ढेर सारी मंगलकामनाओं के शाब्दिक आडंबर ओढ़कर नए वर्ष में प्रवेश करने का अब मन नहीं करता। नर पिशाचों की शिकार हुयी दामिनी को भी नववर्ष की मंगल कामनाएं मिली होंगी पिछले साल। उन किसानों ने भी बड़ी उम्मीदों के साथ शुरू किया होगा नए साल का सफर जो अधबीच में ही आम की डाल पर गमछे का फंदा बनाकर खुद को फांसी दे दी। सुख शांतिमय संसार व देश की कामनाओं पर जब ग्रहण ही लगना है तो फिर ये ‘शब्द’ क्यों खर्च किए जाएं। दुनिया को अपने रफ्तार से चलना है और सत्ताओं को अपनी व्यवस्था के हिसाब से। हम दुनिया की रफ्तार को तो प्रभावित नहीं कर सकते हैं हां सत्ताओं की व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा खोल सकते हैं, लड़ सकते हैं। राजधानी दिल्ली के विजय चौक पर जबड़े भींचे और मुट्ठी ताने युवाओं के आक्रोश का यही संकेत है। यह आक्रोश देश भर के युवाओं में है, जवानों और किसानों में है। हमें लक्ष्य तय करना है और निशाने साधना है। कमी लड़ाई के माद्दे और लड़ने के जज्बे की नहीं है, कमी है सही लक्ष्य पहचानने की और सटीक निशाना साधने की। वह प्रक्रिया अब शुरू हो गई है। सूरज की तपिश ज्यों-ज्यों बढ़ेगी दिन चढ़ेगा तो कुहासा अपने आप ही छंटेगा। पंजाब के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह ‘पाश’ की कविता हम लड़ेंगे साथी को बार-बार पढ़ने, पढ़ाने और सुनाने का मन करता है। इस असमंजस के दौर में कवि-कलाकार और सजर्क ही घुप्प अंधेरे में टार्च दिखाता है। पहले पाश की कविता का पाठ करें फिर आगे बढ़ें। ‘‘हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए। हम लड़ेंगे साथी गुलाम इच्छाओं के लिए। हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर। हल अब भी चलता है चीखती धरती पर। प्रश्न नाचता है प्रश्न के कंधो पर चढ़कर। हम लड़ेंगे साथी.. कत्ल हुए जज्बों की कसम खाकर। बुङी हुई नजरों की कसम खाकर। हाथों पर पड़े घट्टों की कसम खाकर। हम लड़ेंगे साथी..। हम लड़ेंगे तब तक, जब तक खिले हुए सरसों के फूल को बोने वाले नहीं सूंघते। कि सूजी आंखों वाली अध्यापिका का पति जब तक युद्ध से लौट नहीं आता। जब तक पुलिस के सिपाही, अपने भाइयों का गला घोटने को मजबूर हैं। कि दफ्तरों के बाबू जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर। हम लड़ेंगे जब तक, दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है। जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी। जब तलवार न हुई लड़ने की लगन होगी। लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी और हम लड़ेंगे साथी। हम लड़ेंगे कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता। हम लड़ेंगे कि अब तक लड़े क्यों नहीं। हम लड़ेंगे अपनी सजा कबूलने के लिए। लड़ते हुए जो मर गए उनकी याद जिन्दा रखने के लिए।’’ पिछले कुछ वर्षो से हम लड़ना भूल चुके हैं। जब लड़ाई की इतनी जरूरत नहीं थी तब हम हवा में हाथ लहराकर आसमान में नारे उछालते थे.. हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है। जुल्म का जोर, अत्याचार की तीव्रता और बढ़ी है। वैश्विक परिदृश्य में साम्राज्यवादी देश छोटे और कमजोर मुल्कों को खा जाना चाहते हैं। वियतनाम से शुरू हुई लड़ाई अफगानिस्तान तक जारी है, समूचा मुल्क कत्लगाह सा बन गया है। नाटो और तालिबान के दो पाटों में अमन पसंद पख्तून काबुलीवालों को पीसा जा रहा है। शिक्षा की अलख जगाने वाली मासूम मलाला यूसुफ जई सिर पर तालिबान और फिकरापरस्त मुल्लों की गोलियां धंस रही हैं। अफ्रीकी देशों में प्राकृतिक संसाधनों की लूटमार मची है। बाजारवादी लुटेरों का दस्ता वेश बदलकर हिन्दुस्तान में भी घुसने की फिराक में है। साढ़े तीन सौ बरस पहले ईस्ट इन्डिया कम्पनी मसालों का व्यापार करने आई थी। अब ‘वालमार्ट’ बनकर हमारे गली मोहल्लों के खुदरा बाजार में घुसना चाहती है। थैलियां खुली हैं। रिश्वत और लाबईंग के बूते सरकार के फैसले बदले जा रहे हैं। दिवास्वप्न दिखाया जा रहा है कि किसानों की बरक्कत होगी युवाओं को रोजी मिलेगी। अमेरिका के युवा वाल स्ट्रीट में नारे लगा रहे हैं ‘रोजी रोटी दे न सके वो सरकार निकम्मी है’ वहां निन्यानवे बनाम एक के आंदोलन का ज्वालामुखी धधक रहा है। वालमार्ट वहीं से चलकर आ रहा है। अपने देश में विषमता की खाई और चौड़ी है। कुछ हजार धनपतियों के पास देश की तीन चौथाई अर्थव्यवस्था गिरवी है। ये खाई पटने का नाम नहीं ले रही। तीस करोड़ लोग फुटपाथ, रेल्वे स्टेशनों व धर्मशालाओं के बरामदे में सोते हैं। अम्बानी जी के बंगले के बिजली का बिल साठ लाख रुपए महीना आता है। मोन्टेक सिंह अहलूवालिया के बाद शीला दीक्षित ने गरीबी की नई परिभाषा गढ़ी है कि 600 रुपए की मासिक आमदनी वाला परिवार अपना गुजारा कर सकता है। हमारी नियति ऐसे लोग लिख रहे हैं जो पंचसितारा होटलों में छ: सौ रुपए का एक जाम पीते हैं और वेटर को सोलह सौ रुपए की टिप देते हैं। संसद और विधानसभाओं में चुनकर जाने वालों में बाहुबलियों, अपराधियों और धनपशुओं के आंकड़ों में कोई कमी नहीं। चुनाव काम नहीं कलदार की चमक में जीते जाते हैं। सांपनाथ से गुस्सा हैं तो नागनाथ हाजिर हैं। वोट दें या न दें आपकी मर्जी। नहीं देंगे तो भी तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था की सेहत पर कोई फरक नहीं पड़ने वाला है। नेता दलील देते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था पर अविश्वास-असम्मान ठीक नहीं है। क्या अविश्वास और असम्मान की दुहाई में देश को लुटने दिया जाए? बुजुर्ग उलाहना देते हैं कि इनसे अच्छा तो अंग्रेजों का जमाना था। आज के युवा कहते हैं, तानाशाही चलेगी पर भ्रष्टाचार नहीं। पार्टी पालटिक्स में लाजर्र दैन लाइफ बनकर उभरे नरेन्द्र मोदी इसीलिए युवाओं के सर्वप्रिय हैं। उन्हें मोदी जैसा नेता चाहिए जो कहे वो करके दिखाए और जैसा दिखे वैसा जिए। मोदी किसी के लिए राम हो सकते हैं तो किसी के लिए रावण। उनके स्वरूप व चरित्र की स्पष्ट परिभाषा है। वे कालिनेमि का चरित्र तो नहीं जीते। आज राजनीति में कस्बे से लेकर संसद तक कालिनेमि का चरित्र जीने वाले नेताओं का पलड़ा भारी है। भाषण और आचरण में कोई तालमेल नहीं। दिन में कुछ रात में कुछ। गरीबों की दुहाई देकर जीतने वाले अरबों के घोटालेबाज बनकर प्रकट होते हैं और उसी काली कमाई से उनकी समानांतर सत्ताएं चलती हैं। आज देश मंजिल की तलाश में चौरस्ते पर खड़ा है। जिस पर भी विश्वास करते हैं वही रास्ते में ठगता है। सवालों से घिरी हुई अवाम को सही जबाब चाहिए और सही जबाब हासिल करने के लिए एक और इन्कलाब हो तो वह भी सही। विजय चौक से लेकर पटना के गांधी मैदान तक के युवाओं के आक्रोश की भाषा को समङिाए। ये चिन्गारी शोला बनकर भड़कने को बेताब है। नए साल में ये तपिश और बढ़े। लावा बनकर भ्रष्टतंत्र, विषमतामूलक व्यवस्था और राजनीति के ढोगतंत्र का समूल विनाश करे, इस साल के जाते-जाते बस यही एक कामना है। लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208 |
भारतीय अर्थव्यवस्था तो इस साल अवैध वित्तीय लेन देन के चलते करीब 1.6 अरब डॉलर (क़रीब 85 अरब रुपए) का नुकसान उठाना पड़ा है.
इतना ही नहीं बीते एक दशक के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था को 123 अरब डॉलर (करीब 6,642 अरब रुपए) का नुकसान हुआ है.
यह रकम कितनी बड़ी है इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि बीते एक दशक के दौरान भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत ढांचे के निर्माण पर इससे कम खर्च हुआ है.
ये आकलन वाशिंगटन स्थित शोध संस्थान ग्लोबल फाइनेंसियल इंटेग्रिटी (जीएफआई) का है. संस्था ने काली और जाली अर्थव्यवस्था पर अध्ययन कर ये रिपोर्ट जारी की है. रिपोर्ट के मुताबिक इस दशक में काली अर्थव्यवस्था के चलते नुकसान के मामले में भारत आठवें नंबर पर हैं.
जीएफआई के निदेशक रेमंड बाकर ने कहा, “भारत में अवैध लेन देने के लिहाज से पिछले कुछ सालों में स्थिति सुधरी है लेकिन अब भी अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है.”
काले धन से अर्थव्यवस्था को नुकसान ( बीते एक दशक में)
चीन- 1,47,960 अरब रुपए
मैक्सिको- 25,704 अरब रुपए
मलेशिया- 15,390 अरब रुपए
सऊदी अरब- 11,340 अरब रुपए
रुस- 8,208 अरब रुपए
फिलिपींस- 7,452 अरब रुपए
नाइजीरिया- 6,966 अरब रुपए
भारत-6,642 अरब रुपए
बाकर के मुताबिक भारत के नीति निर्माताओं को इस नुकसान को कम करने के लिए अविलंब कदम उठाना चाहिए. बाकर ने कहा, “भारत में काले धन की बरामदगी के मसले को मीडिया में काफी जगह मिल रही है.”
जीएफआई के प्रमुख अर्थशास्त्री और रिपोर्ट के सह लेखक देव कार कहते हैं, “नुकसान के लिहाज से भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए 123 अरब डॉलर (6,642 अरब रुपए) बहुत बड़ी रकम है.”
देव कार कहते हैं, “यह भारतीय नागरिकों के लिए बड़ी चिंता की बात है क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और देश में आधारभूत ढांचे के निर्माण पर कुल मिलाकर 100 अरब डॉलर (करीब 5400 अरब रुपए) खर्च हुआ है यानी काले धन के चलते होने वाला नुकसान इससे कहीं ज़्यादा है.”
जीएफआई की ये रिपोर्ट ये भी बताती है कि भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद की 50 फ़ीसदी जितनी रकम काली अर्थव्यवस्था की भेंट चढ़ जाती है. रिपोर्ट के मुताबिक 1948 से लेकर 2008 के बीच साठ साल के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था को करीब 462 अरब डॉलर (करीब 24,948 अरब रुपए) का नुकसान हुआ है.
चीन को सबसे ज़्यादा नुकसान
"शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और देश में आधारभूत ढांचे के निर्माण पर कुल मिलाकर 100 बिलियन डॉलर (करीब 5400 अरब रुपये) खर्च हुआ है यानि काले धन के चलते होने वाला नुकसान इससे कहीं ज़्यादा है."
देव कार, जीएफआई के अर्थशास्त्री और रिपोर्ट के लेखक
वैसे सूची में चीन अव्वल स्थान पर है. 2001 से 2010 के दौरान अवैध वित्तीय लेनदेन के चलते चीन को 2740 बिलियन डॉलर( 1,47,960 अरब रुपए) का नुकसान हुआ है. इसके बाद मैक्सिको, मलेशिया, सऊदी अरब, रूस, फिलीपींस और नाइजीरिया को भी अरबों डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है.
“विकासशील देशों में अवैध वित्तीय लेनदेन- 2001 से 2010” के नाम से जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सभी विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को 2010 में 858.8 अरब डॉलर (करीब 46,375 अरब रुपए) का नुकसान हुआ है.
यह बीते एक दशक में नुकसान के हिसाब से दूसरा सबसे ख़राब साल साबित हुआ है. इससे पहले 2008 के दौरान विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को 871.3 अरब डॉलर( करीब 47,050 अरब रुपए) का नुकसान सहना पड़ा था.
रिपोर्ट के मुताबिक 2001 से 2010 के दौरान दुनिया भर के विकासशील देशों को काले धन के चलते 5860 अरब डॉलर (3,16,440 अरब रुपए) का नुकसान हुआ है.
ग्लोबल फाइनेंसियल इंटेग्रिटी ने दुनिया भर के नेताओं से अपील की है कि वे काले धन के लेन देन पर अंकुश लगाने के लिए अपने अपने देशों में पारदर्शी व्यवस्था को बढ़ावा दें.