चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र के कुहासे को छांटने का वक्त सं सार इस बात को बिना न-नुकुर के स्वीकारता है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में एक है। लेकिन इसका आशय सवरेपरिता नहीं है। अक्सर हम महान को महानतम और श्रेष्ठ को श्रेष्ठतम मान लेते हैं। शायद ही कोई ऐसी संस्कृति हो जिसके बरक्स दूसरी संस्कति न हो। भारतीय चिंतनधारा में कभी अवरोध नहीं आया, वह सदैव प्रवहमान रही है। यहां एकेश्वर, बहुदेववाद और निरीश्वरवाद की अनेक परम्पराएं हैं। आध्यात्म चिंतन, विशिष्टों का चिंतन बनकर रह गया जिसमें हर सुख-दुख का समाधान उसी में उलझ गया। अपनी प्राचीन सभ्यता और जातीय गौरव की प्रशंसा करना पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना है परंतु अपनी जातीय निर्बलताओं और सामाजिक कुसंस्कारों तथा दोषों को प्रकट करने में हमने हमेशा कोताही बरती है। हमने यह ध्यान नहीं दिया कि बनावटी जोश और मिथ्याभिमान किसी भी जाति या समाज के सर्वनाश का कारण होता है। लकीर पीटते रहना बुद्धिमानी नहीं है, जानने और मानते हुए भी हम क्रिया से विरत नहीं हो पा रहे हैं। भारतीयता को संकीर्ण और ईष्र्या जनित रूप देकर अहित करना, हजारों वर्षो की विरासत और परम्परा के सार्वभौम सत्यों को तोड़ मरोड़कर झूठा साबित करना, कहां की समावेशिता है। ऐसी श्रुति या स्मृति को नकारने में हमें देर नहीं करनी चाहिए जो मनुष्य-मनुष्य में विभेद पैदा करे। हम अतीत में इसीलिए हारे हैं, कि सामूहिक एकता से कभी नहीं लड़े। लड़ने का ठेका एक को, पढ़ने का दूसरे को, कमाने का तीसरे को ओर सेवा का चौथे को। चारों को एक साथ लेकर कभी नहीं चले, परिणाम भोग चुके हैं। अभी भी वर्ग भेद की यह खाई बरकरार है। विश्व, हमारी कमजोरी को जानता है, हंसता है, और हम? जानकर भी अनजान बने हैं। इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे? हमारी धरती वीर रस के कवियों की वाणी में अवश्य है, परंतु इसमें वीर कम संत महात्मा अधिक पैदा हुए हमारी वीरता का इतिहास प्रतिरक्षा और पराजय का है। प्रवृत्ति के स्थान पर निवृत्ति का मार्ग ज्यादा सुगम है। प्रवृत्ति में अनेक तरह के संघर्ष है, पलायन निरापद मानकर पुरु षों ने महानतम की उपाधि स्वयंमेव धारण की। फिर भी हम गाते रहे हैं कि- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। जबकि यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गए जहां से।इतना बड़ा भ्रम पाले आज भी देश के अधिसंख्य लोग हैं। यूनान, आज भी अफलातून, सुकरात, अरस्तू के दर्शन से विश्व को प्रभावित कर रहा है। हमारी हस्ती तो हर बार मिट मिटकर बनी है। एक समय गुट निरपेक्ष राष्ट्रों के हम सूत्रधार थे आज देश की अर्थ, विदेश रक्षा और गृहनीति क्या उसी तरह से है जिस तरह नेहरु से इंदिरा के समय तक थी। हमारे एफडीआई पर सबसे अधिक अमेरिका क्यों खुश है? उसका निहितार्थ एक सामान्य व्यक्ति समझता है लेकिन राजनेता नहीं समझ पाते क्यों? संसार इतिहास से सबक लेता है हम नहीं। पैंसठ साल में ईस्ट इंडिया कम्पनी का इतिहास भूल गए। आवश्यकता इस बात की है। कि जिन्दगी, जनता और देश को अधिक अच्छे और वैज्ञानिक तरीके से समझ जाए। ऐसे विचार, सिद्धान्त और आदर्श प्राप्त किये जाएं जो लोगों को संघर्ष से उठने के लिए प्रेरित करें। कमोवेश ये सारे जीवन सिद्धान्त हमारे शाश्वत मूल्य थे, अब समय सापेक्ष है। हमारे लोकतंत्र का खूंटा खंचार में गड़ा है, बहुत डगमगाता हुआ, बहुत मजबूत नहीं है। इसमें लोक और तंत्र अलग-अलग है। पांच वर्ष के लिए तंत्र, लोक को ठगता है। अपने ही लोगों से अपेक्षा का दंश भोगने के लिए बाध्य है। रामायण के राम लोक की दबी छिपी आवाज पर अपनी प्राणप्रिया को, बिना उनकी सुने घर से निकाल देते हैं, जबकि गर्भावस्था के अंतिम चरण में सीता थी। राम जनता के सामने यह सफाई भी नहीं दे सके कि सीता की अग्नि परीक्षा हो चुकी है, वे निदरेष हैं। राम के निर्णय के विरुद्ध भवभूति के उत्तररामचरित की सीता के साथ समूचा लोकमानस तब भी खड़ा हुआ, आज भी खड़ा है। महाभारत के भरत के अनेक पुत्रों में कोई भी इस योग्य नहीं था कि भारत(आर्यावर्त) का राजा बन सके। यह स्वीकारोक्ति स्वयं भरत की थी, अस्तु राजतंत्र की वंश परम्परा को तोड़ते हुए उन्होंने भारद्वाज शांतनु को राजगद्दी सौंपी। चंवर छत्र विहीन चंद्रगुप्त मौर्य को कितने ही ब्राrाणों का विरोध ङोलते हुए चाणक्य ने सम्राट की पदवी दी। अतीत की अनेक कथाओं एवं इतिहास के पन्नों में ऐसे आदर्श भरे हैं, क्या उनसे प्रेरणा हम नहीं ले सकते। यह कैसा लोकतंत्र है जहां, अनेक पुत्र, पुत्री रिश्तेदार ही योग्यतम है? भारतीय लोकतंत्र पैंसठ वर्ष बाद भी राजतंत्र के साये में पल रहा है? उसके सपने में आज भी राजतंत्र है, जागते हुए भी उसी की जयकार कर रहा है। कवि भगवत रावत ने बहुत पहले एक कविता लिखी थी, जो आज की स्थिति का पूर्णत: चित्रण करती है- ‘इन दिनों जब सब कुछ खुल गया है। खुल गए सारे के सारे भेद/ यह जानते हुए कि सबने अपने अपने कपड़े उतार दिये हैं। तब यह कौन, किसके लाज से मरा जा रहा है। जब सबके पास अपने-अपने आइने हैं। तब यह कौन किसकी आत्मा के दर्पण दिखा रहा है।’ संसद के दोनों सदनों के सांसदों का इससे बेहतर आकलन हो सकता है। सारा देश देख रहा है। किस हस्ती पर गर्व करे देश, सारी हस्तियां पस्त हो चुकी हैं, उनकी परतें दिख रही हैं। देश प्रेम और राष्ट्रीय अस्मिता सिरे से गायब है। देश के नेताओं की बीमारी का इलाज अमेरिका के डॉक्टर करते हैं, और जनता आरक्षित डॉक्टरों की योग्यता का लाभ उठाते हुए सरकारी अस्पतालों में दम तोड़ रही है। देश के नामचीन डॉक्टर विदेश में अपनी सेवाएं देकर मालामाल हो रहे हैं। बिस्मिल्ला खां साहब की शहनाई पर मुग्ध होकर अमेरिका ने उन्हें हर तरह की सुविधा देते हुए अमेरिका में रहने का आमंत्रण दिया था और कहा था कि वे जो भी और जितना भी चाहेंगे, वह देगा। खां साहब ने कहा कि गंगा और बनारस कैसे लाओगे। उसके बगैर तो मेरी शहनाई का कोई मतलब नहीं। हमारे विश्वनाथ मंदिर में शहनाई कौन बजाएगा। यह था एक देशभक्त कलाकार का देशराग। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां पाकिस्तान चले गए थे, वहां उनके भजन सुनकर जेहादियों ने आपत्ति की। उन्होंने कहा मेरा संगीत देश की सीमा के पार है। मैं इसे नहीं छोड़ सकता। मेरा संगीत देश की सीमा के पार है। मैं इसे नहीं छोड़ सकता। इन्हीं कलाकारों से हमारी हस्ती है। पाकिस्तान में बसने के बाद भी इकबाल हमारे राष्ट्रीय कवि बने रहे, लेकिन वर्तमान की किस हस्ती पर रश्क किया जाए, यही चिन्त्य है। - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क सूत्र- 09407041430. |
Wednesday, December 12, 2012
भ्रम के कुहासे को छांटने का वक्त
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विश्व, हमारी कमजोरी को जानता है, हंसता है, और हम? जानकर भी अनजान बने हैं। इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे?
ReplyDeleteपैसे की चमक से घिरे हम स्वयं भी नहीं जानते हमारी भलाई किसमे है ....जन जन मे जागरूकता लाने की आवश्यकता है ...
सार्थक आलेख ....शुभकामनायें ॥