भारत से अधिक फलों और फूलों वाला देश शायद ही विश्व में कोई हो। यहां खुश और प्रसन्नचित्त रहने के लिए फलने और फूलने का आशीर्वाद, बिना कुछ किए सहज रूप से प्राप्त हो जाता है। भारतीय जन-जीवन का सर्वाधिक प्रिय फल, आम है। देश के अलग अलग क्षेत्रों में अनेक तरह के फल होते हैं लेकिन पूरे देश के कोने कोने में आम अकेला ऐसा फल है जो अपनी धज बनाए हुए है, पूरी शिद्दत और अस्मिता के साथ। गरीब की कोलिया से लेकर महाराजा के बगीचे तक इसकी उपस्थिति है। इसका स्मरण होते ही जीभ मुंह के भीतर चलने लगती है। आधे जून से अगस्त तक, इस फल का एकछत्र साम्राज्य रहता है। पेड़ के नीचे गिरे आम को उठाने के लिए पालकियां रुक गर्इं। हाथी पर सवार राजा के हाथी रुक गए, सामान्य की बात कौन कहे? प्राचीन काल में आम के बाग-बगीचे व्यक्ति की हैसियत का निर्धारण करते थे। आम ‘वन-फल’ नहीं ‘जन-फल’ है। कहते हैं कि पुन्नाम नरक से मुक्ति दिलाने वाला वृक्ष आम ही है। पुत्र, पिता का नाम आगे बढ़ाता है। आम भी अपने लगाने (रोपने) वाले के नाम से ही जाना जाता है। इस तरह वह मनुष्य का ‘वंश वृक्ष’ भी है। पेड़ों के नाम लगाने वाले के नाम से चलते हैं। गांवों में परम्परा है कि आम लगाने वाला उसके फल को तब तक नहीं खाता, जब तक उस वृक्ष का व्रतबंध बरुआ नहीं करता। वृक्ष को पुत्रवत मानने की परिकल्पना सिर्फ भारत में है। अम्ल या (आंबिल) के कारण भले उसका नाम आम रखा गया हो, मुझे तो ऐसा लगता है कि यह खास (स्पेशल) के यहां नहीं, हर आम (जनरल) के दुआर और पछीती की शोभा होने के कारण इसका नाम आम पड़ा। आम रसराज है, इसी कारण उसे रसाल कहते हैं।
आम, पृथ्वी पर कब आया, यह तो नहीं जानता, पर कहते हैं कि कामदेव के पंचबाणों में एक वाण आम्रमुकुल (मंजरी) भी था शिव की समाधि भंग करने के लिए काम ने पांच पुष्पों का सरसंधान किया उनमें अशोक, अरविन्द, नीलोत्पल, मल्लिका और आम थे। कमल, नील कमल, (जलज) थे, मल्लिका (लता) बेलि पुष्प थी। अशोक और आम, वृक्ष थे। अशोक के फूल सामान्य के पहुंच और ज्ञान के बाहर है। (आम्र-मंजरी ) नुकीली सुन्दर और सुगंधित होती है इसीलिए आम बौरा (बावला)जाता है। नील कमल तो नीला है ही, अरविन्द का रंग, रक्त था या श्वेत, इसका वर्णन नहीं मिलता, मैं जानता हूं कि वह लाल ही रहा होगा क्योंकि प्रेम का रंग लाल माना जाता है। कामदेवता ने पलाश वृक्ष की ओर लेकर बाण चलाए थे। शिव की समाधि भंग हुई। उन्होंने नेत्र खोले। काम तो क्षार हुआ ही निष्कलुष पलाश भी जल गया। धनुष खण्ड हुआ। वामन पुराण के अनुसार धनुष के टुकडेÞ धरती पर जहां गिरे वहां चम्पा, मौलिश्री, कमल, चमेली और बेला के पुष्प कालान्तर में उगे हैं जो आज तक मनसिज को उद्दीप्त करने के सहायक उपाद बने हुए हैं।
आम लोक-फल है। बसंत पंचमी के दिन आम्र मंजरी देख लोग पुलकित होते हैं, उसे बौरि कहते हैं। उसके अग्रभाग को तोड़कर चबाते हैं, गदेली (हथेली) पर रगड़ते हैं। सूंघते हैं आम की फसल का स्वागत खाद्यान्न की तरह करते हैं। बौरि में छोटी-छोटी टिकोरी (अमिया) लगती है। फागुन और चैत के आंधी पानी से लड़कर जो टिकोरी बचती हैं, पूर्ण विकसित आम बनने के पहले से उनका उपयोग होने लगता है। जब तक आम में बीज (गुठली) पड़ता तब तक उसे छीलकर ‘अमहरी’ बना लेते हैं, आम का अचार गरीब की तरकारी है। बीज निकाल-सुखा कर और फिर कूटकर आम्रचूर्ण (अमचुर) बनाकर वर्षों चटनी और कढ़ी बना कर भोजन का स्वाद लिया जाता है। पहले आमों के बगीचे थे। सैकड़ों, हजारों पेड़ों के साथ लखराम (लाखों आम) के वृक्ष होते थे। कहीं ‘बाबू का बगीचा’ ‘बड़का बगीचा’ और कहीं ‘महरानी (देवी) का बगीचा’ प्राय: हर दो तीन गांवों के बीच में आम के बगीचे जातीय और पारिवारिक पहचान के रूप थे। प्रत्येक गांव में कुछ जमीन बगीचे के लिए छोड़ दी जाती थी जहां सभी घरों के लोग आम के बीज बोते थे, रखवाली करते थे और इस तरह बगीचे तैयार होते थे। पहले किसी के खेत या मेड़ में कोई आम लगा देता था और उसकी पीढ़ियां उसको खाती थी। अब जिसके खेत में आम है, वह उसका है। कितने ही आम लगाने वालों के परिवार के लोग, बिना आम के हो गए। आम का मौसम उनके लिए अकाल का मौसम हो गया। भाइयों में आम के लिए लाठियां चलने लगी। पे्रम और मिठास का यह फल झगडेÞ का कारण बन गया। लोगों ने कलमी आम लगाना प्रारंभ कर दिया। ये झाड़ बन गए पेड़ नहीं बन सके। पेड़ बनने में समय और साधना की समवेत भूमिका होती है। पेड़ के आम पेड़ में ही पकते हैं। कलमी आम तोड़कर पकाए जाते हैं, पहले भूसा, पैरा, घडेÞ में भरते थे अब केमिकल्स से पकने के कारण न तो वह स्वाद रहता है, न स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त। पके आम को पेड़ पर चढ़कर हल्का दम लगाकर हिलाते थे। सिर्फ पका आम ही गिरता था। कलमी आम पकाने के लिए अभिशप्त है। देशी आम की अमहरी, छूना अमचुर से लेकर अमावट (आम्रवते) तक काम आते हैं। इसे चुस्सू (चूसने वाला) भी कहते हैं। ‘शाह’ औ ‘मरई’ को गिराने के लिए कंकड़-पत्थर और छोटी लाठी से साठ-सत्तर हाथ ऊपर वाले आम को तुक कर झोर लिया जाता था। गांवों में ऐसे निशानेबाजों का अब इतिहास शेष है। पुराने पेड़ वर्षा की कमी से या दीमकों के अभिशाप से सूखते जा रहे हैं, उन्हें अपने लगाने वालों को न संतुष्ट कर पाने के मलाल ने उनकी जिजीविषा छीन ली। अब बीजू आम लगाने का समय खतम हो गया। ऊंचे उठे कि उखडेÞ। कलमी का जमाना है, उनकी जडंÞे गहरे नहीं गर्इं। वे झखरा हैं मुसरा नहीं। चूसने वाले आमों में कब्जियत नहीं होती जबकि काटकर खाने वाले कलमी आम का गूदा गरिष्ट होता है, देर से पचता है, कर्बाइड सीधे हाजमा को प्रभावित करता है। आम्र बौर के गंध से जब शिव की समाधि भंग हो गई तो पके आम को देखकर मनुष्य की स्थिति का अन्दाज सहज ही लगाया जाता है। गांवो में मुफ्त में मिलने वाला आम शहर में आकर बिकने लगा।
गांवों में आज भी आम खाने का न्यौता होता है। परात में दस-पांच किस्म के पच्चीस-तीस आम धोकर चूसने के लिए दिये जाते हैं। लोग छक कर सराह कर खाते हैं। खिलाने वाला छांटकर एक-एक आम जिस प्रेम से खिलाता है, उतने प्रेम से तो शबरी ने भी शायद ही राम को खिलाया हो, आम खाने और खिलाने की परम्परा सदियों से रही है। पका आम देख किसका जी नहीं ललचाएगा। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लम्बे समय तक शान्ति निकेतन में गुरुदेव के साथ रहे, उन्होंने लिखा है कि एक बार गुरुदेव चीन गए उन्हें आम खाने को नहीं मिला। उन्होंने अपने एक साथी से विनोद में कहा देखिए मैं जितने दिन तक जिऊं उसका हिसाब कर लेने के बाद उसमें एक साल कम कर दीजिएगा, क्योंकि जिस साल में आम खाने को नहीं मिला उसको मैं व्यर्थ समझता हूं, फल व्यक्ति की उम्र बढ़ाते हैं और स्वस्थ रखते हैं। जिस वर्ष मेरे आम नहीं फलते लगता है संसार रस-हीन है, दूसरों के आम से पेट नहीं भरता। आमों को डाल में लटकते हुए देखने का सुख आसमान में लटकते तारों के सुख के समान है। कहते हैं गालिब साहब को आम बहुत पसन्द थे, कमजोरी की हद तक। यह बात शहंशाह को मालूम थी। एक बार शहंशाह ने गालिब को अपने आम के बगीचे की सैर कराई। आम पके थे। पेड़ फलों से लदे थे। पूरा बाग महक रहा था। गालिब हर पेड़ के सामने खडेÞ होकर आम को देखने लगते शहंशाह ने पूछा गालिब क्या बडेÞ गौर से देख रहे हैं, गालिब ने तुरन्त उत्तर दिया जहां पनाह सुना था कि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है। हुजूर अपना नाम ढूंढ़ रहा हूं। शंहशाह हंस पडेÞ और ढेÞर सारे आम गालिब के घर भेजवा दिए।
धतूरे की गंध शिव को पंसद है। आम मंजरी शिव पर चढ़ती है। आम स्वर्ग का वृक्ष नहीं है वह धरती की कोख से उपजा अमृत वृक्ष है। अमृत में आम की ध्वनि है। वे बहुत अभागे हैं, जिनके ऊपर आम की छाया नहीं है। देवताओं की पूजा में कलश के ऊपर आम की टेरी (पत्तों की एक छोटी डार) हवन की समिधा में सूखी आम की लकड़ी आम के पत्ते से घी का होम, कहीं वन्दनवार कभी तोरणद्वार, समग्र रूप में कहें तो जन्म से लेकर मृत्यु (सतलकड़िया में आम की लकड़ी) तक किसी न किसी रूप में आम उपस्थित है। भीमसेनी एकादशी का पूर्ण फलाहार आम ही तो है। वृक्षारोपण सरकारी योजना हो सकती है लेकिन आम का रोपना सल्तनत को युगों तक अपनी मीठी यादों का फल खिलाना है। लोक जीवन से लुप्त होते जा रहे आम का निरन्तर घटना प्रकृति और प्राणी के लिए अशुभ संकेत है, जिसके लिए मनुष्य को सचेत होना होगा। आम का कम होना जीवन से मिठास का कम होना है।
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