फिर वही लोकप्रिय उदाहरण याद आता है..खौलते पानी में मेढ़क को डालेंगे तो वह पतीली से उछलकर बाहर आ जाएगा किन्तु ठन्डे पानी में तैर रहे मेढ़क सहित पतीली को मंद आंच में गरम करेंगे तो मेढ़क उसी में पककर विलीन हो जाएगा।.. खुदरा व्यापार में एफडीआई का दूरगामी असर ऐसे ही होने वाला है। आज एफडीआई के पैरोकार ऐसे दौर में उसके फायदे गिना रहे हैं जिस दौर में अमेरिका समेत दजर्नों पूंजीवादी अर्थव्यवस्था वाले देशों में निन्यानवे बनाम एक का आन्दोलन अंदर ही अंदर धधक रहा है। अमेरिका में आक्यूपाय द वॉल स्ट्रीट से इसका आगाज हो चुका है। उन पूंजीवादी देशों के लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ में आ चुकी है कि उनके देश की अर्थव्यवस्था महज एक प्रतिशत लोगों की मुट्ठी में कैद है। यहां तो विषमता की स्थिति और विकट है। लोकतंत्र की परिभाषा ‘कारपोरेट की कारपोरेट के द्वारा कारपोरेट के लिए’ हो चुकी है। केन्द्र व राज्य सरकारों की नीतियां इन्हीं के हिसाब से बन-बिगड़ रही हैं। अपने देश में रिटेल मार्केट में एफडीआई के प्रवेश से आने वाले दिनों में जो होना है सो होगा। पारंपरिक और कुटीर उद्योग धंधों को तो अपने देश के ही बड़े औद्योगिक घरानों और कम्पनियों ने पहले से ही समेट रखा है। आजादी के कुछ वर्षो बाद तक अपने गांवों की स्वतंत्र अर्थव्यवस्था थी। सुनार, लोहार- बढ़ई, ठठेर, पटवा, धोबी-नाई सबके पारंपरिक धंधे होते थे। कृषि उत्पादों के विनमय के साथ लेन-देन होता था, किसान का काम भी मजे से चलता था और गांव के पारंपरिक उद्योग धंधे भी। सभी परस्पर एक-दूसरे से सामाजिक-आर्थिक रिश्तों की डोर से बंधे हुए थे। आज सुनारी का धंधा तनिष्क जैसी दजर्नों ब्रांडेड ज्वेलरी की कम्पनियों ने छीन लिया। लोहारी के काम में टाटा िजन्दल जैसी कम्पनियां आ गईं। कांसे और पीतल के बर्तन इतिहास हो गए। नाई के धंधे को ब्यूटी पार्लर और मेंस पार्लर चलाने वाली बीएलसीसी जैसे चैन आउटलेट्स ने हजम करना शुरू कर दिया। क्या आप जानते हैं कि देश के मुर्गा-अंडा बाजार का कब्जा तीन कुलीन घरानों के पास है? जी हां जबलपुर के विश्वनाथ दुबे की फीनिक्स पोल्ट्री, पुणो के देशपाण्डे घराना और हैदराबाद का रेड्डी घराना देश की अंडा-मुर्गे की मांग का आधे से अधिक आपूर्ति करता है। देश के सबसे बड़े आधुनिक स्वीपर बिन्देश्वरी पाठक हैं, जिनके सुलभ इन्टरनेशनल ने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अजिर्त की है। सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी आ रहा पारंपरिक कारीगरी और धंधे का हुनर बड़े औद्योगिक घरानों ने उसी तरह आहिस्ता-आहिस्ता छीना, जिस तरह ठंडे पानी में तैरता मेढ़क मंद आंच में पक जाता है उछलकर बाहर नहीं आ-पाता। खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का असर ऐसे ही धीरे-धीरे दिखेगा। फौरी तौर पर तो यह अच्छा लगता है कि किसानों का उत्पाद सीधे रिटेल मार्केट में जाएगा और बिचौलियों की जेब में जाने वाला पैसा किसानों और उपभोक्ताओं के मुनाफे व राहत में बंटेगा। पर उस दिन क्या होगा जब किसानों को विदेशी रिटेल मार्केट की शर्त पर उनकी थोपी गई गुणवत्ता के अनुरूप उत्पाद बेचने के लिए बाध्य किया जाएगा? तब तो कोई विकल्प नहीं होगा सिवाय इसके कि वह खेती रिटेल मार्केट के खिलाड़ियों को सौंप दे फिर उसका सुपरवाइजर और फिर मजदूर बन जाए। गांधी ने ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना की थी। मैनचेस्टर की मिलों के मुकाबले खादी और चरखे को खड़ा किया। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सशक्तीकरण का प्रतीकात्मक आंदोलन था। स्वतंत्रता संग्राम में सेनानियों की वस्त्र व अस्त्र रही खादी और चरखे को आजादी मिलने के साथ ही भुला दिया। गांधी की कल्पना थी गांव स्वतंत्र आर्थिक इकाई बनकर उभरें, इसके उलट नेहरू को भारत का भविष्य शहरों की चमक में दिखा। कुटीर और परम्परागत उद्योगों के मुकाबले भारी उद्योग और सोवियत का इकॉनामी मॉडल। आरक्षण-सब्सिडी और वजीफे की नीतियों ने आम आदमी को स्वावलंबी बनाने की बजाय परजीवी बना दिया। सरकार ने इतनी उम्मीदें जगा दीं कि मोहल्ले में हैजा फैल जाए पर गंदगी मुनिस्पलटी ही उठाएगी। आरक्षण राजनीति में तुरप का इक्का बन गया। पारंपरिक उद्योग धंधों व कारीगरों में मूल्यवर्धित कला कौशल विकसित करने की बजाय सरकारी नौकरियों के सब्जबाग दिखाए। सबको नौकरी मिलना असंभव और पुराने उद्योग धंधे भी हाथ से गए। एनडीए सरकार में एससी एसटी कमीशन के अध्यक्ष प्रो. सूरजभान ने एक बार कहा था देश में परती पड़ी सरकारी भूमि को अनुसूचित जाति- जनजाति के परिवारों के बीच बांट दीजिए और आरक्षण, वजीफा, सब्सिडी सब वापस ले लीजिए। पांच साल के भीतर ये सब परिवार अपने पांवों पर खड़े हो जाएंगे। यही बात एकता परिषद के ओ. राजगोपाल कर रहे हैं। पर सरकार की संरक्षित भूमि कारपोरेट उद्योगों, सेज, मॉल्स के लिए हैं। जब इसके लिए किसानों को ही भूमिहीन बनाया जा रहा है तो भूमिहीनों को जमीन देने की क्या गरज पड़ी। सरकार की नीतियां साजिशन दो वर्ग पैदा कर रही हैं। मजदूर-मालिक, शोषित-शोषक, भारत-इन्डिया। पार्लियामेंट में बहस और वोटिंग तो सिर्फ राजनीतिक कर्मकाण्ड है। एनडीए भी होती तो वह भी एफडीआई लाती। भूमिका तो उसी ने तैयार की थी। पूंजी जुटाने के लिए सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने वाला एक भरा पूरा मंत्रालय ही गठित किया था िवनिवेश मंत्रालय। कम्युनिस्टी जरूर इसके खिलाफ होंगे। जाहिर बात है कि अमेरिका आज भी उनके लिए पूंजीवाद का प्रतीक है। यदि रिटेल मार्केट में चीन के निवेश की पहल होती तो कम्युनिस्टी क्या करते.? यह भी जानना दिलचस्प होगा। थियानमन चौक पर छात्रों के संहार का समर्थन करने वाले हमारे कामरेड अमेरिका और चीन को लेकर अभी भी दो राहे पर हैं। विदेशी रिटेल मार्केट हमारे खोमचों की कमर जब तोड़ेगा तब, पर चीन के सस्ते उत्पाद तो देशी बाजार की सूरत कबके बिगाड़ चुके हैं। दीवाली के दिये और होली की पिचकारी सब कुछ चीन निर्मित। हमारे बाजार में चीन का दखल भी उतना ही असरकारक होगा जितना कि अमेरिका का। बहरहाल आज हमारी अर्थव्यवस्था जिस पटरी पर चल पड़ी है उसका अगला स्टेशन एफडीआई ही है। 1992 में जब देश ..अंग्रेजो भारत छोड़ो.. आंदोलन की अर्धशताब्दी मना रहा था तब बतौर वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ..अंग्रेजो भारत आओ.. की पटकथा लिख रहे थे बीस साल बाद उस पटकथा की परिणति एफडीआई को संसद में बहुमत से मिली स्वीकृति के रूप में हुई। ईस्ट इन्डिया कम्पनी के जहाज ने कलकत्ते के बंदरगाह में लंगर डालने के बाद व्यापार तब तक नहीं शुरू किया था, जब तक कि देशी राजाओं व नवाबों को घूंस देकर पटा नहीं लिया। जिस तरह तब के राजा और नवाब ईस्ट इंडिया के गुन गाते थे, उसी तरह आज के वे नेता और नौकरशाह वॉलमार्ट के गाते हैं। वॉलमार्ट ईस्ट इन्डिया कम्पनी का नया रूप धरकर सामने आ रहा है, अब दो ही विकल्प हैं या तो इसका स्वागत करें या डंडे खाएं..। लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208 |
Sunday, December 9, 2012
अंग्रेजो भारत आओ!
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alekh
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