प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
शुक्रवार, 10 मई, 2013 को 11:07 IST तक के समाचार
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अनुसार कर्नाटक में क्लिक करेंकांग्रेस की जीत के सूत्रधार हैं राहुल गांधी. राहुल गांधी से पूछें तो शायद वे मधुसूदन मिस्त्री को श्रेय देंगे. या कहेंगे कि पार्टी संगठन ने अद्भुत काम किया.
क्लिक करेंकांग्रेस संगठन जीता ज़रूर पर पार्टी अध्यक्ष परमेश्वरन खुद चुनाव हार गए. कमल नाथ के अनुसार यह कांग्रेस की नीतियों की जीत है.
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कांग्रेस की इस शानदार जीत के लिए वास्तव में पार्टी संगठन, उसके नेतृत्व और नीतियों को श्रेय मिलना चाहिए.
पर उन बातों पर भी गौर करना चाहिए, जिनका वास्ता कांग्रेस पार्टी से नहीं किन्ही और ‘चीजों’ से हैं.
राज्यपाल की भूमिका
सन 1987 में जस्टिस आरएस सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्तियों को लेकर दो महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे. पहला, घनघोर राजनीतिक व्यक्ति को जो सक्रिय राजनीति में हो, उसे राज्यपाल नहीं बनाना चाहिए.
दूसरा यह कि केंद्र में जिस पार्टी की सरकार हो, उसके सदस्य की विपक्षी पार्टी के शासन वाले राज्य में राज्यपाल के रूप में नियुक्ति न हो.
30 मई 2008 को येदियुरप्पा सरकार बनी और उसके एक साल बाद 25 जून 2009 को क्लिक करेंहंसराज भारद्वाज कर्नाटक के राज्यपाल बने, जो संयोग से जो इन योग्यताओं से लैस थे.
विधि और न्याय मंत्रालय में भारद्वाज ने नौ वर्षों तक राज्यमंत्री के रूप में और पांच साल तक कैबिनेट मंत्री रहकर कार्य किया. वे देश के सबसे अनुभवी कानून मंत्रियों में से एक रहे हैं.
वे तभी खबरों में आए जब उन्होंने यूपीए-1 के दौर में कई संवेदनशील मुद्दों में हस्तक्षेप किया. प्रायः ये सभी मामले 10 जनपथ से जुड़े थे.
सीबीआई ने बोफोर्स मामले के प्रमुख अभियुक्त क्वात्रोक्की के कई बैंक खातों को सील कराया था. कानून मंत्री ने बिना सीबीआई से पूछे ही उन सील खातों को खुलवा दिया.
वे अचानक कुछ ‘बातों’ के लिए चर्चा में आ गए थे, इसलिए केन्द्र से उन्हें हटना पड़ा. संयोग है कि कर्नाटक को एक सुयोग्य राज्यपाल की तब ज़रूरत थी.
मुख्यमंत्री पर मुकदमे की अनुमति
कर्नाटक के राज्यपाल के रूप में उनकी सक्रियता काफी महत्वपूर्ण रही. उन्होंने दो वकीलों के अनुरोध पर राज्य के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दी थी.
राज्यपाल को निजी शिकायत पर इस तरह से कार्रवाई के आदेश देने का अधिकार तो है लेकिन इसके पहले तक यह अनुमति तभी मिलती थी, जब जाँच एजेंसियों ने पूरी कर ली हो. येदियुरप्पा पर मुकदमा चलाने की अनुमति तब दी गई, जब लोकायुक्त की जांच चल रही थी.
लगता है कि जिस दिन हंसराज भारद्वाज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया था, उसी दिन तय हो गया था कि येदियुरप्पा सरकार की शामत आने वाली है. बताते हैं कि राज्यपाल का निवास विपक्ष और खासकर कांग्रेस के दफ्तर में तब्दील हो गया.
येदियुरप्पा का बहुमत निर्दलीय और दागी विधायकों के समर्थन की बदौलत था. निर्दलीय और दागी विधायकों ने समर्थन वापस लेकर येदियुरप्पा की सरकार को गिराने की कोशिशें शुरू कर दीं.
राज्यपाल ने दो बार येदियुरप्पा को विधानसभा में बहुमत साबित करने का आदेश थमाया. दोनों बार उन्होंने बहुमत साबित किया. मामला अदालतों तक गया. इससे सरकार की फज़ीहतें बढ़ीं.
येदियुरप्पा का प्रतिशोध
कुछ दिन पहले जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम आ रहे थे तब जेडीयू के नेता शिवानंद तिवारी ने कहा, "कांग्रेस को जीत की यह माला येदियुरप्पा को पहनानी चाहिए. कांग्रेस की जीत में सबसे बड़ा हाथ उनका रहा है."
हालांकि येदियुरप्पा खुद चुनाव जीत गए, पर उन्होंने यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि भाजपा जीतने न पाए. उनके अपने जिले शिमोगा में भी पार्टी साफ हो गई.
प्रदेश में लिंगायत वोट तकरीबन 19 फीसदी है. सन 2008 के चुनाव में तकरीबन 75 फीसदी लिंगायत वोट भाजपा को मिले थे. इस बार उसके आधे भी नहीं मिले होंगे. वोटों के बँटवारे ने भाजपा की कमर तोड़ कर रख दी.
अनंत कुमार फैक्टर
चुनाव परिणाम आते ही आनन फानन भाजपा ने संसदीय बोर्ड की बैठक बुला ली और समीक्षा भी कर ली. ऐसी समीक्षाओं पर उन पार्टी कार्यकर्ताओं को भरोसा नहीं है जो यह जानते हैं कि समीक्षा भी वही लोग कर रहे हैं जो इस संकट के रचनाकार हैं.
इस बैठक में नरेन्द्र मोदी शामिल नहीं हुए. इसकी वजह साफ है. उनकी पार्टी के केन्द्रीय नेताओं से नहीं बनती. येदियुरप्पा के साथ उनके सम्बन्ध पिछले कुछ वर्षों में बेहतर हुए हैं.
मोदी को कर्नाटक में हार का अहसास था और उन्होंने चुनाव प्रचार में मामूली हिस्सेदारी की. मोदी से कांग्रेस की रंज़िश स्वाभाविक है, पर लगता है पार्टी के शिखर पर उन्हें लेकर कड़वाहट कम नहीं हुई है.
मोदी को कर्नाटक में हार का अहसास था और उन्होंने चुनाव प्रचार में मामूली हिस्सेदारी की. मोदी से कांग्रेस की रंज़िश स्वाभाविक है, पर लगता है पार्टी के शिखर पर उन्हें लेकर कड़वाहट कम नहीं हुई है.
सन 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के बाद अनंत कुमार भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में थे. पार्टी के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड की तब चलती तो अनंत कुमार ही मुख्यमंत्री बनते.
उस वक्त येदियुरप्पा का ज़मीन पर आधार इतना मजबूत था कि वे मुख्यमंत्री बने. ऐसा न होता तो पार्टी में विद्रोह हो जाता.
पहला विश्वासघात
2004 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 78 सीटें जीतीं थीं. उस वक्त जब 58 सीटों वाले जनता दल सेकुलर के साथ मिलकर भाजपा ने सरकार बनाई तो उपमुख्यमंत्री क्लिक करेंयेदियुरप्पाही बने थे. बीस-बीस महीने तक सरकार चलाने का वह समझौता 5 अक्टूर 2006 को एचडी कुमारस्वामी का कार्यकाल पूरा होने के बाद खत्म हो गया.
जेडीएस ने जो ‘विश्वासघात’ किया उसका फायदा भाजपा को 2008 के चुनाव में मिला. येदियुरप्पा ने अनंत कुमार के साथ-साथ पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को भी अपने खिलाफ कर लिया.
इनमें लाल कृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज दोनों थे. 2008 से 2011 के बीच येदियुरप्पा अपने नेताओं से लड़ते रहे. दूसरी ओर एचडी कुमारस्वामी और राज्यपाल हंसराज भारद्वाज भाजपा के ताबूत में कीलें ठोकते रहे.
बेल्लारी बंधुओं का पदार्पण
येदियुरप्पा पर आरोप था कि उन्होंने बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं को संरक्षण दिया. पर यह बाद की बात है. जिस वक्त सन 2008 में सरकार बन रही थी येदियुरप्पा नहीं चाहते थे कि रेड्डी बंधु उनकी सरकार में शामिल हों. सम्भवतः सुषमा स्वराज के दबाव में वे मंत्री बनाए गए.
यह संयोग भर है कि प्रदेश के लोकायुक्त एन संतोष हेगड़े की जाँच की आँच येदियुरप्पा पर भी पड़ी. संतोष हेगड़े कि पिता केएस हेगड़े सन 1977 की जनता सरकार के दौर से आडवाणी जी के मित्र थे. संतोष हेगड़े ने 2011 की जाँच में पाया कि खदान घोटाले में मुख्यमंत्री
येदियुरप्पा भी दोषी हैं. मार्च 2012 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने येदियुरप्पा को भले बरी कर दिया, पर तब तक काम हो चुका था.
भाजपा से बाहर जाने के बाद येदियुरप्पा और उनके लिंगायत समुदाय ने वह काम किया जिसकी भाजपा ने कल्पना नहीं की थी.
खाली खजाना
बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं ने कर्नाटक में भाजपा से और आंध्र में वाईएस आर की कांग्रेस के साथ अच्छे रिश्ते रखे. उनका काफी कारोबार आंध्र प्रदेश में है. बहरहाल 2008 के चुनाव में कर्नाटक भाजपा के पास पैसा था। इसकी व्यवस्था रेड्डी बंधुओं ने की थी. पर इस बार भाजपा पैसे से भी तंग थी.
चूंकि भ्रष्टाचार मामले पर केंद्र में विपक्ष के विरोध का सामना कर रही कांग्रेस के लिए यह जीत 2014 के आम चुनाव से पहले उसका मनोबल बढ़ाने वाली है.
यह जीत निश्चित तौर कांग्रेस के लिए `संजीवनी` का काम करेगी. बीजेपी के लिए यह शिकस्त एक सबक है. और इस बात को बीजेपी से बेहतर कोई और नहीं जानता.
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