चिन्तामणि मिश्र
फागुन का महीना मौज-मस्ती, रंग-उमंग और पकवानों के नाम सदियों से हमारी संस्कृति की पासबुक में दर्ज हैं. लोक जीवन में फागुन और होली की जोड़ी का बखान कालीदास से लेकर लोक कवि ईसुरी ने स्वाभविकता और सहजता से इस तरह किया है कि वे राजदरबारों, मंदिरों से लेकर चैपालों, खेत- खलिहानों में समान रूप से लोक कंठ की थाती हो गए। होली फागुन शुक्ल अष्टमी से समाज में अपने आगमन की सूचना दे कर आठ दिन प्रकृति तथा मनुष्य दोनों को बाहर व भीतर रस- रंग में डुबा कर, बहा कर विदा हो जाती है। ऐसी लोक मान्यता है कि इसी अवधि में भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था। होली सारे उत्तर भारत में मनाई जाती है। हर क्षेत्र और हर बस्ती होली और फाग के आयोजन में एक-बद्धता नहीं है। सब का अपना अलग-अलग शास्त्र और पुराण है। सतना की होली भी कभी इतनी प्रसिद्ध थी कि आसपास के रजवाड़ों के लोग भारी संख्या में आते और होली का आनन्द लेते थे। लगभग डेढ़ सौ साल की उम्र समेटे सतना की बस्ती आज की तरह उबाउ और आत्म केन्द्रित पहले कभी नही था। साठ साल पहले तक यह शहर नाचते-गाते जीवन्त लोगों की बस्ती था। लोक पर्वो में सामूहिक उल्लास में रचा-बसा और कबीला जैसा लगता था।
उस दौर में बस्ती में आधा दर्जन से ज्यादा अमीर नही थे और शेष आबादी कठिनाई से दो जून की सूखी रोटी का जुगाड़ कर पाती थी लेकिन त्यौहारों में अमीरी-गरीबी के बीच की दीवार ढह जाती थी आज हमारे शहर में नोटों का अम्बार लगा है। यह अब कुबेर की बस्ती हो गई है। अब लोगों में तीज-त्यौहारों सामुदायिक भावना नहीं रह गई है। लोग पहले से ज्यादा होली पर पैसा खर्च करते हैं, लेकिन सभी का उल्लास निजी होता है। अब इस बस्ती में न तो पहले जैसी उमंग दिखती है और न पहले की तरह चुहल होती है। हर होली में एक अनजाना सा बेगानापन और औपचारिकता पसरी रहती है।
सतना में सन 1950 तक होली का जो रूप रहा वह तीखा तो था, किन्तु शालीन, मस्ताना और दोस्ताना रहा। होली और फाग को इस बस्ती के महाजनों ने हमेशा जीवन्त बनाए रखा।
होली की आग और रंगों की बौछार के साथ कुछ घन्टे ही सही, गरीबी और अमीरी की दीवार लुप्त हो जाती थी। हर होली में मैकू मेहतर सबेरे सेठ दिगनलाल के दरवाजे पर गले में नगड़िया डाले, रंगों से सराबोर हाजिर हो जाता और सेठ का नाम लेकर कबीरा गाता। सड़क पर मजमा लग जाता। लोग उसके आने के पहिले से ही एकत्र हो जाते। सेठ थोड़ी देर बाद बाहर निकलते मैकू के पास आते और दोनों हाथों में भरी गुलाल उस पर छोड़ कर खुद कबीरा गाते। मैकू भी उनको गुलाल-अबीर से नहला देता। फिर सेठ जी उसे नए कपड़े तथा नकद देकर विदा करते।
इसके बाद होरिहारों की भीड़ का मैकू नेतृत्व करता हुआ बस्ती के हर महाजन के यहा जाता और रंग- गुलाल के साथ कबीरा के बोल गूंजते ।
बस्ती में सारा दिन कई जगह भंग-भंडारा आयोजित होता।
इसके लिए कभी चन्दा नहीं उगाहा गया। बस्ती में होली जलने के दूसरे दिन नौ बजे के आसपास रंग खेलने की शुरूआत होती थी। धनी लोग पीतल की पिचकारी से और शेष लोग टीन या बांस की पिचकारी से रंग डालते। सेठ-महाजनों के घरों के सामने तथा मंदिरों के बाहर रंगों से भरे बड़े-बड़े कुंड रखे होते थे। खाली हो जाने पर इन्हें फिर से भर दिया जाता था यह सिलसिला दो बजे मध्यान्ह तक चलता था। फिर लोग जगतदेव तालाब, नया तालाब, नारायण तालाब, रावना टोला तालाब, व्यंक्टेश मंदिर का तालाब, पुकनी तलैया अपनी सुविधा के अनुसार नहाने के लिए जाते थे। शाम को प्रसिद्ध मंदिरों में देव दर्शन का सिलसिला शुरू हो जाता, वहां एक दूसरे को तिलक लगा कर होली की बधाईंया देते । इसी दिन शाम को डालीबाबा के मंदिर में मेला लगता था वहां भजन, राई, विरहा की प्रतियोगिता होती। कुछ महाजन अपने बगीचों में होली की रात मुजरा, फाग गायन प्रतियोगिता का आयोजन करते थे इसमें निमंत्रित लोगों को ही प्रवेश मिलता था। बस्ती में कई दशक तक इस अवसर पर महा- मूर्ख सम्मेलन, कवि सम्मेलन और नगड़िया प्रतियोगिताए होती रही। इसमें जन साधारण की भागीदारी थी। सन 1948 की होली सतना में यादगार होली अनायास हो गई। सतना बस्ती रीवा रियासत के अर्न्तगत थी, किन्तु रीवा के शासक कभी इस बस्ती की होली में शामिल नही हुए। 8 मार्च 1948 को पन्नीलाल चौक में होली का जुलुस पहुंच ही रहा था कि स्टेशन की तरफ से आते हुए तांगे को लोगों ने घेर लिया। लोग अन्नदाता की जय, बांधव गद्दी की जय, महाराजा गुलाब सिंह की जय के नारे लगाने लगे।
वास्तव में तांगे पर बैठी सवारी महाराजा गुलाब सिंह थे। उन्हे लोगों ने पहचान लिया था। उनको केन्द्र सरकार ने रियासत से बाहर निकाल दिया था और सरकारी देख-रेख में इलाहाबाद में नजरबन्द करके रखा था। वे सुरक्षा गार्डो को चकमा देकर आ गए थे। महाजनों ने उन्हें तांगें से उतार कर अबीर-गुलाल से रंग दिया, सड़क पर ही उनकी नजर-न्यौछावर की गई। बाद में उनको आज के मनोहर होटल की इमारत में ठहराया ।
सतना की होली गाथा एक अजीब परम्परा की कथा छोड़ देने से अधूरी रह जाएगी। उन दिनों होली के दिन बस्ती के लोग जब रंग खेलने के लिए जुटते थे तभी प्रमुख सड़क से एक अर्थी निकाली जाती थी। अर्थी में एक व्यक्ति सफेद कफन लपेटे लेटा रहता था। लोग बारी-बारी से अर्थी में कन्धा देते और राम नाम सत्य है बोलते चलते। अर्थी के आगे एक आदमी मिट्टी की हड़िया लिए चलता, इसमें जलता हुआ कंडा होता था। यह नकली अर्थी उस सरकारी अफसर या कर्मचारी की निकाली जाती थी जिससे बस्ती का महाजन वर्ग परेशान रहता था। यह अर्थी मरघट नहीं जाती थी बल्कि इसे उस अफसर के निवास के सामने रख देते थे और लोग अधिकारी का नाम ले लेकर जबरदस्त सामूहिक विलाप करते थे। फिर अर्थी में लेटे आदमी को अर्थी से बाहर निकाल कर अर्थी जला दी जाती थी। विरोध प्रगट करने और बदला लेने का यह खालिस सतनवी तरीका था।
इसका नतीजा हमेशा बस्ती के पक्ष में होता और अर्थी वाला अधिकारी अपना ट्रांसफर करा लेता था। आज हम होली मनाते हैं किन्तु यह औपचारिक होती है। होली हमारी संस्कृति का इकलौता उत्सव है जिसमें किसी आकांक्षा की पूर्ति का द्वंद्व नहीं है। अब हम अपने पुरखों की तरह खुले मन से कोई उत्सव नहीं मनाते। केवल उत्सव की प्रेत साधना करते हैं, क्योंकि हमने मन की पुकार को सुनना ही बन्द कर दिया है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450. खटराग चिन्तामणि मिश्र
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