चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
हम नहीं जानते कि धर्म नामक ढाई मात्रिक शब्द का पहला प्रयोग किसने किया लेकिन इतना जानते हैं इसका प्रयोग सम्प्रदायों के लिए किसी भी काव्य, पुराण-इतिहास में नहीं किया गया। सच तो यह है कि हम, मनुष्य के उस धर्म की बात करते हैं, जो उसने किया वह हिन्दू, इस्लाम, ईसाई धर्म जैसे रोग गस्त बीमारी से मुक्त प्रत्येक मनुष्य का सहज धर्म है। मनुष्य द्वारा किया गया कर्म ही धर्म की संज्ञा पाता गया। किसी के लिए धर्म, स्वधर्म बना तो अन्यों के लिए अधर्म भी। धर्म की सर्वमान्य परिभाषा कभी नहीं बनी, किसी भी युग में। इसी कारण आपद्धर्म और परमधर्म भी चर्चा और संवाद के विषय बने। धर्म, संवाद का विषय था विवाद का नहीं परंतु इस शब्द की दुर्गति इसके जन्मते ही शुरु हो गई। धर्म की स्थापना का गुणानुवाद करते गाते राम-कृष्ण भी आए और जो कुछ भी लोक में करणीय-अकरणीय किया उसे धर्म कहा। राम के जन्म की धार्मिकता को अनेक चुनौतियों में, वानरराज बालि का कथन अधिक प्रासंगिक है- व्याघ की तरह मारना, छिपकर, दो युद्धरत भाईयों में, बिना दूसरे को सुने परखे एक का हो जाना कौन सा धर्म था? धर्म की कसौटी यदि न्याय है तो हमारे आदर्श चरित्रों ने अपने अधर्मो को भी धर्म कहकर उसे न्यायोचित ठहराया। कृष्ण कहते हैं - जहां मैं हूं, वहीं धर्म है और जहां धर्म है वहीं विजय है।
पिता-पुत्र, भाई-चाचा इत्यादि नाते रिश्तों को धर्म से मत जोड़ो सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।किस धर्म की स्थापना में कृष्ण लगे हैं, शायद न्यायोचित अधिकार मांगने से न मिले तो लड़कर ही, युद्ध-धर्म से प्राप्त किया जा सकता है। और युद्ध और प्रेम में सब सही है का मुहावरा भी धर्माधारित है। धर्म की बातें सबसे अधिक महाभारत में हैं। व्यास, भीष्म, विदुर, धृतराष्ट्र यदि धर्म का पालन करते दिखते हैं तो भीम, कर्ण, कुन्ती, द्रौपदी भी समान भाव से धर्म का पालन करते हुए प्रश्न भी खड़े करते हैं।
व्यास, पांडवों के पक्षधर कवि हैं, उन्होंने कौरवों को दरकिनार किया, जबकि दोनों उनकी संतान हैं। व्यास, युधिष्ठिर को धर्मराज सत्यवादी कहते हैं परंतु धर्म राज के झूठ और व्यसन ने, पूर्वज भरत के भारत में महाभारत करा दिया। बिना स्वार्थ के निष्काम कर्म करने वाले भीष्म और कर्ण स्वधर्म का पालन करते हैं, इन्हें राज्य नहीं चाहिए था। इनका धर्म, राज्य संरक्षण और मित्र धर्म का निर्वाह था।
महाभारत की कथा में जहां भी मोड़ आया है, वहां युधिष्ठिर खड़े हैं। महाभारत के वे नायक हैं, क्योंकि फल की प्राप्ति उन्हें होती है, पांडवों में ज्येष्ठ हैं। युद्ध में अस्थिर, धीर, मृदु, लज्जाशील वदान्य हैं। कर्ण उन्हें ‘वेदपाठरत ब्राrाण’ कहकर निरादृत करता है परंतु चालाक भी कम नहीं हैं। अजरुन के लक्ष्यवेध और विवाह के बाद युधिष्ठिर का यह कहना कि आज अद्वितीय भिक्षा लाए हैं, किस सत्य को उद्घाटित करता है। विश्व के किसी भी काव्य- पुराण-इतिहास की सबसे अभागी स्त्री, द्रौपदी है जिसको अनिच्छा से पांच पुरुषों में बंटने के लिए दिन या महीने निश्चित किये गए।
युधिष्ठिर द्यूतासक्त हैं, सभापर्व और विराट पर में हम जुएं का प्रभाव देखते हैं। धन-सम्पत्ति सब जुएं में हार जाने पर युधिष्ठिर ने चारो भाईयों सहित द्रौपदी को दांव पर लगा दिया। अपने को हार जाने पर युधिष्ठिर दूसरे को दांव पर कैसे लगा सकते हैं? यह द्रौपदी का सम्पूर्ण सभा से प्रश्न था। आश्चर्य तो यह है कि भीष्म भी द्रौपदी का साथ नहीं देते। कहते हैं- सब सत्व खोकर भी दास का अपनी पत्नी पर स्वामित्व बना रहता है। भरी सभा में द्रौपदी के पक्ष में धृतराष्ट्र पुत्र विकीर्ण कहता है- द्यूत एक राजोचित व्यसन है, व्यसनग्रस्त राजा जो कुछ करता है वह नगण्य है। दास होने के बाद युधिष्ठिर का द्रौपदी को दांव पर लगाना अवैध है। युधिष्ठिर से किंचित सहमत होते हुए कहता है कि यह जुआं अपनी प्रेरणा से नहीं शकुनि की उत्तेजना से खेला था। द्रौपदी पांच भाईयों की पत्नी थी किंतु युधिष्ठिर ने अनुजों की अनुमति लिए बिना ही उसे दांव पर रख दिया था अतएव यह द्यूत अग्राह्य है। विकर्ण द्वारा कही गई धर्मसम्मत बात पर धर्मराज की सफाई कोई मायने नहीं रखती। क्या इस बात की पुनव्र्याख्या आज आवश्यक नहीं है कि इतने झूठ, छल, प्रपंच रचने-करने वाले को धर्मराज कहकर कब तक लकीर पीटते रहेंगे।
व्यास, महाभारत युद्ध को धर्मक्षेत्र कहते हैं। मामा शल्य को कौरव पक्ष में गए जानकर धर्मराज कहते हैं- मामा! आप मुङो वचन दीजिए कि कर्ण-अजरुन के युद्ध के समय आप कर्ण के सारथी होते हुए भी उसके मनोबल को हतोत्साहित करेंगे। मेरे लिए यह कुकर्म आपको करना ही होगा। युधिष्ठिर के इस निंदनीय प्रस्ताव को वंदनीय और धर्माचारित तो नहीं ही कहा जाएगा। दूसरी तरफ कृष्ण ऐसे सारथी हैं। जो हर समय अजरुन को उत्साहित भर नहीं करते, सभी को मरा हुआ दिखाकर अजरुन को आश्वस्त भी करते हैं। द्रोण ऐसे महायोद्धा हैं जिनका रथ धरती से कुछ ऊपर उठकर चलता है, उनको मारने के लिए कृष्ण, युधिष्ठिर से द्रोण के मर्म पर सांघातिक चोट करने वाला इतिहास का सबसे बड़ा मिथ्या (झूठ) नरो व कुंजरो उच्चरित करा के रथ को जमीन पर गिराने का धर्म निर्वाह कराते हैं। हाथी और घोड़े कितने ही युद्ध में मरे होंगे। हाथी का नाम ˜अश्वत्थामा पहले कभी चर्चा में नहीं था।
हाथी के मरने का सत्य द्रोण की मृत्यु का कारण बना। जानते हुए भी धर्मराज का अर्धसत्य कृष्ण के शंखध्वनि में खो गया और पुत्र की मृत्यु मान द्रोण ने देह त्याग दिया।
महाभारत का युद्ध चरम पर है। कर्ण-अजरुन आमने सामने हैं।
पाण्डवों को पकड़ कर छोड़ देना कर्ण का कौतुक है। दोनों अदभुत धनुर्धर, दोनों की काट दोनों के पास है। कर्ण के तरकस में एक ऐसा सर्पबाण है, जो बार-बार कर्ण को प्रत्यंचा पर चढ़ाने के लिए प्रेरित करता है। अजरुन का परम शत्रु अश्वसेन फुफकार रहा है। जन्म से ही पार्थ का शत्रु है। क्षण में अजरुन को खत्म कर सकता है, परंतु कर्ण, मनुष्यों की इस लड़ाई में सर्प की सहायता नहीं लेता- कहता है- तेरी सहायता से जय तो मैं अनायास पा जाऊंगा। आने वाली मानवता को, लेकिन क्या मुख दिखलाऊंगा।कर्ण का धर्म, उसकी सम्पूर्ण जीवनशैली सभी पाण्डवों पर भारी पड़ती है। रथ के पहिए को निकालने के लिए युद्ध-धर्म की बात करता है, कृष्ण, अजरुन को कर्ण का सिर (निहत्थे) धड़ से अलग करने की धर्मसम्मत सलाह देते हैं, क्योंकि जहां वे हैं वहीं धर्म है। जरासंध और दुर्योधन की मृत्यु के पीछे कौन सा धर्म है। कृष्ण के कथन पर पूरा पांडव समाज संचालित है। युधिष्ठिर जब स्वधर्म की बात करते हैं कि स्वधर्म में निष्ठा ही तपस्या है, स्वधर्म में स्थिरता ही स्थैर्य है तब प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि उनका स्वधर्म उन्हें क्या धर्मराज की संज्ञा देता है और उनका परिपालन क्या वे करते हैं? स्वर्गारोहण में हिमालय के पाद देश की स्वर्णरेणु छूते ही द्रौपदी के पांव फिसल गए, वह गिर पड़ी। पांचों पतियों ने मुड़कर भी नहीं देखा वरन धर्मराज युधिष्ठिर ने भीम से कहा-˜मुड़कर न देखो! आगे आ जाओ!-
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
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