हैं उनको आसानी से रोजगार मिलता रहता है। निबन्ध में लिखा था कि भ्रष्टाचार से कमाया गया पैसा अगर देश में ही रहता है तो देश की अर्थ-व्यवस्था को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता है। यह काला पैसा शेयर बाजार में लगता है और इसी पैसे से बीओटी सड़कें,बांध, कारखाने बिजली घर रेल लाइनें रिहायशी कालोनियां, अपाटर्मेन्ट, निजी अस्पताल, निजी स्कूल-कॉलेज और निजी विश्वविद्यालय बनाए जाते हैं, जो देश की प्रगति के पैमाने होते हैं और देश की जनता को इनसे लाभ मिलता है। यूरोप से पढ़कर आए अर्थशास्त्री हमेशा कहते हैं कि भ्रष्टाचार से कमाया गया काला पैसा देश में मंहगाई बढ़ाता है। लेकिन वे यूरोपीय अर्थशास्त्र के उन पर-बाबाओं के इस सिंद्वात की अनदेखी कर जाते हैं कि बाजार में वस्तुओं के मूल्य का निर्धारण उपभोक्ता करता है। जब तक ग्राहक की क्षमता किसी वस्तु को क्रय करने की जिस कीमत तक होती है तभी उस वस्तु की उतनी कीमत होती है। इस तरह यह पूरा खेल मांग और आपूर्ति के सिद्वान्त पर टिका है। काले धन और महंगाई का कोई सम्बन्ध नहीं होता है। यह कोरा मिथक है। निबन्ध में लिखा था कि गरीब आदमी अपने पास के एक रुपए में से नब्बे पैसा खर्च कर देता है और दस पैसा बचत में लगाता है। किन्तु अमीर आदमी एक रुपए में से दस पैसा खर्च करता है और नब्बे पैसों की बचत करता है। अपनी इस बचत को वह शेयर बाजार में निवेश कर देता है। जिसका लाभ निजी सेक्टर को मिलता है और अन्त में इससे देश की ही तो प्रगति होती है और देश मजबूत होता है। इसी निबन्ध में एक और उपाय इस भावी वित्तमंत्री ने लिखा कि उनकी सरकार एक हजार और पांच सौ के नोटों का चलन तत्काल प्रभाव से बन्द करेगी और सौ रुपए के नोटों का डिजाइन बदल कर एक पखवारा तक बैंकों में पुराने सौ रुपयों के नोटों को बदलने का काम करेगी। इस अवधि के बाद पुराने सौ रुपए के नोटों का चलन बन्द हो जाएगा। नोटों को बदलने के समय किसी भी प्रकार की पूछ-ताछ नहीं की जाएगी। केवल फोटो लगा पहचान पत्र लाना होगा और बैंक नागरिक का नाम पता तथा पहचान पत्र का विवरण अंकित करके नोट बदल देंगे। बाद में कालेजों तथा विश्वविद्यालय के मास्टरों को नोट बदलवाने वाले नागरिक के घर भेज कर यह कन्फर्म कराया जाएगा कि बदले गए नोट काला धन है या सफेद। इससे वे तमाम लोग जिन्होंने काला धन कमाया है पकड़े जाने के भय से नोट बदलने नहीं आएंगे और अगर किसी ने ज्यादा होशियारी दिखाई तो वह जांच में तो पकड़ा ही जाएगा। मैं जानता हूं कि इस निबन्ध में लिखे गए उपाए असम्भव तो नहीं है, किन्तु इन्हें लागू कर पाना कठिन और अव्यवाहारिक हैं, क्योंकि हमारे राजनेता इसे लागू ही नहीं होने देंगे। यह लोग ऐसी सरकार को ही नहीं चलने देंगे और अविश्वास प्रस्ताव लाकर उस सरकार को ही गिरा दे, जिसमें ऐसा वित्तमंत्री होगा। बहरहाल इस निबन्ध से यह तो साफ हो गया कि हमारे देश का युवा वर्ग देश की दशा-दुर्दशा को लेकर कितना गम्भीर है और इसको सुधारने के लिए चितिंत ही नहीं है बल्कि सोचता-विचारता भी है। हालांकि यह समस्या अर्थशास्त्र से जुड़ी है और इस पर विद्वान अर्थशास्त्री ही कहने के लिए अधिकृत हो सकते हैं, किन्तु यह भी हमारे देश में विचित्र विडम्बना है कि जरूरी नहीं है अर्थशास्त्री ही वित्तमंत्री हो या फिर स्वास्थ्य विभाग का मंत्री डॉक्टर ही हो। कई बार तो अपने देश में शिक्षा मंत्री केवल दसवीं पास बन चुके हैं। - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं। सम्पर्क सूत्र - 09425174450.Details |
Saturday, May 25, 2013
खटराग चिन्तामणि मिश्र
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