ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंकने से सिर्फ लहरें भर ही नहीं उठतीं, अपितु तलछट में जमी गंदगी भी उतराने लगती है। इन दिनों लोकतंत्र के भव सागर में पत्थरबाजी का दौर चल रहा है। कभी व्यवस्थापिका तो कभी कार्यपालिका और गाहे-बगाहे न्यायपालिका की गंदगी और सड़ांध को देश देखने व सूंघने के लिए अभिशप्त है। इन दिनों इन बजबजाहटों का बखान करने वाले मीडिया की गंदगी ऊपर तैर रही है। जी न्यूज के दो दिग्गज संपादक हिरासत में हैं। आरोप है कि जिन्दल समूह को कोयला घोटाले की खबर को लेकर ब्लैकमेल व भयादोहन किया। सौ करोड़ की रकम मांगी। कारपोरेट मीडिया का यह नया रंग है। अब तक खबर छापने या दिखाने के एवज में धन की मांग के आरोप लगते थे। इस बार खबर न दिखाने के लिए धन की मांग की गई। स्टिंग करके दूसरों को चौराहे पर नंगा करने वाले खुद स्टिंग के शिकार हो गए, यानी कि शिकारी खुद यहां शिकार हो गया।पूरे देश में मीडिया के इस चरित्र को लेकर चर्चा है। कारपोरेट मीडिया में सन्नाटा है। सोशल मीडिया मुखर है। देश असलियत जानना चाहता है। असलियत जानने के लिए कई बुनियादी बातों को समझना होगा। इन बुनियादी बातों में जानना होगा कि मीडिया का कारपोरेट के रूप में कैसे कायान्तरण हो गया और जब यह कारपोरेट का झण्डा और बाना संभाल ही चुकी है तो इसमें प्रेस के मूल तत्व कितना बचे हैं। और जब पत्रकारिता विशुद्ध रूप से धंधे में तब्दील हो चुकी है तो प्रेस की आजादी यानी कि अभिव्यक्ति एवं स्वतंत्रता को ये किस हद तक ढाल बना सकते हैं। ये सब चीजें ऊन के गोले की भांति उलझ चुकी हैं। पत्रकारिता का छात्र होने के नाते मीडिया के इस नए रूप को समझने व समझने का काम बड़ा दुष्कर सा लगने लगा है।
दरअसल, देश के भारत और इन्डिया के बीच विभाजित हो जाने का असर सभी क्षेत्रों में पड़ा है। मीडिया में भी उतना ही जितना कि अर्थव्यवस्था और राजनीति में। कारपोरेट मीडिया वस्तुत: इन्डिया का प्रवक्ता है और अपने रसूख तथा चमक-दमक के दम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को घर की दासी मानता है। भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली पत्रकारिता अभी भी उन मूल्यों को लेकर चलने की कोशिश कर रही है जिससे 'प्रेस जैसी संस्था' की साख बनी थी। प्रकाशन व प्रसारण का व्यवसाय बड़े औद्योगिक घरानों के कब्जे में जाने के बाद व सोशल मीडिया संजीवनी बनकर अवतरित हुआ है। आजादी के पहले तक मिशन और उसके बाद प्रोफेशन बनने के बाद 'प्रेस' में जब से बड़े घरानों का वर्चस्व बना, तब से सामाजिक सरोकार तेजी से सिकुड़ते गए और मीडिया कारपोरेट वॉर का अस्त्र बनता गया। इसकी शुरुआत करने का श्रेय इन्डियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका को जाता है। अस्सी के दशक में नुस्ली वाडिया और धीरूभाई अम्बानी के विवाद में एक्सप्रेस समूह ने अम्बानी घराने के खिलाफ लम्बा अभियान चलाकर कारपोरेट जगत को मीडिया के बेजा इस्तेमाल का प्रादर्श प्रस्तुत किया। धीरे-धीरे 'मीडिया' प्रेस के रूप में सामाजिक सरोकारों को धता बताते हुए कब अपने शाब्दिक अर्थ 'दलाल' के रूप में कायांतरित हो गया, यह तब पता चला जब टू-जी स्पेक्ट्रम मामले में कारपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया का टेप जगजाहिर हुआ। इस टेप में बरखा दत्त (एनडीटीवी की वही महिला जांबाज पत्रकार जो कारगिल युद्ध को कवर करके चर्चित हुई थी) और वीर सिंघवी (हिन्दुस्तान टाइम्स के युवा तुर्क सम्पादक व भ्रष्टाचार पर वीर के तीर चलाने वाले) की असलियत सामने आई कि किस तरह मीडिया सत्ता के गलियारों में कारपोरेट जगत की दलाली करती है और देशहित को ताक पर रखकर सत्ता के फैसलों को प्रभावित करती है। कामनवेल्थ के घोटाले का पर्दाफाश टाइम्स आफ इन्डिया ने किया। यह भी सही है कि इस बड़े आयोजन में औने-पौने के सौदे में करोड़ों और अरबों रुपयों का गबन हुआ। लेकिन इसके पीछे की गाथा भी कम दिलचस्प नहीं थी। दिल्ली के एक वरिष्ठ व प्रतिष्ठित पत्रकार ने एक हिन्दी पत्रिका में तथ्यों व सबूतों के साथ खुलासा किया कि टाइम्स आफ इन्डिया की इवेन्ट कम्पनी भी कई ठेकों की दावेदार थी, उसे जब ठेके हासिल नहीं हुए तो कामनवेल्थ का घोटाला सामने आ गया।
अभी कुछ महीनों पहले जब पूर्व सेनाध्यक्ष वीके सिंह और सरकार के बीच विवाद चरम पर था तब इन्डियन एक्सप्रेस के सीईओ कम संपादक शेखर गुप्ता ने एक स्टोरी ब्रेक की कि भारतीय फौज ने दिल्ली पर कब्जा करने के लिए कूच कर दिया था। बाद में खबर गलत साबित हुयी। वह एक सैन्य अभ्यास का हिस्सा था। बाद में कहीं पढ़ने को मिला सैन्य साजोसामान की सौदेबाजी के लिए दबाव बनाने हेतु यह खबर जारी की गई क्योंकि वीके सिंह सौदे के लिए राजी नहीं थे और यह खबर वक्त से पहले उन्हें रिटायर्ड करने पर मददगार साबित हो सकती थी। कारपोरेट के हित साधने के लिए मीडिया का यह खेल सिर्फ दिल्ली भर में ही नहीं प्रदेश की राजधानियों में भी गाहे-बगाहे चलता है। प्रदेश में जब शिवराज सिंह की मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी हुई उसी दिन दिल्ली में गोविन्दाचार्य ने एक प्रेस कान्फ्रेंस करके इस बात का खुलासा किया कि प्रदेश के एक बड़े मीडिया घराने का उमा भारती से हित न सध पाने की वजह से यह प्रपंच रचा गया।
दरअसल जब हम प्रेस या मीडिया की बात करते हैं तो उसकी पृष्ठिभूमि में बाबू विष्णुराव पराड़कर, तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी या शिशिर घोष, तुषारकांति घोष जैसे पत्रकारों व इनके अखबारों की छवि होती है। दुर्भाग्य से हम धंधा बन चुके मीडिया को अभी भी धंधे से इतर देखने की कोशिश करते हैं। आज मुख्य धारा के मीडिया पर ऐसे उद्योगपतियों का कब्जा है जिन्हें चैनल चलाने या अखबार निकालने के अलावा, सीमेंट-स्टील-पॉवर प्रोजक्ट, रीयल स्टेट के भी धंधे चलाने हैं, अखबार या चैनल तो प्रभु वर्ग तक पहुंचने के लिए विजिटिंग कार्ड हैं और जरूरत पड़े तो प्रतिद्वंद्वियों और धंधे के आड़े आने वाले लोगों को सबक सिखाने का औजार। पण्डित नेहरू ने भारत में मीडिया के भविष्य को पहले ही आंक लिया था, तभी तो जब 60 के दशक में निखिल चक्रवर्ती और कुलदीप नैयर जैसे पत्रकारों के प्रतिनिधि मण्डल ने उनसे भारत में प्रेस की स्वतंत्रता (संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ही प्रेस की स्वतंत्रता को मान लिया गया है।) के संदर्भ में अमेरिका की तरह विशेषाधिकार (अमेरिका में प्रेस की स्वतंत्रता अलग से परिभाषित है) दिये जाने की मांग की तो उन्होंने प्रतिप्रश्न किया कि इस स्वतंत्रता का उपभोग आप लोग करेंगे या आपके अखबारों के मालिक यह तय करके बताइयेगा? नेहरू के बाद से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक दुबारा कोई ऐसा प्रतिनिधि मण्डल नहीं गया प्रेस की स्वतंत्रता की अलग से मांग करने क्योंकि वास्तविकता सभी को मालुम है।
लेखक दैनिक स्टार समाचार के सम्पादक एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं.
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