प्रमोद जोशी
उत्तर प्रदेश प्राचीन आर्यावर्त का प्रतिनिधि राज्य है। इसके कई शहरों का देश में ही नहीं, दुनिया के प्राचीनतम शहरों में शुमार होता है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1947 की आजादी तक यह प्रदेश राष्टÑीय आंदोलनों में सबसे आगे होता था। वैदिक, बौद्ध, जैन और सिख धर्म के अनेक पवित्र स्थल उत्तर प्रदेश में हैं। सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से यह भारत का हृदय प्रदेश है। आबादी में दुनिया का सबसे बड़ा उपराष्टÑीय क्षेत्र है। यदि इसकी तुलना विभिन्न देशों से करें, तो दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश साबित होगा। ब्राजील से भी बड़ा। आर्थिक और सामाजिक मापदंडों पर यह इलाका 1947-48 में प्राय: अधिकतर मामलों में तत्कालीन राष्टÑीय औसत से या तो ऊपर रहता था या काफी करीब था। कानपुर अपने वक्त में देश के सबसे विकसित औद्योगिक शहरों में था। लखनऊ, कानपुर, आगरा, बरेली और मेरठ जैसे शहर साठ साल पहले बेंगलुरू, अहमदाबाद, बड़ोदरा या कोयम्बटूर के मुकाबले उतने हल्के नहीं थे, जितने आज हैं। देश के सबसे अच्छे शिक्षा संस्थान इस प्रदेश में थे। आजादी के 64 साल में राष्टÑीय स्तर पर कहानी बेहतर हुई। उत्तर प्रदेश में बद से बदतर होती गई। विकास के ज्यादातर पैमानों पर उत्तर प्रदेश पिछड़ता चला गया।
अक्सर कहा जाता है कि देश को आठ प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश ने दिए हैं। पर राष्टÑीय राजनीति में सबसे निर्णायक भूमिका उत्तर प्रदेश की होती है। तब क्या वजह है कि विकास की दौड़ में यह प्रदेश बजाय सबसे आगे रहने के लगातार पिछड़ता चला गया? क्या इसका आकार इसकी वजह है? इतने बड़े राज्य का प्रशासन सफलतापूर्वक चलाना क्या असंभव है? प्रश्न प्रदेश, उल्टा प्रदेश और कायर प्रदेश जैसे विशेषण क्या इस प्रदेश को शोभा देते हैं? देश के बीमारू प्रदेशों में इसकी गिनती होने की मूल वजह क्या इसका आकार है? और क्या इसके टुकड़े कर देने मात्र से बीमारी खत्म हो जाएगी? राज्य-मंत्रिमंडल ने उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने का फैसला कर जरूर लिया है, पर यह बगैर राष्टÑीय बहस के लागू नहीं हो पाएगा। उत्तर प्रदेश के आकार और विकास पर अक्सर सवाल उठते रहे हैं, पर प्रदेश की जनता ने शिद्दत से यह सवाल कभी नहीं उठाया। 1950 में यूनाइटेड प्रॉविन्स से उत्तर प्रदेश बनने के वक्त, इसका आकार आज से भी बड़ा था। तब यह राष्टÑीय मानकों में बीमारू नहीं था। 61 साल में ऐसा क्या हुआ, जिसने इसे बीमार बना दिया? क्या सिर्फ आकार? उत्तर प्रदेश के किसी इलाके में राज्य छोटा बनाने या नया राज्य बनाने का जनांदोलन नहीं चल रहा है। हरित प्रदेश, बुंदेलखंड या अवध प्रदेश बनाने की मांग उठती रही है, लेकिन यह मांगें ही हैं। जनता इन मांगों के समर्थन में वैसे सड़कों पर नहीं उतरी, जिस तरह तेलंगाना की जनता उतरी। जबरदस्त आंदोलन के बावजूद तेलंगाना गठन में तमाम अवरोध हैं। विदर्भ और गोरखालैंड के आंदोलन अरसे से चले आ रहे हैं। अनेक भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक आधार इन राज्यों की स्थापना का समर्थन करते हैं, लेकिन वे नहीं बने। बनें या न बनें, लेकिन उनके पीछे कम से कम जनता की मांग है। उत्तर प्रदेश को काटकर चार राज्य बनाने की मांग न तो जनता की ओर से है और न राजनीतिक दलों की ओर से। प्रदेश सरकार के इस फैसले के बाद ज्यादातर राजनीतिक दल सन्नाटे में हैं। एकदम इसका विरोध करने में वे घबरा रहे हैं। केवल समाजवादी पार्टी ने सीधा विरोध किया है। बसपा से सीधा और खुला राजनीतिक विरोध इसी पार्टी का है। इसे यह मुखर रूप में व्यक्त कर रही है।
सहज ही समझ में आता है कि सरकार का यह फैसला चुनाव के पहले का राजनीतिक कदम है। इसे कुछ लोग इस रूप में भी ले रहे हैं कि सरकार एंटी इनकंबैसी की ओर से ध्यान हटाकर बहस के रुख को मोड़ देगी। इसकी नाटकीयता में चतुराई देखी जा रही है। जरूर चतुराई होगी, लेकिन उत्तर प्रदेश के निवासी नासमझ नहीं हैं। तमाम विसंगतियों के बावजूद उत्तर प्रदेश राजनीतिक मामलों में देश का नेतृत्व करता है। देश में अनेक उप-राष्टÑीयताएं हैं। भाषा, क्षेत्रीय पहचान, संस्कृति वगैरह के कारण उप राष्टÑीयताएं विकसित हुई हैं। सांस्कृतिक बहुलता की दृष्टि से यह अच्छा है। मौका आने पर हम सब भुलाकर राष्टÑीय धारा में शामिल होते हैं, लेकिन गंगा-यमुना की तरह उत्तर प्रदेश हमेशा एक राष्टÑीय धारा में बहता है। प्राचीन आर्यावर्त के प्रतिनिधि इस राज्य के निवासियों ने हमेशा अपने आपको भारतीय और सिर्फ भारतीय माना। इसकी विशालता ने भले ही इसे पिछड़ा बनाकर रखा हो, लेकिन निवासियों ने अपने हाथ-पैर काटकर छोटा होने की कामना नहीं की।
हाल के वर्षों में उत्तराखंड, झरखंड और छत्तीसगढ़ का अनुभव बताता है कि छोटे राज्य बनने से आर्थिक विकास का रास्ता खुलता है। स्थानीय प्रशासन सक्रिय होता है। स्थानीय आबादी की शासन में भागीदारी बढ़ती है। राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ती है। छोटे जातीय-सामाजिक समूहों और उनके निरंकुश नेताओं को ताकतवर बनने का मौका भी मिलता है। भ्रष्टाचार के दरवाजे भी खुलते हैं। देश के अंतर्विरोधों को खोलने की जरूरत है, लेकिन देश को जोड़े रखने के लिए इस विकेंद्रीयता और केंद्रीयता के बीच संतुलन भी चाहिए। जो नियम छोटे राज्य पर लागू होते हैं, वही छोटे देश पर भी लागू होते हैं। अनेक दिलजले भारत को टुकड़ों में बांटने की कामना भी रखते हैं। राजनीति में भी राष्टÑीय दलों के क्रमश: कमजोर होने के नकारात्मक पहलू सामने आए हैं। छोटी राजनीतिक इकाइयां छोटे राजनीतिक समूहों की ताकत बढ़ाती हैं, तो यह एक उपलब्धि है, लेकिन उसके खतरे भी हैं। उत्तर प्रदेश का विभाजन कुछ नए क्षेत्रीय समूहों को जन्म देगा। उनके निहितार्थ समझने की जरूरत भी है।
80 सांसदों के साथ उत्तर प्रदेश इस वक्त देश का सबसे ताकतवर राज्य है। बड़े राज्यों के प्रशासनिक नियंत्रण के दूसरे सूत्र भी हैं। क्षेत्रीय विकास परिषदें बनाकर बड़े राज्य के भीतर स्वायत्त क्षेत्र बना सकते हैं। यह काम प्रशासनिक और आर्थिक सतह पर होगा। आखिर हम स्थानीय निकायों को स्वायत्त बनाने की कोशिश कर ही रहे हैं। इन्हें सबल बनाकर जनता की भागीदारी सुनिश्चित करके बड़े राज्य की शक्ति का सदुपयोग किया जा सकता है। यह निर्णय विकास के नहीं, राजनीति के रास्ते खोलने के वास्ते है। इसकी नाटकीयता से एक बात यह भी पता लगती है कि प्रदेश के सत्तारूढ़ दल में असुरक्षा का भाव है। यह इतना महत्वपूर्ण मसला था, तो 2007 में सरकार बनते ही इसकी प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए थी। बहरहाल यह एक दांव है, जो उल्टा भी पड़ सकता है।
- लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं।
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