130 ज़िलों में है ज़मीन की जंग
मंगलवार, 18 दिसंबर, 2012
ज़मीन और जंगल के अधिकार पर होने वाले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन से पहले प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत के जंगल और आदिवासी क्षेत्रों में बढ़ रहे हिंसक संघर्ष के लिए देश की सरकारी संस्थाए और निवेशक दोषी है.
'राइट्स एंड रिसोर्सेज इनीशिएटिव' और 'सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ वेस्टलैंड डेवलपमेंट' के मुताबिक आने वाले 15 सालों में बड़ी परियोजनाओं के चलते भारत में संघर्ष और अशांति की आशंका है.
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रिपोर्ट के मुताबिक गरीब ग्रामीण भारत के संसाधनों का दोहन लगातार जारी है और इसकी वजह से पूरे भारत के लगभग सभी राज्यों में संघर्ष की स्तिथियां पैदा हो रही हैं.
विश्व के शीर्ष विशेषज्ञों का मानना है कि भारत भी चीन, दक्षिण कोरिया और सऊदी अरब जैसे देशो की कतार में शामिल हो गया है, जहाँ 'ज़मीन का संकट' है. और ये देश विकासशील देशों की मुख्य आजीविका के स्रोत खेती की ज़मीन छीनने लगे हैं.
छिन रही ज़मीन
"प्रमुख उदाहरण अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन वनवासी अधिनियम 2006 है, जिसे जंगल और अवैध अधिग्रहणों से निवासी जनजातीय लोगों की रक्षा करने के लिए बनाया गया है, लेकिन इसका नियमित तौर पर उल्लंघन हो रहा है. इसी तरह 1996 का पंचायत अधिनियम है, जो ग्राम सभा को भूमि प्रबंधन और उसकी रक्षा करने की शक्तियां देता है. लेकिन इसकी भी अनदेखी हो रही हैं"
गोपालकृष्णन
भारत में लगातार हो रहे भूमि अधिग्रहण पर जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 2011 के बाद से 130 जिलों में विरोध प्रदर्शन हुए हैं.
इन परियोजनाओं के लिए एक करोड़ दस लाख हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण होगा और इसका असर करोड़ों लोगों की आजीविका और जीवन पर पड़ेगा.
संस्था 'कैंपेन फॉर सरवाइवल ऐंड डिग्निटी' से जुड़े शोधकर्ता शंकर गोपालकृष्णन का कहना है,"सामुदायिक स्वामित्व वाली भूमि का बेशर्मी से हो रहा अधिग्रहण भारत के बड़े हिस्से में एक ज्वलंत मुद्दा है,"
भारतीय क़ानून
गोपालकृष्णन और उनके सहयोगियों का कहना है कि भारतीय कानून में संघर्ष के मूल कारणों का समाधान पहले से ही मौजूद है.
उनका कहना है कि प्रमुख उदाहरण अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 है, जिसे जंगल और अवैध अधिग्रहणों से निवासी जनजातीय लोगों की रक्षा करने के लिए बनाया गया है, लेकिन इसका नियमित तौर पर उल्लंघन हो रहा है.
इसी तरह 1996 का पंचायत अधिनियम (पेसा अधिनियम) है, जो ग्राम सभा को भूमि प्रबंधन और उसकी रक्षा करने की शक्तियां देता है. लेकिन इसकी भी अनदेखी हो रही हैं और देश भर में इसका उल्लंघन होता है.
पारंपरिक वन समुदायों के भूमि अधिकार के विशेषज्ञ 'राइटस एंड रिसोर्सेज इनीशिएटिव' के कार्यकारी निदेशक अरविंद खरे कहते हैं."अभी हालत ये है कि सरकार का एक हिस्सा ही किसी अन्य या इन अधिनियमों के प्रावधानों का उल्लंघन कर रहा है. क़ानून तो मौजूद है पर कानून का उल्लंघन करने के लिए कोई जुर्माना है क्या?"
खेती के लिए विदेश में ज़मीन
एक अंतर्राष्ट्रीय शोध का हवाला देते हुए अरविंद खरे कहते हैं कि भारत सरकार और भारतीय स्वामित्व वाली कंपनियों ने अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया में खेती के मकसद से भूमि का अधिग्रहण किया है.
विशेषज्ञों का मानना है कि हाल ही में भूमि अधिग्रहण, अदालती मामलों और समाचार रिपोर्टों की जांच से पता चलता है कि भारत में भूमि हड़पे जाने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में बढ़ोत्तरी देश में विकास की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक के रूप में उभर रहा है.
समाचार, रिपोर्टों और अदालत में मुकदमों के आधार पर पता चलता है कि देश हर राज्य और क्षेत्र में आदिवासी इन ज़मीन संबंधी विवादों में उलझे है, और तमाम विवाद अभी भी अनसुलझे हैं.
भारत के नक्शे में 2011 और 2012 के दौरान 602 ज़िलों में से 130 में इस तरह के हिंसक संघर्ष की पहचान की गई है.
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