Saturday, May 25, 2013

वर्ण, आश्रम और पुरुषार्थ के अंतरभेद!


 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
सं सार के सभी जीवों में मनुष्य सबसे असंतुष्ट प्राणी है।
संतुष्टि को वह क्रियाहीनता या मृत्यु मानता है। भारतीय मिथक कहते हैं कि अन्य जीव जन्तुओं के समान ही उसे भी उम्र मिली थी। जीव जंतु अपनी लम्बी उम्र से दुखी थे परंतु मनुष्य अपनी कम उम्र से परेशान और दुखी था। उसने ब्रrा से मदद मांगी और जीव जन्तुओं से उनसे उम्र उधार ली, परंतु वह उधार न कभी देने वाले ने वापस मांगी न उसने दी। इसी कारण अपनी जन्मजात उम्र को पारकर मनुष्य ने परकाया प्रवेश किया और गंध और कुत्ते और कीड़े मकौड़ों की उम्र जीता हुआ शतायु से चिरायु होने के लिए जीवन रक्षक दवाइयो पर टिका है, जो स्वयं का उत्पाद है, लेकिन सांस की डोर किसी और के हाथ है जिसे वह जानने में आदिकाल से लगा है। गॉड पार्टिकल्स भी उसका समाधान नहीं है। कब, जातियां बनी, वर्ण बने, आश्रम बने और पुरुषार्थ कौन श्रेष्ठ है, इस पर लम्बे बहस की गुंजाइश सदैव से रही है। गीता के कृष्ण कहते हैं- चारों वर्ण मेरी सृष्टि हैं जो गुण और कर्म आधारित हैं। कृष्ण-युग और उनके कुछ दिन बाद की कथाओं तक गुण कर्म निर्धारित वर्ण व्यवस्था मिलती है परंतु कालांतर में ब्राrाण के घर में पैदा होने और अपढ़ वेद विहीन होने वाले पुत्र को जाति च्युत नहीं किया गया और धनुर्धर सूत पुत्र को क्षत्रिय नहीं माना गया। तपस्वी शबरी और शम्बूक को जातीय श्रेष्ठता नहीं मिली, शम्बूक की हत्या तो ब्राrाणों के कहने से स्वयं भक्त वत्सल श्रीराम ने की। कृष्ण के युग में ही गुण कर्म की उपेक्षा हुई। एकलव्य, अजरुन से श्रेष्ठ धनुर्धर है, यह द्रोणाचार्य जानते थे अत: बिना गुरु हुए दक्षिणा मांगने के अधिकारी कैसे हो गए? जातीय परिभाषा की स्वीकृति और अस्वीकृति दोनों महाभारत में पर्याप्त हैं। व्यास धीवर कन्या के ऋषि पुत्र हैं और समाप्त होते कुरुवंश के पिता हैं। उन्हें महर्षि का पद प्राप्त है।
महाभारत के कथाकार हैं। सारा कथासूत्र उनके हाथ में है।
आर्य सभ्यता की इस जाति व्यवस्था में बहुत बड़ा प्रश्न है शिल्प और कलाओं का संबंध त्रिवर्णो से नहीं था। विश्वकर्मा को भगवान माना गया परंतु उनकी जाति की हद भी बता दी गई।
यह मानने से गुरेज नहीं होना चाहिए कि कारीगरों, शिल्पकारों को स्वार्थवश आर्येतर जातियों से खींचकर, चौथे वर्ण में लाया गया। ये ही कलाकार आदिकाल से सभ्यता और संस्कृति की कहानी कह रहे हैं। पुरातत्वों में प्राप्त शिल्प त्रिवर्णो के बनाए शायद ही हों। आज भी मिस्त्री अंत्यजों से ही आते हैं। यदि कर्म आधारित जाति होती तो सारे इंजीनियर शूद्र होते। शिल्प और कला नागरिक सभ्यता के चिह्न् हैं। खुदाई में प्राप्त प्राचीन ईंटे किस जातीय सभ्यता की सूचना देती हैं। इन्हें भी जातीय संदर्भ में देखने की जरूरत है। जाति च्युत होने और जातीय श्रेष्ठता के उदाहरण वाल्मीकि और व्यास से लेकर सूत महाराज तक भरे पड़े हैं। तत्वदर्शियों को जाति से ऊपर माना गया। दाऊ बलराम का राज अभिमान इतना जागृत हुआ कि सूत महाराज के व्यास पीठ से उठकर उनका स्वागत न करने के अपराध में हत्या कर दी, फलत: ऋषियों द्वारा निर्धारित दण्ड बलराम को भोगना पड़ा।
सूत, सर्वश्रेष्ठ व्याख्याकार थे, किसी भी ब्राrाण से बढ़कर? ऋषियों ने चार काम्य निर्धारित किये, जिन्हें पुरुषार्थ कहते हैं।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। संसार के आवागमन से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य ने मोक्ष की कामना की। भारतीय मनीषा का एक बहुत बड़ा वर्ग पुनजर्न्म में विश्वास करता है और मानता है कि जीवन चौरासी लाख योनियों में जन्म लेकर अनेक तरह के कष्ट भोगता है, उससे मुक्ति का उपाय तप योग साधना है। प्रहलाद ने ईश्वर से इसी मोक्ष की कामना की थी और कहते हैं कि आज भी आकाश में सप्तर्षि उनकी अभ्यर्थना करते हैं। व्यक्ति का धर्म रिश्तों, सम्बन्धों, समाज और सम्पूर्ण प्रकृति के चर अचर के प्रति कैसा होना चाहिए, यह जानते हुए भी वह धर्म से विरत है। मोक्ष अब किसी पीठाधीश्वर के चिंतन में नहीं है। अर्थ और काम ही वर्तमान पुरुषार्थ के केन्द्र में है। इन दोनों में अच्छा तालमेल है।
जहां अर्थ है वहीं काम का साम्राज्य है। हमारे यहां स्वर्ग की कल्पना में भी यही भौतिक सुख ही तो है। देवराज इंद्र के लोक में समुद्र मंथन के अधिकतर र8 वहीं विराजते हैं। कामधेनु, कल्पवृक्ष, ऐरावत, उच्चैश्रृवा, रम्भा नृत्य सब वहीं तो है। जहां अर्थ है, वहीं काम है, वहीं स्वर्ग भी है। सारे देश के अर्थपतियों की दृष्टि देवराज का जीवन जीने के लिए सारे संसाधन जुटा रही है। अर्थ और काम से मनुष्य कभी संतुष्ट नहीं हुआ। मनुष्य के धतकरमों को हम पशुवत कहकर पशु धर्म का अपमान करते हैं।
पशु पक्षी, वनचर आज भी प्राकृतिक नियमों, अपने धर्म से बंधे हैं, परंतु मनुष्य ने दानवता की सारी सीमाएं लांघी हैं। यह सब प्रत्येक दिन देश संसार देख रहा है। काम एक अनुशासन था, साल, महीने, दिन तय थे, पशुओं पक्षियों के आज भी तय हैं, परंतु मनुष्य विकास के चरम पर खड़ा सभी जातियों से हीन है। अनेक प्राणियों के कुकर्मो का संगम है आज का विकास पुरुष।
आश्रम व्यवस्था भी पक्षपात पूर्ण रही। त्रिवणोर्ं को ही इस व्यवस्था में शामिल किया गया। ब्रrाचर्य आश्रम, पठन-पाठन, खेलने-कूदने, नाते-रिश्तों के पहचानने की उम्र की समयावधि थी। आश्रम व्यवस्था एक जीवन पद्धति थी, एक व्यवस्थित जीवन के लिए। ब्रrा के प्रति जिज्ञासा का भावारोपण इसी उम्र में होता था। पच्चीस वर्ष के बाद वह गृहस्थी बसाता था, पूरे मनोयोग से ब्रrाचर्य की शिक्षा का व्यवहारिक प्रयोगशाला गृहस्थ आश्रम ही था। संतान परिवार के प्रति लगाव इस आश्रम की शर्ते थीं।
पचास वर्ष की इस उम्र तक पुत्र पुत्रियों को दायित्व सौंप, वानप्रस्थ की ओर उन्मुख होना मोह-माया से धीरे-धीरे मुक्त होने की प्रक्रिया थी। वन में रहते हुए भी गृहस्थी में आना जाना लगा रहता था। निर्देश नहीं सलाह देने के लिए, जिस मां बाप ने लड़कों की गृहस्थी में ज्यादा हस्तक्षेप किया और वानप्रस्थी होते हुए भी उन्हें स्वतंत्रता से जीने की आजादी नहीं दी वे ही अधिक दुखी हुए। अंतिम अवस्था सन्यास की थी, जहां वह बोध हो जाता है, जो कि ‘ब्रrा सत्य जगत मिथ्या’ यदि ऐसा नहीं हुआ तो सन्यास का अर्थ ही विकृत हो जाता है।
देश भर में सन्यासी माया मोह में इतने लिप्त हैं जितना शायद ही कोई गृहस्थ हो। सब कुछ छोड़ने की उम्र में वे सर्वाधिक आसक्त हैं। अब इन वृद्धों को कौन समझए कि कहीं भी दो चार इकट्ठे होकर बेटे-बहुओं का दुख रोते वर्तमान समय को दोष देते हर जगह मिल जाएंगे। उनको लगता है कि मेरी गाढ़ी कमाई का उपयोग करते हुए पुत्र बहुएं हमारी सलाह क्यों नहीं लेते? उनके दुखों के अनंत कारण हैं, जिनका समाधान महर्षि व्यास के पास भी नहीं है। अपने रचे हुए सृष्टि से शिकायत का दोषी कौन है? - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430.Details

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