सचिन कुमार जैन
भूख क्यों पैदा होती है? इस सवाल का जवाब दीजिए! जवाब- क्योंकि शरीर और अपना काम करने के लिए उर्जा की जरूरत पूरी करने के लिए भोजन की जरूरत होती है और उसी जरूरत की अभिव्यक्ति है भूख। अगला सवाल यह की पेट की भूख किससे दूर होती है! स्वाभाविक है कि खाने से, रोटी से! यह सामग्री कहां से मिलती है? कारखाने से या प्रकृति से, बाजार से जंगल से, जमीन से, पानी से! जब भरपेट खाना नहीं मिलता है तब भूख वंचितों की जीवन की सहयात्री हो जाती है।
अब भूख का जन्म सरकार की नीतियों की कोख से होता है। उस सरकार की कोख से, जो यह मानती है कि खाद्यान्न और खाना उद्योगों और चिमनी वाले कारखानों में उपजता है। वह सरकारें जो यह मानती हैं कि जमीन बांझ हो जाए तो कोई समस्या नहीं है, नदी सूख जाए तो कोई संकट नहीं है, जंगल उजड़ जाए तो भी अस्तित्व संभव है। वह प्राकृतिक सम्पदा को निजी संपत्ति का दर्जा देने को तत्पर है क्योंकि उसे रोटी की पूंजी से ज्यादा मुद्रा की पूंजी से मुहब्बत है। वह अपने इस पागलपन में यह भूल जा रही है कि भोजन के बिना जीवन संभव नहीं है और भोजन खदानों से नहीं निकलता है, वह तो खेत में लहलहाता है और जंगल में बिखेरा जाता है। बस सोच का यही विरोधभास हमारे सामने भुखमरी से संकट के रूप में सामने है। हम बड़ी बात छोड़ दें और केवल आदिवासियों की बात करें तो बात थोड़ी और स्पष्ट होती है। शिक्षित लोग बता रहे हैं कि आदिवासियों के बच्चे ज्यादा कुपोषित हो रहे हैं। सरकार की तमाम योजनाओं में आदिवासियों को वंचित, पिछड़ा या आदिम समूह कहा जाता है। उन्हें छोड़कर बाकी समाज "विकसित" हो गया है। पर लोग वास्तव में सच जानना नहीं चाहते हैं।
मध्यप्रदेश के डिंडोरी, मंडला, बालाघाट, सीधी और सिवनी जिले के बैगा और गोंड आदिवासी जंगल से 25 तरह के मशरूम, 5 तरह की शहद, 28 तरह के कंद, 45 तरह की भाजियां लाते थे। यह उनकी खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य को सुरक्षित रखता था। इस संपदा को लौटाने के लिए सरकार को जंगल की कटाई रोकनी पड़ेगी, पर क्या सरकार इसके लिए तैयार है? आदिवासियों को जंगल से ही आंवला, औषधीय पौधे, इमली, चिरौंजी, हर्रा-बहेड़ा, तेंदू, महुआ मिल सकता है, जो उनकी आजीविका को एक ठोस आधार प्रदान करेगा।
महाकौशल के इलाकों में 30 साल पहले 56 तरह के अनाज मिलते थे। आज लोग केवल 24 के बारे में जानते हैं, 28 तरह के कंदमूल में से 13 के बारे में जानकारी है, 45 तरह के फल- फूल में से 21 की और 54 तरह की सब्जी-भाजी में से 27 की जानकारी उपलब्ध है। जिन्हें आज सरकार पिछड़ी बताती है, वे 262 तरह की सामग्री का अपने खाने में उपयोग करती थीं। तो पिछड़ा और गरीब कौन है? बालाघाट के सिंगौरी गांव में विस्थापित जीवन जी रही बरको बाई ने कहा "देख भईया, भोपाल से आया है। हमने सब सुन लिया। अब तुम हमार बात सुनीस। हमका जंगल से भगा देईस तो हमार तो रोटी चला गया। सरकार बस दाना देकर मुर्गी लड़ाई, अब नहीं। हमें कहता है तुमने जमीन पर कब्जा किया है। अब छोड़ो। सैंकडों साल से रह रहे थे। अब कहते हैं हम अवैध हो गए। कोई ये न बताई कि कहां जाई। अब जंगल न जा सके, जानवर न पाल सके, देवता न पूज सके, कंदा भाजी मिलता था पेट भरती का, अब वह उनके कब्जे में है।" विकास की मौजूदा अवधारणा ने आदिवासियों के गुजारे की मूल व्यवस्था को तोड़कर रख दिया है। इसी कारण आज यही समुदाय सबसे ज्यादा भूख और सामाजिक असुरक्षा का शिकार हुआ। मध्यप्रदेश में सिंचित खेती का रकबा कुल क्षेत्र का लगभग 37 प्रतिशत है, लेकिन 10 फीसदी से कम आदिवासी इलाकों में ही सिंचाई सुविधा उपलब्ध है। उनकी जमीनें ऊबड़खाबड़, पठारी और असमतल है। रागी, कोदो, कुटकी, सांवा, दलहन आदि पौष्टिक अनाजों को, जिन्हें आज मोटा अनाज कहा जाता है, असल में बारीक अनाज होता है। इनका उत्पादन कम होता गया, पर आज भी प्रदेश को पौष्टिक अनाज का 90 फीसदी हिस्सा इन्हीं आदिवासी इलाकों से मिलता है।
जब सिंचाई की बात होती है तो यह क्यों नहीं देखा जाता कि कम पानी वाले स्थानों पर पौष्टिक अनाज की परंपरा और व्यवहार वाली अर्थव्यवस्था रही है। सिर्फ गेहूं और चावल की ही बात क्यों? जबकि हम जानते हैं कि चावल में 6.8 ग्राम् प्रोटीन और 0.7 मिलीग्राम आयरन होता है, परन्तु बाजरा में 10.6 ग्राम प्रोटीन और 16.9 मिलीग्राम आयरन होता है गेहूं में 11 मिलीग्राम केल्शियम है, लेकिन रागी या नाचनी में 344 मिलीग्राम कैल्शियम होता है। अपने गांव की थाली में से रागी गायब है पर बड़ी कंपनी रागी से नूडल्स बना कर बाजार में यह कह कर बेंच रही है कि इससे बच्चों का विकास होगा और वे स्वस्थ नागरिक बन जायेंगे। ब्रिटानिया कंपनी ने रागी से बना बिस्किट बाजार में बेचना शुरू किया। वे प्रचार करते हैं कि मधुमेह के मामले में रागी बिस्किट बहुत उपयोगी उत्पाद है। जब् एक बड़ी कंपनी बाजार में आकर विज्ञापन दिखाकर ऊंची कीमत पर वस्तु बेचती है तो समाज को उस पर ज्यादा विश्वास होता है और जब समाज के ज्ञान और व्यवहार की बात होती है तो प्रकृति से रागी, कोदो, कुटकी, महुआ लेने वाले आदिवासी समाज को पिछड़े समुदाय का दर्जा दिया जाता है।
अखबारों में अक्सर सामने आता है कि आदिवासी घास की रोटी खा रहे हैं। असल में यह सावा नाम की घास है। उसमें गेहूं से ज्यादा प्रोटीन और आयरन होता है। ये जलवायु परिवर्तन से जमकर मुकाबला कर सकते हैं। यदि हम स्थानीय पौष्टिक अनाजों के उत्पादन और उपयोग को प्रोत्साहित करने के साथ यह सुनिश्चित करें कि ये आदिवासियों की थाली तक पहुंचे तो काहे का कुपोषण!! बैतूल में गुरुवा गांव के किसान भैयालाल कहते हैं कि सरकारी योजना की कोई बात मत करो। अधिकारी हमें गेहूं और धान के बीज देकर समझते हैं कि ये उगाओ, अच्छे भाव मिलेंगे। जब खेत में पानी नहीं है तो पानी पीने वाली इन फसलों को उगाकर हम जिंदा कैसे रहें? डिंडोरी के लमतु बैगा के मुताबिक, अधिकारी जानते ही नहीं हैं कि बैगा किस तरह की खेती करते हैं। वे आये और धान का बीज बांट गए। कोदो- कुटकी के बीज तो उनके पास होय नी, हमारी फसल के बारे में न वो पूछे, ना वो कुछ जाने। बिना कोदो कुटकी खाए और, मक्के का पेज पिए बिना हमार जात का पेट ही न भरे। अब आप ही सोचिये पिछड़ा अज्ञानी और नादान कौन है?
अब भूख का जन्म सरकार की नीतियों की कोख से होता है। उस सरकार की कोख से, जो यह मानती है कि खाद्यान्न और खाना उद्योगों और चिमनी वाले कारखानों में उपजता है। वह सरकारें जो यह मानती हैं कि जमीन बांझ हो जाए तो कोई समस्या नहीं है, नदी सूख जाए तो कोई संकट नहीं है, जंगल उजड़ जाए तो भी अस्तित्व संभव है। वह प्राकृतिक सम्पदा को निजी संपत्ति का दर्जा देने को तत्पर है क्योंकि उसे रोटी की पूंजी से ज्यादा मुद्रा की पूंजी से मुहब्बत है। वह अपने इस पागलपन में यह भूल जा रही है कि भोजन के बिना जीवन संभव नहीं है और भोजन खदानों से नहीं निकलता है, वह तो खेत में लहलहाता है और जंगल में बिखेरा जाता है। बस सोच का यही विरोधभास हमारे सामने भुखमरी से संकट के रूप में सामने है। हम बड़ी बात छोड़ दें और केवल आदिवासियों की बात करें तो बात थोड़ी और स्पष्ट होती है। शिक्षित लोग बता रहे हैं कि आदिवासियों के बच्चे ज्यादा कुपोषित हो रहे हैं। सरकार की तमाम योजनाओं में आदिवासियों को वंचित, पिछड़ा या आदिम समूह कहा जाता है। उन्हें छोड़कर बाकी समाज "विकसित" हो गया है। पर लोग वास्तव में सच जानना नहीं चाहते हैं।
मध्यप्रदेश के डिंडोरी, मंडला, बालाघाट, सीधी और सिवनी जिले के बैगा और गोंड आदिवासी जंगल से 25 तरह के मशरूम, 5 तरह की शहद, 28 तरह के कंद, 45 तरह की भाजियां लाते थे। यह उनकी खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य को सुरक्षित रखता था। इस संपदा को लौटाने के लिए सरकार को जंगल की कटाई रोकनी पड़ेगी, पर क्या सरकार इसके लिए तैयार है? आदिवासियों को जंगल से ही आंवला, औषधीय पौधे, इमली, चिरौंजी, हर्रा-बहेड़ा, तेंदू, महुआ मिल सकता है, जो उनकी आजीविका को एक ठोस आधार प्रदान करेगा।
महाकौशल के इलाकों में 30 साल पहले 56 तरह के अनाज मिलते थे। आज लोग केवल 24 के बारे में जानते हैं, 28 तरह के कंदमूल में से 13 के बारे में जानकारी है, 45 तरह के फल- फूल में से 21 की और 54 तरह की सब्जी-भाजी में से 27 की जानकारी उपलब्ध है। जिन्हें आज सरकार पिछड़ी बताती है, वे 262 तरह की सामग्री का अपने खाने में उपयोग करती थीं। तो पिछड़ा और गरीब कौन है? बालाघाट के सिंगौरी गांव में विस्थापित जीवन जी रही बरको बाई ने कहा "देख भईया, भोपाल से आया है। हमने सब सुन लिया। अब तुम हमार बात सुनीस। हमका जंगल से भगा देईस तो हमार तो रोटी चला गया। सरकार बस दाना देकर मुर्गी लड़ाई, अब नहीं। हमें कहता है तुमने जमीन पर कब्जा किया है। अब छोड़ो। सैंकडों साल से रह रहे थे। अब कहते हैं हम अवैध हो गए। कोई ये न बताई कि कहां जाई। अब जंगल न जा सके, जानवर न पाल सके, देवता न पूज सके, कंदा भाजी मिलता था पेट भरती का, अब वह उनके कब्जे में है।" विकास की मौजूदा अवधारणा ने आदिवासियों के गुजारे की मूल व्यवस्था को तोड़कर रख दिया है। इसी कारण आज यही समुदाय सबसे ज्यादा भूख और सामाजिक असुरक्षा का शिकार हुआ। मध्यप्रदेश में सिंचित खेती का रकबा कुल क्षेत्र का लगभग 37 प्रतिशत है, लेकिन 10 फीसदी से कम आदिवासी इलाकों में ही सिंचाई सुविधा उपलब्ध है। उनकी जमीनें ऊबड़खाबड़, पठारी और असमतल है। रागी, कोदो, कुटकी, सांवा, दलहन आदि पौष्टिक अनाजों को, जिन्हें आज मोटा अनाज कहा जाता है, असल में बारीक अनाज होता है। इनका उत्पादन कम होता गया, पर आज भी प्रदेश को पौष्टिक अनाज का 90 फीसदी हिस्सा इन्हीं आदिवासी इलाकों से मिलता है।
जब सिंचाई की बात होती है तो यह क्यों नहीं देखा जाता कि कम पानी वाले स्थानों पर पौष्टिक अनाज की परंपरा और व्यवहार वाली अर्थव्यवस्था रही है। सिर्फ गेहूं और चावल की ही बात क्यों? जबकि हम जानते हैं कि चावल में 6.8 ग्राम् प्रोटीन और 0.7 मिलीग्राम आयरन होता है, परन्तु बाजरा में 10.6 ग्राम प्रोटीन और 16.9 मिलीग्राम आयरन होता है गेहूं में 11 मिलीग्राम केल्शियम है, लेकिन रागी या नाचनी में 344 मिलीग्राम कैल्शियम होता है। अपने गांव की थाली में से रागी गायब है पर बड़ी कंपनी रागी से नूडल्स बना कर बाजार में यह कह कर बेंच रही है कि इससे बच्चों का विकास होगा और वे स्वस्थ नागरिक बन जायेंगे। ब्रिटानिया कंपनी ने रागी से बना बिस्किट बाजार में बेचना शुरू किया। वे प्रचार करते हैं कि मधुमेह के मामले में रागी बिस्किट बहुत उपयोगी उत्पाद है। जब् एक बड़ी कंपनी बाजार में आकर विज्ञापन दिखाकर ऊंची कीमत पर वस्तु बेचती है तो समाज को उस पर ज्यादा विश्वास होता है और जब समाज के ज्ञान और व्यवहार की बात होती है तो प्रकृति से रागी, कोदो, कुटकी, महुआ लेने वाले आदिवासी समाज को पिछड़े समुदाय का दर्जा दिया जाता है।
अखबारों में अक्सर सामने आता है कि आदिवासी घास की रोटी खा रहे हैं। असल में यह सावा नाम की घास है। उसमें गेहूं से ज्यादा प्रोटीन और आयरन होता है। ये जलवायु परिवर्तन से जमकर मुकाबला कर सकते हैं। यदि हम स्थानीय पौष्टिक अनाजों के उत्पादन और उपयोग को प्रोत्साहित करने के साथ यह सुनिश्चित करें कि ये आदिवासियों की थाली तक पहुंचे तो काहे का कुपोषण!! बैतूल में गुरुवा गांव के किसान भैयालाल कहते हैं कि सरकारी योजना की कोई बात मत करो। अधिकारी हमें गेहूं और धान के बीज देकर समझते हैं कि ये उगाओ, अच्छे भाव मिलेंगे। जब खेत में पानी नहीं है तो पानी पीने वाली इन फसलों को उगाकर हम जिंदा कैसे रहें? डिंडोरी के लमतु बैगा के मुताबिक, अधिकारी जानते ही नहीं हैं कि बैगा किस तरह की खेती करते हैं। वे आये और धान का बीज बांट गए। कोदो- कुटकी के बीज तो उनके पास होय नी, हमारी फसल के बारे में न वो पूछे, ना वो कुछ जाने। बिना कोदो कुटकी खाए और, मक्के का पेज पिए बिना हमार जात का पेट ही न भरे। अब आप ही सोचिये पिछड़ा अज्ञानी और नादान कौन है?
लेखक विकास सम्वाद केंद्र से जुड़े जाने-माने समाज विज्ञानी हैं।
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