Saturday, April 6, 2013

अब बेटियां पीहर नहीं आतीं


  चिन्तामणि मिश्र
अब बेटियां पीहर नहीं आतीं स भ्य और शहरातू बनने की ललक ने लोगों को अपनी गर्भनाल से ऐसा काटा है कि आदमी निपट अकेला जिन्दगी को जी रहा है। हकीकत तो यह है कि जी नहीं रहा बल्कि जिन्दगी को ढो रहा है। कैसी विडम्बना है कि आज उसके पास वह सब कुछ है जिसका जिक्र स्वर्ग और जन्नत में उपलब्ध होने का उल्लेख हजारों सदियों से होता आ रहा है। लेकिन आदमी ने इसे धरती में पाने के लिए और अपने पास टिकाने के लिए उमंग,उल्लास,आपसदारी,नातेदारी,आत्मीयता को विदाई देकर तनाव, दुख, लालच, अधीरता, पर-पीड़न से लिपट कर जीना सीख लिया है। इस तरह जीना भी नहीं जिया जा रहा है जीने की नौटंकी की जा रही है। जीवन के संगीत और उसकी सहज लय से काटती उसे अलग करती यह आधा-धापी है। लाभ-लोभ, खुदगर्जी, संवेदनहीनता और अंधे सुखवाद, नपुंसक भोगवाद की मरीचकाओं ने आदमी को अंधेरी सुरंग में ढकेल दिया है।
विडम्बना तो यह है कि हम इसे विकास का नाम देकर आधुनिक होने की खुद ही मुनादी भी कर रहे हैं। असल में बाजार के मोहक जाल की गिरफ्त में सुध-बुध खोकर अपनी सांस्कृतिक धरोहर तथा सामाजिक सरोकारों और अपनी अस्मिता को ही कफनाते जा रहे हैं। जीवन में रचे-बसे पारिवारिक नाते-गोते, पर्व,उत्सव कुटुम्ब के मंगलकाज और लोक जीवन के जो रंग हमें जिलाए थे, उन्हें पश्चिम से आया भौतिकवादी अजगर धीरे-धीरे निगल रहा है। व्यक्ति, परिवार, समाज और देश अब बाजार के नियंत्रण में है। दासता का ऐसा विकराल उदाहरण मानव इतिहास में पहले कभी दर्ज नहीं हुआ। अब हम मनुष्य नहीं उपभोक्ता में ढाल दिए गए हैं, जैसे टकसाल में सिक्के ढाले जाते हैं। यह ऐसा बाजार है जिसमें सोचना-विचारना मना है। पूरा समाज आत्म-छलना में जी रहा है। आधुनिकता का बाजारवादी मायावी मायाजाल किसी को भी मन के भीतर जाने की इजाजत देना तो दूर भीतर झंकने की इजाजत तक नहीं देता है।
खून तक के रिश्ते असहज हो रहे हैं। आत्मीयता को औपचारिकता की मखमली रजाई ओढ़ा कर सम्बन्धों की रस्में अदा की जा रही हैं। बेटियां और बहुएं अपनी मां से कभी अब यह मनुहार नहीं करती, पत्र नहीं लिखती, संदेशे नहीं भेजती कि सावन आ रहा है पिता को भेज कर मुङो पीहर बुला लो। संदेशे और पत्र लिखने की अब जरूरत नहीं रह गई है। यह सब करना अब आउट ऑफ डेट हो गया है। उनके पास मोबाइल फोन आ गया है। वे मोबाइल फोन से रोज अपनी मां से बात कर लेती हैं।
क्या खाया, क्या पकाया, कौन आया और कौन गया से लेकर सारी बातें जो महीनों बाद पीहर पहुंच कर कभी बिटिया अपनी मां से करती थी, अब हर दिन बल्कि हर पहर हो रही है। कोसों का फासला कम हो गया है। जब मन किया मोबाइल का बटन दबाया और बातों का सिलसिला शुरू। न आने-जाने की परेशानी और न साज-सामान सहेजने का झंझट। कभी पीहर जाने के लिए उतावली रहने वाली बेटियां-बहुएं अब नहीं जाने का बहाना खेाजती हैं। अमीर खुसरो ने कभी लिखा था- अम्मा मेरे बाबुल को भेजो री, कि सावन आया। बेहद मार्मिक यह ठुमरी अब सूफियों, निर्गुनियों और बाउलों के कंठ की कैद में रह गई है।
हिन्दी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में बेटिया ससुराल में छत- छप्पर की मुड़ेर और आंगन में लगे पेड़ पर बैठे कौवे से अपने पीहर जा कर अपनी मां के पास संदेशा ले जाने की मनुहार करने का व्यापक और मार्मिक चित्रण किया गया है।
हाईटेक हुए गृहस्थ परिवारों ने अमीर खुसरो की ठुमरी के सम्मोहन और इसकी वेदना में उतरना ही छोड़ दिया है। मोबाइल ने सुविधा तो दी है लेकिन कई चीजे खत्म भी कर दी है। सूचना तंत्र के विस्फोटक विकास ने हमारी संवेदनाओं को मार दिया है।
किसी ब्याहता का पीहर जाना केवल पीहर जाना नहीं होता था।
बल्कि इसके पीछे सामाजिक तानाबाना होता था। पीहर जा कर बेटी अपनी बचपन की यादों के बही-खातों को टटोलती, संगीसहे िलयों की खेाज खबर लेती और बचपन में जिन आंगन, गलियों, बगीचों में, पनघट तथा अमराईयों में खेली, झूलाझू ली, गुड़ियों के ब्याह रचाए, सपने देखे उन्हें सहेजने उनको छूने का आनन्द लेती थी। पीहर जाने के पीछे एक यह भी उत्सुकता होती थी कि उसकी गैर-हाजरी में घर में क्या खरीदा गया। बेटियां यह भी बूझने की कोशिश करती थीं कि अम्मा ने बहू के लिए बेटी से ज्यादा तो कुछ नहीं खरीद लिया अगर बेटी को ऐसा लगता था तो वह तुनक कर कहती थी अब तो मैं पराई हो गई हूं।
अपनी बहु के लिए ही सब कुछ करोगी। बिटिया की इस शिकायत पर अम्मा मनाती और समझती थी कि ऐसा नहीं है।
लेकिन आधुनिक होने की चाह ने रिश्तों की ताजगी और गर्माहट ही खतम कर दी है। पीहर से लौटती बिटिया की आंखों में थरथराते आंसू अम्मा को भी रुला जाते थे। पति को पत्‍नी के लौट आने का बेसब्री से तब इन्तजार रहता था। जिस पत्‍नी से वह तंग आ चुका होता, उसके नहीं रहने पर उसे तन्हाई डसने लगती।
पति-पत्‍नी के बीच की एकरसता को खत्म करने का मौका भी पीहर यात्रा के कारण सहज ही सुलभ हो जाता था। रिश्तों की गर्माहट को महसूस करने का मौका मिलता था। मोबाइल ने जिन्दगी की ताजगी को ही लील लिया। रूठने मनाने और शिकायत अब बीते जमाने की बात हो गई है, क्योंकि अब बेटियां पीहर नहीं जाती है। ब्याह के शुरुआती दिनों में पीहर छूट जाने का दुख होता है लेकिन समय गुजर जाने के बाद ससुराल ही प्यारा लगने लगता है। जो थेाड़ी कसर मोबाइल से रह गई थी वह इन्टरनेट ने पूरी कर दी। कैमरा लगाया और पूरा पीहर देख लिया, घूम लिया। मां की भी सूरत देख ली और पीहर की दीवारों का रंग भी जान लिया। हमने जाने-अनजाने अपने लिए कैसा बंद समाज और आधुनिकता के नाम पर कैसी बेड़िया बनाई हैं कि नाते-गोते तकनॉलाजी के चूल्हे पर फ्राई हो रहे हैं। हम इसे ही छाती पीट- पीट कर सभ्य, शिष्ट और सामाजिकता के खोखले शब्दों की माला का जाप करके मगन हो रहे हैं।
तकनॉलाजी एक सीमा तक ही साध्य है। वह हमें जिस तरह नचाती है हम उसी तरह नाचते हैं। आधुनिक सभ्यता की उपलब्धियों के बारे में किसी को भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए।
दरअसल यह अर्थ-व्यवस्था का विकासवाद समाज और मनुष्य विरोधी है। हम हजारों साल से अपनी माटी अपने संस्कार सहेज कर रखने वाले लोग थे, किन्तु भूमंडलीकरण का पिशाच हमें हमारे गौरवशाली परम्परा और शक्तिदाता संस्कारों की खिल्ली उड़ा कर विश्वास तथा आस्था के कपाट बन्द करने के लिए उकसाता- ललचाता है। - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

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