अंधकार का साम्राज्य बहुत बड़ा है, इसीलिए ऋषि को कहना पड़ा कि मुङो अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। विचित्र बात तो यह है कि यह अंधकार हमें दिखता नहीं, यह हमारे अंतस में है, हमें नियंत्रित करता है। हर अच्छा काम करने से रोकता और गलत करने के लिए प्रेरित करता है। मनुष्य और पशु में यही एक मूलत: अंतर है कि मनुष्य के पास विवेक नामक सोचने-विचारने की शक्ति है। एक विवेकशील व्यक्ति सत और असत के बीच का अंतर जानता है। मन या आत्मा के अंदर उठते दुविधा का समाधान विवेक द्वारा ही संभव है। असत के प्रभाव में जब आत्मा दब जाती है तब वह अमानुष हो जाता है। सत् की आत्मा तब भी जीवित रहती है, मरती नहीं। वह डाकू था, लूटना- मारना ही उसका काम था। अपने परिवार को पालने का उसने यही जरिया अपनाया था। एक दिन उसी रास्ते से वीणा बजाते देवर्षि निकले। डाकू ने उनको लूटना चाहा। नारद के पास कुछ था नहीं, खाना-तलाशी ली। निराश हुआ। उसने वीणा छीनकर मारा-पीटा भी कि कैसा भिखारी है इतनी मंहगी वीणा लिए है, पास में एक पैसा भी नहीं। नारद परेशान। बिना वीणा के नारद का अस्तित्व ही क्या? उन्होंने विनती की, भाई वीणा दे दो, मैं इसके बिना जी नहीं सकता। डाकू ने वीणा का एक तार झनझनाया। आपाद मस्तक उसकी ध्वनि से डाकू हिल गया। उसने वीणा लौटाते आदेश दिया- बजाओ! नारद ने वीणा के तार छोड़े। संगीत ने उसे मोह लिया, रोने लगा फिर बोला, यह अदभुत है, मैं इसे लूंगा। नारद ने उसकी बात मान ली और बोले- बताओ! तुम यह पाप कर्म क्यों करते हो। उसने कहा- इसी से परिवार का पोषण करता हूं। नारद ने कहा- कि अपने मां-बाप- पत्नी से जाकर पूछो कि क्या इस पाप कर्म के फलाकन में वे भी भागीदार हैं। उसने कहा, क्यों नहीं होंगे? नारद ने कहा- जाओ! पूछकर आओ, यदि वे कहेंगे कि ‘हां’ तो मैं वीणा तुम्हें दे दूंगा। मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा। डाकू रस्सी से उनको पेड़ में बांधकर दौड़ता घर गया। मां-बाप से पूछा- उन्होंने कहा कि हम लोगों को पालना तुम्हारा धर्म है। कैसे पालते हो, क्या करते हो, तुम्हारे कर्मो का फल तो तुम्हें ही मिलेगा। पत्नी ने भी यही कहा- तुम्हारे पाप-कर्म का फल तो तुम्हें ही भोगना पड़ेगा। लौटकर रस्सी खोलते वह लगातार रोता रहा। नारद ने उसे समझया। सांत्वना दी- अभी कुछ नहीं बिगड़ा, तुम्हारी सोई हुई आत्मा जाग गई है, तुम राम नाम के जाप की साधना करो। डाकू से राम कहते नहीं बनता था। ‘मरा-मरा’ कहते ‘राम राम’ होता रहा। डाकू की ऐसी समाधि लगी कि दीमकों ने उसके शरीर को ढक लिया। एक घनघोर आध्यात्मिक बरसात ने उसे धो- पोंछकर ऋषि बना दिया। वह तत्व ज्ञानी हो गया। एक दिन कुटी के सामने बैठा था, सामने पक्षी का जोड़ा केलि में निमग्न था। बहेलिए ने उसे बाण मारा। फड़फड़ाता एक पक्षी मर गया, दूसरे को रोता देख ऋषि द्रवित हो उठे। उनके मुंह से लोकभाषा का अनुष्टुय (छन्द) अनायास निकल पड़ा। वे चकित हुए कि यह शाप शोक से श्लोक कैसे हो गया? ऐसे मौके पर नारद पुन: प्रकटे और बोले- हे ऋषि वाल्मीकि! आपके मुंह से आदि श्लोक निकला, आप कवि हैं। जिस नाम का जाप आपने अपनी साधनावस्था में किया है, उसी की कथा आप लिखें। नारद ने कथा कही और डाकू, ऋषि- महर्षि होते हुए ‘रामायण’ का कवि हो गया। बुझते दिये में तेल डालकर प्रकाश का आनंद लेने के जितने आख्यान हमारे शास्त्र पुराण और इतिहास में भरे पड़े हैं शायद ही अन्य किसी संस्कृति में हो। परिवार, रिश्ते-संबंध से मोहग्रस्त अजरुन को कृष्ण जैसे मित्र ने दृष्टि दी और उस अदभुत वाणी ने विश्व को नया दर्शन दिया। नेपोलियन पराजित होने पर हताश कमरे में लेटा था। उसकी दृष्टि निर्मिमेष छत पर लगी थी। उसने देखा कि एक मकड़ी अपना घर (जाला) बुन रही है। बार-बार जाला टूट जाता। जाला के केन्द्र में अपने रहने के लिए धागे जोड़ती, वे टूट जाते। नेपोलियन देख रहा था, सोच रहा था कि यह मूर्ख नाहक परेशान है, इसका ठिकाना नहीं बनेगा। तभी उसने देखा कि जाले के बीच में बने अपने घर में वह निश्ंिचत बैठी है। नेपोलियन की हताश आत्मा जाग उठी। उसने अपने समस्त निराश सैनिकों को एकत्र किया। उतिष्ठ! जागृत का उद्घोष किया और जीवन का सबसे निर्णायक युद्ध लड़ा, जो विश्व इतिहास में अमर हो गया। अंगुलीमाल और आम्रपाली को बुद्ध मिल गए। उनकी सुप्त आत्मा उदबुद्ध हो गई। ईसा ने उनके लिए भी प्रार्थना की जो उन्हें सूली पर चढ़ा रहे थे, परंतु उनके अंदर ईसा का नकार भरा था, उनकी आत्मा सोई थी, वे नहीं जाग सके। जिसने अपनी आत्मा को चिरनिद्रा में सुला दिया इतिहास उन्हें भी याद करता है, चंगेज खां, तैमूरलंग और नादिरशाह के रूप में। सकिंदर ने बालू पर लेटे संत से कहा था- जो कुछ भी मांगना हो, विश्वविजयी सकिंदर से मांग लो। संत ने कहा- सकिंदर! तू मुङो क्या दे सकता है? मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि हे ईश्वर! तू मुङो अगले जन्मों में पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़े कुछ भी बना देना, मैं दुखी नहीं होउंगा, मेरी प्रार्थना है कि तू मुङो सकिंदर न बनाना। कहते हैं कि सकिंदर को अपनी हीनता का आभास हुआ और वह यूनान लौट गया। उसके अंदर का सुकरात जाग गया। राम ने राज्य ठुकराया। कृष्ण सर्वजयी होते हुए भी एक दिन के लिए भी राजसिंहासन पर नहीं बैठे। बुद्ध ने राज्य त्याग दिया। जिसके राज्य में सूर्य नहीं डूबता था उस एडवर्ड अष्टम ने प्रेम के लिए राज्य को तिलांजलि दे दी। महात्मा गांधी ने, जयप्रकाश नारायण ने सत्ता का त्याग किया। उन्हीं के देश में सत्ता के लिए राम, बुद्ध, गांधी का जाप करते हुए उनके अनुयायी कितने तरह का धतकरम करते हैं, देश जानता है। इनके भी आत्मा है, संदेह होता है? लोक, हरनि-गुननि (संदेह) के भ्रम में कभी नहीं रहा। प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए उसने गुनने-धुनने (गुनान) का समय दिया है। उसका मुहावरा है रात गाभिन (गर्भिणी) होती है। रात भर चिंतन मनन यानी गुनान करने पर पक्ष-प्रतिपक्ष स्वयं बनकर आत्मा की सुप्त आवाज सच्चा और सही रास्ता बना देती है। तटस्थ मूल्यांकन हमेशा सही परिणाम लाता है। हमारे राजनेता, प्रशासक यदि अपनी कई पीढ़ी की व्यवस्था न कर केवल वर्तमान के लिए अतीत के उदाहरणों से अपनी सुप्त आत्माओं को जगा सकें, तो यह अपना देश आज भी गवरेन्नत हो सकता है। जागृत व्यक्ति जानबूझकर सोने का बहाना करे, उसे कौन जगा सकता है। देश का लोक जाग और देख रहा है। उसकी आत्मा कभी सोती नहीं। ‘दिनकर’ कहते हैं- ‘तब होता है भूडोल, बवंडर उठते हैं। जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है।’समय, आत्मा की आवाज सुनने का आ गया है। - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क- 09407041430. |
Saturday, April 6, 2013
आत्मा की आवाज सुनें
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment