Friday, April 12, 2013

बाजार की गोद में बैठा है मीडिया..काटजू क्या कर लोगे!


चिन्तामणि मिश्र
आजकल देश के पत्रकारों को लेकर फिर से एक बहस चल रही है कि पत्रकारों की न्यूनतम योग्यता का निर्धारण होना चाहिए। इस फुलझड़ी में इस बार आग लगाने का काम प्रेस कौसिंल के अध्यक्ष काटजू साहब ने किया है। वे सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज रहे हैं और जब से सरकार ने उनका विस्थापन प्रेस कौन्सिल में अध्यक्ष के पद पर किया है तभी से नाना प्रकार के बयान देने और बतकही के लिए उनको प्रसिद्धि मिल रही हैं। यह अलग बात है कि अब लोग उनके प्रवचनों को गम्भीरता से नहीं लेते । अस्सी प्रतिशत भारतीयों को मूर्ख कह कर वे खबर बन गए थे और मोदी पर टिप्पणी करके विवाद के झूले में झूलते हुए अब उन्होंने पत्रकारों के लिए न्यूनतम योग्यता तय करने की वकालत कर डाली है। कानून और फैसलों के अपने लम्बे कैरियर में काटजू साहब हमेशा चर्चा में तो रहे लेकिन उनकी अब जो बयानबाजियां हो रही है उससे ऐसा लगता है कि वे मीडिया के शीर्ष पर रहने की अपनी आन्तरिक ललक को पूरा करने में जुटे हैं। उनको इससे कोई मतलब नहीं है कि उनके कथन कितने व्यवहारिक या कितने अव्यवहारिक हैं। अभी उन्होंने फिल्म अभिनेता संजय दत्त की सजा को माफ करने के लिए बयान दिया और इसके लिए बकायदा महाराष्ट्र के राजपाल को आवेदन भी भेज दिया। पत्रकारिता में आई गिरावट के लिए उन्होंने पत्रकारों को ही अपराधी घोषित कर दिया है।

असलियत जानने का अगर प्रयास किया होता शायद वे देख पाते कि आज गिरावट इस देश में किस क्षेत्र में नहीं है? सरकार, बाजार, धर्म, पूरा सरकारी तंत्र और खुद न्याय पालिका गिरावट से लोट-पोट हो रही है। इन सभी संस्थानों में तो उच्च शिक्षित तथा व्यवसायिक दक्षता से लबालब लोग काम कर रहे हैं। शायद उन्हें भूल गया है कि अखबार समाज का आइना होते हैं। जैसा समाज होगा वैसे ही अखबार और उसमें काम करने वाले पत्रकार भी होंगे। पत्रकार भी हमारे ही समाज से आते हैं और हमारे ही समाज में रहते हैं।

यह दावा कोई भी नहीं कर रहा है कि पत्रकार बिरादरी में सभी साफ-सुथरे और पाक-साफ लोग ही हैं। पत्रकारिता स्तर भी गिर रहा है, इससे काटजू साहब ही नहीं देश के बुद्धिजीवी नागरिक भी चिंतित हैं। हर जगह कुछ गन्दी मछलियां होती हैं किन्तु इसके कारण पूरे तालाब की मछलियों को दोषी घोषित कर देना न्याय नहीं होगा। अखबार बहुत से ऐसे लोग भी निकाल रहे हैं जिनका लक्ष्य ईमानदारी नहीं होता है। लेकिन ऐसे लोगों की मजबूरी को कभी काटजू साहब ने देखने की कृपा नहीं की है।

शासन,प्रशासन औार समाज के अन्याय से लगातार प्रताड़ित हुए आदमी के पास अदालत जाने या पुलिस के पास अपनी फरियाद करने का ही चारा होता है। इन दोनों संस्थानों में आम नागरिक के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, कितना समय और धन खर्च होता है इसे सभी जानते हैं काटजू साहब यह न जानते हो यह किसी के गले नहीं उतरने वाला है। हमारे देश में जब अंग्रेजों ने हमें गुलाम बनाया था, तब उन्होंने अपने चाटुकारों को कई प्रकार की उपाधियों से नवाजा था। इनमें एक उपाधि रायबहादुर की भी थी। अब अंग्रेज तो नहीं है और सरकारी स्तर पर रायबहादुर की उपाधि भी किसी को नहीं मिलती, किन्तु कुछ लोग अपनी धमक बनाए रखने के लिए कोई मांगे या न मांगे किन्तु अपनी राय जरूर देते रहतें हैं। हमको इस बात से भी कभी परहेज नहीं होता कि उनकी राय किस हद तक बेतुकी हैं। काटजू साहब भी गाहे-बगाहे राय बहादुर की भूमिका में अवतरित हो जाते है। पीड़ित नागरिक के पास तब तीन विकल्प बचते हैं- पहला तो यह कि अपना भाग्य खराब कह कर रोज लातें खाता रहे, दूसरा विकल्प है कि वह बन्दूक उठा ले और अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेने खुद पुलिस,जज और जल्लाद की भूमिका करने लगें। अब जो तीसरा रास्ता बचता है वह है कि अपना खुद का अखबार ही निकालने लगे। बड़े पैमाने पर न सही छोटे स्तर पर बुलेटिन की तरह अखबार निकाल कर जो उसे घाव मिले हैं उनमें मलहम लगा ले और बदला भी चुकाता रहे।

कोई भी समझदार ऐसे लोगों के द्वारा अखबार निकालने के काम को सही नहीं कहेगा, लेकिन जब हमारी व्यवस्था में ही दीमक लगी है तो फिर चारा ही क्या बचता है। अकबर इलाहाबादी ने अस्सी साल पहले ही शेर के माध्यम से कह दिया था कि‘ जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।’ कुछ ऐसे पेशे हैं जिनमें किसी योग्यता की ज्यादा अपरिहार्यता नहीं होती है। कबीर और रैदास, मीराबाई तथा सूरदास जैसे बहुत सारे नाम हैं जिन्होने किसी स्कूल की देहरी कभी पार नहीं की थी किन्तु वे जो कुछ तथा जितना कुछ रच गए हैं कि उसे आज भी सारी दुनिया में कालजयी माना जाता है। असल बात पर काटजू साहब ने ध्यान ही नहीं दिया है। समस्या पत्रकारों के कारण नहीं है और न पत्रकारों के कारण मीडिया में भटकाव ही आया है। समस्या की शुरुआत हुई है मीडिया को बाजार की गोद में बैठा देने से। आज मीडिया को पत्रकार संचालित नहीं कर रहे हैं। उस पर बाजार का नियंत्रण है। बाजार बेचने और मुनाफा बटोरने के सिद्वांत पर चलता है। उसकी गुणवत्ता की जगह यूज एंड थ्रो की नीति होती है।

मुक्त बाजार व्यवस्था की जब हमने अपने यहां घुसपैठ करा ही ली है तो उसका प्रसाद भी तो हमें लेना ही पड़ेगा। ज्यादा गड़बड़ी खबरिया चैनलों में है। चौबिस घंटे के इन चैनलों में आधा-धापी और जो मारामारी तथा प्रतिस्पर्धा हो रही है वह अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए करना इनकी मजबूरी है और इसके चलते पेशे के प्रति जो दायित्व होना चाहिए वह नहीं होता । टीआरपी सारे देश के दर्शकों का प्रतिनिधित्वि नहीं करती, लेकिन चालाक लोगों ने इसे ही लोकप्रियता का पैमाना बना लिया है। प्रिंट मीडिया के साथ ऐसा नहीं है। काटजू साहब को इलेक्ट्रॉनिक और प्रिन्ट मीडिया को एक साथ अभियुक्त के कठघरे में खड़ा करके अभियोग नहीं लगाना चाहिए। हमारे ही देश में नहीं बल्कि सारी दुनिया में अखबारों और पत्रकारों पर हमेशा आरोप लगते रहे हैं। पत्रकारिता में गिरावट को रोकने के लिए काटजू साहब के ऐसे सतही निदान देने से बीमारी से निजात नहीं पाया जा सकता है। मीडिया पर वैसे ही अप्रत्यक्ष रूप से सरकारों और बड़े व्यापारिक घरानों का दबाब है अब काटजू साहब सरकारों को निमंत्रण दे रहे हैं कि वे मीडिया पर नकेल कसे ताकि पिछवाड़े से लोकतंत्र में तानाशाही प्रवेश कर ले। वैसे भी सरकारें तो मीडिया के पंख कतरने के लिए सब कुछ करने के लिए हाथ-पांव मारती ही रहती हैं।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

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