चिन्तामणि मिश्र
शादी में पैसों का प्रदर्शन शादीयों का मौसम कई सप्ताहों का विराम लेकर फिर वापस आ गया है। निमंत्रण कार्ड बटने लगे हैं। बाजार में खुशी का माहौल हैं। हर दुकानदार जबरदस्त कमाई की उम्मीद लगाए है। मैरिज हाल,बैन्ड वाले,घोड़ी वाले और कैटरिंग आदि के धन्धों में दम मारने की फुरसत नहीं है। ऐसेऐसे निमंत्रण कार्ड देखने को मिल रहे है कि भौचक्का होना पड़ रहा है। कई निमंत्रण कार्ड अनोखे और नवीनतम है। एक ऐसा कार्ड मिला जो कार्ड किसी भी एेंगिल से नहीं था, इसका रूप सांध्यकालीन अखबार के आकार का और चार पृष्ठ का था।
इसमें दूल्हें के परिवार के चित्र थे और उनके गुणों का बखान था। एक निमंत्रण पत्र में खुशबू भरी थी, लिफाफा खोलते ही सारा घर महकने लगा। यह महक कई घन्टों तक बनी रही। कई ऐसे निमंत्रण कार्ड मुङो मिल जाते हैं जो अंग्रेजी में ही छपे होते हैं। मजे की बात तो यह है कि इनमें से कई अंग्रेजी न तो बोल पाते हैं और न लिख ही पाते हैं। अपना नाम तक अंग्रेजी में नहीं लिख सकते। अब निमंत्रण कार्ड देने के साथ एक चलन यह भी शुरू हो गया है कि साथ में मिठाई या सूखे मेवों का डिब्बा भी रहता है। देहरादून से मेरे एक मित्र ने अपनी बिटिया की शादी का कार्ड भेजा है जिसे पढ़-देख कर लगता ही नहीं है कि हमारा देश गरीबी से जूझ रहा है। इस शादी में वर और वधु पक्ष के लिए अलग-अलग रंग की ड्रेस पहनने की व्यवस्था की गई है। मित्र ने फोन पर बताया कि अलग अलग ड्रेस और साड़ियां होगीं। शादी के दिन लड़की पक्ष के लिए एक रंग, लड़के वालों के लिए दूसरा रंग। अब मैरिज हाल और मैरिज पंडाल में सम्पन्न होने वाली शादियों का फैशन हट रहा हैं। पांच-सात सितारा वाले होटलों में या फिर किसी मैदान में फिल्मों की तरह भव्य सैट लगवा कर शादियां होने लगी हैं।
आजकल शादियों में अमीर हो या गरीब, एक कार्यक्रम समान होता है और वह है गिद्धभोज। भोज आंगन में घुसते ही कई प्रकार की सलाद के दर्शन होते हैं। सलाद के नाम पर ऐसेऐसे आइटम होते हैं कि समझना कठिन हो जाता हैं। कई प्रकार की चटनी और अचारों की व्यवस्था यही पर होती हैं। फिर शुरू हो जाता है मुख्य भोजन और सहायक भोजन सामग्री के सजे- धजे स्टाल। आधा दर्जन से अधिक किस्म की रोटियां पांच- छह प्रकार की दाल, चार प्रकार का चावल, एक दर्जन वैरायटी की सब्जी, कई प्रकार के रायते, दही बड़े, पूड़ियां और कचोरिया, मिठाईयों की कई किस्में होती हैं। सहायक भोज सामग्री में पानी पूरी, भेल पूरी आलू चाट, समोसा तो होता ही है, दक्षिण भारतीय डिश मसाला डोसा, सादा डोसा, पनीर डोसा, इडली, बड़ा सांभर भी विराजमान रहता है। चाइनीज ने तो ठेठ गांवों में भी जगह बना ली है। मौसम चाहे कंपकपाते जाड़े का हो, किन्तु आइसक्रीम की कई वैराइटी के भी स्टाल होते हैं। बादाम और केशर के दूध के भी दर्शन अनिवार्य है।
अब गिद्ध भोज में फूट्र स्टाल भी जगह पा गया है। कई गिद्ध- भोजों में मैंने पीने का सादा पानी नहीं देखा अब मिनरल वाटर के बिना गिद्ध-भोज अधूरा माना जाने लगा है। मंडप के नीचे बैठ कर पंगत का रिवाज अब कहीं नहीं बचा है। स्वरुचि भोज के नाम पर जो गिद्ध-भोज चल निकला है, उसमें खाने वाले भोजन की टेबिलों पर यह सोच कर इस तरह हमला करते हैं कि अगर सभ्यता और शिष्टाचार के चक्कर में पड़े तो प्लेट थामे ही रह जाएंगे। खिलाने वाले मेजवान में अतिथि सत्कार का कोई भाव नहीं होता। वह पूरी तटस्थता से टहलता रहता है और मन ही मन हिकारत के भाव से सोचता रहता है कि खाना है तो खाओ नहीं तो दफा हो जाओ। अपने यहां भगवान को कई प्रसिद्ध मन्दिरों में छप्पन प्रकार के भोग लगाए जाते हैं। लेकिन अब तो शादियों में तीस-चालीस प्रकार की भोजन सामग्री का आम रिवाज हो गया हैं। पिछले साल मैंने एक शादी में इक्यासी प्रकार की वैरायटी गिनी थी।
मेजबान को इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता हैं कि पेटू से पेटू भोजन भट भी हर वैरायटी को चखना ही चाहे तो चख नहीं सकता क्योंकि पेट का असीमित रकबा तो होता नहीं।
दिखावे का चलन तेजी से चल रहा है। अजीब बिडम्बना है कि नव-दौलतिए बने लोग चार पैसा कमाने के बाद प्रसिद्धि पाना चाहते हैं। अपना रुतबा कायम करना चाहते हैं। इसीलिए वे विवाह जैसे आयोजनों में अजीबो गरीब फूहड़ता करते हैं। एक साधारण हैसियत वाला मेजवान पूरे वक्त इस तनाव में होता है कि भोजन घट न जाए किन्तु अब जो दिखावे की शादियां हो रही हैं उनमें इसकी समस्या आती है कि जो कई कुन्टल भोज्य सामग्री बची है उसको कहां और कैसे ठिकाने लगाई जाए।
यह बात अफसोस पैदा करती हैं कि उदारीकरण के साथ हमने जो जीवन शैली अपनाई है वह अपने साथ सुरिुच या संस्कृति नहीं ला रही है। वह सिर्फ पैसों से बनी है। मल्टीप्लेक्स और माल इस तबके के सांस्कृतिक मन्दिर हैं, जहां इनकी शामें कटती हैं। आज लोगों ने धारणा बना ली है कि पैसा ही मानस म्मान दिलाता है। यह वह आर्थिक ऐंठ हैं जो किसी भी सांस्कृतिक आग्रह को अवहेलना और उपहास से देखती है।
अब तो शादी-ब्याह का पूरा ताम-झम ही बाजार के हवाले हो गया हैं। इसके लिए पूरा मैनेजमेन्ट शास्त्र ही विकसित हो गया हैं। शादी के लिए जगह-जगह, सजावट, फेरे, जयमाल, कैटरिंग, वाहनों की पार्किग, घोड़ी, बैन्डबाजा विदाई आदि जितने भी काम है उसकी व्यवस्था दक्ष और व्यवसायिक प्रबंधक कर रहे हैं। अब हमारे समाज में बाजार रीति-रिवाजों के संचालक की भी भूमिका अदा कर रहा है।
समाज की दिशा और दशा बाजार तय कर रहा है।
उपभोक्तावादी संस्कृति के साए बहुत गहरे होने लगे हैं। होटलों में लड़के और लड़की के परिवार मेहमान जैसे आते हैं। रस्म पूरी करके दूसरे दिन अपने-अपने घर चल देते हैं। दोनों पक्षों में आत्मीयता के लिए कोई जगह नहीं होती केवल वैभव प्रदर्शन को ही महत्व दिया जा रहा है। प्लास्टिक के घड़े, लोहे के फोल्डिंग मंडप, छपे हुए स्वास्तिक, तोरण आसानी से उपलब्ध हैं। सांस्कृतिक अराजकता का माहौल फैलता जा रहा है। बनावट और दिखावा सब तरफ हावी हो गया है। अपने रीति-रिवाजों को आउट ऑफ डेट का टैग लगा कर हम विदा कर चुके हैं और हम सांस्कृतिक अराजकता से घिर चुके हैं।
- लेखक वरिष्ठ साहित्कार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450.
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