Monday, November 21, 2011

तसल्लियों के इतने साल बाद


 आज जब उत्तरप्रदेश को चार राज्यों में बांटने की चर्चा चल पड़ी हो, तो ऐसे में विन्ध्यप्रदेश के पुनरोदय का सवाल  स्वाभाविक ही उठ खड़ा होता है। यूपी के इन प्रस्तावित राज्यों समेत देश भर में जितने भी नए राज्यों की मांग उठती रही है, वे कभी भी एक राज्य के रूप में अस्तित्व में नहीं रहे हैं। इन राज्यों की मांग के पीछे उपेक्षा के तर्क अपनी जगह सही हो सकते हैं, लेकिन असल कारण क्षेत्रीय दलों व उनके नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ज्यादा है। विन्ध्यप्रदेश का मामला इन सबसे अलग है। सन् 2000 में जब छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण की प्रक्रिया अंतिम दौर पर थी तब भोपाल में भाजपा के सांसद रह चुके वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रशासनिक अधिकारी सुशीलचंद्र वर्मा ने अखबारों में एक भावुक विज्ञप्ति जारी की थी। श्री वर्मा ने कहा था कि आज जब छत्तीसगढ़ राज्य बनने जा रहा है तो मुझे दुख है कि विन्ध्यप्रदेश के साथ भीषण अन्याय हो रहा है। यदि प्रदेश का कोई विभाजन हो, तो पहला अधिकार विन्ध्यप्रदेश का है क्योंकि वह सात वर्षों तक एक फलता फूलता राज्य रहा है। वर्माजी विन्ध्यप्रदेश में आईएएस अधिकारी के रूप में पदस्थ रहे हैं व मध्यप्रदेश में इस राज्य के विलीनीकरण के राजनीतिक अन्याय को देखा था। वर्माजी आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी शुभेक्षा विन्ध्यवासियों के साथ सदैव रहेगी।
दरअसल जो भी ऐतिहासिक तथ्यों को निष्पक्षता के साथ अध्ययन करेगा उसका अभिमत सुशीलचंद्र वर्मा जैसा ही होगा, चाहे वह दिल्ली में बैठा हो या भोपाल में। विन्ध्यप्रदेश के विलय के पीछे कोई ठोस कारण या तर्क नहीं थे। सीमा कमीशन और राज्य पुनर्गठन आयोग ने जनता का अभिमत लिए बिना ही वही सिफारिश की जो केंद्र सरकार ने चाहा। विलीनीकरण के खिलाफ तब समाजवादी विधायक रहे श्रीनिवास तिवारी का विधानसभा में दिया गया भाषण दस्तावेज के रूप में ऐतिहासिक धरोहर है। श्री तिवारी ने तत्कालीन विन्ध्यप्रदेश की आर्थिक क्षमता, साक्षरता और प्राकृतिक संसाधनों का आंकड़ेवार ब्योरा पेश किया था। उन्होंने विधानसभा में केंद्र सरकार को चुनौती दी थी कि सरकार विन्ध्यप्रदेश के विलीनीकरण के पक्ष व विपक्ष को सामने रखकर नया चुनाव कराए। बहरहाल उनकी आवाज सत्ता के नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई। सदन में विन्ध्यप्रदेश को अवक्षुण रखने के लिए सर्वसम्मति से प्रस्ताव में हाथ उठाने वाले कांग्रेसी विधायकों के मुंह में दही जमा रहा। किसी की हिम्मत नहीं हुई कि पंडित नेहरू के सामने विन्ध्यवासियों की भावनाओं को पुरजोर तरीके से रखें और एक राज्य को अकाल मौत की सजा से बचाएं। विन्ध्यप्रदेश का विलोपन ही कांग्रेस की राजनीतिक अदावत और सत्ता की स्वेच्छाचारिता के चलते हुआ। पहले आम चुनाव के बाद केरल कांग्रेस के हाथ से निकल चुका था। विन्ध्यप्रदेश में समाजवदियों का जिस तरह से वर्चस्व बढ़ने लगा उससे यह लगभग तय था कि अगली सरकार समाजवादियों की बनेगी इसलिए कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने विन्ध्यप्रदेश को अपनी महत्वाकांक्षा के सलीब में चढ़ाने की क्रूरतापूर्ण साजिश को अंजाम दिया।
सन् छप्पन में मध्यप्रदेश के उदय के साथ ही विन्ध्यवासियों का सौभाग्य बिछिया-बीहर में विसर्जित हो गया। दिलासा के लिए राज्यपुनर्गठन आयोग ने वचन दिया कि वह विन्ध्यक्षेत्र के हितों से जुड़ी बात केंद्र सरकार के समक्ष रखेगा और नवगठित मध्यप्रदेश की सरकार से उसका पूरा ख्याल रखने की वचनबद्धता लेगा। भला गुजरे गवाही और बहुरी बारात की कौन फिक्र करता है। विन्ध्यक्षेत्र की यही स्थिति हुई। जबलपुर को हाईकोर्ट और विद्युत मंडल, इंदौर को वाणिज्य,श्रम,लोक सेवा आयोग के प्रदेश कार्यालय सहित हाईकोर्ट की बेंच ग्वालियर को रेवन्यू बोर्ड, भूअभिलेख, आबकारी, आडिट के प्रदेश मुख्यालय समेत हाईकोर्ट की बेंच दी गई। तय यह हुआ था कि रीवा को वन और कृषि विभाग का प्रदेश कार्यालय मिलेगा तथा ज्यूडिशियल कमिश्नरी की एवज में हाईकोर्ट की बेंच दी जाएगी, पर हांसिल आया शून्य।  हम कदम-कदम पर छले गए,उफ् तक नहीं की। कभी रीवा की बराबरी में रहा भोपाल महानगर हो गया। वहां की वादियां अफसरों व नेताओं के सपनों में बसती हैं। विन्ध्यक्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों की कमाई से भोपाल-इंदौर की सड़कें चमचमाती हैं। खनिज रॉयल्टी का साठ प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा हमारा होता है और आईआईटी-आईआईएम इंदौर में खुलता है। हमारे कोयले से अगले साल तक लगभग दस हजार मेगावाट बिजली पैदा होने लगेगी और हम भोपाल में एम्स और आईआईएससी के उद्घाटन की खबर पढ़ रहे होंगे। विकास की ऐसी भीषण विषमता शायद ही कहीं देखने-सुनने को मिले।
विन्ध्यप्रदेश को सियासत की सूली में लटका दिए जाने के बाद उसके दोनों बेटे बघेलखंड और बुंदेलखंड अनाथ हो गए। लेकिन शोषण और उपेक्षा से मिले दर्द के रिश्ते से आज भी ये एक सूत्र में बधे हुए हैं। मुझे याद है कि जब श्रीनिवास तिवारी जी की पहल पर 10 मार्च 2000 को जब विधानसभा में विन्ध्यप्रदेश के पुनरोदय का संकल्प सर्वसम्मति से पास हुआ तो बघेलखंड से ज्यादा बुंदेलखंड के जनप्रतिनिधियों के चेहरों में उत्साह और उमंग के भाव थे।  शिवमोहन सिंह ने सदन में प्रस्ताव रखते हुए जब यह कहा कि ..सदन का यह मत है पृथक विन्ध्यप्रदेश की स्थापना हेतु राज्य शासन आवश्यक पहल करे तथा इसे मूर्त रूप देने हेतु केंद्र सरकार से   अनुरोध करे... तब भावनाओं के अतिरेक में दतिया के राजेन्द्र भारती और टीकमगढ़ के मगनलाल गोइल भी बह रहे थे । रामप्रताप सिंह, इन्द्रजीत कुमार, केदारनाथ शुक्ल, आईएमपी वर्मा, विद्यावती पटेल, पुष्पराज सिंह बढ़चढ़ कर संकल्प के पक्ष में आए । सदन में रवीन्द्र चौबे, चौधरी राकेश सिंह, वनवारीलाल अग्रवाल, सुनीलम और ईश्वरदास रोहाणी जैसे कई प्रतिनिधियों ने इस संकल्प को सार्थक और समयानुकूल कहा था। आज इनमें से कई छत्तीसगढ़ के प्रमुख नेता हैं। इस ऐतिहासिक क्षण के चश्मदीद  रोहाणीजी विधानसभाध्यक्ष हैं। 27 मार्च 2000 को भोपाल में ही विन्ध्यप्रदेश के गठन का राजनीतिक प्रस्ताव भी पारित हुआ। तत्कालीन विधानसभाध्यक्ष श्री तिवारी के बंगले में बुंदेलखंड और बघेलखंड के प्राय: सभी प्रमुख नेता थे। बुंदेलखंड के गांधी लक्ष्मीनारायण नायक की अध्यक्षता में विन्ध्यप्रदेश के पुनरोदय के संकल्प को दोहराया गया, यहां बुंदेलखंड के प्रमुख नेताओं में ब्रजेन्द्र सिंह राठौर, उमेश शुक्ल, केशरी चौधरी, कैप्टन जयपाल सिंह और सतना के डॉ. लालता खरे, सईद अहमद जैसे नेता भी थे। प्रस्ताव केन्द्र सरकार के पास लंबित है। आज जरूरत है कि दलगत हदबंदियों से ऊपर उठकर अपने हक की लड़ाई लड़ने की। केंद्र में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार है। उस तक प्रभावशाली तरीके से अपनी आवाज पहुÞंचाएं व बताएं कि छप्पन साल पहले हमारे साथ किए गए क्रूर मजाक का प्रायाश्चित यही है कि अब विन्ध्यप्रदेश के पुनरोदय का मार्ग प्रशस्त किया जाए।

No comments:

Post a Comment