शेफाली, अशोक, शिरिष, कुटज, देवदार, आम पर इतने सुन्दर ललित निबन्ध लिखने वाले आचार्य द्विवेदी से शिकायत है। आम को छोड़कर अन्य सभी पुष्पों पर उनकी मुग्धता पाठक को भी रससिक्त करती है। ‘आम’ बौरा जाता है तो हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती है। आचार्य जी के आम ‘आम्र’ हैं आम (व्यक्ति) नहीं। उनका जितना मन इन फूलों पर गया है,स्तुत्य है। पता नहीं क्यों इन फूलों के साथ वे मधुक, पुष्प को कैसे भूल गए, लगता है गुरुदेव के शान्ति निकेतन में मधुक वृक्ष नहीं था, या उस पुष्प की मादक गंध को बर्दास्त नहीं कर सकेंगे पंडित द्विवेदी। भला मादकता का पंडित से क्या सम्बन्ध? आचार्य, मधुक-पुष्प पर लिखते तो वह वृक्ष भी अभिजात वर्ग का हो जाता। संस्कृत भाषा का मधुक,तद्भव में मधूक और देहात में महुआ हो गया। ‘मधु’ में संचयन की एक विकसित परम्परा है। उसकी मिठास गुड़ और शक्कर से अधिक है। मधु दवा है, साधना है। जिस वृक्ष ने इतनी साधना की, उसका पुष्प अमृत हो गया, वह सचमुच वरेण्य है। प्रसाद ने ‘पुरस्कार’ की मधूलिका को मधुक वृक्ष के नीचे ही आश्रय देकर उसे बोधिवृक्ष बना दिया। मधुक की सघन छाया सूरज के प्रचंड ताप को चुनौती देती है।
बसंत के आगमन के साथ मधुक वृक्ष भी पलाश की तरह निर्वस्त्र अवधूत की तरह पत्रहीन हो जाता है। शाखाओं की फुनगियों पर कूंचे बनती हैं। कुछ दिन बाद उन कूंचों में फूल विकसित होते हैं। कूंचों से झांकते वे फूल आसमन में लटकते तारों के समान दिखते हैं। मधुमक्खी के छत्ते से झांकते ये फूल खिलने के साथ आधी-रात से सुबह देर तक झरते रहते हैं। कूंची में वे मोती की तरह दिखते परन्तु धरती पर आते ही कुछ गुलाबी हो जाते हैं। हाथ में उठाते ही अपनी गंध आपके भीतर तक भर देने की क्षमता रखते हैं। हाथ महक उठता है। आनंद की अनुभूति चेहरे पर स्पष्ट दिखती है।
मधुक अर्थात महुआ, आम आदमी का पुष्प और फल दोनों हैं। आम आदमी के सानिध्य के कारण देवभाषा में इसे स्थान नहीं मिला। इसीलिए इसे अन्त्यजों के हवाले कर दिया गया। न तो इसे स्वर्ग में जगह मिली और न अप्सराओं की वेणीं में, और न देवताओं के कुंज में। यह जंगली हो गया, और जंगल के प्राणियों का भरपूर पोषण किया। आज के अभिजात शहरी इसे आदिवासियों का अन्न कहते हैं। सच तो यह है कि गांव में बसने वालों उन लोगों के जिनके यहां महुआ के पेड़ है, बैसाख और जेठ के महीने में इसके फूल नाश्ता और भोजन हैं।
मेरे गांव के पूरब और उत्तर बहुत बड़ी ‘मउहारि’(महुआरि) थी। जहां महुआ के पेड़ थे, वहां खेती नहीं होती थी, क्योंकि वे पेड़ इतने सघन थे कि उन्हें महुआ-वन कहा जा सकता है। हम उसे मौहारि कहते थे। प्रत्येक किसान के पास बीस-पच्चीस महुआ के पेड़ थे। गेहूं की कटाई करने के बाद किसान, महुआ बिनाई से लेकर उसे सुखाकर, पीट-साफ कर कुठिला में रखने के बाद ही गेहूं की मिजाई (गहाई) करता था। महुआ के हिसाब की नाप उन दिनों पैला, कुरई, खांड़ी में हुआ करती थी। अधिक पैदावार व्यक्ति की हैसियत निर्धारित करती थी। पेड़ों के नाम हुआ करते थे, मिठौंहा, चिनिहमा, मिसिरीबा, उसके फल की गुणवत्ता बताते थे। पेड़ के नीचे गिरे पत्तों को जलाकर जमीन साफ कर लेते। ताजा गिरे फूलों को चुन चुनकर डलिया में भरते फिर बडेÞ टोपरा में डालकर सिर पर कपडेÞ की गोढ़री रखकर टोपरी (झौआ) भर महुआ घर लाते। आंगन लीपा रहता, उसमें बिछा देते, पांच, छ: दिन में सूख जाने पर उसे मोंगरी से पीटकर उसके भीतर के जीरा को निकालते और सहेज कर रख देते। गांव के लोग एक दूसरे की खबर लेने पर आम और महुआ को फसल के आने या न आने को समय और अकाल से जोड़ते थे। चौथे और पांचवे दशक में महुआ ग्रामीण जन-जीवन का आधार होता था। प्रत्येक घर में शाम को महुआ के सूखे-फूल को धो-साफ कर चूल्हों में कंडा-उपरी की मंद आंच में पकाने के लिए रख देते थे। रातभर वह पकता,पक कर छुहारे की तरह हो जाता। ठंडा हो जाने पर उसे दही, दूध के साथ खाने का आनन्द अनिर्वचनीय होता। कुछ लोग आधा पकने पर कच्चे आम को छीलकर उसी में पकने के लिए डाल देते। वह खटमिट्ठा स्वाद याद आते ही आज भी मुंह में पानी आ जाता है। लेकिन न वे पकाने वाली दादियां रहीं न, माताएं अब तो सिर्फ उस मिठास की यादें भर शेष हैं। इसे डोभरी कहते, इसे खाकर पटौंहा में कथरी बिछाकर जेठ के घाम को चुनौती दी जाती थी। लगातार दो महीने सुबह डोभरी खाने पर देह की कान्ति बदल जाती थी। दोपहर को इतनी बढ़िया नींद गांव छोड़ने के बाद कभी नहीं आई। डोभरी का अहसास आज भी जमुहाई ला देता है।
पेड़ों के नीचे पडेÞ ये मोती के दाने टप-टप चूते हैं सुबह देर तक, इन्हें भी सूरज के चढ़ने का इन्तजार रहता है। जो फूल कूंची में अधखिले रह जाते है, रात उन्हें सेती है, दूसरे दिन उनकी बारी होती है। पूरे पेड़ को निहारिये एक भी पत्ता नहीं, सिर्फ टंगे हुए, गिरते हुए फूल। दोपहर और शाम को विश्राम की मुद्रा में हर आने-जाने वाले पर निगाह रखते हैं। कुछ इतने सुकुमार होते हैं कि कूंची में ही सूख जाते हैं, वे सूखकर ही गिरते हैं, उनकी मिठास मधु का पूर्ण आभाष देती है। जब वृक्ष के सारे फूल धरती को अर्पित हो जाते हैं तब ग्रीष्म के सूरज को चुनौती देती लाल-लाल कोपलों से महुआ, अपना तन और सिर ढकता है। कुछ ही दिनों में पूरा वृक्ष लहक उठता है। नवीन पत्तों की छाया गर्मी की लुआर को धता बताती है। फूल तो झर गये लेकिन वृक्ष का दान अभी शेष है। वे कूंचियां जिनसे फूल झरे थे, महीने डेढ़ महीने बाद गुच्छों में फल बन गए। परिपक्व होने पर किसान इनको तोड़-पीटकर इनके बीज को निकाल-फोड़कर बीजी को सुखाकर इसका तेल बनाते है। रबेदार और स्निग्ध, इस तेल को गांव डोरी के तेल के नाम से जानता है। ऐंड़ी की विबाई, चमडेÞ की पनही को कोमल करने देह में लगाने से लेकर खाने के काम आता है। गांव की लाठी कभी इसी तेल को पीकर मजबूत और सुन्दर साथी बनती थी, जिसे सदा संग रखने की नसीहत कवि देते थे।
महुआ गर्मी के दिनों का नाश्ता तो है ही कभी-कभी पूरा भोजन भी होता है। बरसात के तिथि,त्यौहारों में इसकी बनी मौहरी (पूड़ी) सप्ताह तक कोमल और सुस्वाद बनी रहती है। मात्र आम के आचार के साथ इसे लेकर पूर्ण भोजन की तृप्ति प्राप्त होती है। इस महुए के फूल के आटे का कतरा सिंघाडेÞ के फूल को फीका करता है। सूखे महुए के फूल को खपड़ी (गगरी) में भूनकर, हल्का गीला होने पर बाहर निकाल भुने तिल को मिलाकर, दोनों को कूटकर बडेÞ लड्डू जैसे लाटा बनाकर रख लेने से वर्षान्त के दिनों में पानी के जून में, नाश्ते के रूप में लेने से जोतइया की सारी थकान एक लाटा और दो लोटा पानी, दूर कर देता है। लाटा को काड़ी में छिलका रहित झूने चने के साथ कांड़कर चूरन बना कर सुबह एक छटांक चूरन और एक गिलास मट्ठा पीकर ताउम्र पेट की बीमारियों को दफा किया जा सकता है।
संसार के किसी भी वृक्ष के फूल के इतने व्यंजन नहीं बन सकते। व्रत त्यौहार में हलछठ के दिन माताएं महुआ की डोभरी खाती है। पूजा-पद्धति में भी महुआ, आम और छिलका के पत्ते ही काम आते हैं। छिलका अकारण अभिशप्त हो गया समाधिस्थ शिव को कामदेव ने पलाश के ओट से ही पंचशर (पुष्पवाण) मारा था। शिव क्रोधाग्नि से काम तो क्षार हुआ ही, बेचारा पलाश भी जल गया। मुझे लगता है। काम के पुष्पवाणों में यदि अकेला मधुक पुष्प होता तो वह किसी की भी समाधि भंग करने का सबसे सुन्दर और असरकारक बाण होता। कामदेव को मधुक पुष्प की शक्ति का पता नहीं था। समाधि भंग की जो मादकता मधुक पुष्प में है वह काम के अन्य वाणों में नहीं। इतना बहुअर्थी वृक्ष कोई है? पता नहीं देवताओं को इस बेचारे मधुक से क्या चिढ़ थी। वृक्ष भले सख्त हो फूल और फल तो अत्यंत कोमल हैं। फिर जब आपने नारियल जैसे सख्त फल को स्वीकारा तो महुए ने कौन सा गुनाह किया था।
महुआ पर एक पुस्तक लिखने के लिए तलाशते हुए यह ब्लॉग दिखा ,अद्भुत वर्णन पढ़कर महुआ की तलाश को विराम मिला जो भाव मुझे चाहिए था वो मिल गया ,आपको बहुत बहुत बधाई ,इस संमरण के लिए
ReplyDelete