Saturday, November 5, 2011

..कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मनुष्य की तरह शब्दों के भी उत्कर्ष और अपकर्ष होते हैं। धर्म, सत्य, सदाचार जैसे शब्द अपने साथ अनेक मिथकों एवं इतिहास कथाओं के साथ अर्थ को व्यापक बनाते थे, और वे ही मानक बन जाते थे। यद्यपि तब भी इनकी अर्थवत्ता पर प्रश्नचिन्ह थे? परंतु आज तो वे सर्वथा निरर्थक हो चुके हैं। विजयदशमी की वार्षिकी कितने दिनों से चल रही है? इसकी सार्थकता और ऐतिहासिकता पर प्रश्न खड़ा करना अविवेकी और नास्तिकता की श्रेणी में आता है। अधर्म पर धर्म, असत्य पर सत्य, अनाचार पर सदाचार और बुराई पर अच्छाई की विजय का कर्मकाण्ड हर वर्ष होता है। बुराई के प्रतीक रावण, मेघनाद, कुम्भकर्ण के पुतले देश के बड़े नेताओं की उपस्थिति में जलाये जाते हैं। शायद ही किसी नेता ने इन प्रतीकों के संदर्भों को ईमानदारी और तटस्थ भाव से पढ़ा और महसूस किया हो। वाल्मीकि ने अपने आदिकाव्य में रावण और मेघनाद को महात्मा शब्द से भी सम्बोधित किया है। सूर्पणखा का नाक-कान काटना और बालि को छिपकर मारना, सीता की अग्नि परीक्षा-निष्कासन, शम्बूक-वध किस धर्म एवं सदाचार के मानक हैं।  रावण और उसका परिवार हर वर्ष मरता है अर्थात् हर वर्ष जन्मता भी है, परंतु राम हर वर्ष उसको मारने की प्रतीक्षा करते हैं। हर वर्ष जन्मने वाला परिवार निश्चित रूप से रावण का नहीं है, तो वह रामाश्रयी है। उत्तर भारत में जिसे जलाया जाता है वह एक नाटक परम्परा है जिसे जीवन से जोड़कर वर्षों से दिखाया जा रहा है। धर्म, सत्य, सदाचार, अच्छाई शब्द ताकतवर लोगों का वाग्विलास है। दबाव बनाने वाले अंतर्कथाओं से सम्पन्न इन शब्दों का अपकर्ष निरंतर हो रहा है। कभी कहा जाता है जहां धर्म है वहीं विजय है, कभी यह भी कहा गया जहां मैं हूं वहीं धर्म है। उत्तर भारत की जनता के मानस से रावण-दहन कब निकलेगा कौन जाने? जबकि उनके अन्दर का रावण अद्यावधि जीवित है।
 भारतीय पुरा काव्य और साहित्य में भी लेखकीय ईमानदारी नहीं दिखती। व्यास जैसे रचनाकार भी यत्र-तत्र पाण्डवों के पक्ष में खड़े दिखते हैं। सच तो यह है कि हमने पुराने इतिहास को भी अपौरुषेय मान कर उन्हें पूजनीय बना दिया। उसके निहितार्थ को जीवन में उतारने से गुरेज किया। कृष्ण-सुदामा की मित्रता को मित्रता का मानक मान लिया। मित्रता तो तब धन्य होती जब कृष्ण अपने मित्र का समाचार लेने उनके आश्रम गए होते, हमने उन्हें (कृष्ण) भगवान मानकर भक्त (सुदामा) की परीक्षा लेने तक केन्द्रित कर दिया। मित्रता को हाशिए पर रखा? और कर्ण-दुर्योधन की मित्रता को उस स्तर तक रेखांकित नहीं किया गया। माना कि दुर्योधन का कर्ण की मित्रता में स्वार्थ था, लेकिन कर्ण नि:स्वार्थ निरुद्देश्य मित्रता पर बलिदान हो गया। वह सिर्फ इसलिए जीता रहा कि मित्र दुर्योधन पर बाण चले तो वह अपने सीने पर झेले, न उसे राज्य से मतलब था न जीत-हार से। अनैतिकता की भी नैतिकता होती है।  निहत्थे कर्ण पर अर्जुन का प्रहार भी क्या नैतिक था? धर्म था? कर्ण, भीष्म यह जानते हुए भी कि अनैतिकता के पक्ष में खड़े हैं, नैतिक दिखते हैं। जिसके साथ हैं, जिन वचनों को अनजाने ही स्वीकार कर लिया उसके लिए ताउम्र लड़ते रहे। यही स्थिति द्रोणाचार्य और कृपाचार्य की भी थी। व्यास को सुगंध की तरह अपने काव्य में प्रच्छन्न रहना था, नहीं रह सके। झूठ पर झूठ बोलते युधिष्ठिर अंत तक धर्मराज ही बने रहे। कृष्ण पर अडिग आस्था रखने वाले अर्जुन भी जब कभी संशय के शिकार हुए, उनकी सहायता की। कृष्ण के मूल्य तो निस्पृह और स्थित प्रज्ञता के हैं, लेकिन अर्जुन को पारिवारिक और संसारी ही बने रहने देना चाहते हैं।  वहीं वेद व्यास (द्वैपायन) कृष्ण के साथ प्रभास क्षेत्र तक जाते हैं। कृष्ण हर क्षेत्र में जीवन की पूर्णता की बात करते हैं।
आचार्य चाणक्य अपने उददेश्य की पूर्ति के लिए लोक में कौटिल्य कहलाए।  यह नाम नहीं था यह उनके स्वभाव का गुुण-धर्म है। चाणक्य ने अपने लिए क्या किया? सम्राट बनाने के बाद भी चन्द्रगुप्त के राज्य को निष्कंटक बनाने की बात ही आजीवन सोचते रहे। कृष्ण के जीवन को आदर्श मानते चाणक्य राष्टÑ चिंतन में ही लगे रहे। क्या वे चाहते तो सम्राट हो सकते थे? क्या कृष्ण द्वारकाधीश थे?  क्या राम के जीवन का उत्तरकाण्ड रोका जा सकता था। सीता का पाताल प्रवेश , राम की सरयू समाधि रोकी जा सकती थी? नहीं, यह नियति-कवि के लेखनी की स्याही थी, जो आज भी प्रवहमान है, इतिहास और वर्तमान में भी। चाणक्य शहर के बाहर एक झोपड़ी में रहते थे। तत्कालीन देश के निर्माता थे। चीनी यात्री फाह्यान को आश्चर्य हुआ। उसने चाणक्य से प्रश्न किया कि इतने बड़े देश का प्रधानमंत्री नगर के महल में न रहकर झोपड़ी में क्यों रह रहा है। चाणक्य ने कहा जिस देश का प्रधानमंत्री साधाण कुटिया में रहता है, वहां के निवासी भव्य महलों में निवास किया करते हैं। और जिस देश का प्रधानमंत्री ऊंचे महलों में रहता हो, वहां की आम जनता तो झोपड़ियों में ही रहेगी?  परम्पराएं जब रूढ़ हो जाती हैं, तब प्रथा बनकर कुरीति बन जाती हैं। परम्पराओं में संवर्धन, परिवर्तन और संशोधन होते रहना ही जीवित-जाति का प्रमाण है।
 अनेक अर्थों में बापू बहुत रूढ़ थे, वे बहुत हठी थे, सीमाहीन, परंतु वे भी कभी-कभी नरम हो जाते थे। शराब पीने के वे सख्त खिलाफ थे। पंडित मोतीलाल नेहरू इतिहास में ऐसे अकेले नेता थे जो बेटे के प्रभाव से   राजनीति में आए और ऐतिहासिक लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन के गवाह बने थे। मोतीलाल नेहरू ने बापू से कहा  ‘बापू! मैं शराब छोड़ नहीं पा रहा हंू’ तो बापू बोले- ‘कोई बात नहीं, लेकिन मेरे आश्रम में मत आना।’ आज की स्थिति में कोई ऐसा चरित्र कहीं, किसी का दिखता है। बापू ने देखा कि डॉ. राममनोहर लोहिया सिगरेट पीते हैं। उन्होंने  लोहिया को पास बुलाया - बोले - ‘जरा हिसाब लगाना कि तुम दिन भर में जितने पैसों की सिगरेट पी जाते हो, क्या हिन्दुस्तान का आम आदमी उतने पैसे कमा पाता है।’ समूह और समाज की भी अपनी सोच होती है जो ज्यादा बुद्धिवादी नहीं होता लेकिन वह भी गलत और सही की विवेचना अपनी समझ के अनुसार करता है। इतने दिनों में देखता-परखता वह भी मानने लगा है कि ऐसे प्रतीकार्थों की परम्परा बंद होनी चाहिए। या फिर पुतले जलाने की प्रथा पर जनसंसद बैठनी चाहिए। दुष्यंत ने ठीक कहा था- ‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।’
                                                           

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