चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर अपना भारत एक अमीर देश है। समूचा विश्व यहां उद्योग लगाने एवं व्यापार करने के लिए उतावला है। जहां गरीब लोग रहते हैं। प्रतिवर्ष बढ़ती गरीबी रेखा यहां चिंता का विषय नहीं है, देश इस बात पर गर्वित है कि विश्व के प्रमुख दस धनकुबेरों में भारतीय भी हैं। जिस देश की आबादी का बहुत बड़ा प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे खड़ा हो, उस देश के नेताओं का अरबों रुपया विदेशी बैंकों में जमा हो। गरीबी से निजात पाने पर बहसें न हों, बेरोजगारी भत्ता जैसी निष्क्रिय बनाने एवं मनरेगा जैसी निठल्ली योजना और मुफ्त भोजन देने की बातें, किस तरह से परजीवी नागरिक बनाकर सबसे बड़े लोकतंत्र का ढोल पीट रही हैं? कौन कहे? कर्ज से डूबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं, आदिवासियों की पुश्तैनी जमीन छीनकर कंक्रीट के जंगल खड़े हो रहे हैं, और किसान मजदूर भुखमरी का प्रतिशत बढ़ा रहे हैं। लोकतंत्र को पूंजीतंत्र रूपांतरित होने की यह अद्भुत कहानी है। किसान की खेती योग्य जमीन का भी क्या कोई मुआवजा हो सकता है? जिस जमीन पर उनके अतीत के महल खड़े हैं, उन्हें न चाहते हुए भी बेचना पड़ता है क्योंकि पत्थर से मजबूत सिर नहीं होता। जमीन तो सरकार की है, किसान तो मात्र लगान देता है, वह भी बहुत कम। भुखमरी से मरने वाले लोग शहरी नहीं ग्रामीण हैं। अकाल, बाढ़- बूड़ा में मरने वाले ग्रामीण होते हैं। वे ग्रामीण ही हैं जो शहरों के किसी किनारे में रहते हुए शहर को गंदा कर रहे हैं, वे ही सर्दी और गर्मी में भी मरते हैं।
आज तक किसी डॉक्टर की ऐसी रिपोर्ट नहीं आई कि कोई भूख से मरा है। भूखा, भूख से व्याकुल होकर कुछ अखाद्य खा लेता है और डॉक्टर कुपोषण को दोष देते हैं। जब भूखे का पोषण ही पर्याप्त नहीं है फिर कुपोषण कैसा? भूख से मृत्यु संस्कार की बदनामी है। वह कब तक इस मुगालते में रहेगी कि वह विश्व की छठी बड़ी ताकत है। जिस व्यक्ति का आधा शरीर लकवाग्रस्त हो, वह भी ताकतवर हो सकता है, कौन जाने? अंग्रेजों के जमाने में भूख से मरने वालों की संख्या इतिहास में दर्ज है। बंगाल का अकाल, अट्ठासी का अकाल तो मुहावरों में दर्ज है। वैसे भी हमारे ऋषियों ने भूख दबाने के अभ्यास की शिक्षा आर्ष ग्रंथों में खूब दी है। उपवास हमारी साधना का अंग है। इससे आत्मा को संतुष्टि मिलती है और परमात्मा खुश होते हैं। "कृषक मेघ की रानी दिल्ली" आज यथार्थ है। अदम गोंडवी ने देश की स्थिति देखी है, वे आंकड़ों के कवि नहीं- "लगी है होड़ सी देखो, अमीरी औ गरीबी में। ये पूंजीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है। तुम्हारी मेज चांदी की, तुम्हारे जाम सोने के। यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है।" शहर की गरीबी नापी गई तो आंकड़ा बत्तीस पर रुका। यदि आप शहर में रहते हैं और बत्तीस रुपये रोज कमाते हैं। गांव में रहकर छब्बीस रुपये रोज पाते हैं तो आप गरीब नहीं हैं। कितनी हास्यास्पद स्थिति है यह? प्रकृति ने भारत को अकूत सम्पदा दी है। परंतु उसका दोहन और वितरण हम ठीक से नहीं कर सके। नदी के पानी का समुचित उपयोग न करके उसके अमृत जल को प्रदूषित कर दिया।
कहने को नदियों को मां कहते रहे लेकिन उसके साथ मां जैसा व्यवहार नहीं किया। धरती के लौह अयस्क का सारा कच्चा माल लगभग मुफ्त में दे दिया और हजार गुने मंहगे दाम पर खरीदने को विवश हैं। गरीब की नमक रोटी को टाटा जैसी कम्पनियों को बेचकर गांधी के नमक सत्याग्रह का मजाक उड़ा रहे हैं। आखिर क्या जरूरत थी कि एक रुपये की लागत का नमक बीस रुपये के रैपर की ब्रांड में बिके। सार्वजनिक वितरण प्रणाली का ढिंढोरा पीटने वालों ने गांवों में जाकर क्या कभी मानीटरिंग की, कि गरीबी रेखा और अति गरीबी रेखा के नीचे जिनका नाम है। क्या वे वाकई पात्र हैं। गरीबी रेखा में नाम लिखाने की भीड़ में अच्छे खासे खाते पीते लोग हैं। गरीबी शर्म की नहीं गर्व का मानक बन गई है। सरकारी योजनाओं का लाभ वास्तविक व्यक्ति तक पहुंच रहा है कि नहीं, इसकी जांच के लिए कोई ईमानदार कोशिश नहीं हो रही है। सच तो यह है कि आज हर अमीर दिल से गरीब है जबकि गरीब का दिल अमीर है, उसके अंदर संवेदना के भाव हैं। दूसरे के हक को हड़पने का भाव उसमें नहीं है। विश्व में सबसे श्रेष्ठ लोहा, कोयला हमारे पास है। सबसे सुन्दर बारहों महीने फसल देने वाले खेत हमारे पास हैं। इस विडम्बना पूर्ण स्थिति पर हमारे कर्णधारों को शर्म नहीं आती, इन पर बहसें नहीं होतीं। सांसद होने पर, भारतीय होने पर नेताओं को किंचित शर्म आने लगी है। किसानों के खेत देशी और विदेशी उद्योगपतियों ने खरीद लिए। नौकरी के लालीपाप ने धरती माता की संज्ञा छीन ली।
पुरखों की जमीन से विस्थापित होकर वह अपने जमीर की जमीन तलाश रहा है। कॉरपोरेटों की सुरक्षा में सरकार लगी हैं। अन्नदाता अन्न नहीं उपजा रहा है। नए सामंत तैयार हो रहे हैं। पुराने किसान का अनाज माटी के भाव जाता है, अब वही अनाज ब्रांड बनकर किसान के लिए मुहाल हो जाएगा। इसी देश में कभी ऐसा भी होता था कि राजा रात को भेष बदलकर जनता का सुख दुख जानने के लिए निकलता था। सुबह समस्याओं का निदान करता था। राजा की छोटी इकाई सरपंच हर गांव में है, परंतु उनको अपने अलावा किसी की चिन्ता नहीं। सरकारी कर्मचारी, सरपंच और मंत्रियों ने आपस में ऐसी साठ-गांठ कर ली है कि (गंदगी) ढूंढ़ते रह जाओगे। विकास का वह दौर कब आएगा जब बिना किसान की स्वीकृति के कोई सरकार उसकी जमीन पर कंक्रीट के महल खड़ा नहीं कर सकेगी और उसकी जमीन पर लगने वाले उद्योग में उसका एक निश्चित प्रतिशत तय होगा। किसान मजदूर बेरोजगार है। कृषि प्रधान देश का मुहावरा किसानों को चिढ़ाने के लिए बना एक जीवंत और शाश्वत व्यंग्य है। किसानों और मजदूरों की यही नियति है। इस व्यवस्था में न्याय और अदालत भी उसी के साथ है जिसके पास पैसा है। धन आधारित इस विकास के युग में सेवा, त्याग, बलिदान आदि मानवीय गुण अपना अर्थ बदल चुके हैं। सेवा-शासन और प्रशासन की, त्याग-तुम्हारा कुछ भी नहीं, बलिदान याने राजा बलि को छलिये बावन ने तीन पग में सब कुछ तो नाप ही लिया, बलि की देह भी नाप ली। संभवत: पुराणों में यह अप्रतिम दान था। ऐसा ही दान, किसानों को भी अपने प्रभुओं को देना होगा। कर्ज माफी, मुफ्त बिजली, लैपटाप, मोबाइल जैसे प्रलोभन देकर सरकारें कब तक गरीबी का मजाक उड़ाएंगी।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
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